गोरा / रवीन्द्रनाथ ठाकुर / पृष्ठ १०

Gadya Kosh से
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पोर्च की छत जो कि ऊपर की मंजिल का बरामदा था, उस पर सफेद कपड़े से ढँकी मेज़ के आस-पास कुर्सियाँ लगी हुई थीं। मुँडरे के बाहर कार्निस पर छोटे-छोटे गमलों में सदाचार और दूसरे किस्म के फूलों के पौधे लगे हुए थे। मुँडेर पर से नीचे सड़क के किनारे के सिरिस और कृष्णचूड़ा के पेड़ों के पत्ते बरसात से धुलकर चिकने दीख रहे थे।

सूर्य अभी अस्त नहीं हुआ था, पश्चिम से ढलती धूप की किरणें छत के एक हिस्से में पड़ रही थीं। वहाँ पर उस समय कोई नहीं था। थोड़ी देर बाद ही सतीश सफेद और काले बालों वाले कुत्ते को लिए हुए आ पहुँचा। कुत्ते का नमा खुद्दे था। जो कुछ कुत्ते को आता था सतीश ने विनय को सब दिखाया- एक पैर उठाकर सलाम करना, फिर सिर ज़मीन पर टेककर प्रणाम करना, बिस्कुट का टुकड़ा देखकर पूँछ पर बैठ, अगले पैर जोड़कर भीख माँगना। इसके लिए खुद्दे को जो कुछ प्रशंसा मिली, सतीश ने उसे चाहे अपनी समझकर गर्व का अनुभव किया- पर स्वयं कुत्ते की ओर से ऐसा यश का कोई उत्साह नहीं था, बल्कि उसकी समझ में तो उस यश की अपेक्षा बिस्कुट का टुकड़ा ही अधिक उपयोगी था!

बीच-बीच में किसी दूसरे कमरे से लड़कियों की खिलखिलाहट और अचम्भे की आवाज़ें और उनके साथ एक मर्दानी आवाज़ भी सुनाई पड़ जाती थी। इस खुले हँसी-मज़ाक के वार्तालाप से विनय के मन में एक अपूर्व मिठास के साथ-साथ जैसे एक ईष्या की टीस-सी पैदा हुई। घर के भीतर लड़कियों की ऐसी आनंद-भरी हँसी, युवा होने के समय से उसने कभी नहीं सुनी। यह आनंद-लहरी उसके इतनी निकट प्रवाहित हो रही है, फिर भी वह उससे इतनी दूर है। सतीश उसके कान के निकट क्या कुछ बोलता ही चला जा रहा था, विनय उसकी ओर ध्याहन नहीं दे सका।

परेशबाबू की स्त्री अपनी तीनों लड़कियों को साथ लेकर आ गईं। उनके साथ एक युवक भी आया, उसका उनसे दूर का रिश्ता है।

परेशबाबू की स्त्री का नाम वरदासुंदरी है। उनकी उम्र कम नहीं है, किंतु समय तक गाँव-देहात की लड़की की तरह रहकर उन्हें सहसा एक दिन आधुनिक युग के साथ-साथ उसकी गति से चलने की धुन चढ़ गई थी। इसीलिए उनकी रेशमी साड़ी कुछ अधिक लहराती थी और उनके ऊँची एड़ी के जूते कुछ ज्यादा ही खट्-खट् करते थे। दुनिया में कौन-सी बातें ब्रह्म हैं और कौन-सी अब्रह्म, इसकी पड़ताल में वे हमेशा बहुत सतर्क रहती हैं। इसीलिए उन्होंने राधारानी का नाम बदलकर सुचरिता रख दिया है। रिश्ते में उनके ससुर लगने वाले एक सज्जन ने बरसों बाद अपनी परदेश की नौकरी से लौटने पर उनके लिए 'लमाईषष्टि' भेजी थी; परेशबाबू उस समय किसी काम से बाहर गए हुए थे; वरदासुंदरी ने उपहार में आई सभी चीजें वापस भेज दी थीं। उनकी राय में ये सब कुसंस्कार और मूर्ति पूजा के अंग थे। लड़कियों के पैरों में मोज़ा पहनने, और ओपी पहनकर बाहर निकलने को भी वह मानो ब्रह्म.... समाज के धर्म सिध्दांत का अंग मानती हों। किसी ब्रह्म-परिवार को ज़मीन पर आसन बिछाकर भोजन करते देख उन्होने यह आशंका प्रकट की थी कि आजकल ब्रह्म-समाज फिर से मूर्ति-पूजा की ओर फिसलने लगा है।

