गोरा / रवीन्द्रनाथ ठाकुर / पृष्ठ १८

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

परेशबाबू भी आ गए। साँझ हो चली थी। आज रविवार था, उपासना-गृह जाने की बात थी। वरदासुंदरी ने विनय से कहा, “आपत्ति न हो तो आप भी हम लोगों के साथ समाज में चलें?”

ऐसे में आपत्ति करना कैसे संभव था? दो गाड़ियों में बैठकर सब लोग उपासना-भवन गए। लौटते समय जब सब गाड़ी पर सवार हो रहे थे तब सुचरिता ने आचानक चौंककर संकेत कर कहा, “वह गौरमोहन बाबू जा रहे हैं!”

गोरा ने इन लोगों को देख लिया है, इसमें किसी को शक नहीं था। किंतु वह ऐसे भाव से तेज़ी से बढ़ गया मानो उसने उन्हें देखा न हो। गोरा के इस अशिष्टता के कारण विनय ने परेशबाबू के सम्मुख लज्जित होकर सिर झुका लिया। किंतु मन-ही-मन वह स्पष्ट समझ गया कि विनय को इस गुट में देखकर ही यों विमुख होकर गोरा इतनी तेज़ी से चला गया। अब तक उसके मन में एक आनंद का जो प्रकाश हो रहा था वह सहसा बुझ गया। विनय के मन का भाव और उसका कारण सुचरिता फौरन समझ गई, और विनय-जैसे बंधु के प्रति गोरा की इस ज्यादती और ब्रह्मों के प्रति उसकी इस अनुचित अवज्ञा से उसे गोरा पर फिर क्रोध आ गया। गोरा का किसी तरह भी पराभव हो, उसका मन यही चाह उठा।

दोपहर को गोरा खाने बैठा तो आनंदमई ने धीरे-धीरे बात चलाई- ”आज सबेरे विनय आया था। तुमसे नहीं मिला?”

थाली पर से ऑंख उठाए बिना ही गोरा ने कहा, “हाँ, मिला था।”

बहुत देर तक आनंदमई चुपचाप बैठी रही। उसके बाद बोलीं, “उसे रुकने को कहा था, किंतु वह अनमना-सा होकर चला गया।” गोरा ने फिर कोई उत्तर नहीं दिया। आनंदमई ने कहा, “उसके मन को न जाने क्या दुख है गोरा, उसे मैंने कभी ऐसा नहीं देखा। मुझे कुछ अजीब-सा लग रहा है!”

गोरा चुपचाप खाता रहा। अत्यंत स्नेह के कारण ही आनंदमई मन-ही-मन गोरा से थोड़ा डरती थीं। अगर वह अपने मन की बात अपने-आप उनसे न कहता तो वह उसे मजबूर नहीं करती थी। और कोई दिन होता, तो इतने पर ही चुप हो जातीं। किंतु उनके मन में आज विनय के लिए बड़ा दर्द था, इसीलिए उन्होंने फिर कहा ”देखो गोरा, एक बात कहूँ- नाराज़ मत होना! भगवान ने अनेक लोग बनाए हैं, लेकिन रास्ता सबके लिए केवल एक ही नहीं बनाया। विनय तुम्हें प्राणों से बढ़कर स्नेह करता है, इसलिए तुम्हारी ओर से सब-कुछ सह लेता है- लेकिन उसे तुम्हारे ही निर्देश पर चलना होगा, ऐसी ज़बरदस्ती करने का फल सुखकर नहीं होगा!!”

गोरा ने कहा, “माँ, और थोड़ा दूध ला देना तो!” बात यहीं खत्म हो गई। भोजन के बाद आनंदमई चुपचाप तख्तपोश पर बैठकर सिलाई करने लगीं। लछमिया घर के किसी नौकर के दुर्व्यवहार की शिकायत में आनंदमई की दिलचस्पी जगाने की बेकार चेष्टा करके फर्श पर लेटकर सो गई।

चिट्ठी-पत्री में गोरा ने बहुत-सा समय बिता दिया। गोरा विनय पर नाराज़ है, आज सबेरे विनय यह स्पष्ट देख गया है। फिर भी वह इस नाराज़गी को मिटाने के लिए गोरा के पास न आए, यह हो ही नहीं सकता। यही मानकर अपने सब कामों के बीच भी वह विनय के पैरों की ध्वगनि के लिए कान लगाए था।

पर बड़ी देर तक भी विनय नहीं आया। गोरा लिखना छोड़कर उठने की सोच रहा था। कि तभी महिम कमरे में आ गए। आते ही कुर्सी पर बैठकर बोले, “शशिमुखी के ब्याह के बारे में क्या सोचा, गोरा?”

