गोरा / रवीन्द्रनाथ ठाकुर / पृष्ठ ६
कृष्णदयाल बाबू साँवले रंग के दोहरे बदन के व्यक्ति हैं कद अधिक लंबा नहीं। चेहरे पर दो बड़ी-बड़ी ऑंखें ही नज़र आती हैं, बाकी पूरा चेहरा खिचड़ी रंग की दाढ़ी-मूँछों से ढँका हुआ है। हमेशा गेरुए रंग के रेशमी कपड़े पहने रहते हैं; पैरों में खड़ाऊँ, हाथ के निकट ही पीतल का कमंडल रहता है। सामने की ओर चाँद दीखने लगी है, बाकी लंबे-लंबे बाल सिर के मध्यह में एक बड़ी-सी गाँठ के रूप में बँधे रहते हैं।
एक समय एक पश्चिम में रहते हुए पलटनिया गोरों के साथ हिल-मिलकर मांस-मदिरा सभी कुछ खाते-पीते रहे। उन दिनों देश के पुजारी-पुरोहित, वह पौरुष समझते थे। अब ऐसी कोई बात ही नहीं होगी जिसे वह मानने को तैयार नहों। नए सन्यासी को देखते ही साधना की नई रीति सीखने के लिए उसके पास धरना देकर बैठ जाएँगे; मुक्ति के निगूढ़ पथ और योग की निगूढ़ प्रणालियों के लिए उनमें बेहद रुचि है। तांत्रिक साधना का अभ्यास करने के विचार से कुछ दिन वह उपदेश लेते रहे थे कि इस बीच किसी बौध्द श्रमण की खबर पाकर उनका मन फिर चंचल हो उठा है।
उनकी पहली स्त्री एक पुत्र को जन्म देकर मरीं, तब उनकी उम्र कोई तेईस बरस की थी। लड़के को ही माँ की मृत्यु का कारण मान, उस पर रोष करके उसे ससुराल में छोड़कर वैराग्य की सनक में कृष्णदयाल पश्चिम चले गए थे। वहाँ छ: महीनें के अंदर ही काशीवासी सार्वभौम महाशय की पितृहीना नातिन आनंदमई से उन्होंने विवाह कर लिया।
पश्चिम में ही कृष्णदयाल ने नौकरी की खोज की और तरह-तरह के उपायों से सरकारी नौकर-चाकरों में अपनी धाक जमा ली। इधर सार्वभौम महाशय की मृत्यु हो गई; कोई दूसरा संरक्षक न होने से उन्हें पत्नी को साथ ही रखना पड़ा इसी बीच जब सिपाही-विद्रोह हुआ तब युक्ति से दो-एक ऊँचे अंग्रेज़ अफसरों की जान बचाकर उन्होंने यश के साथ-साथ जागीर पाई। विद्रोह के कुछ दिन बाद ही नौकरी छोड़ दी और नवजात गोरा को लेकर कुछ समय काशी में ही रहते रहे। गोरा जब पाँच बरस का हुआ तब कृष्णदयाल कलकत्ता आ गए। बड़े लड़के महिम को उसके मामा के यहाँ से लाकर उन्होंने अपने पास रखा और पाल-पोसकर बड़ा किया। अब पिता के जान-पहचान वालों की कृपा से महिम सरकारी ख़जाने में नौकरी कर रहा है और तरक्की पा रहा है।
बचपन से ही गोरा मुहल्ले के जाने अन्य स्कूल वाले बच्चों का सरदार रहा है। मास्टरों और पंडितों का जीना दूभर कर देना ही उसका मुख्य काम और मनोरंजन रहा। कुछ होते ही वह विद्यार्थियों के क्लजब में 'स्वाधीनता विहीन कौन-जीना चाहेगा?' आर 'बीस कोटि जनता का घर है' गाकर और अंग्रेजी में भाषण देकर छोटे विद्रोहियों के सेनापति बन बैठा। अंत में जब छात्र-सभा के झंडे के नीचे से निकलकर वयस्कों की सभा में भी वह भाषण देने लगा, तब यह कृष्णदयाल बाबू के लिए मानो बड़े आश्चर्य का विषय हो गया। देखते-देखते गोरा की बाहर के लोगों में धाक जम गई; किंतु घर में किसी ने उसे ज्यादा मान नहीं दिया। महिमतब नौकरी करने लगे थे; वह गोरा को कभी 'पैटित्र्यट बड़े भैया' और कभी 'हरीश मुकर्जी द सैकिंड' कहकर तरह-तरह से चिढ़ाकर उसे हतोत्साहित करने का प्रयत्न करते। बीच-बीच में बड़े भाई के साथ गोरा की हाथापाई होते-होते रह जाती। गोरा के अंग्रेज़ 'द्वेष से आनंदमई मन-ही-मन बहुत परेशान होतीं, और अनेक प्रकार से उसे शांत करने की चेष्टा करतीं, पर सब बेकार। गोरा रस्ता चलते कोई मौका देख किसी अंग्रेज़ से मार-पीट करके अपने को धन्य मानता।
इधर केशव बाबू की वक्तृताओं से प्रभावित होकर गोरा ब्रह्म-समाज की ओर विशेष आकृष्ट हुआ; उधर ठीक उसी समय कृष्णदयाल घोर रूप से आचारनिष्ठ हो उठे। यहाँ तक कि उनके कमरे में गोरा के जाने से भी वे बेचैन हो उठते। उन्होंने दो-तीन कमरों का मानो अपना स्वतंत्र महल बना लिया; घर के उतने हिस्से के द्वार पर उन्होंने 'साधनाश्रम' लिखकर लकड़ी की तख्ती लटका दी।
