गोरा / रवीन्द्रनाथ ठाकुर / पृष्ठ ९
बाहर सड़क पर आकर घर लौटने का कोई, कारण विनय को नहीं जान पड़ा। वहाँ कोई काम नहीं था। विनय अख़बारों में लिखता है; उसके अंग्रेज़ी लेखों की सभी बड़ी तारीफ करते हैं। किंतु पिछले कई दिन से लिखने बैठने पर उसके दिमाग़ में कुछ आता ही नहीं। मेज़ के सामने अधिक बैठै रहना मुश्किल होता है; मन भटकने लगता है। इसलिए आज विनय बिना कारण ही उल्टी दिशा में चल पड़ा।
दो कदम भी नहीं गया होगा कि उसे एक बाल-कंठ की पुकार सुनाई दी, “विनय बाबू, विनय बाबू!”
मुँह उठाकर उसने देखा, एक घोड़ा-गाड़ी के दरावाजे से झाँककर सतीश उसे पुकार रहा है। गाड़ी के भीतर साड़ी का पल्ला और सफेद आस्तीन का अंश देखकर विनय को यह पहचानने में कोई कठिनाई नहीं हुई कि दूसरा व्यक्ति कौन है।
बंगाल शिष्टाचार के अनुसार गाड़ी की ओर और देर झाँकना विनय के लिए असंभव था। पर इसी बीच सतीश गाड़ी से उतरकर उसके पास आ गया और उसका हाथ पकड़ता हुआ बोला, “चलिए हमारे घर!”
विनय ने कहा, “अभी तुम्हारे घर से ही तो आ रहा हूँ।”
सतीश- “वाह, तब हम लोग तो नहीं थे। फिर चलिए!”
विनय सतीश के आग्रह को टाल न सका। कैदी को लिए हुए घर में प्रवेश करता हुआ सतीश पुकारकर बोला, “बाबा, विनय बाबू को पकड़ लाया।”
वृध्द बाहर निकलते हुए मुस्कराकर बोले, “अब आप ठीक पकड़ में आ गए हैं, जल्दी छुटकारा नहीं मिलने का। सतीश, अपनी दीदी को तो बुला ला!”
विनय कमरे में आकर बैठ गया। उसकी साँस वेग से चलने लगी। परेशबाबू बोले, “आप हाँफ गए शायद सतीश बड़ा ज़िद्दी लड़का है।”
सतीश जब बहन को साथ लिए हुए कमरे में आया तब विनय ने पहले एक हल्की-सी सुगंध पाई और फिर सुना, परेशबाबू कह रहे थे, “राधो, विनय बाबू आए हैं.... उन्हें तो तुम सब जातने ही हो।”
विनय ने मानो चकित-सा होकर मुँह उठाकर देखा, सुचरिता उसे नमस्कार करके सामने की कुर्सी पर बैठ गई। इस बार विनय प्रति-नमस्कार करना नहीं भूला।
सुचरिता ने कहा “यह चले जा रहे थे, इन्हें देखते ही सतीश को रोकना मुश्किल हो गया- गाड़ी से कूदकर इन्हें खींचकर ले आया। आप शायद किसी काम से जा रहे थे- आपको कोई असुविधा तो नहीं हुई?”
सीधे निनय को संबोधित करके सुचरिता कोई बात कहेगी, ऐसा विनय ने बिल्कुसल नहीं सोचा था। सकपकाकर बोला, “नहीं, मुझे कोई काम नहीं था.... कोई असुविधा नहीं हुई।”
सतीश ने सुचरिता का ऑंचल पकड़कर खींचते हुए कहा, “दीदी, ज़रा चाबी देना तो- अपना वह आर्गन विनय बाबू को दिखाएँ।”
हँसती हुई सुचरिता बोली, “बस, अब रिकार्ड शुरू हुआ! वक्त्यार की किसी से दोस्ती हुई नहीं कि उसकी शामत आई। आर्गन तो उसे सुनना ही होगा.... और भी कई मुसीबतें उसकी किस्मत में लिखी हैं। विनय बाबू, आपका यह दोस्त है तो छोटा, पर इसकी दोस्ती की ज़िम्मेदारी बहुत भारी है। न मालूम आप निभा भी सकेंगे या नहीं?”
