गोरा / रवीन्द्रनाथ ठाकुर / पृष्ठ ५

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अंग्रेज़ी नावल विनय ने बहुत पढ़ रखे थे, किंतु उसका भद्र बंगाली परिवार का संस्कार कहाँ जाता? इस तरह उत्सुक मन लेकर किसी स्त्री को देखने की कोशिश करना उस स्त्री के लिए अपमानजनक है और अपने लिए निंदनीय, इस बात को वह किसी भी तर्क के सहारे मन से निकाल न सका। इससे विनय के मन में आनंद के साथ-साथ ग्लानि का भी उदय हुआ। उसे लगा कि उसका कुछ पतन हो रहा है। यद्यपि इसी बात को लेकर गोरा से उसकी बहस हो चुकी थी, फिर भी जहाँ सामाजिक अधिकार नहीं है वहाँ किसी स्त्री की ओर प्रेम की ऑंखों से देखना उसके अब तक के जीवन के संचित संस्कार के विरुध्द था।

विनय का उस दिन गोरा के घर जाना नहीं हुआ। मन-ही-मन अनेक सवाल-जवाब करता हुआ घर लौट आया। अगले दिन तीसरे पहर घर से निकलकर घूमता-फिरता अंत में गोरा के घर वह पहुँचा, वर्षा का लंबा दिन बीत चुका था और संध्यात का अंधकार घना हो चुका था। गोरा बत्ती जलाकर कुछ लिखने बैठ गया था।

गोरा ने कागज़ की ओर से ऑंखें उठाए बिना ही कहा, “क्यों भाई विनय, हवा किधर की बह रही है?”

उसकी बात अनसुनी करते हुए विनय ने कहा, “गोरा, तुमसे एक बात पूछता हूँ। भारतवर्ष क्या तुम्हारे नज़दीक बहुत सत्य है- बहुत स्पष्ट है? तुम तो दिन-रात उसका ध्याकन करते हो- किंतु कैसे ध्यानन करते हो?”

गोरा कुछ देर लिखना छोड़कर अपनी तीखी दृष्टि से विनय के चेहरे की ओर देखता रहा। फिर कलम रखकर कुर्सी को पीछे की ओर झुकाता हुआ बोला, “जहाज़ का कप्तान जब समुद्र पार कर रहा हाता है तब खाते-पीते, सोते-जागते जैसे सागर-पार के बंदरगाह पर उसका ध्याबन केंद्रित रहता है, वैसे ही मैं भारतवर्ष का ध्याजन रखता हूँ।”

विनय, “और तुम्हारा यह भारतवर्ष है कहाँ?”

छाती पर हाथ रखकर गोरा ने कहा, “मेरा यहाँ का दिशासूचक दिन-रात जिधर सुई किए रहता है वहीं; तुम्हारे मार्शमैन साहब की 'हिस्ट्री ऑफ इंडिया' में नहीं!”

विनय, “जिधर को वह सुई रहती है उधर कुछ है भी?”

उत्तेजित होकर गोरा ने कहा, “है कैसे नहीं? मैं राह भूल सकता हूँ, मैं डूब सकता हूँ.... किंतु मेरी उस लक्ष्मी का बंदरगाह फिर भी है। वही मेरा पूर्णरूप भारतवर्ष है.... धन से पूर्ण, ज्ञान से पूर्ण, धर्म से पूर्ण। वह भारतवर्ष कहीं नहीं है, और है केवल यही चारों ओर फैला हुआ झूठ- यह तुम्हारा कलकत्ता शहर, ये दफ्तर, यह अदालत, ये कुछ-एक ईंट-पत्थर के बुलबुले? छी: छी:!” बात कहकर कुछ देर गोरा एकटक विनय के चेहरे की ओर देखता रहा। विनय उत्तर न देकर सोचता रहा। गोरा ने फिर कहा, “यह जहाँ हम पढ़ते-सुनते हैं, नौकरी की उम्मीदवारी में घूमते-फिरते हैं, दस से पाँच बजे तक की मुर्दा बेगारी की तरह क्या जाने क्या करते रहते हैं, इसका कोई ठिकाना नहीं है। इस जादू के बने भारतवर्ष को ही हम सच माने बैठे हैं, इसीलिए कोटिश: लोग झूठे मान को मान, झूठे कर्म को कर्म समझकर पागलों-से दिन-रात भटक रहे हैं। इस मरीचिका के जाल से किसी भी तरह से क्या हम छुटकारा पा सकते हैं? इसीलिए हम रोज़ सूख-सूखकर मरते जा रहे हैं। एक सच्चा भारतवर्ष है, परिपूर्ण भारतवर्ष; उस पर स्थिर हुए बिना हम लोग न बुध्दि से, न हृदय से सच्चा जीवन-रस खींच सकेंगे। इसीलिए कहता हूँ, अन्य सब भूलकर किताब की विद्या, ख़िताब की माया, नोच-खसोट के लालच- सबकी पुकार अनसुनी करके उसी बंदरगाह की ओर जहाज़ को ले जाना होगा; फिर चाहे डूबें, मरें तो मरे। यों ही मैं भारतवर्ष की सच्ची, पूर्ण मूर्ति को नहीं भूल सकता!”

