गोरा / रवीन्द्रनाथ ठाकुर / पृष्ठ १९

Gadya Kosh से
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रात को घर लौटकर गोरा अंधेरी छत पर व्यर्थ चक्कर काटने लगा। उसे अपने ऊपर क्रोध आया। रविवार उसने क्यों ऐसे बेकार बीत जाने दिया! एक व्यक्ति के स्नेह के लिए दुनिया के और सब काम बिगाड़ने तो गोरा इस दुनिया में नहीं आया। विनय जिस रास्ते पर जा रहा है उससे उसे खींचते रहने की चेष्टा करना केवल समय नष्ट करना और अपने मन को तकलीफ देना है। इसलिए जीवन उद्देश्य के पथ पर विनय से यहीं अलग हो जाना होगा। जीवन में गोरा का एक ही मित्र है, उसी को छोड़कर वह अपने धर्म के प्रति अपनी सच्चा ई प्रमाणित करेगा! ज़ोर से हाथ झटकर गोरा ने मानो विनय के साहचर्य को अपने चारों ओर से दूर हटा दिया।

तभी छत पर पहुँचकर महिम हाँफते हुए बोले, “इंसान को अगर पंख नहीं मिले तो तिमंज़िले मकान क्यों बनवाए? ज़मीन पर चलने वाला मनुष्य आसमान में रहने की कोशिश करे तो आकाशचारी देवता इसे कैसे सहेंगे?.... विनय के पास गए थे?”

इसका गोरा ने सीधा जवाब न देते हुए कहा, “विनय के साथ शशिमुखी का ब्याह नहीं हो सकेगा।”

महिम, “क्यों? क्या विनय की मर्ज़ी नहीं?”

गोरा, “मेरी मर्ज़ी नहीं है।”

हाथ नचाकर महिम ने कहा, “वाह! यह एक नया फसाद खड़ा हुआ। तुम्हारी मर्ज़ी नहीं है! वजह क्या है, ज़रा सुनूँ?”

गोरा, “मैंने अच्छी तरह समझ लिया है कि विनय के लिए हमारे समाज में बने रहना मुश्किल होगा। उसके साथ हमारे घर की लड़की का विवाह नहीं हो सकता।”

महिम, “मैंने बहुत हिंदूपना देखा है, लेकिन ऐसा तो कभी नहीं देखा! तुम तो काशी-भाटपाड़ा से भी आगे बढ़ गए! तुम तो भविष्य देखकर विधान देते हो! किसी दिन मुझे भी कहोगे, सपने में देखा कि तुम ख्रिस्तान हो गए हो, गोबर खाकर फिर जात में आना होगा!”

काफी बक-बक कर लेने के बाद महिम ने फिर कहा, “लड़की को किसी मूर्ख के गले तो बाँध नहीं सकता। और जो पढ़ा-लिखा लड़का होगा,समझदार होगा, तो बीच-बीच में शास्त्र का उल्लंघन करेगा ही। इसके लिए उसमें बहस करो, उसे गाली दो; किंतु ब्याह रोककर बीच में मेरी लड़की को सज़ा क्यों देते हो? तुम हर बात उलटी ही सोचते हो!”

महिम ने नीचे उतरकर आनंदमई से कहा, “माँ, अपने गोरा को तुम सँभालो!”

घबराकर आनंदमई ने पूछा, “क्या हुआ?”

महिम, “शशिमुखी के साथ विनय के ब्याह की बात एक तरह से मैं पक्की करके आया था। गोरा को भी राज़ी कर लिया था, इस बीच गोरा ने अच्छी तरह समझ लिया है कि विनय में उसके जैसा हिंदूपन नहीं है- मनु-पराशर की राय से उसकी राय कभी थोड़ी उन्नीस-बीस हो जाती है। इसीलिए गोरा अड़ गया है-अड़ने पर वह कैसा अड़ता है, यह तुम जानती ही हो। कलियुग के जनक ने अगर प्रण किया होता कि जो टेढ़े गोरा को सीधा करेगा उसी को सीता देंगे, तो श्री रामचंद्र क्वाँरे ही रह जाते, यह मैं शर्त लगाकर कह सकता हूँ। मनु-पराशर के बाद इस दुनिया में वह एक तुम्हीं को मानता है- अब तुम्हीं अकर उबारों तो लड़की का कल्याण हो सकता है। ढूँढ़ने पर भी ऐसा पात्र नहीं मिलेगा।”

छत पर गोरा के साथ जो कुछ बातचीत हुई थी, महिम ने उसका पूरा खुलासा सुना दिया। विनय से गोरा का विरोध और गहरा हो गया है, यह जानकर आनंदमई का मन अत्यंम उद्विग्न हो उठा।

