गोरा / रवीन्द्रनाथ ठाकुर / पृष्ठ १६
अविनाश के आ जाने से गोरा से मेल करने की विनय की कोशिश में रुकावट पड़ गई। वह उठकर ऊपर चला गया। आनंदमई भंडारे के सामने बरामदे में बैठी तरकारी काट रही थीं।
आनंदमई ने कहा, “बड़ी देर से तुम लोगों की आवाज़ सुन रही थी। बड़े सबेरे निकल पड़े- नाश्ता तो कर लिया था?”
और कोई दिन होता तो विनय कह देता, “नहीं, अभी नहीं किया”, और आनंदमई के सामने जा बैठने से उसके नाश्ते की व्यवस्था हो जाती। किंतु आज उसने कहा, “नहीं माँ, कुछ खाऊँगा नहीं- खाकर ही निकला था।”
गोरा के सामने अपना अपराध बढ़ाने का उसका मन नहीं था। परेशबाबू के साथ उसके मेल-जोल के लिए ही अभी तक गोरा ने उसे क्षमा नहीं किया और उसे मानो कुछ दूर करके रख है, यह अनुभव करके मन-ही-मन उसे दुख हो रहा था। जेब से चाकू निकालकर वह भी आलू छीलने लग गया।
पन्द्रह मिनट बाद नीचे जाकर उसने देखा, गोरा अविनाश को साथ लेकर कहीं चला गया है। बहुत देर तक विनय चुपचाप गोरा के कमरे में बैठा रहा। फिर अख़बार लेकर अनमना-सा विज्ञापन देखता रहा। फिर एक लंबी साँस लेकर वह भी बाहर निकल गया।
विनय का मन दोपहर को फिर गोरा से मिलने के लिए बेचैन हो उठा। गोरा के सामने झुक जाने में कभी उसे संकोच नहीं हुआ। लेकिन अपना अभिमान न भी हो, तो दोस्ती का तो एक अभिमान होता है, उसे भुला देना आसान नहीं होता है। परेशबाबू के यहाँ जाने से गोरा के प्रति इतने दिनों की उसकी निष्ठा में कुछ कमी हुई है, ये सोचकर वह स्वयं को अपराधी-सा अनुभव कर रहा था अवश्य, किंतु इसके लिए गोरा उसका मज़ाक-भर करेगा या डाँट-फटकार लेगा, यहीं तक उसने सोचा था। गोरा ऐसे उसे बिल्कु ल दूर रखने का प्रयास करेगा, इसकी उसने कल्पना भी नहीं की थी। घर से थोड़ी दूर जाकर विनय फिर लौट आया। कहीं दोस्ती का फिर अपमान न हो, इस भय से वह गोरा के घर नहीं जा सका।
दोपहर को भोजन करके गोरा को चिट्ठी लिखने के विचार से वह कागज़-कलम लेकर बैठा। बैठकर, बिना कारण यह सोचा कि कलम भौंडी है,और चाकू लेकर धीरे-धीरे बड़े यत्न से उसे गढ़ने लगा। इसी समय नीचे से पुकार सुनाई दी, “विनय!” विनय कलम रखकर तेज़ी से नीचे दौड़ा और बोला, “आइए महिम दादा, ऊपर आइए!”
ऊपर के कमरे में आकर महिम विनय की खाट पर बैठ गए और कमरे की सब चीजों का एक बार अच्छी तरह निरीक्षण करके बोले, “देखो विनय, मैं तुम्हारा घर जानता न होऊँ सो बात नहीं है- बीच-बीच में ख़बर लेता रहता हूँ ओर उधर ध्याणन भी रहता है। लेकिन मैं जानता हूँ, तुम लोग आजकल के अच्छे लड़के हो, तुम्हारे यहाँ तंबाकू मिलने की उम्मीद नहीं है, इसीलिए जब तक ज़रूरी न हो.... ”
हड़बड़कार विनय को उठते देख महिम ने कहा, “तुम सोच रहे हो, अभी बाज़ार से नया हुक्का खरीदकर मुझे तंबाकू पिलाओगे- ऐसी कोशिश न करना! तंबाकू न पिलाने को तो क्षमा कर सकूँगा, लेकिन नए हुक्कू पर अनाड़ी हाथ की तैयार की हुई चिलम बर्दाश्त नहीं होगी।”
इतना कहकर महिम ने खाट पर से पंखा उठाकर अपनी हवा करना शुरु किया और बोले, “आज रविचार के दिन की नींद मिट्टी करके जो तुम्हारे पास आया हूँ, उसका कारण है। मुझ पर एक उपकार तुम्हें करना ही होगा।”
विनय ने पूछा, “कैसा उपकार?”