इस बारे में कभी कुछ गोरा ने सोचा ही नहीं था, इसलिए अपराधी-सा चुप खड़ा रहा।

पात्र का भाव बाज़ार में कितना बढ़ा हुआ है, और इधर घर में रुपए-पैसे की कितनी तंगी है, महिम ने यह सब बताकर गोरा को कुछ उपाय सोचने को कहा। गोरा सोचकर भी जब कोई हल न पा सका तब उन्होंने मानो इस चिंता-संकट से उसको मुक्त करने के लिए ही विनय की बात चलाई। हालाँकि इतना घुमा फिराकर बात करने की कोई ज़रूरत नहीं कि, किंतु मुँह से महिम चाहे जो कहें, मन-ही-मन गोरा से डरते थे।

इस प्रसंग से विनय की बात भी उठ सकती है, गोरा ने यह कभी स्वप्न में भी नहीं सोचा था। बल्कि गोरा और विनय ने तय कर रखा था कि वे विवाह न करके अपना जीवन देश के लिए न्यौछावर कर देंगे। इसलिए गोरा ने कहा, “विनय ब्याह करेगा क्यों?”

महिम बोले, “क्या यही तुम लोगों का हिंदूपन है! हज़ार चुटिया रखो और तिलक लगाओ, साहिबी सिर पर चढ़कर बोलती हैं! शास्त्रों के अनुसार विवाह भी ब्राह्मण के लड़के का एक संस्कार है, यह तो जानते हो?”

आजकल के लड़कों की तरह महिम आचार भी नहीं तोड़ते, और शास्त्र की दुहाई भी नहीं देते। होटल में खाना खाकर बहादुरी दिखाने को भी वह ठीक नहीं समझते, और गोरा की तरह हमेशा श्रुति-स्मृति लेकर उलझते रहने को भी वह स्वस्थ आदमी का लक्षण नहीं मानते। किंतु 'यस्मिन् देशे सदाचार:'-गोरा के सामने शास्त्र की दुहाई न्हें देनी ही पड़ी।

अगर दो दिन पहले यह प्रस्ताव आया होता तो गोरा उसे एकबारगी अनसुना कर देता। किंतु आज उसे लगा कि बात एकदम उपेक्षा के योग्य नहीं है। कम-से-कम इस प्रस्ताव के कारण फौरन विनय के घर जाने का एक मौका तो मिल ही सकता है।

अंत में उसने कहा, “अच्छा, विनय का विचार क्या है, ज़रा समझ लूँ!”

महिम बोले, “उसमें समझने को क्या है? वह तुम्हारी बात को किसी तरह टाल नहीं सकता। वह मान जाएगा। तुम्हारा कहना ही काफी है।”

उसी दिन साँझ को गोरा विनय के घर जा पहुँचा। ऑंधी के समान उसके कमरे में प्रवेश करके उसने देखा, वहाँ कोई नहीं है। बैरा को बुलाकर पूछने पर पता चला कि बाबू 78 नंबर मकान में गए हैं। सुनकर गोरा का चित्त फिर विकल हो उठा। जिसके लिए आज सारा दिन गोरा का मन अशांत रहा, उस विनय को आजकल गोरा का ध्यागन करने की भी फुरसत नहीं है! गोरा चाहे नाराज़ हो, चाहे दुखित हो; विनय की शांति और चैन में उससे कोई रुकावट नहीं पड़ती!

परेशबाबू के परिवार के विरुध्द, ब्रह्म-समाज के विरुध्द गोरा का मन बिल्कुिल विषाक्त हो उठा। मन में एक तीखा आक्रोश लेकर वह परेशबाबू के घर की ओर चला। उसका मन हुआ, वहाँ कुछ ऐसी बात पैदा कर दे जिसे सुनकर उस ब्रह्म-परिवार के लोग जल उठें और विनय भी तिलमिलाकर रह जाए।

उसने परेशबाबू के घर पहुँचकर सुना, घर पर कोई नहीं है, सभी उपासना-भवन गए हैं उसने क्षण-भर के लिए सोचा, विनय शायद न गया हो- शायद इसी समय वह गोरा के घर की ओर गया हो।

वह वहाँ और न रुक सका। अपनी स्वाभाविक ऑंधी-सी चाल से वह भवन की ओर ही चला। द्वार के पास पहुँचते ही देखा, विनय वरदासंदरी के पीछे उनकी गाड़ी पर सवार हो रहा है- खुली सड़क के बीच बेशरम होकर पराए घर की लड़कियों के साथ एक गाड़ी में बैठ रहा है। मूढ़! नागपाश में इतनी जल्दी, इतनी आसानी में फँस गया? तब दोस्ती के लिहाज़ का अब कोई मतलब नहीं रहता। गोरा ऑंधी की तरह आगे बढ़ गया और गाड़ी के अंधेरे हिस्से में बैठा हुआ विनय चुपचाप रास्ते की ओर ताकता रह गया।

वरदासुंदरी ने समझा, आचार्य का उपदेश विनय के मन पर असर कर रहा है। इसीलिए आगे उन्होंने कोई बात नहीं की।