गोरा / रवीन्द्रनाथ ठाकुर / पृष्ठ ७

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किंतु गोरा में इन नए परिवर्तन से कृष्णदयाल प्रसन्न हुए हों, ऐसा नहीं जान पड़ा। बल्कि एक दिन उन्होंने गोरा को बुलाकर कहा, “देखो जी, हिंदू-शास्त्र बड़ी गहरी चीज़ है। ऋषि लोग जो धर्म स्थापित कर गए हैं उसकी गहराई को समझना जिस-तिसका काम नहीं है। मेरी समझ में, बिना समझे-बूझे उसे लेकर न उलझना ही अच्छा है। अभी तुम बच्चे हो, शुरू से अंग्रेज़ी पढ़ते हुए बड़े हुए हो। तुम जो ब्रह्म-समाज की ओर झुके थे वह तुम्हारे अधिकार के हिसाब से अच्छी ही बात थी। इसीलिए मैंने उसका बुरा नहीं माना, बल्कि उससे खुश ही था। लेकिन अब जिस रास्ते तुम चल रहे हो वह किसी तरह ठीक नहीं जान पड़ता। वह तुम्हारा मार्ग ही नहीं है।”

गोरा बोला, “आप यह क्या कहते हैं, बाबा? मैं भी तो हिंदू हूँ। हिंदू-धर्म का गूढ़ मर्म आज न समझ सकूँ तो कल तो समझूँगा, यदि कभी भी न समझूँ तब भी इसी पथ पर तो चलना होगा। हिंदू-समाज के साथ पूर्वजन्म का संबंध नहीं तोड़ सका, इसीलिए इस जन्म में ब्राह्मण के घर जन्मा। ऐसे ही जन्म-जन्मांतर के बाद इसी हिंदू-धर्म और हिंदू-समाज के भीतर से ही इसकी चरम सीमा तक पहुँच सकूँगा। कभी भ्रमवश दूसरे रास्ते की ओर मुड़ भी जाऊँ तो दुगने वेग से लौट आऊँगा।”

पर कृष्णदयाल सिर हिलाते-हिलाते कहते रहे, “अरे बाबा, हिंदू कहने भर से ही तो कोई हिंदू नहीं हो जाते। मुसलमान होना आसान है, ख्रिस्तान तो कोई भी हो सकता है.... किंतु हिंदू! यही तो एक मुश्किल बात है” कृष्णदयाल, “बाबा, बहस करके तो तुम्हें ठीक नहीं समझा सकूँगा। पर तुम जो कहते हो एक तरह वह भी सच है। जिसका जो कर्म-फल है, जो निर्दिष्ट धर्म है, एक दिन घूम-फिरकर उसे उसी धर्म के पथ पर आना ही होगा.... उसे कोई रोक नहीं सकेगा। भगवान की जैसी इच्छा.... हम लोग क्या कर सकते हैं.... हम तो निमित्त मात्र हैं।”

कर्म-फल और भगवान की इच्छा, सोऽहंवाद और भक्ति-तत्व- कृष्णदयाल सभी कुछ एक जैसे भाव से ग्रहण करते हैं। इन सबमें परस्पर किसी प्रकार के समन्वय की ज़रूरत है, इसका अनुभव उन्हें कभी नहीं होगा।

संध्यां-वंदन, स्नान-भोजन संपूर्ण करके अनेक दिन बाद आज कृष्णदयाल ने आनंदमई के कमरे में प्रवेश किया। फर्श पर अपना कंबल का आसन बिछाकर, सावधानी से चारों ओर के समस्त व्यापार से अपने को अलिप्त करके वह बैठ गए।

आनंदमई बोलीं, “सुनते हो, तुम तो तपस्या में लीन रहते हो- घर की कोई खबर नहीं लेते। गोरा की ओर से मुझे तो बराबर भय बना रहता है।”

कृष्णदयाल, “क्यों, भय किसका?”

आनंदमई, “यह तो मैं ठीक-ठीक नहीं कह सकती। पर बराबर मुझे लगता है, गोरा ने आजकल यह जो हिंदूपन शुरू किया है वह उससे सधोगा नहीं; ऐसा ही चलता रहा तो अंत में न जाने क्या आफत आएगी! मैंने तो तुम्हें तब भी कहा था उसे जनेऊ मत पहनाओ! किंतु तुमने मेरी सुनी नहीं। तुहें तब भी कहा था उसे जनेऊ मत पहानाओ! किंतु तुमने मेरी सुनी नहीं। यही कहा कि एक लच्छी सूत गले में पहना देने से किसी का कुछ आता-जाता नहीं। लेकिन वह मात्र सूत तो नहीं है। अब उसे छुड़ाओगे कैसे?”

