गोरा / रवीन्द्रनाथ ठाकुर / पृष्ठ ४
सिध्दांत के रूप में जैसे कोई बात मान्य होती है, मनुष्यों पर प्रयोग करते उसे सदा उसी निश्चित भाव से नहीं माना जा सकता। कम-से-कम विनय जैसे लोगों के लिए यह असंभव है। विनय की चंचल-वृत्ति बहुत प्रबल है। इसीलिए बहस के समय एक सिध्दांत का वह बड़ी प्रबलता से समर्थन करता है, किंतु व्यवहार के समय मनुष्य को सिध्दांत से ऊपर माने बिना नहीं रह सकता। यहाँ तक कि गोरा द्वारा प्रचारित जो भी सिध्दांत उसने स्वीकार किए हैं उनमें से कितने स्वयं के सिध्दांत के कारण और कितने गोरा के प्रति अपने अनन्य स्नेह के दबाव से, यह कहना कठिन हैं
गोरा के घर से बाहर आ, अपने घर लौटते समय बरसाती साँझ में वह कीचड़ से बचता हुआ धीरे-धीरे चला जा रहा था, इस समय उसके मन में सिध्दांत और मनुष्य के बीच एक द्वंद्व छिड़ा हुआ था।
आज के ज़माने में तरह-तरह के प्रकट और अप्रकट आघातों से आत्मरक्षा करने के लिए समाज को खान-पान और छुआ-छूत के सभी मामलों में विशेष रूप से सतर्क रहना होगा, यह सिध्दांत विनय ने गोरा
के मुँह से सुनकर सहज ही स्वीकार कर लिया है और इसे लेकर विरोधियों के साथ बहस भी की है। वह कहता रहा है, किले को चारों ओर से घेरकर जब शत्रु आक्रमण कर रहा हो तब किले के प्रत्येक गली-द्वार-झरोखे, प्रत्येक सूराख को बंद करके प्राण-पण से उसकी रक्षा करने को उदारता की कमी नहीं कहा जा सकता।
किंतु गोरा ने आज जो आनंदमई के कमरे में उसके खाने का निषेध कर दिया, इसकी पीड़ा उसे भीतर-ही-भीतर सालने लगी।
विनय के पिता नहीं थे। माँ भी बचपन में छोड़ गई थीं। गाँव में चाचा हैं। बचपन से ही पढ़ाई के लिए विनय कलकत्ता के इस घर में अकेला रहता हुआ बड़ा हुआ है। गोरा के साथ मैत्री के कारण जब से विनय ने आनंदमई को जाना है, उसी दिन से वह उन्हें माँ कहता आया है। कितनी बार उनके यहाँ जाकर उसने छीना-झपटी और ऊधम मचाते हुए खाया है; खाना परोसने में गोरा के साथ आनंदमई पक्षपात करती हैं, यह उलाहना देकर कितनी बार उसने झूठ-मूठ अपनी ईष्या प्रकट की है। दो-चार दिन विनय के न आने से आनंदमई कितनी बेचैनी हो उठती है, विनय को पास बिठाकर खिलाने की आश में कितनी बार उनकी सभा टूटने की प्रतीक्षा करती हुई बैठी रहती हैं, यह सब विनय जानता है। वही विनय आज सामाजिक निंदा के कारण आनंदमई के कमरे में कुछ खा न सकेगा, इसे क्या आनंदमई सह सकेंगी.... या विनय भी सह सह पाएगा?