विनय, “यह सब कहीं जोश की बात तो नहीं है तुम सच कह रहे हो?”

गोरा ने बादल की तरह गरजकर कहा, “सच कह रहा हूँ।”

विनय, “और जो तुम्हारी तरह नहीं देख सकते....”

मुट्ठियाँ बाँधते हुए गोरा ने कहा, “उन्हें दिखलाना होगा। यही तो हम लोगों का काम है। सच्चाई का रूप स्पष्ट न देख पाने से लोग न जाने कौन-सी परछाईं के सम्मुख आत्म-समर्पण कर देंगे। भारतवर्ष की सर्वांगीण मूर्ति सबके सामने खड़ी कर दो- तब लोग पागल हो उठेंगे; तब घर-घर चंदा माँगते हुए नहीं फिरना पड़ेगा। लोग खुद जान देने के लिए एक-दूसरे को धकेलते हुए आगे आएँगे।”

विनय, “या तो मुझे भी अन्य बीसियों लोगों की तरह बहते चले जाने दो, या मुझे भी वही मूर्ति दिखलाओ”

गोरा, “साधना करो। मन में दृढ़ विश्वास हो तो कठोर साधना में ही सुख मिलेगा। हमारे शौकिया पैट्रियट लोगों में सच्चा विश्वास नहीं है, इसीलिए वे न अपने, न दूसरों के सामने कोई ज़ोरदार दावा कर पाते हैं। स्वयं कुबेर भी यदि उन्हें वर आते तो शयद वे लाट-साहब के चपरासी की गिलटदार पेटी से अधिक कुछ माँगने का साहस न कर पाते। उनमें विश्वास नहीं है, इसीलिए कोई आशा भी नहीं है।” विनय, “गोरा, सबकी प्रकृति एक जैसी नहीं होती। तुमने अपना विश्वास अपने भीतर से पाया है, और अपनी ताकत के संबल से खड़े हो सकते हो, इसीलिए तुम दूसरों की अवस्था ठीक तरह समझ ही नहीं सकते। मैं कहता हूँ तुम मुझे चाहे जिस एक काम में लगा दो, दिन-रात मुझसे कसकर काम लो। नहीं तो जितनी देर तक मैं तुम्हारे पास रहता हूँ, उतनी देर तो लगता है कि मैं कुछ पाया; पर दूर हटते ही कुछ भी ऐसा नहीं पाता जिसे मुट्ठी में पकड़कर रख सकूँ।”

गोरा, “काम की बात कहते हो? इस वक्त हमारा एकमात्र काम यह है कि जो कुछ स्वदेश का है उसके प्रति बिना संकोच, बिना संशय संपूर्ण श्रध्दा जताकर देश के अन्य अविश्वासियों में भी उसी श्रध्दा का संचार कर दें। देश के मामले में लज्जित हो-होकर हमने अपने मन को गुलामी के विष से दुर्बल कर दिया है; हममें से प्रत्येक अपने सदाचरण द्वारा इसका प्रतिकार करे तभी हमें काम करने का क्षेत्र मिलेगा। अभी जो भी काम हम करना चाहेंगे, वह केवल इतिहास की स्कूली किताब लेकर दूसरों की नकल करना मात्र होगा। उस झूठे काम में हम क्या कभी भी सच्चा्ई से अपना पूरा मन-प्राण लगा सकेंगे? उसे तो अपने को केवल और हीन ही बना लेंगे।”

इसी समय हाथ में हुक्का लिए थोड़े अलस भाव से महिम ने कमरे में प्रवेश किया। यह समय महिम के दफ्तर से लौटकर, नाश्ता करके पान का एक बीड़ा मुँह में और छ:-सात बीड़े डिबिया में रखकर, सड़क के किनोर बैठकर हुक्का पीने का था। फिर थोड़ी देर बाद ही एक-एक करके पड़ोस के यार-दोस्त आ जुटेंगे, तब डयोढ़ी से लगे हुए कमरे में ताश का खेल जमेगा।

बड़े भाई के कमरे में आते ही कुर्सी छोड़कर गोरा उठ खड़ा हुआ। महिम ने हुक्के में कश लगाते कहा, “भारत के उध्दार के लिए परेशान हो, पहले भाई का उध्दार तो करो”

गोरा महिम के चेहरे की ओर देखता रहा। महिम बोले, “हमारे दफ्तर में जो नया बाबू आया है-लकड़बग्घे जैसा मुँह है- वह बहुत ही शैतान है। बाबुओं को बैबून कहता है; किसी की यदि माँ भी मर जाए तो भी छुट्टी देना नहीं चाहता; कहता है, बहाना है। किसी भी बंगाली को किसी महीने में पूरी तनख्वाह नहीं मिलती.... जुर्माना करता रहता है। उसके बारे में अखबार में एक चिट्ठी छपी थी; पट्ठा समझता है कि मेरा ही काम है। खैर, बिल्कुल झूठ भी नहीं समझता। इसलिए अब अपने नाम से उसका एक कड़ा प्रतिवाद छपाए बिना टिकने नहीं देगा। तुम लोग तो यूनिवर्सिटी के ज्ञान-मंथन से मिले हुए दो रत्न हो; जरा यह चिट्ठी अच्छी तरह लिख देनी होगी। जहाँ-तहाँ उसमें ईवन-हैंडेड जस्टिस, नेवर फेलिंग जेनेरासिटी, काइंड कर्टियसनेस इत्यादि-इत्यादि फिकरे जड़ देने होंगे।”

गोरा चुप ही रहा। हँसकर विनय ने कहा, “दादा, एक ही साँस में इतने सारे झूठ चला दोगे?”