कृष्णदयाल, “ठीक है। सारा दोष मेरा ही है। और पहले तुमने जो भूल की सो? किसी तरह उसे छोड़ने को राज़ी नहीं हुईं। तब मैं भी गँवार था, धर्म-कर्म का कुछ ज्ञान तो था नहीं। अब जैसा होने से क्या ऐसा काम कर सकता?”

आनंदमई, “तुम चाहे जो कहो, मैं किसी तरह नहीं मान सकती कि मैंने कुछ अधर्म किया है। तुम्हें तो याद होगा, संतान के लिए मैंने क्या नहीं किया- जिसने जो कहा वही माना- कितने गंडे-तावीज़ बाँधे, कितने मंतर लिए, सब ही तुम्हें मालूम है। सपने में एक दिन देखा, मैं डलिया-भर तगर के फूल लेकर ठाकुरजी की पूजा करने बैठी हूँ, अचानक मुड़कर देखती हूँ कि डलिया में फूल नहीं है, फूल-सा कोमल शिशु है। आह क्या सपना मैंने देखा, कैसे तुम्हें बताऊँ! मेरी ऑंखों से ऑंसुओं की धारा बह निकली, जल्दी से उसे गोद में लेने के लिए झुकी कि मेरी नींद खुल गई। इसके दस दिन बाद ही तो मैंने गोरा को पाया। वह ठाकुरजी की देन है.... वह क्या और किसी का था कि मैं किसी को उसे लौटा देती? पूर्वजन्म में उसे गर्भ में लेकर शायद मैंने बहुत कष्ट पाया था तभी वह अब मुझे 'माँ' कहकर पुकारने आ गया। कैसे, कहाँ से वह आया तुम्हीं सोचकर देखो तो। तब चारों ओर मार-काट मची हुई थी, अपनी ही जान के लाले पड़े हुए थे। ऐसे में दो पहर रात बीते जब वह मेंम हमारे घर छिपने आई तब तुम तो डर के मारे घर में रहने नहीं देना चाह रहे थे, मैंने ही तुमसे बचाकर उसे गोशाला में छिपा दिया। उसी रात बच्चे को जन्म देकर वह मर गई। बिना माँ-बाप के उस बच्च को अगर मैं न बचाती तो क्या वह बचता? तुम्हारा क्या है.... तुम तो उसे पादरी को दे देना चाहते थे। पादरी को क्यों दें? पादरी क्या उसके माँ-बाप हैं? पादरी ने क्या उसकी प्राण-रक्षा की थी? ऐसे जो बच्चा मैंने पाया वह क्या पेट-जाए बच्चे से कम है? तुम चाहे जो कहो, जिन्होंने यह लड़का मुझे दिया है यदि वे स्वयं ही उसे न ले लें तो मैं जान गँवाकर भी उसे और किसी को देने वाली नहीं हूँ।”

कष्णदयाल, “यह तो जानता हूँ। खैर, अपने गोरा को लेकर तुम रहो, मैंने इसमें तो कभी कोई अड़चन नहीं दी। किंतु जब उसे अपना लड़का कहकर उसका परिचय दिया तब यज्ञोपवीत न होने से समाज कैसे मानता.... इसीलिए वह करना पड़ा। अब केवल दो ही बातें सोचने की है। न्याय से मेरी सारी संपत्ति पर महिम का ही हक है, इसलिए.... “

बीच में ही टोककर आनंदमई ने कहा, “तुम्हारी संपत्ति का हिस्सा कौन लेना चाहता है। तुमने जो कुछ जमा किया है महिम को ही सब दे देना, गोरा उसमें से एक पैसा भी नहीं लेगा। वह पुरुष है, पढ़-लिख चुका है, आप कमाकर खाएगा; वह दूसरे के धन में हिस्सा बँटाने ही क्यों जाएगा भला? वह राज़ी-खुशी रहे, बस, इतनी ही मेरी कामना है; किसी और जायदाद की मुझे ज़रूरत नहीं है।” कृष्णदयाल, “नहीं, उसे एकबारगी वंचित नहीं करूँगा; जागीर उसी को दे दूँगा.... आगे चलकर साल में हज़ार रुपए की आमदनी तो उससे हो ही जाएगी। अभी जो सोचने का विषय है वह है उसके विवाह का मामला। अब तक तो जो किया सो किया, पर अब हिंदू-विधि से ब्राह्मण के घर उसका विवाह नहीं कर सकँगा.... इस पर चाहे तुम गुस्सा करो, चाहे जो करो।”

आनंदमई, “हाय-हाय! तुम समझते हो, तुम्हारी तरह सारी दुनिया पर गोबर और गंगाजल छिड़कती हुई नहीं फिरती इसलिए मुझे धर्म का ज्ञान ही नहीं है उसका विवाह ब्राह्मण के घर क्यों करने जाऊँगी, और गुस्सा क्यों करूँगी?”

