गोरा / रवीन्द्रनाथ ठाकुर / पृष्ठ २०

Gadya Kosh से
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सारी बातें विनय किसी विशेष व्यक्ति के संबंध में कह रहा है, ऐसा नहीं जान पड़ता। मानो वह किसी का भी नाम ज़बान पर नहीं ला सकता,कोई आभास देने में भी सकुचा जाता है। यह जो चर्चा वह कर रहा है, इसमें भी वह जैसे अपने को किस के प्रति अपराध अनुभव कर रहा है। यह चर्चा अन्याय है, यह अपमान है-किन्तु आज इस सूनी रात में, नि:स्तब्ध आकाश के नीचे, बंधु के पास बैठकर इस अन्याय से वह किसी तरह अपने को नहीं रोक सका।

कैसा है यह चेहरा! प्राणों की दीप्ति उसके कपोलों की कोमलता के बीच कितनी सुकुमारता से चमक उठती हैं! हँसने पर उसका अंत:करण मानो अद्भुत आलोक-सा फूट पड़ता है। ललाट पर कैसी बुध्दि झलकती है! और घनी भौंहों की छाया के नीचे दोनों ऑंखें कैसी अवर्णनीय! और वे दोनों हाथ-मानो कह रहे हों कि सेवा और प्रेम की सुंदरता को सार्थक करने के लिए सदा प्रस्तुत हैं। विनय अपने जीवन और यौवन को धन्य मानता है, आनंद से मानो उसका हृदय फूला नहीं समा रहा है। पृथ्वी के अधिकतर लोग जिसे देखे बिना ही जीवन बिता देते हैं, विनय उसे यों ऑंखों के सामने मूर्त होते देख सकेगा, इससे बड़ा आश्चर्य क्या हो सकता है?

लेकिन यह कैसा पागलपन है- अनुचित बात है! हुआ करे अनुचित- अब उससे और सँभलता नहीं। अगर यही धारा उसे कहीं किनोर लगा दे तो ठीक है; अगर बहा दे या डुबा ही दे-तो क्या उपाय है? मुश्किल तो यही है कि उध्दार की इच्छा भी नहीं होती- इतने दिनों के संस्कार और परिस्थितियाँ सब भुलाकर चलते जाना ही मानो जीवन का सार्थक लक्ष्य है!

गोरा चुपचाप सुनता रहा। इसी छत पर ऐसी ही निर्जन चाँदनी रात में और भी अनेक बार दोनों में बहुत बातें हुई हैं- साहित्य की, ज़माने की,समाज कल्याण की कितनी चर्चाएँ, आगत जीवन के बारे में दोनों के कितने संकल्प, लेकिन ऐसी बात इससे पहले कभी नहीं हुई। मानव-हृदय का इतना बड़ा सत्य, ऐसा प्रकाश, गोरा के सामने इस प्रकार कभी नहीं आया। इस सारे क्रिया कलाप को वह इतने दिन से कविता का खिलवाड़ कहकर उसकी पूर्णत: उपेक्षा करता आया है। आज उसे इतना पास देखकर वह उसको और अस्वीकार न कर सका। इतना ही नहीं, उसके वेग ने गोरा के मन को हिला दिया, उसकी पुलक उसके सारे शरीर में बिजली-सी लहक गई। उसके यौवन के किसी अगोचर अंश का पर्दा पल-भर के लिए हवा से उड़ गया और अनेक दिनों से बंद उस स्थान में शरद रजनी की चाँदनी प्रवेश करके माया का विस्तार करने लगी।

न जाने कब चद्रमा छतों के पीछे छिप गया। फिर पूर्व की ओर सोए हुए शिशु की मुस्कराहट-सा हल्के प्रकाश का आभास हुआ। इतनी देर के बाद विनय का मन हल्का हुआ तो एक झिझक ने उसे ग्रस लिया। थोड़ी देर चुप रहकर वह बोला, “मेरी ये सब बातें बड़ी ओछी लगेंगी तुम्हें। तुम शायद मन-ही-मन मेरा मज़ाक भी उड़ा रहे हो। लेकिन क्या करूँ, कभी तुमसे कुछ छिपाया नहीं है, आज भी कुछ नहीं छिपा रहा हूँ-तुम समझो या न समझो!”

