गोरा / रवीन्द्रनाथ ठाकुर / पृष्ठ १७

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बुलाए जाने पर भी वह परेशबाबू के घर न जाकर गोरा के घर ही जाएगा, मन-ही-मन विनय ने यह पक्का निश्चय कर लिया था। आहत बंधुत्व के अभिमान की वह उपेक्षा नहीं करेगा, गोरा की दोस्ती के गौरव को वह सबसे ऊपर रखेगा, उसने यही स्थिर किया था।

किंतु हार मानते उसे अधिक देर न लगी। दुविधा में पड़े-पड़े, मन-ही-मन आपत्ति करते-करते भी अंतत: वह सतीश का हाथ पकड़ कर 78 नंबर मकान की ओर चल पड़ा। किसी को बर्मा से आए हुए दुर्लभ फलों का हिस्सा भेजने का ध्याान रहे, इसमें जो अपनापन झलकता है, उसका मान न रखना विनय के लिए असंभव है।

परेशबाबू के घर के पास आकर विनय ने देखा, पानू बाबू और दूसरे कुछ अपरिचित लोग परेशबाबू के घर से बाहर आ रहे हैं। ये लीला के जन्मदिन पर दोपहर के भोज में निमंत्रित थे। पानू बाबू ने विनय को मानो देखा ही न हो, ऐसे भाव से आगे बढ़ गए।

घर में कदम रखते ही विनय ने खुली हँसी की ध्वोनि और दौड़-भाग के शब्द सुने। सुधीर ने लावण्य की दराज़ की चाबी चुरा ली थी; इतना ही नहीं, वह उस सारे समाज में इस बात का भंडा-फोड़ करने की भी धमकी दे रहा था कि लावण्य ने दराज़ में एक कापी छिपा रखी है। जिसमें उस कवियश: प्रार्थिनी का उपहास करने के लिए ढेरों सामग्री है! जिस समय विनय ने उस रंगभूमि में प्रवेश किया उस समय इसी बात को लेकर दोनों पक्षों में लड़ाई चल रही थी।

उसे देखते ही लावण्य का गुट फौरन लोप हो गया। उनके हँसी-मज़ाक में हिस्सा लेने के लिए सतीश भी उनके पीछे दौड़ा। कुछ देर बाद सुचरिता ने कमरे में आकर कहा, “माँ ने आपको ज़रा देर बैठने के लिए कहा है, वह अभी आ रही है। बाबा ज़रा अनाथ बाबू के घर तक गए हैं, उन्हें भी लौटने में देर नहीं होगी।”

सुचरिता ने विनय का संकोच दूर करने के लिए गोरा की बात उठाई। हँसकर बोली, “जान पड़ता है आपके मित्र यहाँ फिर कभी नहीं आएँगे?”

विनय ने पूछा, “क्यों?”

सुचरिता ने कहा, “हम लोग पुरुषों के सामने आती हैं, बात करती हैं उन्हें यह देखकर ज़रूर अचंभा हुआ होगा। घर के काम-काज को छोड़कर और कहीं लड़कियों को देखना, शायद उन्हें अच्छा नहीं लगता।”

इसका उत्तर देने में विनय कठिनाई में पड़ गया। बात का प्रतिवाद कर सकता तो उसे खुशी होती, किंतु झूठ वह कैसे बोले? बोला, “गोरा की राय में लड़कियाँ घर के काम में पूरा मन न ला पाएँ तो उनके कर्तव्य की परिपाटी नष्ट होती है।”

सुचरिता ने कहा, “तब तो स्त्री-पुरुषों का घर और बाहर का पूरा बँटवारा कर लेना ही अच्छा होता है। पुरुषों को घर में घुसने देने से भी तो शायद उनका बाहर का कर्तव्य अच्छी तरह संपन्न नहीं होता। आपकी राय भी क्या अपने मित्र की राय जैसी है?”

