गोरा / रवीन्द्रनाथ ठाकुर / पृष्ठ ३
गोरा और विनय छत से उतरने की तैयारी कर रहे थे कि तभी गोरा की माँ ऊपर आ गईं। विनय ने उनके पैरों की धूल लेकर प्रणाम किया।
देखने में गोरा की माँ नहीं जान पड़तीं। वह बहुत ही दुबली-पतली और संयत हैं। बाल यदि कुछ-कुछ पके भी हों तो बाहर से मालूम नहीं होता; अचकन देखने पर यही जान पड़ता है कि उनकी उम्र चालीस से कम ही होगी। चेहरे की बनावट अत्यंत सुकुमार; नाक, ओठ, ठोड़ी और ललाट की रेखाएँ सब मानो बड़े यत्न से उकेरी हुईं; शरीर का प्रत्येक अंग नपा-तुला; चेहरे पर हमेशा एक ममत्व और तेजस्वी बुध्दि का भाव झलकता रहता है। श्याम-वर्ण रंग, जिसका गोरा के रंग से कोई मेल नहीं है। उनको देखते ही एक बात की ओर हर किसी का ध्याचन जाता है कि साड़ी के साथ कमीज़ पहने रहती हैं। जिस समय की हम बात कर रहे हैं उन दिनों यद्यपि आधुनिक समाज में स्त्रियों में शमीज़ या ऊपर के वस्त्र पहनेन का चलन शुरू हो गया था तथापि शालीन गृहिणियाँ इसे निराख्रिस्तानीपन कहकर इसकी अवज्ञा करती थीं। आनंदमई के पति, कृष्णदयाल बाबू कमिसरियट में काम करते थे। जवानी से ही आनंदमई उनके साथ पश्चिम में रहीं थी। इसी कारण यह संस्कार उनके मन पर नहीं पड़ा था कि अच्छी तरह बदन ढँकना, या ऐसे कपड़े पहनना लज्जा की या हँसी की बात है। बर्तन माँज-घिसकर, घर-बार धो-पोंछकर, राँधना-बनाना, सिलाई-कढ़ाई और हिसाब-गिनती करके, कपड़े धोकर धूप दिखाकर अड़ोस-पड़ोस की खोज-खबर लेकर भी उनका समय चुकता ही नहीं। अस्वस्थ होने पर भी वह शरीर से किसी तरह की ढिलाई नहीं बरततीं। कहती हैं,
“बीमारी से तो मेरा कुछ नहीं बिगड़ेगा, लेकिन काम किए बिना कैसे चलेगा?”
गोरा की माँ बोलीं, “गोरा की आवाज़ जब नीचे सुनाई पड़ती है तो मैं फोरन जान जाती हूँ कि जरूर विनू आया होगा। पिछले कई दिन से घर में बिल्कु।ल शांति थी। क्या हुआ था बेटा, तू इतने दिन आया क्यों नहीं? कुछ बीमार-ईमार तो नहीं रहा?”
सकुचाते हुए विनय ने कहा, “नहीं माँ, बीमार नहीं.... लेकिन यह ऑंधी-पानी.... “
गोरा बोला, “क्यों नहीं! इसके बाद बरसात जब खत्म हो जाएगी तब विनय बाबू कहेंगे, कड़ी धूप पड़ रही है! देवता को दोष देने से वे कोई सफाई तो दे नहीं सकते। इनके मन का असली भेद तो अंतर्यामी ही जानते हैं।”
विनय बोला, “क्या फिजूल बकते हो, गोरा?”
आनंदमई बोलीं, “ठीक तो है बेटा, ऐसे नहीं कहा करते। मनुष्य का मन कभी ठीक रहता है, कभी नहीं रहता.... सब दिन एक जैसे थोड़े ही होते हैं? इसको लेकर उलझने से और झंझट खड़ा होता है। चल विनू, मेरे कमरे में चल, तेरे लिए कुछ परोसकर आई हूँ।” सिर हिलाकर गोरा ने ज़ोर से कहा, “नहीं माँ, यह नहीं होने का। तुम्हारे कमरे में विनय को नहीं खाने दूँगा।”
आनंदमई, “वाह रे! क्यों रे, तुझे तो मैंने कभी खाने को नहीं कहा.... इधर तेरे पिता भी महा शुध्दाचारी हो गए हैं, खुद का बनाया छोड़कर कुछ खाते नहीं। मेरा विनू अच्छा लड़का है, तेरी तरह कट्टटर नहीं है.... तू इसे ज़बरदस्ती बाँधकर रखना चाहता है?' गोरा, “बिल्कुहल ठीक! मैं इसे बाँधकर ही रखूँगा। तुम जब तक उस ख्रिस्तान नौकरानी लछमिया को भगा नहीं देतीं तब तक तुम्हारे कमरे में खाना नहीं हो सकेगा!”