गोरा ने कहा, “विनय, मैं ये सब बातें ठीक-ठीक समझता हूँ, ऐसा तो नहीं कह सकता। अभी दो दिन पहले तक तुम भी कहाँ समझते थे। और जीवन के काम-काज के बीच आज तक ये सब आवेग और आवेश मेरी नज़र में बड़ी छोटी चीज़ थीं, इससे भी इनकार नहीं कर सकता। लेकिन इसीलिए ये सचमुच छोटी है ऐसा शायद नहीं है। इनकी शक्ति और गंभीरता से मेरा सामना नहीं हुआ, इसीलिए ये मुझे सार-हीन और छलना-सी लगी हैं। लेकिन तुम्हारी इतनी बड़ी उपलब्धि को मैं आज झूठ कैसे कह दूँ? असल में बात यह है कि जो आदमी जिस क्षेत्र में है उस क्षेत्र के बाहर की सच्चाोई यदि उसके निकट छोटी न बनी रहे तो वह काम ही नहीं कर सकता। इसीलिए नियमत: दूर की चीजें मनुष्य को छोटी नज़र आती हैं- सब सत्यों को ईश्वर एक-सा प्रत्यक्ष करके उसे आफत में नहीं डालता। हमें कोई एक पक्ष चुनना ही होगा, सब-कुछ एक साथ जकड़ लेने का लोभ छोड़ना ही होगा, नहीं तो सच्चा ई हाथ नहीं आएगी। तुम जहाँ खड़े होकर सत्य की जिस मूर्ति को प्रत्यक्ष देखते हो, मैं वहीं पर उसी मूर्ति का अभिवादन करने नहीं जा सकूँगा- उससे मेरे जीवन का सत्य नष्ट हो जाएगा। वह या तो इधर हो, या उधर।”

विनय बोला, “यानी-या तो विनय हो,या गोरा! मैं अपने को भर लेने के लिए निकला हूँ, और तुम अपने को त्याग देने के लिए!”

खीझकर गोरा ने कहा, “विनय, तुम मुँहज़बानी किताबें लिखना शुरु मत करो! तुम्हारी बात सुनकर एक बात मैं स्पष्ट समझ गया हूँ। अपने जीवन में तुम आज एक बहुत प्रबल सत्य के सामने खड़े हो- उसे टाल नहीं सकोगे। सत्य की उपलब्धि हो जाने से उसके आगे आत्म-समर्पण करना ही होगा- कोई दूसरा मार्ग नहीं है। जिस क्षेत्र में मैं हूँ उस क्षेत्र के सत्य को मैं भी ऐसे ही एक दिन पा लूँ, यही मेरी आकांक्षा है। इतने दिनों तक तुम किताबी-प्रेम का परिचय पाकर ही संतुष्ट थे- मैं भी किताबी स्वदेश-प्रेम ही जानता हूँ। आज तुम्हारे सामने जब प्रेम प्रत्यक्ष हुआ तभी तुम जान सके कि किताबी ज्ञान से वह कितना अधिक सत्य है- वह तुम्हारे चराचर जगत पर छा गया है और तुम कहीं भी उससे छुटकारा नहीं पा रहे हो। मेरे सामने जिस दिन स्वदेश-प्रेम ऐसे ही सर्वांगीण भाव से प्रत्यक्ष हो जाएगा उस दिन मेरे भी बचाव का रास्ता न रहेगा- उस दिन वह मेरा धन-जीवन, मेरा हाड़-मांस-मज्जा, मेरा आकाश-प्रकाश, मेरा सब-कुछ अनायास खींचकर ले जा सकेगा स्वदेश की वह सत्य-मूर्ति कैसी विस्मय-भरी सुंदर,सुनिश्चित और सुगोचर है, उसका आनंद और उसकी वेदना कितनी प्रचंड है, प्रबल है, जो पल-भर में जीवन-मरण को बाढ़ की तरह बहा ले जाती है- यह आज तुम्हारी बात सुनकर मन-ही-मन थोड़ा-थोड़ा अनुभव कर पा रहा हूँ। तुम्हारे जीवन की यह उपलब्धि आज मेरे जीवन को ललकार रही है- तुमने जो पाया है मैं उसे कभी समझ सकूँगा या नहीं यह तो नहीं जानता; कितु मैं जो पाना चाहता हूँ मानो उसका आस्वाद तुम्हारी मार्फत थोड़ा-थोड़ा पा सकता हूँ।