ऊपर आकर आनंदमई ने देखा, गोरा छत पर टहलना छोड़कर कमरे में एक कुर्सी पर जा बैठा है और दूसरी कुर्सी पर पैर फैलाकर किताब पढ़ रहा हैं एक कुर्सी पास खींचकर आनंदमई भी बैठ गईं। गोरा ने कुर्सी पर से पैर हटा लिए और सीधे बैठते हुए आनंदमई के चेहरे की ओर देखने लगा।

आनंदमई ने कहा, “बेटा, गोरा, मेरी एक बात याद रखना.... विनय से झगड़ा मत करना! मेरे लिए तुम दोनों दो भाई हो- तुम्हारे बीच फूट पड़ जाएगी तो मुझसे नहीं सहा जाएगा।”

गोरा बोला, “बंधु ही अगर बंधन काट देगा तो उसके पीछे-पीछे भागने में मुझसे समय नष्ट नहीं किया जाएगा।”

आनंदमई ने कहा, “मैं नहीं जानती कि तुम दोनों के बीच क्या घटा है। किंतु विनय तुम्हारा बंधन काटना चाहता है, इस बात पर तुम अगर विश्वास करते हो तो फिर तुम्हारी दोस्ती में क्या असर है?'

गोरा- ”माँ, मुझे सीधा रास्ता पसंद है। जो दोनों तरफ बनाए रखना चाहते हैं मेरी उनके साथ नहीं निभती। जिसका स्वभाव ही दा नावों में पैर रखने का है उसको मेरी नाव में से पैर हटाना ही पड़ेगा- इसमें चाहे मुझे तकलीफ हो, चाहे उसे तकलीफ हो।”

आनंदमई, “हुआ क्या, यह तो बताओ? वह ब्रह्म लोगों के घर आता-जाता है, उसका यही अपराध है न?”

गोरा, “बहुत-सी बातें हैं, माँ!”

आनंदमई, “हुआ करें बहुत-सी बातें। लेकिन मेरी एक बात सुनो, गोरा! हर मामले में तुम इतने जिद्दी हो कि जिसे पकड़ते हो उसे तुमसे कोई छुड़ा नहीं सकता। फिर विनय के बारे में ही तुम क्यों ऐसे ढीले हो?। तुम्हारा अविनाश अगर गुट छोड़ना चाहता तो क्या तुम उसे सहज ही छोड़ देते? वह तुम्हें बंधु कहता है, क्या इसीलिए तुम्हारे और सब साथियों से वह कमतर हो गया?”

गोरा चुप होकर सोचने लगा। आनंदमई की इस ताड़ना से अपने मन की स्थिति उसके सामने साफ हो गई। अब तक वह समझ रहा था कि वह कर्तव्य के लिए दोस्ती का बलिदान करने जा रहा है, अब उसने स्पष्ट देखा कि बात इससे ठीक विपरीत है। उसकी दोस्ती के अभिमान को ठेस लगी है, इसलिए विनय को वह दोस्ती की सबसे बड़ी सज़ा देने को उद्यत हुआ है! मन-ही-मन वह जानता था कि विनय को बाँधे रखने के लिए मित्रता ही काफी है, और किसी तरह की कोशिश दोस्ती का अपमान होगा।

उनकी बात गोरा के मन को छू गई है, इसका भान होते ही आनंदमई और कुछ कहे बिना उठकर धीरे-धीरे जाने लगीं। सहसा गोरा भी तेजी से उठा और खूँटी पर से चादर उताकर कंधे पर डाल दी।

आनंदमई ने पूछा, “कहीं जा रहे हो, गोरा?”

गोरा ने कहा, “विनय के घर जा रहा हूँ।”

आनंदमई, “खाना तैयार है, खाकर जाना।”

गोरा, “मैं विनय को पकड़कर लाता हूँ, वह भी यहीं खाएगा।”

और कुछ न कहकर आनंदमई नीचे की ओर चलीं। सीढ़ी पर पैरों की ध्वंनि सुनकर सहसा रुककर बोलीं, “विनय तो वह आ रहा है।”

विनय को देखते ही आनंदमई की ऑंखें छलछला उठीं। उन्होंने स्नेह से विनय के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा, “विनय बेटा, खाना तो नहीं खाया तुमने?”

विनय ने कहा, “नहीं, माँ!”