महिम, “शठे शाठ्यं समाचरेत्। बहुत दिनों तक उसके साथ में रहा हूँ, सब-कुछ मेरा देखा हुआ है। जिस ढंग से झूठी बातें वे लोग चला सकते हैं उसकी प्रशंसा करनी पड़ती है। ज़रूरत पड़ने पर कुछ भी उनसे बचा नहीं है। उनमें से एक झूठ बोले तो बाकी सब गीदड़ों की तरह एक ही सुर में 'हुऑं-हुऑं' चिल्ला उठते हैं। हमारी तरह एक को फँसाकर दूसरा वाहवाही पाना नहीं चाहता। यह सत्य जानो, उनको धोखा देने में कोई पाप नहीं है.... हाँ, पकड़ा न जाए, बस।”

महिम बात कहकर ही-ही करते हुए हँसने लगे। विनय से भी हँसे बिना नहीं रहा गया।

महिम बोले, “तुम लोग उनके सामने सच बात कहकर उन्हें शर्मिंदा करना चाहते हो। ऐसी अक्ल भगवान ने तुम्हें न दी होती तो देश की यह हालत क्यों होती इतना तो समझना चाहिए कि जिसके पास ताकत है, वह यदि सेंध भी लगा रहा हो तो हिम्मत दिखाकर उसे पकड़वाये जाने पर वह शर्म से सिर नहीं झुकाता, बल्कि उल्टे चिमटा उठाकर साधू की तरह हुँकारकर मारने आता है। बताओ, यह सच है कि नहीं?”

महिम बात कहकर ही-ही करते हुए हँसने लगे। विनय से भी हँसे बिना नहीं रहा गया।

महिम बोले, “तुम उनके सामने सच बात कहकर उन्हें शर्मिंदा करना चाहते हो। ऐसी अक्ल भगवान ने तुम्हें न दी होती तो देश की यह हालत क्यों होती इतना तो समझना चाहिए कि जिसके पास ताकत है, वह यदि सेंध भी लगा रहा हो तो हिम्मत दिखाकर उसे पकड़वाने जाने पर शर्म से सिर नहीं झकाता, बल्कि उल्टे चिमटा उठाकर साधू की तरह हुंकारकर मारने आता है। बताओ, यह सच है कि‍ नहीं?” विनय, “यह तो ठीक है।”

महिम, “उससे भी बड़े झूठ के कोल्हू से बिना मूल्य का जो तेल मिलता है वह एक-आध छटाँक उसके पैरों पर चुपड़कर यदि कहें-साधू महाराज, बाबा परमहंसजी! कृपा करके अपनी झोली ज़रा झाड़ दीजिए.... उसकी धूल पाकर भी हमतर जाएँगे.... तो शायद अपने ही घर के चोरी हुए माल का कम-से-कम एक हिस्सा फिर अपने हाथ लग सकता है, और साथ ही शांति भंग की भी आशंका नहीं रहती। सोचकर देखो तो इसी को ही कहते हैं पैट्रियटिज्म। किंतु मेरा भैया बिगड़ रहा है। हिंदू होने के नाते वह मुझे बड़े भाई की तरह बहुत मान देता है; उसके सामने मेरी आज की बात ठीक बड़े भाई की-सी नहीं हुई। लेकिन भई, किया क्या जाय! झूठी बात के बारे में भी तो सच्ची बात कहनी पड़ती है! विनय, लेकिन वह लेख मुझे ज़रूर चाहिए। रुको.... मैंने कुछ नोट लि‍ख रखे हैं, वह ले आऊँ।”

कश लगाते-लगाते महिम बाहर चले गए। गोरा ने विनय से कहा, “विनू, तुम दादा के कमरे में जाकर उन्हें बहलाओ। मैं ज़रा यह लेख पूरा कर लूँ।”

“सुनते हो? घबराओ नहीं; तुम्हारे पूजा-घर में नहीं आ रही, हवन पूरा करके ज़रा उस कमरे में आना.... तुमसे बात करनी है। दो नए सन्यासी आए हैं तो कुछ देर तक अब तुमसे भेंट नहीं हो सकेगी, यह मैं समझ गई। इसीलिए कहने आई थी। भूल नहीं जाना, ज़रूर आना!”

बात कहकर आनंदमई फिर घर-गृहस्थी के काम सँभालने लौट गईं।