सुचरिता की ऐसी निस्संकोच बातचीत में वह भी कैसे सहज रूप से भाग ले सकता है, यह विनय किसी तरह सोच ही नहीं सका। वह शरमाएगा नहीं, इसकी दृढ़ प्रतिज्ञा करके भी किसी तरह टूटे-फूटे स्वर में वह इतना ही कह पाया, “नहीं, वह कुछ नहीं.... आप उसका.... मैं.... मुझे तो अच्छा ही लगता है।” बहन से चाबी लेकर सतीश ने आर्गन निकाला और उसे लेकर आ खड़ा हुआ। चौकोर काँच से मढ़े हुए, तरंगित सागर की तरह रंगे हुए नीले कपड़े पर खिलौना-जहाज़ था; सतीश के चाबी भरते ही आर्गन के सुर-ताल के साथ जहाज़ डगमगाता हुआ चलने लगा। सतीश एक क्षण जहाज़ की ओर और दूसरे क्षण विनय के चेहरे की ओर देखता हुआ अपनी चंचलता को किसी तरह भी छिपा नहीं पा रहा था।
इस प्रकार सतीश के बीच में रहने से धीरे-धीरे विनय का संकोच टूट गया और धीरे-धीरे बीच-बीच में मुँह उठाकर सुचरिता से दो-एक बात कर लेना भी उसके लिए असंभव न रह पाया। बिना प्रसंग के ही सतीश ने सहसा पूछ लिया, “अपने मित्र को एक दिन हमारे यहाँ नहीं लाएँगे?”
इस पर विनय के मित्र के बारे में सवाल पूछे जाने लगे। परेशबाबू हाल ही में कलकत्ता आए हैं, इसलिए वे लोग गोरा के संबंध में कुछ नहीं जानते। विनय अपने मित्र की बात करता हुआ उत्साहित हो उठा। गोरा में कैसी असाधारण प्रतिभा है, उसका हृदय कितना विशाल है, उसकी शक्ति कैसी अटल है, इसका बखान करते हुए मानो विनय की जैसे बात ही खत्म नहीं हो रही थी। गोरा एक दिन सारे भारतवर्ष पर दोपहर के सूरज की तरह चमक उठेगा- विनय को इसमें ज़रा भी शंका नहीं थी।
बात कहते-कहते विनय का चेहरा मानो दमक उठा और उसका सारा संकोच एकाएक क्षीण हो गया। बल्कि गोरा के सिध्दांतों के विषय में परेशबाबू के साथ थोड़ा वाद-विवाद भी हुआ। विनय ने कहा, “गोरा हिंदू-समाज को जो समूचा ऐसे नि:संकोच ग्रहण कर पाता है उसकी वजह यही है कि वह बहुत ऊँचाई से भारतवर्ष को देखता है। उसके लिए भारतवर्ष के छोटे-बड़े सब एक विराट ऐक्य में बँधे हैं, एक बृहत् संगीत माला में घुल-मिलकर संपूर्ण दिखाई देते हैं। वैसे देख पाना हम सबके लिए संभव नहीं है, तभी हम लोग भारतवर्ष के टुकड़े-टुकड़े करके, विदेशी आदर्शों के साथ उनकी तुलना करके भारत के साथ अन्याय ही करते हैं।”
सुचरिता बोली, “आप क्या कहते हैं, कि जाति-भेद अच्छा है?”
बात ऐसे कही गई थी मानो इस बारे में आगे कोई बहस हो ही नहीं सकती। विनय बोला, “जाति-भेद न अच्छा है, न बुरा। यानी कहीं अच्छा है तो कहीं बुरा। यदि पूछा जाय कि हाथ अच्छी चीज़ है कि बुरी, तो मैं कहूँगा, सारे शरीर में मिलाकर देखें तो अच्छी चीज़ है। किंतु यदि पूछें कि उड़ने के लिए अच्छी है या नहीं, तो मैं कहूँ कि नहीं-वैसे ही जैसे मुट्ठी में पकड़ने के लिए डैने अच्छ चीज़ नहीं हैं।”
उत्तेजित होकर सुचरिता ने कहा, “वह सब बात मेरी समझ में नहीं आती। मैं यह पूछती हूँ कि क्या आप जाति-भेद मानते हैं?”
और किसी से बहस होती तो विनय ज़ोर देकर कहता, “हाँ, मानता हूँ।” किंतु आज ज़ोर देकर वह ऐसा नहीं कह सका। यह उसकी भीरुता थी या वास्तव में जाति-भेद मानता हूँ यह बात कहाँ तक जाती है वहाँ तक जाना उसे आज स्वीकार नहीं होता, यह निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता। बहस अधिक न बढ़े, इस विचार से परेशबाबू ने बात बदलते हुए कहा, “राधो, माँ को और बाकी सब लोगों को बुला लाओ तो-इनसे परिचय करा दूँ।”
सुचरिता के उठकर बाहर जाते समय सतीश भी बात करते-करते कूदता हुआ उसके पीछे-पीछे चला गया। कुछ देर बाद ही सुचरिता ने लौटकर कहा, “बाबा, आप सबको माँ ऊपर बरामदे में बुला रही है।”