कृष्णदयाल, “क्यों, तुम तो ब्राह्मण-कुल की हो!”

आनंदमई, “होती रहूँ ब्राह्मण-कुल की। बह्मनाई करना तो मैंने छोड़ ही दिया है। महिम के विवाह के समय भी मेरे रंग-ढंग को 'ख्रिस्तानी चाल' समझकर समधी लोग झंझट करना चाहते थे; मैं तब जान-बूझकर अलग हट गई थी- कुछ बोली ही नहीं। सारी दुनिया मुझे ख्रिस्तान कहती है, और भी जो कुछ कहती है.... मैं सब मान लेती हूँ... मानकर ही कहती हूँ- ख्रिस्तान क्या इंसान नहीं हैं। तुम्हीं जो इतनी ऊँची जाति के और भगवान के इतने प्यारे हो, तो भगवान क्यों इस तरह तुम्हारा सिर कभी पठान, कभी मुग़ल और कभी ख्रिस्तान के पैरों में झुकवा देते हैं?”

कृष्णदयाल, “ये सब बड़ी-बड़ी बातें हैं। तुम औरत-जात वह नहीं समझोगी। लेकिन समाज भी कुछ है, यह तो समझती हो? उसे तो मानकर ही चलना होगा।”

आनंदमई, “मुझे समझाने की आवश्यता नहीं है। मैं तो इतना समझती हूँ कि मैंने जब गोरा को बेटा समझकर पाला-पोसा है, तब आचार-विचार का ढोंग करने से समाज रहे या न रहे, धर्म तो नहीं रहेगा। मैंने केवल धर्म के भय से ही कभी कुछ नहीं छिपाया। मैं तो कुछ मानती नहीं, यह मैं सभी को जता देती हूँ.... और सबकी घृणा पाकर चुपचाप पड़ी रहती हूँ। केवल एक बात मैंने छिपाई है; उसी के लिए भय से घुली जाती हूँ.... ठाकुरजी जाने कब क्या कर दें, मेरा तो मन होता है, गोरा से सारी बात कह दूँ, फिर भाग्य में जो होना बदा हो, वह हो।”

कृष्णदयाल ने हड़बड़ाकर कहा, “नहीं-नहीं! मेरे रहते यह किसी तरह नहीं हो सकेगा। गोरा का तुम जानती ही हो। यह बात सुनकर वह क्या कर बैठेगा, कुछ कहा नहीं जा सकता। फिर समाज में एक हड़कंप मच जाएगी। और क्या इतना ही? उधर सरकार क्या करेगी, यह भी नहीं कहा जा सकता। गोरा का बाप तो लड़ाई में मारा गया, और उसकी माँ भी मर गई, यह ठीक है; लेकिन सारा हंगामा शांत होने के बाद तो मजिस्ट्रेट को खबर देना ज़रूरी था! अब इसी बात को लेकर कोई उपद्रव खड़ा हो गया तो मेरा भजन-पूजन तो सब मिट्टी में मिलेगा ही, और भी क्या आफत उठ खड़ी होगी, इसका कोई ठिकाना है!'

निरुत्तर होकर आनंदमई बैठी रही। थोड़ी देर बाद कृष्णदयाल बोले, “गोरा के विवाह के बारे में मन-ही-मन मैं एक बात सोचता रहा हूँ। परेशबाबू भट्टाचार्य मेरे साथ पढ़ता था.... स्कूल की इन्स्पेक्टरी से रिटायर होकर पेंशन लेकर आजकल कलकत्ता आकर रहने लगा है। कट्टर ब्रह्म है। सुना है, उसके घर में कई लड़कियाँ भी हैं गोरा को किसी तरह उनके साथ मिला दिया जाय तो उसके घर आते-जाते रहने से परेशबाबू की कोई लड़की उसे पसंद भी कर सकती है। इसके आगे फिर ईश्वर को जो मंजूर हो।”

आनंदमई, “क्या कह रहे हो तुम? ब्रह्म के घर गोरा आए-जाएगा? वह दिन उसके गए?”

इसी समय गोरा अपने गंभीर स्वर में 'माँ' पुकारता हुआ कमरे में आया। कृष्णदयाल को वहाँ बैठे हुए देखकर वह कुछ विस्मित-सा हो गया; आनंदमई हड़बड़ाकर उठीं और गोरा के पास आकर ऑंखों से स्नेह बरसाती हुई बोलीं, “क्यों बेटा, क्या चाहिए?” “नहीं खास कुछ नहीं, फिर सही”, कहकर गोरा वापस जाने लगा।

कृष्णदयाल बोले, “ज़रा ठहरो, एक बात कहनी है। मेरे एक ब्रह्म मित्र आजकल कलकत्ता आए हुए हैं, हेदोतल्ले में रहते हैं.... “

गोरा बोला, “कौन, परेशबाबू?”