महिम बोले, “पहले वायदा करो, तब बताऊँगा!”
विनय, “मेरे वश की बात हो तभी तो।”
महिम, “केवल तुम्हारे वश की ही बात है। और कुछ नहीं, तुम्हारे एक बार 'हां' कहने से ही हो जाएगा।”
विनय, “आप ऐसा क्यों कह रहे हैं? आप तो जानते हैं, मैं घर का ही आदमी हूँ- कर सकने पर आपका काम नहीं करूँगा यह कैसे हो सकता है?”
महिम ने जेब से एक दौना पान निकालकर दो पान विनय की ओर बढ़ाए और बाकी अपने मुँह में रख लिए। चबाते-चबाते बोले, “अपनी शशिमुखी को तो तुम जानते ही हो। देखने-सुनने में ऐसी बुरी भी नहीं है- यानी अपने बाप पर नहीं गई। उम्र यही दस के आस-पास होगी। ब उसे किसी अच्छे पात्र को सौंपने का समय हो गया है। किस अभागे के हाथ पड़ेगी, यह सोच-सोचकर मुझे तो रात-भर नींद नहीं आती।”
विनय बोला, “घबराते क्यों हैं, अभी तो समय है।”
महिम, “तुम्हारी अपनी कोई लड़की होती तो समझते कि क्यों घबराता हूँ! उम्र तो दिन बीतने से अपने-आप बढ़ जाती है, लेकिन पात्र तो अपने-आप नहीं मिलता! इसलिए ज्यों-ज्यों दिन बीत रहे हैं। मन उतना ही और बेचैन होता जाता है। अब तुम कुछ आसरा दो तो.... खैर, दो-चार दिन इंतज़ार भी किया जा सकता है।”
विनय, “मेरी तो अधिक लोगों से जान-पहचान नहीं है। बल्कि एक तरह से कह सकता हूँ कि कलकत्ता-भर में आप लोगों का घर छोड़कर और किसी का घर नहीं जानता.... फिर भी खोज करके देखूँगा।”
महिम, “शशिमुखी का स्वभाव तो जानते ही हो।”
विनय, “जानता क्यों नहीं? जब वह छोटी-सी ही थी तभी से देखता आ रहा हूँ। बड़ी अच्छी लड़की है।”
महिम, “तब फिर ज्यादा दूर खोजने की क्या जरूरत है, भैया! लड़की को तुम्हारे ही साथ सौंपूँगा।”
घबराकर विनय ने कहा, “यह आप क्या कह रहे हैं?”
महिम- ”क्यों, बुरा क्या कह रहा हूँ। हम लोगों से तुम्हारा कुल ज़रूर कहीं ऊँचा है, लेकिन इतना पढ़-लिखकर भी तुम लोग अगर ये बातें मानो तो कैसे चलेगा!”
विनय, “नहीं-नहीं, कुल की बात नहीं है, लेकिन उम्र तो.... ”
महिम, “क्या बात है! शशि की उम्र क्या कम है? हिंदू घर की लड़की तो मेम साहब नहीं होती- समाज को यों उड़ा देने से तो नहीं चलेगा!”
महिम सहज ही छोड़ने वाले आसामी नहीं थे। उन्होंनें विनय को मजबूर कर दिया। अंत में विनय ने कहा, ”मुझे थोड़ा सोचने का समय दीजिए!”
