गोरा / रवीन्द्रनाथ ठाकुर / पृष्ठ ८
इस बात का सतीश ने कोई उत्तर नहीं दिया। लेकिन फिर यह सोचकर कि उसके नए नामकरण से विनय के सामने कहीं उसकी बेइज्जती न हो गई हो, वह बेचैन हो उठा और बोला, “ठीक है, अच्छी बात है-बक्त्यार ख़िलजी ने तो लड़ाई लड़ी थी न? उसने तो बंगाल को जीत लिया था?” हँसकर विनय ने कहा, “पुराने ज़माने में वह लड़ाई लड़ता था, आज-कल लड़ाई की ज़रूरत नहीं रही! अब वह अकेला वक्तृता करता है और बंगाल को जीत भी लेता है।'
बहुत देर तक ऐसी ही बातचीत होती रही। परेशबाबू सबसे कम बोले; केवल बीच में एक शांत मुस्कराहट उनके चेहरे पर खिल जाती, कभी एकाध छोटी-मोटी बात भी वह कह देते। चलते समय कुर्सी से उठते हुए बोले, “हमारा 78 नंबर का मकान यहाँ से सीधे दाहिने को.... “
बीच में ही सतीश बोला, “वह हमारा घर पहचानते हैं। अभी उस दिन तो मेरे साथ हमारे घर के दरवाजे तक गए थे।”
इस बात पर झेंपने का कोई औचित्यख नहीं था; किंतु मन-ही-मन विनय ऐसा झेंपा मानो उसकी कोई चोरी पकड़ी गई हो।
वृध्द बोले, “तब तो आप घर पहचानते हैं। तब कभी आपका उधर.... “ विनय- “वह आपको कहना नहीं होगा....जब भी....”
परेशबाबू- “हम लोगों का तो एक ही मुहल्ला है; बड़ा शहर है इसीलिए अब तक जान-पहचान नहीं हुई।”
विनय बाहर तक परेशबाबू के साथ आया। द्वार पर वह थोड़ी देर खड़ा रहा। परेशबाबू धीरे-धीरे छड़ी के सहारे चले और सतीश उनके साथ....लगातार बोलता हुआ चला।
मन-ही-मन विनय ने कहा- परेशबाबू जैसा सज्जन वृध्द नहीं देखा। पैर छूने की इच्छा होती है। और सतीश भी कैसा तेज़ लड़का है! बड़ा होकर अच्छा आदमी होगा.... जितनी तीव्र बुध्दि है उतना ही सीधा स्वभाव है।
वृध्द और बालक कितने भी अच्छे क्यों न हों, इतने थोड़े परिचय से उन पर इतनी अधिक श्रध्दा और प्यार साधारणतया संभव नहीं होता। किंतु विनय के मन की अवस्था ऐसी थी कि उसे अधिक परिचय की ज़रूरत नहीं थी।
फिर मन-ही-मन विनय सोचने लगा- परेशबाबू के घर जाना ही होगा, नहीं तो बदतमीज़ी होगी। किंतु साथ ही गोरा का स्वर लेकर मानो उनके गुट का भारतवर्ष उसे टोकने लगा- तुम्हारा वहाँ आना-जाना नहीं हो सकता.... ख़बरदार! कदम-कदम पर विनय ने गुट के भारतवर्ष के बहुत से नियम माने हैं। कई बार उसके मन में दुविधा भी उठी है, फिर भी नियम उसने मान लिया है। पर आज उसके मन में एक विद्रोह जाग उठा। उसका मन कहने लगा-यह भारतवर्ष तो केवल नियमों की मूर्ति है!
नौकर ने आकर सूचना दी कि भोजन तैयार है। किंतु अभी तक विनय नहाया भी नहीं! बारह बज चुके हैं! विनय ने सहसा ज़ोर से सिर हिलाकर कह दिया, “मैं नहीं खाऊँगा, तुम खा-पी लो!” उसने छाता उठाया और एकाएक बाहर निकल पड़ा, कंधे पर चादर भी उसने नहीं डाली।
सीधा वह गोरा के घर जा पहुँचा। विनय जानता था, एमहर्स्ट स्ट्रीट में एक मकान किराए पर लेकर वहाँ 'हिंदू-हितैषी-सभा' का दफ्तर रखा गया है, प्रतिदिन दोपहर को गोरा दफ्तर जाकर बैठता है और वहाँ से पूरे बंगाल में जहाँ भी उसके गुट के जो सदस्य हैं उन्हें चिट्ठियाँ लिखकर बढ़ावा देता है। और यहीं उसके भक्त उसके मुँह से उपदेश सुनने आते हैं और उसके साहायक होकर अपने को धन्य मानते हैं।
गोरा उस दिन भी दफ्तर गया हुआ था। विनय मानो दौड़ता हुआ सीधा भीतर आंनदमई के कमरे में जा खड़ा हुआ। आनंदमई उस समय भात परोसकर खाने बैठी थीं; लछमिया पास बैठी पंखा झल रही थी।
आश्चर्य से आनंदमई ने कहा, “क्यों विनय, क्या हुआ है तुम्हें?”
विनय ने उनके सामने बैठते हुए कहा, “माँ, बड़ी भूख लगी है, खाने को कुछ दो!”
