गोरा / रवीन्द्रनाथ ठाकुर / पृष्ठ १३

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अब लीला की बारी आई। उसे कहते ही वह पहले तो खिलखिलाकर हँसती रही; फिर धड़ाधड़ एक ही साँस में चाबी की गुड़िया की तरह बिना अर्थ समझे हुए 'टि्वंकल टि्वंकल लिट्ल स्टार' कविता सुना गई। अब संगीत-विद्या का परिचय देने का समय आ पहुँचा है, यह समझकर ललिता कमरे से बाहर चली गई। तब तक बाहर आकर छत पर बहस तेजाबी हो उठी थी। गुस्से में आकर हरान तर्क छोड़कर गालियों पर उतर आने को हो रहे थे। हरान की अशिषटता से लज्जित और विरक्त होकर सुचरिता गोरा का पक्ष लेने लगी थी, यह बात भी हरान के लिए सांत्वीना देने वाली नहीं थी।

आकाश में कालिमा और सावन के मेघ घने हो गए। सड़क पर बेला के फूलों की हाँक लगाते हुए फेरी वाले निकल गए। सामने सड़क के कृष्णचूड़ा पेड़ के पत्ते में जुगनू चमकने लगे। साथ के घर की पोखर के पानी पर एक घनी काली परत छा गई।

परेशबाबू उपासना पूरी करके फिर छत पर आ गए। उन्हें देखते ही गोरा और हरान दोनों ही झेंपकर चुप हो गए। खड़े होकर गोरा ने कहा, “रात हो गई, अब चलूँ!”

विदा लेकर विनय भी कमरे से बाहर छत पर आ गया। परेशबाबू ने गोरा से कहा, “तुम्हारी जब मर्जी हो यहाँ आना! कृष्णदयाल मेरे भाई के बराबर हैं। अब उनसे मेरा मत नहीं मिलता, मुलाकात भी नहीं होती, चिट्ठी-पत्री बंद है; लेकिन बचपन की दोस्ती नस-नस में बस जाती है कृष्णदयाल के नाते तुमसे भी मेरा बड़ा निकट संबंध है। ईश्वर तुम्हारा मंगल करें!”

परेशबाबू के शांत मधुर स्वर से गोरा की इतनी देर तक बहस की गर्मी मानो सहसा ठंडी पड़ गई। गोरा ने आते समय परेशबाबू के प्रति कोई विशेष आदर प्रकट नहीं किया था। किंतु जाते समय सच्ची श्रध्दा से प्रणाम करता गया। सुचरिता से किसी तरह का विदा-सम्भाषण उसने नहीं किया। सुचरिता उसके सम्मुख है, अपनी किसी चेष्टा से इसको स्वीकार करना ही उसने अशिष्टता समझा। विनय ने परेशबाबू को झुककर प्रणाम किया और सुचरिता की ओर मुड़कर उसे नमस्कार किया। फिर लज्जित-सा शीघ्रता से गोरा के पीछे-पीछे नीचे उतर गया।

हरानबाबू विदा लेने से बचने के लिए कमरे में जाकर मेज़ पर रखी हुई 'ब्रह्म-संगीत' पुस्तक उठाकर उसके पन्ने उलटते रहे।

विनय और गोरा के जाते ही हरान जल्दी से छत पर आकर परेशबाबू से बोले, “देखिए, हर किसी के साथ लड़कियों का परिचय करा देना सम्माननीय नहीं समझता।” भीतर-ही-भीतर सुचरिता कुढ़ती रही थी; अब धीरज न रख सकी। बोली, “यदि पिताजी यह नियम मानते तब तो आपसे हम लोगों का परिचय न हो पाया होता।” हरान बोले, “मेल-जोल अपने समाज तक सीमित रखना ही अच्छा होता है।” हँसकर परेशबाबू बोले, “पारिवारिक अंत:पुर को थोड़ा और विस्तार देकर आप एक सामाजिक अंत:पुर बनाना चाहते हैं। लेकिन मैं समझता हूँ, लड़कियों का अलग-अलग मत के लोगों से मिलना ठीक ही है, नहीं तो यह उनकी बुध्दि को जान-बूझकर कमज़ोर करना होगा। इसमें भय या लज्जा का तो कोई कारण नहीं दीखता।” हरान, “मैं यह नहीं कहता कि भिन्न मत के लोगों से लड़कियों को नहीं मिलना चाहिए। किंतु लड़कियों से कैसे व्यवहार करना चाहिए, इसकी तमीज़ तक उन्हें नहीं है।” परेशबाबू, “नहीं-नहीं, यह आप क्या कहते हैं? जिसे आप तमीज़ की कमी कहते हैं वह केवल एक संकोच है.... लड़कियों से मिले-जुले बिना वह दूर नहीं होता।” उध्दत भाव से सुचरिता ने कहा, “देखिए, पानू बाबू, आज की बहस में तो मैं अपने समाज के ही आदमी के व्यवहार से लज्जित हो रही थी।” इसी बीच दौड़ते हुए आकर लीला ने “दीदी, दीदी!” कहते हुए सुचरिता का हाथ पकड़ा और उसे भीतर खींचती हुई ले गई।