महिम, “तो मैं कौन सा आज ही दिन पक्का किए दे रहा हूँ।”
विनय, “फिर भी, घर के लोगों से तो.... ”
महिम, “हाँ, सो तो है। उनकी राय तो लेनी ही होगी। तुम्हारे काका महाशय जब मौजूद हैं तो उनकी राय के बिना कैसे कुछ हो सकता है।”
कहते हुए जेब से उन्होंने पान का दूसरा दौना निकाला और सारे पान मुँह में रख लिए। फिर, यह समझकर कि बातचीत पक्की हो गई है, वह चले गए।
आनंदमई ने कुछ दिन पहले एक बार शशिमुखी के साथ विनय के विवाह की चर्चा बातों-ही-बातों में उठाई थी। लेकिन विनय ने मानो कुछ सुना ही नहीं। आज भी उसे यह प्रस्ताव कुछ संगत लगा हो ऐसा नहीं था, लेकिन बात मानो उसके मन तक पहुँच गई। सहसा उसके मन में विचार उठा,यह विवाह हो जाने से गोरा उसे आत्मीय के नाते कभी दूर नहीं रहेगा। विवाह को हृदय की वृत्तियों के साथ जोड़ने को वह अंग्रेज़ीपन कहकर इतने दिनों से उसका मज़ाक करता आया है, इसीलिए शशिमुखी से विवाह करने की बात उसे असंभव नहीं जान पड़ी। महिम के इस प्रस्ताव को लेकर गोरा के साथ परामर्श करने का एक अवसर निकल आया, इससे भी विनय को खुशी ही हुई। विनय ने चाहा, गोरा इस बात को लेकर उससे थोड़ा आग्रह करे। महिम के आगे साफ हामी न भरने पर महिम ज़रूर ही गोरा से उस पर ज़ोर डलवायेगा, इस बारे में विनय को ज़रा भी संदेह नहीं था।
ये सब बातें सोचकर विनय के मन का क्लेश दूर हो गया। वह उसी समय गोरा के घर जाने के लिए तैयार होकर कंधे पर चादर डालकर बाहर निकल पड़ा। थोड़ी दूर जाने पर पीछे से आवाज़ सुनी, “विनय बाबू!” और जब मुड़कर देखा, सतीश उसे पुकार रहा है।
सतीश के साथ विनय फिर घर लौट आया। सतीश ने जेब से रूमाल की एक पोटली निकालते हुए पूछा, “इसमें क्या है, बताइए तो?”
जो ज़बान पर आया विनय ने कह दिया। अंत में उसके हार मानेन पर सतीश ने बताया- रंगून में उसके एक मामा रहते हैं- उन्होंने वहाँ का यह फल माँ को भेजा है; माँ ने उसी से पाँच-छह फल विनय बाबू को उपहार में भेजे हैं।
बर्मा का यह मैंगोस्टीन फल उस समय कलकत्ता में सुलभ नहीं था। इसी से विनय ने फलों को हिला-डुला और उलट-पुलटकर पूछा, “सतीश बाबू, यह फल खाया कैसे जाएगा”
विनय की इस अज्ञानता पर हँसते हुए सतीश ने कहा, “देखिए, दाँत से न काटिएगा- छुरी से काटकर खाया जाता है।”
थोड़ी देर पहले सतीश स्वयं फल को दाँतों से काटने की निष्फल चेष्टा करके घर के लोगों की हँसी का पात्र बन चुका था। इसीलिए विनय के अज्ञान परविज्ञ-जन की-सी गूढ़ हँसी हँसने से उसके मन की उदासी दूर हो गई।
असमान उम्र के दोनों दोस्तों में थोड़ी देर तक इधर-उधर की बातें होती रहीं। फिर सतीश ने कहा, “विनय बाबू, माँ ने कहा है, आपको समय हो तो एक बार आज हम लोगों के यहाँ आ जाएँ- आज लीला का जन्मदिन है।”
विनय ने कहा, “आज तो भई नहीं हो सकेगा- आज मुझे एक जगह और जाना है।”
सतीश, “कहाँ जाना है?”
विनय, अपने दोस्त के घर।”
सतीश, “आपके वही दोस्त?”
विनय, “हाँ!”
दोस्त के घर जा सकते हैं, पर हमारे घर नहीं जाएँगे, सतीश इसकी संगतता नहीं समझ सका; इसलिए और भी नहीं क्योंकि विनय के यह दोस्त सतीश को अच्छे नहीं लगे थे। वह तो मानो स्कूल के हेडमास्टर से भी अधिक रूखे आदमी हैं, उन्हें आर्गन सुनाकर कोई तारीफ पा सकेगा ऐसे व्यक्ति वह नहीं हैं। ऐसे आदमी के पास जाने का भी कोई प्रयोजन विनय को हो सकता है, यह बात ही सतीश को नहीं जँची। वह बोला, “नहीं,विनय बाबू, आप हमारे घर चलिए!”