अभी तक तो नारी-सिध्दांत के संधन में गोरा का मत ही विनय का मत रहा है। उसी को लेकर अख़बारों में वह लिखता भी रहा है। किंतु इस समय यह बात उसके मुँह से न निकल सकी कि उसका मत भी वही है। उसने कहा, “देखिए, इन सब मामलों में असल में हम सब आदतों के दास हैं। इसीलिए लड़कियों को बाहर आते देखकर मन में खटका-सा होता है। उसके बुरा लगने का कारण यह है कि वह अन्याय है या अनुचित है, यह तो हम ज़बरदस्ती सिध्द करना चाहते हैं। असल बात संस्कार की होती है, दलील तो केवल उपलक्ष्य भर होता है।”

सुचरिता ने कहा, “जान पड़ता है, आपके दोस्त के संस्कार बड़े दृढ़ हैं।”

विनय, “बाहर से देखने पर सहसा ऐसा ही जान पड़ता है। किंतु एक बात आप याद रखिए! वह जो हमारे देश के संस्कारों से चिपटे रहते हैं,उसका कारण यह नहीं कि वह उन संस्कारों को अच्छा समझते हैं। हम लोग देश के प्रति अंधी अश्रध्दा के कारण उसकी सभी प्रथाओं की अवज्ञा करने लगे थे, इसी अनर्थ के निवारण के लिए खड़े हुए हैं। वह कहते हैं, हमें पहले श्रध्दा और प्रेम के द्वारा देश को समग्र रूप से अपनाना होगा,उसके बाद स्वाभाविक स्वास्थ्य के नियम के अनुसार अपने-आप भीतर से ही सुधार का काम होने लगेगा।”

सुचरिता ने कहा, “अपने-आप होना होता तो इतने दिन क्यों नहीं हुआ?”

विनय, “नहीं हुआ, उसकी वजह यह है कि अब तक हम देश के नाम पर समूचे देश को, जाति के नाम पर समूची जाति को एक मानकर नहीं देख सके। फिर हमने अपनी जाति पर अगर अश्रध्दा नहीं की तो श्रध्दा भी नहीं की- यानी उसे ठीक से समझा ही नहीं, इसलिए उसकी शक्ति भी सुप्त रही। जैसे एक रोगी की ओर देखे बिना, उसे बिना दवा-दारू और बिना पथ्य के एक ओर हटा दिया गया था, अब उसे दवाखाने में लाया ज़रूर गया है, किंतु डॉक्टर की उस पर इतनी अश्रध्दा है कि सेवा-शुश्रूषा साध्यी लंबे इलाज की बात सोचने का भी धीरज उसमें नहीं है- उसे यही लगता है कि एक-एक करके रोगी के अंग कफ फेंके जाएँ! ऐसी अवस्था में मेरा दोस्त डॉक्टर कहता है, अपने इस परम आत्मीय को इलाज के नाम पर काट-कूटकर फेंक दिया जाय, मैं यह नहीं सह सकता। मैं अब इस अंग-विच्छेद को बिल्कुयल बंद करके पहले अनुकूल पथ्य देकर इसके भीतर की जीवनी-शक्ति को जगाऊँगा। उसके बाद काटने की यदि ज़रूरत होगी तो रोगी उसे सह सकेगा, और शायद बिना काटे भी वह अच्छा हो जाएगा। गोरा कहते हैं, हमारे देश की वर्तमान स्थिति में गंभीर श्रध्दा ही सबसे बड़ा पथ्य है- इस श्रध्दा के अभाव के कारण हम देश को समग्र भाव से जान नहीं पाते-और जान न पाने के कारण उसके लिए जो भी सुव्यवस्था करते हैं वह सुव्यवस्था साबित होती है। देश से प्रेम न हो तो उसे अच्छी तरह जानने का धैर्य नहीं होता; और उसे जाने बिना उसका भला करना चाहने पर भी भला होता नहीं है।”

थोड़ा-थोड़ा बराबर छेड़ते रहकर सुचरिता ने गोरा-संबंधी चर्चा को बंद नहीं होने दिया। विनय भी गोरा की ओर से जो-कुछ कह सकता था सुलझा-समझाकर कहता रहा। ऐसी अच्छी दलीलें, ऐसे अच्छे दृष्टांत देकर और इतनी सुलझाकर उसने मानो पहले कभी यह बात नहीं रखी; गोरा स्वयं भी अपनी राय को इतनी सफाई और स्पष्टता से प्रकट कर सकता कि नहीं इसमें संदेह है। बुध्दि द्वारा विवेचन की इस अपूर्व उत्तेजना पर मन-ही-मन उसे आनंद अनुभव होने लगा और उस आंनद से उसका चेहरा दीप्त हो उठा।