आनंदमई, “तुम्हें यहीं भोजन करना होगा।”

एक बार विनय ने गोरा के मुँह की ओर देखा। गोरा ने कहा, “तुम्हारी बड़ी लंबी उम्र है, विनय! मैं तुम्हारे यहाँ ही जा रहा था।” आनंदमई का हृदय हल्का हो गया; वह तेज़ी से उतर गईं।

कमरे में आकर दोनों बैठे तो गोरा ने यों ही वार्तालाप शुरू करने को कुछ बात उठाते हुए कहा, “जानते हो, अपने साथियों के लिए एक बहुत अच्छा जिमनास्टिक मास्टर मिल गया है। सिखा भी अच्छा रहा है।”

मन के भीतर दबी बात सामने लाने का साहस अभी किसी को नहीं था। दोनों जब खाने बैठ गए तब उनकी बातचीत के ढंग से आनंदमई जान गईं कि अभी उनके बीच का खिंचाव बिल्कुील खत्म नहीं हुआ है-दुराव अभी भी बाकी है। बोलीं, “विनय, रात बहुत हो गई है, आज तुम यहीं सो रहाना! मैं तुम्हारे घर सूचना भिजवाए देती हूँ।”

विनय ने चकित होकर गोरा के चेहरे की ओर देखते हुए कहा, “भुक्त्वा राजवदाचरेत्! खा-पीकर राह चलने का नियम नहीं है। तो फिर यहीं सोया जाएगा।”

भोजन करके दोनों मित्र छत पर आकर चटाई बिछाकर बैठ गए। भादों जा रहा था; शुक्ल पक्ष की चाँदनी आकाश में छिटकी हुई थी। हल्के सफेद बादल मानो जींद के हल्के झोंके-से बीच-बीच में चाँद पर ज़रा घूँघट करते धीरे-धीरे उड़े चले जा रहे थे। चारों ओर दिगंत तक छोटी-बड़ी, ऊँची-नीची छतों की श्रेणी प्रकाश-छाया में, और कभी-कभी पेड़ों के शिखरों के साथ मिलती हुई, मानो किसी कवि की कल्पना की तरह फैली हुई थी।

गिरजाघर की घड़ी में ग्यारह बजे। कुल्फी वाला अपना आज की आखिरी हाँक लगाकर चला गया। गाड़ियों का शोर धीमा पड़ गया। गोरा की गली में किसी के जागने का कोई चिन्ह नहीं था; केवल पड़ोसी के अस्तबल के काठ के फर्श पर घोड़े की टाप का शब्द कभी-कभी सुनाई पड़ जाता या कोई कुत्ता भौंक उठता। बहुत देर तक दोनों चुप रहे। फिर विनय ने पहले कुछ ससकुचाते हुए और फिर बड़ी तेज़ी से अपने मन की बात कह डाली, “भाई गोरा, मेरा हृदय भर उठा है। मैं जातना हूँ कि इन सब बातों की ओर तुम्हारा ध्या न नहीं है, किंतु तुम्हें कहे बिना रहा भी नहीं जा सकता। भला-बुरा कुछ नहीं समझ पा रहा हूँ-किंतु इतना निश्चय है कि यहाँ कोई चालाकी नहीं चलेगी। किताबों में बहुत-कुछ पढ़ा है, और इतने दिनों से यही सोचता आया हूँ कि मैं सब जानता हूँ। जैसे तस्वीरों में पानी देखकर सोचता रहता था कि तैरना तो बहुत आसान है; किंतु आज पानी में उतरकर पलभर में ही पता चल गया कि यह हँसी-खेल नहीं है।

यों कहकर विनय अपने जीवन के इस नए आश्चर्य के उदय को यत्नपूर्वक गोरा के सामने प्रकट करने लगा।

वह कहने लगा- आजकल उसके लिए जैसे दिन और रात में कहीं कोई दूरी नहीं है, सारे आकाश में कहीं कोई सूनी जगह नहीं है, सब-कुछ पूर्ण रूप से भर गया है- जैसे वसंत-ऋतु में शहद का छत्ता शहद से भरकर फटने-सा लगता है, वैसे ही। पहले इस चराचर विश्व का बहुत-सा हिस्सा उसके जीवन के बाहर ही पड़ा रहता था- जितने से उसका मतलब था उतना ही उसकी नज़र पड़ता था। किंतु आज वह पूरा उसके सामने है, पूरा उसे स्पर्श करता है, पूरा एक नए अर्थ से भर उठा है। वह नहीं जानता था कि धरती को वह इतना प्यार करता है, आकाश ऐसे अचरज-भरा है, प्रकाश ऐसा अपूर्व होता है, सड़क पर अपरिचित यात्रियों का आना-जाना भी इस गंभीर भाव से सच है। उसकी उद्दाम इच्छा होती है, इस संपूर्णता के लिए वह कुछ उद्यम करे, अपनी सारी शक्ति को आकाश के सूर्य की भाँति वह संसार के अनवरत उपयोग में लगा दे।