गोरा का मन पिता के इन कारनामों के प्रति विद्रोही हो उठा। ये सब बेकार की बातें मैं नहीं सह सकता.... ये मेरी ऑंखों में चुभतीं हैं- यह घोषित करके पिता से सभी संबंध तोड़कर गोरा बिल्कुरल अलग हो जाने की बात सोचने लगा था, पर आनंदमई ने किसी तरह उसे समझा-बुझाकर रोक लिया था। पिता के पास जिन ब्राह्माण-पंडितों का आना-जाना होता रहता था, गोरा मौका मिलते ही उनके साथ बहस छेड़ देता था। बल्कि उसे बहस न कहकर बल दिखाना ही कहना ठीक होगा। उनमें से अनेकों का ज्ञान बहुत साधारण और अर्थ-लोभ असीम होता था; गोरा को वे हरा नहीं सकते थे बल्कि उससे ऐसे घबराते थे मानो वह बाधा हो। इन सबमें अकेले हरचंद विद्यावागीश के प्रति गोरा के मन में श्रध्दा थी। विद्यावागीश को कृष्णदयाल ने वेदांत-चर्चा करने के लिए नियुक्त किया था। पहली ही बार उनसे उग्र भाव से लड़ाई करने जाकर गोरा ने देखा कि उनसे लड़ाई चल ही नहीं सकती। केवल यह बात नहीं कि वह विद्वान थे; उनमें एक अत्यंत आश्चर्यजनक उदारता भी थी। केवल संस्कृति ऐसी अच्छी और साथ-साथ ऐसी प्रशस्त बुध्दि किसी की हो सकती है, गोरा इसकी कल्पना भी नहीं कर सकता था। विद्यावागीश के स्वभाव में क्षमा और शांति का ऐसा अविचल धैर्य और गंभीरता थी कि उनके सामने स्वयं अपने को संयम न करना गोरा के लिए असंभव था। गोरा ने हरचंद्र से वेदांत-दर्शन पढ़ना शुरू किया। कोई काम अधूरे ढंग से करना गोरा के स्वभाव में ही नहीं है, अत: वह दर्शन की आलोचना में बिल्कुल निमग्न हो गया।
इन्हीं दिनों संयोग से एक अंग्रेज़ मिशनरी ने किसी अखबार में हिंदू-शास्त्र और समाज पर आक्रमण करते हुए देश के लोगों को तर्क-युध्द की चुनौती दी। गोरा तो एकदम आग-बबूला हो गया। हालाँकि वह स्वयं मौका मिलने पर शास्त्र और लोकाचार की निंदा करके विरोधी मत के लोगों को भरसक पीड़ा पहुँचाता रहता था, किंतु हिंदू-समाज के प्रति एक विदेशी की अवहेलना मानो उसे बर्छी-सी चुभ गई। गोरा ने अखबार में लड़ाई छेड़ दी। दूसरे पक्ष ने हिंदू-समाज में जितने दोष दिखाए थे गोरा ने उनमें से कोई भी ज़रा-सा भी स्वीकार नहीं किया। दोनों पक्षों से लंबी चिट्ठी-पत्री के बाद संपादक ने घोषित किया कि-इस विषय में और वाद-विवाह प्रकाशित नहीं किया जाएगा। किंतु गोरा को तब बहुत गुस्सा चढ़ गया था। उसने 'हिंदुइज्म' नाम देकर अंग्रेज़ी में एक पुस्तक लिखना आरंभ कर दिया, जिसमें वह अपनी योग्यता के अनुसार सभी युक्तियों और शास्त्रों से हिंदू-धर्म और समाज की अनिन्द्य श्रेष्ठजता के प्रमाण खोजकर संग्रह करने में जुट गया।
इस प्रकार मिशनरी के साथ लड़ाई करने जाकर गोरा धीरे-धीरे अपनी वकालत में स्वयं ही हार गया। उसने कहा, “हम अपने देश को विदेशी की अदालत में अभियुक्त की तरह खड़ा करके विदेशी कानून के अधीन उसका विचार क्यों होने दें? विलायत के आदर्श से एक-एक बात की तुलना कर हम न लज्जित होंगे, न गौरव ही मानेंगे। जिस देश में जन्मेस हैं, उस देश के आचार, विश्वास, शास्त्र या समाज के लिए दूसरों के या अपने सामने ज़रा भी शर्मिंदा नहीं होंगे। देश का जो कुछ है सभी को सहर्ष और सगर्व भाव से सिर-माथे पर लेकर देश को और स्वयं को अपमान से बचाएँगे।”
ऐसा मानकर गोरा ने चोगी रखी, गंगा-स्नान और संध्याज-वंदन आरम्भ किया, खान-पान और छुआ-छूत के नियम मानने लगा। तभी से वह रोज़ सुबह 'कैड' और 'स्नॉब' कह दिया करता था उसी को देखते ही उठ खड़ा होता और आदर से प्रणाम करता। इस नई भक्ति को लेकर महिम उस पर मनमाने व्यंग्य करता रहता, किंतु गोरा कभी उनका उत्तर नहीं देता। अपने उपदेश और आचरण से गोरा ने समाज के एक गुट को मानो जगा दिया। वे एक बड़ी खींच-तान से मुक्त हो गए और मानो लंबी साँस लेकर कह उठे-हम अच्छे हैं या बुरे, सभ्य हैं या असभ्य, इसके बारे में हम किसी को कोई जवाब नहीं देना चाहते.... सोलह आने हम केवल यह अनुभव करना चाहते हैं कि हम हैं!