आनंदमई, “अरे गोरा, ऐसी बात तुझे ज़बान पर नहीं लानी चाहिए। हमेशा से तू उसके हाथ का बना खाता रहा है; उसी ने तुझे बचपन से पाल-पोसकर बड़ा किया है। अभी उस दिन तक उसके हाथ की बनाई चटनी के बिना तुझे खाना नहीं रुचता था। जब बचपन में तुझे माता निकली थी तब लछमिया ने ही तेरी सेवा करके तुझे बचाया, वह मैं कभी नहीं भूल सकूँगी।”
गोरा, “उसे पेंशन दे दो, ज़मीन खरीद दो, घर बनवा दो, जो चाहो कर दो.... किंतु उसे और नहीं रखा जा सकता, माँ!”
आनंदमई, “गोरा, तू समझता है, पैसा देकर ही सब ऋण चुकता हो जाते हैं! वह ज़मीन भी नहीं चाहती, घर नहीं चाहती; तुझे नहीं देख पाएगी तो मर जाएगी।”
गोरा, “तुम्हारी जैसी मर्ज़ी.... रखे रहो उसे! पर वीनू तुम्हारे कमरे में नहीं खा सकेगा। जो नियम है वह मानना ही होगा, उससे इधर-उधर किसी तरह नहीं हुआ जा सकता। माँ, तुम इतने बड़े अध्यारपक वंश की हो, तुम जो आचार का पालन नहीं करतीं यह.... “ आनंदमई, “रे, पहले तेरी माँ आचार मानकर ही चलती थी; इसी के लिए उसे कितने ऑंसू बहाने पड़े.... तब तू कहाँ था? रोज़ शिव की प्रतिष्ठा करके पूजा करने बैठती थी और तेरे पिता उठाकर सब फेंक देते थे! उन दिनों अपरिचित ब्राह्मण के हाथ का खाते भी मुझे घृणा होती थी। उन दिनों हर जगह रेल नहीं जाती थी.... बैलगाड़ी में, डाकगाड़ी में, पालकी में, ऊँट की सवारी में कितने ही दिन मैंने उपवास में काटे! क्या सहज ही तुम्हारे पिता मेरा आचार भंग कर सके? वह सब जगह मुझको साथ लेकर घूमते-फिरते थे, इसीलिए उनके साहब-अफसर उनसे खुश थे, और उनकी तनख्वाह भी बढ़ती गई.... इसीलिए उन्हें बहुत दिनों तक एक ही जगह रहने दिया जाता, कोई बदली करना न चाहता। अब तो बुढ़ापे में नौकरी से छुट्टी पाकर बहुत-सा पैसा जमा करके सहसा वह बड़े आचारवान हो उठे हैं। किंतु मुझसे वह नहीं होगा। मेरी सात पीढ़ी के संस्कार एक-एक करके उखाड़ फेंके गए.... अब क्या कह देने भर से ही फिर जम जाएँगे?”
गोरा, “अच्छा, पिछली पीढ़ियों की बात तो छोड़ो.... वे लोग आपत्ति करने आने वाले नहीं, किंतु हम लोगों की खातिर तुम्हें कुछ बातें मानकर ही चलना होगा। शास्त्र की मर्यादा नहीं रखता तो न सही, स्नेह का मान तो रखना होगा।”
आनंदमई, “तू मुझे इतना क्या समझा रहा है? मेरे मन में क्या होता है वह मैं ही जानती हूँ। यदि मेरे कारण स्वामी और पुत्र को पग-पग पर मुश्किल ही होने लगी तो मुझे क्या सुख मिलेगा? किंतु तुझे गोद लेते ही मैंने आचार को बहा दिया था। यह तू जानता है? छोटे बच्चे को छाती से लगाकर ही समझ में आता है कि दुनिया में जात लेकर काई नहीं जन्मता। जिस दिन यह बात मेरी समझ में आ गई, उसी दिन से मैंने यह निश्चित रूप से जान लिया कि यदि मैं ख्रिस्तान या छोटी जात कहकर किसी से घृणा करूँगी तो ईश्वर तुझे भी मुझसे छीन लेंगे। तू मेरी गोद भरकर मेरे घर में प्रकाश किए रहे, तो मैं दुनिया की किसी भी जात के लोगों के हाथ का पानी पी लूँगी।”
विनय के मन में आज आनंदमई की बात सुनकर हठात् एक धुँधले संदेह का आभास हुआ। एक बार उसने आनंदमई के और एक बार गोरा के मुँह की ओर देखा; किंतु फिर तत्क्षण ही तर्क का भाव मन से निकाल दिया।
गोरा ने कहा, “माँ, तुम्हारा तर्क ठीक समझ में नहीं आया। जो लोग आचार-विचार करते हैं और शास्त्र मानकर चलते हैं उनके घर में भी तो बच्चे बने रहते हैं। तुम्हारे लिए ही ईश्वर अलग कानून बनाएँगे, ऐसी बात तुम्हारे मन में क्यों आई?”