आनंदमई ने सकुचाकर कहा, “यह तो तुमने बड़ी मुश्किल में डाल दिया। ब्राह्मण-ठाकुर तो चल गया है, और तुम तो.... ' विनय ने कहा, “मैं क्या ब्राह्मण-ठाकुर के हाथ का खाने यहाँ आया हूँ? ऐसा होता तो मेरे यहाँ ठाकुर ने ही क्या अपराध किया था? मैं तुम्हारी पत्तल का प्रसाद चाहता हूँ, माँ! लछमिया ला तो एक गिलास पानी मेरे लिए भी.... “
लछमिया के पानी देते ही विनय गट्-गट् करके पी गया। तब आनंदमई ने एक थाली और मँगाई; अपनी पत्तल से भात उठाकर वह उसमें परोसने लगीं और विनय साल-भर के भूखे की भाँति भात पर टूट पड़ा।
आनंदमई के मन का एक क्लेश आज दूर हुआ! उनके चेहरे पर प्रसन्नता देखकर विनय के मन पर से भी मानो एक बोझ उतर गया। आनंदमई फिर तकिए का गिलाफ सीने बैठ गईं। साथ के कमरे में सुगंधित कत्था तैयार करने के लिए केवड़े के फूल रखे गए थे, जिनकी सुगंध कमरे में फैल रही थी। पड़ गया और दुनिया को भूलकर पुराने दिनों की तरह सहजता से हँस-हँसकर बातें करने लगा। इस बाधा के टूटते ही विनय के हृदय में मानो एक वेगपूर्ण बाढ़ उमड़ने लगी। आनंदमई के कमरे से निकलकर बाहर सड़क पर आकर मानो वह एकाएक उड़ने लगा। उसके पाँव जैसे धरती पर नहीं पड़ रहे थे। उसकी इच्छा हुई जिस बात को लेकर पिछले कई दिन से वह मन-ही-मन संकोच से मरता रहा है, उसे मुँह खोलकर सबके सामने घोषित कर दे।
जिस समय विनय 78 नंबर के दरवाजे पर पहुँचा, ठीक उसी समय दूसरी ओर से परेशबाबू आते हुए दीखे।
“आइए-आइए, विनय बाबू, बड़ी खुशी हुई!” कहते हुए परेशबाबू विनय को सड़क की ओर वाले बैठने के कमरे में ले गए। एक छोटी मेज; एक ओर पीठ वाली बेंच, दूसरी ओर लकड़ी और बेंत की कुर्सियाँ; दीवार पर एक तरफ ईसा का रंगीन चित्र और दूसरी तरफ केशव बाबा का फोटो। पिछले दो-चार दिन के अख़बार मेज़ पर तहाकर रखे हुए, उनके ऊपर काँच का पेपरवेट, कोने में एक छोटी अलमारी, जिसके ऊपर के ताक में थिओडोर पार्कर की पुस्तकों की कतार लगी हुई दीखती है। अलमारी के ऊपर कपड़े से ढँका हुआ ग्लोब रखा है। विनय बैठ गया, पर उसका दिल धड़कने लगा। उसकी पीठ-पीछे वाला दरवाज़ा खुला है, सहसा कोई उधर से आ गया तो.... ! परेशबाबू ने कहा, “सोमवार को सुचरिता मेरे एक मित्र की लड़की को पढ़ाने जाती है। वहाँ सतीश की उम्र का एक लड़का भी है, इसलिए सतीश भी उसके साथ गया है। मैं उन्हें वहाँ पहुँचाकर लौट रहा हूँ। और तनिक-सी भी देर हो जाती तो भेंट ही न होती!” बात सुनकर विनय ने निराशा के आघात के साथ-साथ कुछ संतोष का भी अनुभव किया। परेशबाबू के साथ बातचीत एक बहुत ही सहज स्तर पर आ गई थी।
परेशबाबू ने बातों-ही-बातों में विनय के बारे में थोड़ा-थोड़ा करके बहुत कुछ जान लिया। विनय के माँ-बाप नहीं हैं; काका-काकी देस में रहकर काम सँभालते हैं। उसके दो चचेरे भाई भी उसके साथ रहकर पढ़-लिख रहे थे; बड़ा अब वकील होकर उनके ज़िले की कचहरी में वकालत करता है, छोटा कलकत्ता में रहता हुआ हैजे से चल बसा। काका की इच्छा है कि विनय डिप्टी-मजिस्ट्रेटी के लिए दौड़-धूप करे, किंतु विनय उस ओर कोई कोशिश न करके तरह-तरह के फिजूल के कामों में लगा हुआ है।
ऐसे ही करीब घंटा-भर बीत गया। बिना वजह और अधिक बैठना अशिष्टता होगी, यह सोचकर विनय उठ खड़ा हुआ और बोला, “अपने दोस्त सतीश से भेंट नहीं हुई, इसका दु:ख रह गया- उसे कह दीजिएगा मैं। आया था।'
परेशबाबू ने कहा, “ज़रा देर और ठहरें तो उन लोगों से भी भेंट हो जाएगी- अब तो वे आते ही होंगे।”
सिर्फ इतनी-सी बात का सहारा लेकर फिर बैठ जाने में विनय को संकोच हुआ। थोड़ा और ज़ोर देने से वह फिर बैठ जाता; किंतु परेशबाबू अधिक बोलने या आग्रह करने वाले व्यक्ति नहीं थे, इसलिए विदा ही लेनी पड़ी। परेशबाबू ने कहा, “बीच-बीच में आते रहिएगा, हमें खुशी होगी।”