उनकी बड़ी लड़की का नाम लावण्य है। गोल-मटोल और हँसमुख, उसे लोगों से मिलना-जुलना और गप्पें लड़ाना अच्छा लगता है। गोल चेहरा, बड़ी-बड़ी ऑंखें, गेहुऑं रंग; पहनावे के मामले में वह स्वभाव से ही लापरवाह है, किंतु इस बारे में उसे माँ के निर्देश के अनुसार चलना होता है। उसे ऊँची एड़ी के जूतों से तकलीफ होती है, लेकिन पहने बिना चारा नहीं हैं। शाम को साजसँवार के समय अपने हाथों से माँ उसके चेहरे पर पाउडर और गालों पर सुर्खी लगा देती है। वह कुछ मोटी है, इसलिए वरदासुंदरी ने उसके कपड़े ऐसे चुस्त सिलवाए हैं कि जब लावण्य सजकर बाहर निकलती है तब जान पड़ता है मानो उसे ठूँस-दबाकर ऊपर से कपड़ा सिल दिया गया हो।

मँझली लड़की का नाम ललिता है। कहा जा सकता है कि वह बड़ी से ठीक उलटी है। लंबाई में बड़ी बहन से ऊँची, दुबली, रंग कुछ अधिक साँवला; बातचीत अधिक नहीं करती और अपने ढंग से रहती है; मन होने पर कटु-कटु बातें भी सुना करती है। वरदासुंदरी मन-ही-मन उससे डरती हैं, सहसा उसे नाराज़ कर देने का साहस नहीं करती।


लीला छोटी है। उसकी उम्र करीबन दस बरस होगी। वह दौड़-धूप और दंगा करने में तेज़ है; सतीश के साथ उसकी धक्का-मुक्की और मार-पीट बराबर चलती रहती है। विशेषतया घर के कुत्ते खुद्दे का मालिक कौन है, इसको लेकर उनका जो प्राचीन झगड़ा चला आता है, उसका अभी तक कोई निर्णय नहीं हो सका। कुत्ते की अपनी राय लेन से शायद वह दोनों में से किसी को भी अपना मालिक न चुनता,किंतु फिर भी इन दोनों में से उसका झुकाव सतीश की ओर ही कुछ अधिक है, क्योंकि लीला के प्यार का दबाव सहना उस बेचारे छोटे-से जीव के लिए सहज नहीं। लीला के प्यार की अपेक्षा सतीश का अत्याचार सहना उसके लिए कम मुश्किल था।

विनय ने वरदासुंदरी के आते ही उठकर शीश झुकाकर उन्हें प्रणाम किया। परेशबाबू ने कहा, “इन्हीं के घर उस दिन हम”.... वरदासुंदरी बोलीं, “ओह! बड़ा उपकार किया आपने.... हम आपके बड़े आभारी हैं”

विनय ऐसा संकुचित हुआ कि ठीक से कुछ उत्तर नहीं दे सका।

जो युवक लड़कियों के साथ आया था उसके साथ भी विनय का परिचय हुआ। उसका नाम सुधीर है; कॉलज में बी.ए. में पढ़ता है। सुंदर चेहरा, गोरा रंग, ऑंखों पर चश्मा और मूँछों की हल्की-सी रेख। स्वभाव बड़ा चंचल है- ज़रा देर भी चुपचाप बैठा नहीं रह सकता, कुछ-न-कुछ करेन के लिए उतावला हो उठता है। लड़कियों से हँसी-मज़ाक करके, या उन्हें चिढ़ाकर उनको परेशान किए रहता है। लड़कियाँ भी मानो उसे बराबर डाँटती ही रहती हैं, किंतु साथ ही सुधीर के बिना जैसे उनका समय ही नहीं कटता। सर्कस दिखाने या चिड़ियाघर की सैर कराने को, या शौक की कोई चीज़ खरीदकर लाने को सुधीर हमेशा तैयार होता है। सुधीर का लड़कियों के साथ बेझिझक अपनेपन का बर्ताव विनय को बिल्कुल नया और विस्मयकारी जान पड़ा। उसने मन-ही-मन पहले तो ऐसे बर्ताव की निंदा की, किंतु फिर उस निंदा के साथ थोड़ा-थोड़ा ईष्या का पुट भी मिश्रित होने लगा।