कृष्णदयाल, “तुम उन्हें कैसे जानते हो?”

गोरा, “विनय उनके घर के पास ही रहता है, उसी से उनकी चर्चा सुनी है।”

कृष्णदयाल, “मैं चाहता हूँ, तुम उनका हाल-चाल पूछा आना!”

मन-ही-मन गोरा कुछ सोचता रहा। फिर सहसा बोला, “अच्छा, मैं कल ही जाऊँगा।”

आनंदमई कुछ विस्मय में आ गईं। थोड़ी देर सोचकर गोरा ने कहा, “नहीं.... कल तो मेरा जाना नहीं हो सकेगा।”

कृष्णदयाल, “क्यों?”

गोरा, “कल मुझे त्रिवेणी जाना है।”

चौंककरकर कृष्णदयाल ने कहा, “त्रि‍वेणी!”

गोरा- “कल सूर्य-ग्रहण का नहान है।”

आनंदमई, “अब तुमसे क्या कहा जाय, गोरा! स्नान करना है तो कलकत्ता में भी तो गंगा है। त्रिवेणी गए बिना तेरा नहान नहीं होगा! तू तो देशभर के लोगों से बड़ा पंडित बन गया है!”

इस बात का कोई उत्तर दिए बिना गोरा चला गया।

गोरा के त्रिवेणी-स्नान करने जाने के संकल्प का कारण यह था कि वहाँ अनेक तीर्थ-यात्री इकट्ठे होंगे। उसी साधारण जनता के साथ घुल-मिलकर गोरा अपने को देश की एक बहुत विशाल धारा में बहा देना और देश के हृदय की धड़कन अपने हृदय में अनुभव करना चाहता है। जहाँ भी गोरा को तनिक-सा मौका मिलता है, वहीं वह अपना सारा संकोच, अपने सारे पूर्व संस्कार बलपूर्वक छोड़कर देश की साधारण जनता के साथ मैदान में आ खड़ा होना चाहता है और पूरे संकल्प से कहना चाहता है- मैं तुम्हारा हूँ तुम सब मेरे हो।

विनय ने सुबह उठकर देखा, रात भर में आकाश साफ हो गया है। सुबह का प्रकाश दुधमुँहे शिशु की हँसी-सा निर्मल फैला रहा है। दो-एक उजले मेघ बिल्कुंल निष्प्रयोजन भटकते हुए-से आकाश में तैर रहे हैं।

बरामदे में खड़ा-खड़ा वह एक और निर्मल प्रभात की याद से आनंदित हो रहा था कि तभी उसने देखा, एक हाथ में छड़ी और दूसरे हाथ में सतीश का हाथ पकड़े धीरे-धीरे परेशबाबू सड़क पर चले आ रहे हैं। सतीश ने विनय को बरामदे में देखते ही ताली बजाकर पुकारा, “विनय बाबू!” परेशबाबू ने मुँह ऊपर कर विनय को देखा। विनय जब जल्दी से नीचे उतर आया तब सतीश के संग-संग परेशबाबू ने भी उसके घर के भीतर प्रवेश किया।

विनय का हाथ पकड़ते हुए सतीश ने कहा, “विनय बाबू, आपने उस दिन कहा था कि हमारे घर आएँगे; अभी तक आए क्यों नहीं?”

स्नेह से सतीश की पीठ पर हाथ फेरता हुआ विनय हँसने लगा। परेशबाबू ने सावधानी से अपनी छड़ी मेज़ के सहारे खड़ी की और कुर्सी पर बैठते हुए बोले, “उस दिन यदि आप न होते तो हम लोग बड़ी मुसीबत में पड़ जाते। आपने बड़ा उपकार किया।”

शरमाते हुए विनय ने कहा, “क्या कहते हैं- कुछ भी तो नहीं किया मैंने।”

सहसा सतीश ने पूछा, “अच्छा विनय बाबू, आपके यहाँ कुत्ता नहीं है?”

हँसकर विनय ने कहा, “कुत्ता? नहीं, कुत्ता तो नहीं है।”

सतीश ने फिर से पूछा, “क्यों, कुत्ता क्यों नहीं पालते?”

विनय ने कहा, “कुत्तों की बात तो कभी सोची नहीं।”

परेशबाबू बोले, “मैंने सुना है, सतीश उस दिन आपके यहाँ आया था, ज़रूर आपको तंग करता रहा होगा। यह इतना बकता है कि इसकी बहन इसे 'बक्त्यार ख़िलजी' कहती है।”