उस दिन बहस में गोरा को नीचा दिखाकर सुचरिता के सामने अपनी विजय-पताका फहराने की हारन की तीव्र इच्छा थी। सुचरिता भी आरंभ में यही आशा कर रही थी। किंतु संयोग से हुआ इससे ठीक उलटा ही। धार्मिक-विश्वास और सामाजिक सिध्दातों में सुचरिता की सोच गोरा से नहीं मिलती थी। किंतु अपने देश के प्रति ममता, अपनी जाति के लिए पीड़ा उसके लिए स्वाभाविक थी। वह देश के मामलों की चर्चा प्राय: करती रही हो, ऐसा नहीं था; किंतु उस दिन जाति की निंदा सुनकर अचानक जब गोरा गरज उठा, तब सुचरिता के मन में उसके अनुकूल ही प्रतिध्वनि गूँज गई। इतनी पीड़ा के साथ, इतने दृढ़ विश्वास के साथ कभी किसी ने उसके सामने देश की बात नहीं की थी। साधारणतया हमारे देश के लोग अपने देश और जाति की चर्चा में कुछ दिखावे का-सा भाव दिखाते रहते हैं; मानो वास्तव में वे उन पर विश्वास न रखते हों। इसीलिए कविता करते समय देश के बारे में वे जो चाहे कह दें, देश पर उनकी आस्था नहीं होती। किंतु गोरा अपने देश के सारे दु:ख, दुर्गति, दुर्बलता के पार एक महान सच्चारई को साक्षात देख सकता था, इसलिए देश के दारिद्रय को अस्वीकार किए बिना भी उसमें देश के प्रति ऐसी गहरी श्रध्दा थी। देश की आंतरिक शक्ति के प्रति उसमें ऐसा अडिग विश्वास था कि उसके निकट आने पर संशय करने वाले भी उसकी दुविधा-विहीन देशभक्ति की ललकार सुनकर हार जाते थे। गोरा की इसी अविचल भक्ति के सामने हरान के अज्ञानपूर्ण तर्क सुचरिता को निरंतर अपमान-शूल से चुभ रहे थे। बीच-बीच में वह झिझक छोड़कर ऊबे भाव से हरान की दलीलों का प्रतिवादन किए बिना न रह सकी थी।

फिर गोरा और विनय की पीठ के पीछे हरान ने जब ईष्यावश भद्दे ढंग से उनकी बुराई करनी शुरू की तब इस ओछेपन के विरुध्द भी सुचरिता को गोरा का ही पक्ष लेना पड़ा।

तब भी ऐसा नहीं था कि गोरा के विरुध्द सुचरिता के मन का विद्रोह एकदम शांत हो गया हो। गोरा का सिर पर चढ़ने वाला उध्दत हिंदूपन अब भी उसके मन पर आघात कर रहा था। वह ऐसा समझ रही थी कि इस हिंदूपन के भीतर कहीं प्रतिकूलता का भाव ज़रूर है- वह सहज शांत भाव नहीं हैं, अपनी आस्था में परिपूर्ण नहीं हैं बल्कि सर्वदा दूसरे को चोट पहुँचाने के लिए कमर कसे हुए हैं।

उस दिन शाम को हर बात में, हर काम में, यहाँ तक कि भोजन करते समय और लीला को कहानियाँ सुनाते समय भी सुचरिता के मन में कहीं गहरे में एक पीड़ा कसकती रही, जिसे वह किसी तरह भी दूर नहीं कर सकी। काँटा कहाँ चुभा है, यह ठीक-ठीक जानकर ही उसे निकाला जा सकता है। मन के काँटे को ढूँढ निकालने के लिए ही उस रात सुचरिता देर तक छत के बरामदे में अकेली बैठी रही।