वरदासुंदरी ने कहा, “जान पड़ता है आपको कहीं दो-एक बार देखा है।”

विनय को लगा, जैसे उसका कोई अपराध पकड़ा गया है। अनावश्यक रूप से लज्जित होता हुआ वह बोला, “हाँ, कभी-कभी केशव बाबू के व्याख्यान सुनने चला जाता हूँ।”

वरदासुंदरी ने पूछा, “आप शायद कॉलेज में पढ़ते हैं?”

“नहीं, अब तो नहीं पढ़ता।”

वरदा ने पूछा, “कॉलेज में कहाँ तक पढ़े हैं?”

विनय बोला, “ एम.ए. पास किया है।”

यह सुनकर बच्चो-जैसे चेहरे वाले युवक के प्रति वरदासुंदरी को मानो ममता हुई। परेशबाबू की ओर उन्मुख हो लंबी साँस लकर उन्होंने कहा, “हमारा मनू अगर होता तो वह भी अब तक एम.ए. पास कर चुका होता।”

वरदा की प्रथम संतान मनोरंजन की मृत्यु नौ वर्ष की आयु में ही हो गई थी। जब भी वह सुनती हैं कि किसी युवक ने कोई बड़ी परीक्षा पास की है या बड़ा पद पाया है, कोई अच्छी किताब लिखी है या कोई अच्छा काम किया है, तभी उन्हें यह ध्या न आता- मनू बचा रहता तो उसके द्वारा भी ठीक वैसा ही कार्य संपन्न हुआ होता। जो हो, अब जबकि वह नहीं है तो आज के जन-समाज में अपनी तीनों कन्याओं का गुण-गान ही वरदासुंदरी का विशेष कार्य हो गया। उनकी लड़कियाँ पढ़ने में बहुत तेज़ हैं, यह बात वरदा ने विशेष रूप से विनय को बताई। मेम ने उनकी लड़कियों की बुध्दि और गुणों के बारे में कब-कब क्या कहा, यह भी विनय से अनजाना न रहा। लड़कियों को स्कूल में पुरस्कार देने के लिए जब लेफ्टिनेंट-गवर्नर और उनकी मेम आइ थीं, तब उन्हें गुलदस्ते में भेंट करेन के लिए स्कूल की सब लड़कियों में से केवल लावण्य को ही चुना गया था; और गर्वनर की स्त्री ने लावण्य को उत्साह देने के लिए जो मीठा वाक्य कहा था, वह भी विनय ने सुन लिया।

अंत में वरदा ने लावण्य से कहा, “जिस सिलाई के लिए तुम्हें पुरस्कार मिला था, ज़रा वह ले तो आना, बेटी!”

ऊन से कपड़े पर सिलाई की हुई एक तोते की आकृति इस घर के सभी आत्मीय परिजनों में विख्यात हो चुकी थी। यह मेम की सहायता से लावण्य ने बहुत दिन पहले बनाई थी, इसमें लावण्य का अपना करतब बहुत अधिक रहा हो यह बात नहीं थी। किंतु नए परिचित को यह दिखाना ही होगा, यह मानी हुई बात थी शुरु-शुरु में परेशबाबू आपत्ति करते थे, किंतु उसे बिल्कुंल बेकार जानकर अब उन्होंने भी आपत्ति करना छोड़ दिया है। ऊन के तोते की रचना की कारीगरी को विनय चकित ऑंखो से देख रहा था, तभी बैरे ने आकर एक चिट्ठी परेशबाबू के हाथ में दी।