आगे से अच्छा बाह्मन के हाथ का ही मुझे खिलाएँगी, अपने हाथ का अब कभी नहीं खिलाएँगी.... यह बात हँसकर ही माँ कह गईं, किंतु यह बात तो भयंकर व्यथा की है। इसी बात पर सोच-विचार करता हुआ विनय किसी तरह घर पहुँचा।
सूने कमरे में अंधेरा फैला था। चारों ओर कागज़ और किताबें अस्तव्यस्त बिखरी थीं। दियासलाई से विनय ने तेल का दीया जलाया.... दीवट पर बैरे की कारीगरी के अनेक चिद्द थे। जो सफेद चादर से ढँकी हुई लिखने की मेज़ थी उस पर कई जगह स्याही और तेल के दाग थे। कमरे में आज जैसे उसके प्राण सहसा छटपटा उठे। किसी के संग और स्नेह की कमी उसकी छाती पर बोझ-सा जान पड़ने लगी। देश का उध्दार, समाज की रक्षा इत्यादि कर्तव्यों को वह किसी तरह भी स्पष्ट और सत्य करके अपने सामने नहीं खड़ा कर सक.... इनसे भी कहीं अधिक सत्य वह अनपहचाना पाखी है जो एक दिन सावन की उज्ज्वल सुंदर सुबह में पिंजरे के पास तक आकर पिंजरा छोड़कर चला गया है। किंतु उस पाखी की बात को विनय किसी तरह भी मन में जगह नहीं देगा, किसी तरह नहीं। इसीलिए, मन को ढाढ़स देने के लिए, आनंदमई के जिस कमरे से उसे गोरा ने लौटा दिया, उसी कमरे का चित्र वह मन पर ऑंकने लगा।
साफ-सुथरी पच्चीकारी किया फर्श मानो झिलमिला रहा है; एक तरफ तख्त पर सफेद राजहंस के पंख-सा कोमल स्वच्छ बिछौना है, उसके पास ही एक छोटी चौकी पर अरंडी के तेल की ढिबरी अब तक जला दी गई होगी। माँ निश्चय ही रंग-बिरंगे धागे लिए ढिबरी के पास नीचे झुककर फूल काढ़ रही होंगी। नीचे फर्श पर बैठी लछमिनिया अपने अजीब उच्चारण वाली बंगला में बकवास करती जा रही होगी, और माँ उसका अधिकांश अनसुना करती जा रही होंगी। जब भी माँ के मन को कोई चोट पहुँचती है वह कढ़ाई लेकर बैठ जाती है। विनय अपने मन की ऑंखों को उनके उसी काम में लगे स्तब्ध चेहरे पर स्थिर करने लगा। मन-ही-मन वह बोला, इसी चेहरे की स्नेह-दीप्ति मेरे मन की सारी उलझन से मेरी रक्षा करे.... यही चेहरा मेरी मातृभूमि की प्रतिमा हो जाय, मुझे कर्तव्य की प्रेरणा दे और कर्तव्य-पथ पर दृढ़ रखे.... उसने मन-ही-मन एक बार 'माँ कहकर उन्हें पुकारा और कहा, “तुम्हारा अन्न मेरे लिए अमृत नहीं है, यह बात मैं किसी भी शास्त्र के प्रमाण से कभी नहीं मानूँगा।”
सूने कमरे में दीवार घड़ी की टिक्-टिक् गूँजने लगी। वहाँ बैठना विनय के लिए असह्य हो उठा। दीवट के पास दीवार पर एक छिपकली पतंगों की ओर लपक रही थी, कुछ देर विनय उसकी ओर देखते-देखते उठ खड़ा हुआ और छाता उठाकर बाहर निकल पड़ा। वह क्या करने घर से निकला है, उसके मन में यह स्प्ष्ट नहीं था। शायद आनंदमई के पास ही लौट जाएगा, कुछ ऐसा ही उसका भाव था। किंतु न जाने कैसे अचानक उसके मन में आ गया-आज रविवार है, आज ब्रह्म-सभा में केशव बाबू का व्याख्यान सुना जाय-यह बात मन में आते ही दुविधा छोड़ विनय तेज़ी से उधर चलने लगा। व्याख्यान सुनने का समय अधिक नहीं बचा है, वह जानता था, फिर भी उसका निश्चय विचलित नहीं हुआ।
नियत स्थान पहुँचकर उसने देखा, उपासक उठकर बाहर आ रहे हैं। छाता लगाए-लगाए एक ओर हटकर वह कोने में खड़ा हो गया। ठीक उसी समय मंदिर से परेशबाबू शांत और प्रसन्न मुद्रा में बाहर निकले। उनके साथ चार-पाँच उनके परिजन भी थे; विनय ने उनमें से केवल एक के तरुण मुख को सड़क पर लगे गैस लैंप के प्रकाश में क्षण-भर के लिए देखा, फिर गाड़ी के पहियों के शब्द के साथ सारा दृश्य अंधकार के महासमुद्र में विलीन हो गया।