विनय ने कहा, “देखिए, शास्त्रों में कहा गया है, 'आत्मनां विध्दि'- अपने को जानो! नहीं तो मुक्ति का कोई साधन नहीं है। मैं आप से कहता हूँ,मेरे ब्धु गोरा में भारतवर्ष का यही आत्म-बोध प्रत्यक्ष रूप से आविर्भूत हुआ है। मैं उन्हें आम आदमी मान ही नहीं सकता। जब हम सबका मन ओछे आकर्षण, नएपन के लालच में पड़कर बाहर की ओर बिखर गया, तब वही एक अकेला व्यक्ति इस सारे पागलपन के बीच स्थिर खड़ा सिंह-गर्जनो के साथ वही मंत्र देता रहा.... ”आत्मानं विध्दि'।”

यह चर्चा और भी काफी देर तक चल सकती थी-सुचरिता भी बड़ी लगन से सुन रही थी। किंतु साथ के किसी कमरे में सहसा सतीश ने चिल्ला-चिल्लाकर पढ़ना शुरू किया :

बोलो न कटु वचन बिना किए विचार जीवन सवप्न-समान है, माया का संसार!

बेचारा सतीश घर के अतिथि-आगंतुकों के सामने अपनी विधा दिखाने का कोई मौक़ा ही नहीं पाता। लीला तक अंगेज़ी कविता सुनकार सभी का मनोरंजन कर सकती है, किंतु सतीश को वरदासुंदरी कभी नहीं बुलातीं। पर हर मामले में लीला के साथ सतीश की होड़-सी रहती है। किसी प्रकार भी लीला को नीचा दिखाना सतीश के जीवन का पहला सुख है। विनय के सामने लीला की परीक्षा हो गई; उस समय बुलाए न जाने के कारण सतीश उसे हराने की कोई कोशिश नहीं कर सका- कोशिश करता भी तो वरदासुंदरी उसे उसी समय टोक देतीं। इसी से वह आज पास के कमरे में मानो अपने-आप ऊँचे स्वर से काव्य-पाठ करने लगा था। सुनकर सुचरिता अपनी हँसी न रोक सकी।

उसी समय अपनी चोटी झुलाती हुई लीला कमरे में आकर सुचरिता के गले से लिपटकर उसके मान में कुछ कहने लगी। सतीश ने भी पीछे-पीछे दौड़ते हुए आकर कहा, “अच्छा लीला, बताओ तो 'मनोयोग' का मतलब क्या है?”

लीला ने कहा, “नहीं बताती।”

सतीश, “ए हे! नहीं बताती! यह कहो न कि नहीं जानती!”

सतीश को विनय ने अपनी ओर खींचते हुए पूछा, “तुम बताओ तो 'मनोयोग' के क्या माने हैं?”

गर्व से सिर उठाकर सतीश ने कहा, “मनोयोग माने- मनोनिवेश।”

सुचरिता ने जिज्ञासा की, “मनोनिवेश से तुम्हारा क्या आशय है?”

भला अपनों के सिवा कौन किसी को ऐसी मुसीबत में डाल सकता है! पर सतीश ने जैसे सवाल सुना ही न हो ऐसे उछलता-कूदता कमरे से बाहर चला गया।

परेशबाबू के घर से जल्दी ही छुट्टी लेकर विनय गोरा के घर जाने का निश्चय करके आया था। गोरा की चर्चा करते-करते उसके पास जाने की ललक भी उसके मन में प्रबल हो उठी। इसीलिए वह चार बजते जानकर जल्दी से कुर्सी छोड़कर उठ खड़ा हुआ।

सुचरिता बोली, “आप अभी जाएँगे? माँ तो आपके लिए जल-पान तैयार कर रही है; थोड़ी देर और न बैठ सकेंगे?”

विनय के लिए यह प्रश्न नहीं, आदेश था। वह फिर बैठ गया।

रंगीन रेशमी परिधन में सज-धाजकर लावण्य आई और बोली, “दीदी, नाश्ता तैयार हो गया है, माँ ने छत पर चलने को कहा है।”

छत पर जाकर विनय को नाश्ते में जुट जाना पड़ा। वरदासुंदरी प्रथानुसार अपनी सब संतानों का जीवन-वृत्तांत सुनाने लगीं। ललिता सुचरिता को भीतर खींचकर ले गई। एक कुर्सी पर बैठकर लावण्य कंधे झुकाए लोहे की सलाइयों से बुनाई करने में लग गई। कभी उसे किसी ने कहा था- बुनाई के समय उसकी उँगलियों का संचालन बहुत सुंदर लगता है। तभी से लोगों के सामने बिना कारण बुनाई करने की उसकी आदत हो गई है।