आनंदमई, “जिसने मुझे तुम्हें दिया उसी ने ऐसी बुध्दि भी दी, इसका मैं क्या करूँ? इसमें मेरा कोई बस नहीं। किंतु पगले, तेरा पागलपन देखकर मैं हूँसू या रोऊँ, कुछ समझ में नहीं। खैर, वह सब बात जाने दो! तो विनय मेरे कमरे में नहीं खाएगा?”
गोरा, “उसे तो मौका मिलने की देर है.... अभी दौड़ेगा। वह ब्राह्मण का लड़का है, दो टुकड़े मिठाई देकर यह बात उसे भुला देने से नहीं चलेगा। उसे बहुत त्याग करना होगा, प्रवृत्ति को दबाना होगा तभी वह अपने जन्म के गौरव की रक्षा कर सकेगा। लेकिन माँ, तुम बुरा मत मानना.... मैं तुम्हारे पाँव पड़ता हूँ।”
आनंदमई, “बुरा क्यों मानूँगी? तू जो कर रहा है जानकर नहीं कर रहा है, यह मैं तुझे बताए देती हूँ। मेरे मन में यही क्लेश रह गया कि तुझे मैंने आदमी तो बनाया किंतु.... खैर, छोड़ इसे। तू जिसे धर्म कहता फिरता है उसे मैं नहीं मान सकूँगी। तू मेरे कमरे में मेरे हाथ का नहीं खाएगा, न सही.... किंतु तुझे दोनों बेला देखती रह सकूँ यही मेरी इच्छा है.... विनय बेटा, तुम ऐसे उदास न होओ.... तुम्हारा मन कोमल है, तुम सोच रहे हो कि मुझे चोट पहुँची, लेकिन ऐसा नहीं है, बेटा! फिर किसी दिन न्यौता देकर किसी अच्छे ब्राह्मण के हाथ से बना तुम्हें खिलवा दूँगी.... उसमें अड़चन कौन-सी है! मैं ढीठ हूँ, लछमिया के हाथ का पानी पीऊँगी, यह मैं सभी से कहे देती हूँ।”
गोरा की माँ नीचे चली गईं। कुछ देर विनय चुप खड़ा रहा। फिर धीरे-धीरे बोला, “गोरा, यह तो कुछ ज्यादती हो रही है।” गोरा, “किसकी ज्यादती?”
विनय, “तुम्हारी।”
गोरा “रत्ती-भर भी नहीं। जिसकी जो सीमा है उसे ठीक मानते हुए ही मैं चलना चाहता हूँ। छुआछूत के मामले में सुई की नोक-भर हटने से भी अंत में कुछ बाकी नहीं रहेगा।
विनय, “किंतु माँ जो है।”
गोरा, “माँ किसे कहते हैं यह मैं जानता हूँ। उसको मुझे बताने की ज़रूरत नहीं है। मेरी माँ-जैसी माँएँ कितनी ही होंगी! किंतु आचार को न मानना शुरू करूँ तो शायद एक दिन माँ को भी नहीं मानूँगा। देखो विनय, एक बात तुम्हें बताता हूँ, याद रखो! हृदय बड़ी उत्तम चीज़ है, किंतु सबसे उत्तम नहीं है।”
थोड़ी देर बाद विनय कुछ झिझकता हुआ बोला, “देखो गोरा, आज माँ की बात सुनकर मेरे मन में एक हलचल-सी मच गई है। मुझे लगता है माँ के मन में कोई बात है जो वह हमें समझा नहीं पा रही हैं, इसी से कष्ट पा रही हैं।” अधीर होकर गोरा ने कहा, “अरे विनय, कल्पना को इतनी ढील मत दो.... इससे केवल समय नष्ट होता है और हाथ कुछ नहीं आता।”
विनय, “तुम दुनिया की किसी चीज़ की ओर कभी सीधी तरह देखते ही नहीं; तभी जो तुम्हें नज़र नहीं पड़ता उसी को तुम कल्पना कहकर उड़ा देना चाहते हो! किंतु मैं तुमसे कहता हूँ, मैंने कई बार देखा है, मानो माँ किसी बात को लेकर सोच रही हैं.... किसी बात को ठीक तरह सुलझा नहीं पा रही हैं, और इसीलिए उनके मन में एक घुटन है। गोरा, उनकी बात तुम्हें ज़रा ध्याान देकर सुननी चाहिए।”
गोरा, “ध्यान देकर जितना सुना जा सकता है उतना तो सुनता हूँ। उससे अधिक सुनने की कोशिश करने में गलत सुनने की आशंका रहती है। इसलिए उसकी कोशिश नहीं करता।”