गोरा / रवीन्द्रनाथ ठाकुर / पृष्ठ १२
कई प्याले चाय बनाकर सुचरिता ने परेशबाबू के चेहरे की ओर देखा। चाय के लिए किससे वह अनुरोध करे और किससे नहीं, इस बारे में उसे दुविधा हो रही थी। गोरा की ओर देखते हुए वरदासुंदरी ने पूछ ही तो लिया, “शायद आप तो यह सब कुछ लेंगे नहीं।”
गोरा ने कहा, “नहीं।”
वरदा, “क्यों? जात चली जाएगी क्या?”
गोरा ने कहा, “हाँ।”
वरदा, “आप जात मानते हैं?”
गोरा, “जात क्या मेरी अपनी बनाई चीज़ है जो न मानूँगा? जब समाज को मानता हूँ तब जात को भी मानता हूँ।”
वरदा, “क्या हर बात में समाज को मानना ही होगा?”
गोरा, “न मानने से समाज टूट जाएगा।”
वरदा, “टूट ही जाएगा तो क्या बुराई है?”
गोरा, “जिस डाल पर सब एक साथ बैठे हों क्या उसे काट देने में बुराई नहीं है?”
मन-ही-मन सुचरिता ने बहुत विरक्त होकर कहा, “माँ, फिजूल बहस करने से क्या फायदा- वह हमारा छुआ हुआ नहीं खाएँगे।”
पहली बार गोरा ने सुचरिता की ओर स्थिर दृष्टि से देखा। सुचरिता विनय की ओर देखकर थोड़े संशय के स्वर में बोली, “आप क्या.... ?”
विनय कभी चाय नहीं पीता। मुसलमान की बनाई हुई डबल रोटी-बिस्कुट खाना भी उसने बहुत दिन पहले छोड़ दिया है। किंतु आज उसके न खाने से नहीं चलेगा। सिर उठाकर उसने ज़ोर से कहा, “हाँ, अवश्य लूँगा।” कहकर उसने गोरा की ओर देखा। गोरा के ओठों पर कठोर हँसी की हल्की-सी रेखा दीख पड़ी। चाय विनय को कड़वी लगी, किंतु उसने पीना नहीं छोड़ा।
मन-ही-मन वरदासुंदरी ने कहा- आह, यह विनय कितना भला लड़का है! फिर गोरा की ओर से उन्होंने बिल्कुील ही मुँह फेरकर विनय की ओर ध्यालन दिया। यह देखकर परेशबाबू ने धीरे-से अपनी कुर्सी गोरा की ओर सरकाते हुए मृदु स्वर में उससे बात शुरू किया।
सड़क पर मूँगफली वाले ने 'ताज़ी भुनी मूँगफली' की हाँक लगाई। सुनते ही लीला ने ताली बजाकर कहा,”सुधीर दा, मूँगफली वाले को बुलाओ!”
उसके कहते ही सतीश छत से झुककर मूँगफली वाले को बुलाने लगा।
इसी समय एक सज्जन और आ उपस्थिति हुए। सभी ने उन्हें 'पानू बाबू' कहकर संबोधित किया। किंतु उनका असली नाम था हरानचंद्र नाग। उस टोली में विदवता और बुध्दि के कारण उनकी विशेष ख्याति है। यद्यपि किसी ओर से भी कोई बात साफ-साफ नहीं कही गई, तथापि यह संभावना मानो वायुमंडल में बराबर तैरती रहती है कि इन्हीं के साथ सुचरिता का विवाह होगा। पानू बाबू का मन भी सुचरिता की ओर लगा है, इसके बारे में किसी को कोई संदेह नहीं था। और इसी बात की आड़ लेकर लड़कियाँ सदा सुचरिता से मज़ाक करती रहती थीं।
पानू बाबू स्कूल में मास्टरी करते हैं। वरदासुंदरी उन्हें निरा स्कूलमास्टर समझ उनका विशेष सम्मान नहीं करतीं। वह कुछ ऐसा भाव दर्शाती हैं कि पानू बाबू को अगर उनकी किसी कन्या के प्रति अनुराग प्रकट करने का साहस नहीं हुआ, तो वह उचित ही हुआ है। उनके भावी दामाद डिप्टीगिरी के पद की कठिन शर्त से बँधे हुए हैं....