रात के अंधकार में उसने अपने मन की अकारण जलन को जैसे पोंछकर दूर कर देने की कोशिश की, किंतु कुछ लाभ नहीं हुआ। हृदय का बोझ हल्का करने के लिए उसने रोना चाहा, पर रो भी न सकी। एक अजनबी युवक माथेपर तिलक लगाकर गया, अथवा उसे बहस में हराकर उसका अहंकार नहीं तोड़ा जा सका, इसी बात को लेकर सुचरिता इतनी देर से पीड़ा पा रही है, इससे अधिक बेतुकी और हास्यास्जनक बात और क्या हो सकती है! इन कारणों को बिल्कुनल असंभव मानकर उसने मन से निकाल दिया। तब असल तथ्य उसके सामने आया, और उसका स्मरण आते ही सुचरिता को बड़ी लज्जा का बोध हुआ। आज तीन-चार घंटे तक सुचरिता उस युवक के सामने बैठी रही थी और बीच-बीच में उसका पक्ष लेकर बहस में योग देती रही थी, फिर भी मानो उसने उसे बिल्कुल लक्ष्य ही नहीं किया; जाते समय भी जैसे उसकी ऑंखों ने सुचरिता को देखा ही न हो। यह संपूर्ण उपेक्षा की सुचरिता को बहुत गहरे में चुभ गई है, इसमें कोई संदेह न रहा। दूसरे घर की लड़कियों से मेल-जोल का अभ्यास न होने से जो एक संकोच होता है- विनय के व्यवहार में जैसे संकोच का परिचय मिलता है- उस संकोच में भी एक शरमीली नम्रता होती है। गोरा के व्यवहार में उसका लेश भी नहीं था। उसकी इस कठोर और प्रबल उदासीनता को सह लेना या अवज्ञा करके उड़ा देना सुचरिता के लिए आज क्यों असंभव हो उठा है? इतनी बड़ी उपेक्षा अबोध पर वह मानो मरी जा रही थी। हरान की थोथी दलीलों से जब एक बार सुचरिता बहुत अधिक उत्तेजित हो उठी थी तब गोरा ने एक बार उकी ओर देखा था। उस चिवन में संकोच का लेश-मात्र भी नहीं था- किंतु उसमें क्या था यह भी समझना कठिन था। उस समय क्या मन-ही-मन वह कह रहा था- यह लड़की कितनी निर्लज्ज है? अथवा-इसकी हिम्मत तो देखो.... बिना बुलाए पुरुषों की बातचीत में टाँग अड़ाने आ गई है? लेकिन उसने अगर ठीक ऐसा ही सोचा हो, तो उससे क्या आता-जाता है? उससे कुछ भी आता-जाता नहीं फिर भी सुचरिता को यह सोचकर-सोचकर बड़ी तकलीफ होने लगी। उसने सारे प्रसंग को भूल जाने जाने की, मन से मिटा देने की चेष्टा की; पर सब व्यर्थ। तब उसे गोरा पर गुस्सा आने लगा। मन के पूरे बल से उसने चाहा कि गोरा को एक बदतमीज़ और उध्दत युवक कहकर उसकी अवज्ञा कर दे, किंतु उस विशाल शरीर, वज्र-स्वर पुरुष की उस नि:संकोच चितवन की स्मृति के सामने सुचरिता मानो अपने को बहुत तुच्छ अनुभव करने लगी- किसी तरह भी वह अपने गौरव को अपने सम्मुख स्थापित न कर सकी।

सुचरिता को विशेष कारणों से सबकी ऑंखों में रहने का, दुलार पाने का अभ्यास हो गया था। मन-ही-मन वह यह सब चाहती रही हो, ऐसा नहीं था; फिर आज की गोरा की उपेक्षा क्यों उसे इतनी असह्य जान पड़ी? बहुत सोचकर सुचरिता अंतत: इस परिणाम पर पहुँची कि उसने गोरा को खासतौर से नीचा दिखाने की इच्छा की थी, इसीलिए गोरा की अविचल लापरवाही से उसे इतनी चोट पहुँची।

इस तरह उधेड़-बुन करते-करते रात काफी बीत गई। बत्ती बुझाकर सब लोग सोने चले गए। डयोढ़ी का दरवाज़ा बंद होने का शब्द सूचना दे गया कि बैरा भी चौका-बासन समाप्त करके सोने जाने की तैयारी कर रहा है। तभी रात के कपड़े पहने हुए ललिता छत पर आई और सुचरिता से कुछ कहे बिना उसके पास से होती हुई छत के एक कोने की मुँडेर के सहारे खड़ी हो गई। मन-ही-मन सुचरिता हँसी; समझ गई कि ललिता उस पर नाराज़ है। आज उसकी ललिता के पास सोने की बात तय थी, इसे वह बिल्कुिल भूल गई थी। किंतु 'भूल गई थी' कहने से तो ललिता से अपराध क्षमा नहीं कराया जा सकता- वह कैसे भूल गई, यही तो सबसे बड़ा अपराध है! समय रहते वायदे की याद दिला देने वाली लड़की वह नहीं है। बल्कि वह मन मारकर सोने भी चली गई थी- ज्यों-ज्यों देर होती गई त्यों-त्यों उसका आहत अभिमान और तीखा होता गया था। अंत में जब और सहना बिल्कुतल असंभव हो गया तब वह बिस्तर से उठकर बिना कुछ कहे यह जताने चली आई थी कि मैं अभी तक जाग रही हूँ।

कुर्सी छोड़कर सुचरिता ने धीरे-धीरे ललिता के पास आकर उसे गले लगाया और कहा, “ललिता, मेरी अच्छी बहन, नाराज़ मत हो!”

ललिता ने सुचरिता की बाँह हटाते हुए कहा, “नहीं, मैं क्यों नाराज़ होने लगी? तुम जाओ, बैठो!”

सुचरिता ने उसे फिर हाथ पकड़कर खींचते हुए कहा, “चलो भई, सोने चलें!”

ललिता ने कोई जवाब नहीं दिया, चुपचाप खड़ी रही। अंत में सुचरिता उसे खींचती हुई सोने के कमरे में ले गई।