हरानबाबू की ओर सुचरिता के एक प्याला चाय सरकाते ही लावण्य दूर से ही उसकी ओर देखकर दबे ओठों से मुस्कराने लगी। वह सूक्ष्म हँसी भी विनय की नज़र से बची न रही। इतने थोड़े समय में ही दो-एक मामलों में विनय की नज़र बड़ी तेज़ और सतर्क हो उठी थी- नहीं तो इससे पहले वह नज़र के पैनेपन के लिए ऐसा प्रसिध्द नहीं था।
हरान और सुधीर काफी दिनों से एक परिवार की लड़कियों से परिचित हैं, और इस परिवार के इतिहास के साथ इतने घुले हुए हैं कि लड़कियों के आपस के इशारों का विषय बन गए हैं। विनय को यह बात विधाता के अन्याय सी लगी तथा उसके मन में चुभन-सी होने लगी। उधर हरान के आ जाने से सुचरिता के मन में थोड़ी-सी आशा का संचार हुआ। गोरा की हेकड़ी को जैसे भी हो नीचा दिखाया जाय तभी उसका जी ठंडा होगा। दूसरे मौकों पर हरान की बहसबाज़ी से वह प्राय: खीझ उठती, किंतु आज इस तर्क-वीर को देखकर उसने आनंदपूर्वक उसके सम्मुख चाय और डबलरोटी की प्लेट हाज़िर कर दी। परेशबाबू ने कहा, “पानू बाबू, ये हैं हमारे....” “हरान ने कहा, “इन्हें मैं अच्छी तरह जानता हूँ। एक समय यह हमारे ब्रह्म-समाज के बड़े उत्साही सदस्य थे।”
यह कहकर गोरा से किसी तरह की और बातचीत की कोशिश न करके हरान चाय के प्याले की ओर ही सारा ध्यान देने लगे।
उन दिनों तक दो-एक बंगाली ही सिविल सर्विस की परीक्षा पास करके स्वदेश लौटे थे। उन्हीं में से एक के स्वागत की बात सुधीर सुना रहा था। हरान ने कहा, “बंगाली चाहे जितनी परीक्षाएँ पास कर लें, लेकिन किसी बंगाली के द्वारा काम कुछ नहीं हो सकता।”
कोई बंगाली मजिस्ट्रेट या जज ज़िले का भार नहीं सँभाल सकेगा, यही प्रमाणिक करने के लिए हरानबाबू बंगाली चरित्र के अनेक दोषों और दुर्बलताओं की व्याख्या करने लगे। गोरा का मुँह देखते-देखते लाल हो उठा। उसने अपनी शेर की-सी दहाड़ को भरकर दबाते हुए कहा, “आपकी राय अगर सचमुच यही है, तो आराम से यहाँ पर बैठे हुए डबलरोटी किस मुँह से चबा रहे हैं?”
विस्मय से हरान ने भवें उठाते हुए कहा, “फिर आप क्या करने को कहते हैं?”
गोरा, “या तो बंगाली चरित्र के कलंक को मिटाइए, या गले में फाँसी लगाकर मरिए। हमारी जाति के द्वारा कभी कुछ नहीं हो सकेगा, यह कटु बात क्या ऐसी आसानी से कह देने की है? आपके गले में रोटी अटक नहीं जाती?”
हरान, “सच्ची बात कहने में क्या बुराई है?”
गोरा, “आप बुरा न मानें, किंतु यह बात अगर आप यथार्थ में सच समझते, तो ऐसे आराम से यों बढ़ा-चढ़ाकर नहीं कह सकते थे। आप जानते हैं कि बात झूठ है, तभी यह बात आपके मुँह से निकल सकी। हरानबाबू, झूठ बोलना पाप है, झूठी निंदा तो और भी बड़ा पाप है, और अपनी जाति की झूठी निंदा से बड़ा पाप शायद ही कोई हो!”
हरान गुस्से से बेचैन हो उठे। गोरा ने कहा, “आप अकेले ही क्या अपनी सारी जाति से बड़े हैं? आप गुस्सा करेंगे, और अपने पुरखों की ओर से हम लोग चुपचाप सब सहते जाएँगे?”
अब तो हरान के लिए पराजय मानना और भी कठिन हो गया। उन्होंने और भी ऊँचे स्वर में बंगालियों की निंदा करना शुरू किया। बंगाली समाज की अनेक प्रथाओं का उदाहरण देकर वे बोले, “ये सब रहते हुए बंगाली से कोई उम्मीद नहीं की जा सकती।”
गोरा ने कहा, “जिन्हें आप कुप्रथा कहते हैं केवल अंगेज़ी किताबें रटकर कहते हैं; स्वयं उनके बारे में कुछ नहीं जानते। जब अंग्रेज़ की सब कुप्रथाओं की भी आप ठीक ऐसे ही निंदा कर सकेंगे तब इस बारे में और कुछ कहिएगा।”
इस प्रसंग को परेशबाबू ने बंद करने की चेष्टा की, किंतु क्रुध्द हरान ने बहस को किसी तरह नहीं छोड़ा। सूर्य अस्त हो गया; बादलों के भीतर से आने वाले एक अपूर्व लाल प्रकाश से सारा आकाश लालिमामय हो उठा। विनय के मन के भीतर एक स्वर तर्क के कोलाहल को डुबाता हुआ गूँज उठा। परेशबाबू अपनी सायंकालीन उपासना में चित्त लगाने के लिए छत से उठकर बगीचे में चंपा के पेड़ के नीचे बने हुए चबूतरे पर जा बैठे।
वरदासुंदरी का चित्त जैसे गोरा से विमुख था, वैसे ही हरान भी उनके विशेष प्रिय नहीं थे। इन दोनों की बहस जब उनके लिए बिल्कुदल आसह्य हो गई तब उन्होंने विनय बाबू को संबोधित कर कहा, “चलिए विनय बाबू, हम लोग कमरे में चलें!”
वरदासुंदरी का यह स्नेहपूर्ण पक्षपात स्वीकार करके विनय को बेबस होकर छत से कमरे में जाना पड़ा। लड़कियों को भी वरदा ने बुला लिया। सतीश बहस की गति देखकर पहले ही मूँगफली का अपना हिस्सा लेकर और कुत्ते खुद्दे को साथ लिए वहाँ से जा चुका था।
वरदासुंदरी विनय के सामने अपनी लड़कियों के गुण सुनाने लगीं। लावण्य से बोली, “अपनी वह कापी लाकर विनय बाबू को दिखाना....”
नए परिचितों को अपनी कापी दिखाने का लावण्य को अभ्यास हो गया है। यहाँ तक कि मन-ही-मन वह इसकी राह देखती रहती है। आज बहस उठ खड़ी होने के कारण वह कुंठित-सी हो गई थी। विनय ने कापी खोलकर देखी, उसमें अंग्रेज़ी कवि मूर और लांगफेलों की कविताएँ लिखी हुई थीं। हाथ की लिखावट परिश्रम और सुघड़ता का परिचय दे रही थी। कविताओं के शीर्षक और प्रथमाक्षर रोमन शैली में लिखे गए थे।
विनय के मन में कापी देखकर वास्तविक विस्मय हुआ। उन दिनों मूर की कविता कापी में नकल कर सकना लड़कियों के लिए कम बहादुरी की बात नहीं थी। विनय का मन काफी प्रभावित हो गया है, यह देखकर वरदासुंदरी ने उत्साह से मँझली लड़की संबोधित करके कहा, “ललिता, तू बड़ी लक्ष्मी-बेटी है, ज़रा अपनी वह कविता....” रुखाई से ललिता ने कहा, “नहीं माँ, मुझसे नहीं बनेगा। वह मुझे अच्छी तरह याद नहीं।” यह कहकर वह दूर खिड़की के पास खड़ी होकर बाहर सड़क की ओर देखने लगी।
वरदासुंदरी ने विनय को समझाया, “इसे याद सब-कुछ है, किंतु बड़ी घुन्नी है- अपनी विद्या को प्रकट नहीं करना चाहती।” उन्होंने ललिता की आश्चर्यजनक विद्या-बुध्दि का परिचय देने के लिए दो-एक घटनाओं का हवाला देकर कहा, “ललिता बचपन से ही ऐसी है, रुलाई आने पर उसकी ऑंखों में ऑंसू भी आते थे।” इस मामले में उसके स्वभाव की पिता से तुलना भी उन्हांने की थी।