कहते-कहते चटाई छोड़ गोरा उठकर खड़ा हुआ और छत पर टहलने लगा। पूर्व में उषा का आभास मानो उसे एक वेद वाक्य-सा लगा; मानो प्राचीन तपोवन से एक वेद-मन्त्र उच्चरित हो उठा। उसका शरीर रोमांचित हो आया- क्षण-भर वह मुग्ध-सा खड़ा रहा और उसे लगा कि उसका ब्रह्म-रंध्र भेदकर एक ज्योति सूक्ष्म मृणाल-तन्तु के सहारे उठकर एक ज्योतिर्मय शतदल-सी सारे आकाश में व्याप्त होकर खिल उठी है- उसके प्राण,चेतना, शक्ति मानो पूर्णत: एक परम आनंद में जा मिली है।

जब गोरा अपने-आप में लौट आया तब सहसा बोला, “विनय, तुम्हें इस प्रेम को भी पार करके आना होगा- मैं कहता हूँ, वहीं रुक जाने से नहीं चलेगा। मेरा आह्नान जिस महाशक्ति ने किया है, वह जितना बड़ा सत्य है, यह मैं एक दिन तुम्हें दिखाऊगा। आज मेरा मन भारी आनंद से पूरित है- अब मैं तुम्हें और किसी के हाथों में नहीं छोड़ सकूँगा।”

चटाई छोड़कर विनय उठ गया और गोरा के पास जा खड़ा हुआ। गोरा ने एक अपूर्व उत्साह से उसे दोनों बाँहों में घेरकर गले लगाते हुए कहा, “भाई विनय, हम मरेंगे तो एक ही मौत मरेंगे- हम दोनों एक हैं, कोई हमें अलग नहीं कर सकेगा, कोई बाँध नहीं सकेगा।”

गोरा के इस गहन उत्साह का वेग विनय के हृदय को भी तरंगित करने लगा; उसने कुछ कहे बिना अपने को गोरा के इस उत्साह के प्रति सौंप दिया।

गोरा और विनय दोनों चुपचाप साथ-साथ टहलने लगे। पूर्व का आकाश लाल हो उठा। गोरा ने कहा, “भाई, अपनी देवी को मैं देखता हूँ तो सौंदर्य के बीच नहीं, वहाँ तो अकाल है, दारिद्रय है, दुख और अपमान है। वहाँ प्रार्थना गाकर, फूल चढ़कार पूजा नहीं होती; वहाँ प्रेरणा देकर, लहू बहाकर पूजा करनी होगी। मुझे तो सबसे बड़ा आनंद यही जान पड़ता है कि वहाँ सुख में मगन होने को कुछ नहीं है, वहाँ अपने ही सहारे पूरी तरह जाग्रत रहना होगा, सब-कुछ देना होगा। वहाँ मधुरता नहीं है- वह एक दुर्जय, दुस्सह आविर्भाव है-निष्ठुर है, भयंकर है- उसमें एक ऐसी झंकार है जिसमें सातों स्वर एक साथ बज उठने से तार ही टूट जाते हैं! उसके स्मरण से ही मेरा मन उल्लास से भर उठता है। मुझे जान पड़ता है कि यही है पुरुष का आनंद- यही है जीवन का तांडव नृत्य! पुराने के ध्वं स-यज्ञ की अग्नि-शिखा के ऊपर नए की सुंदर मूर्ति देखने के लिए ही पुरुष की साधना है। मैं लाल प्रकाश में एक बंधन-मुक्त ज्योतिर्मय भविष्य को देख पाता हूँ- आह के इस मोह में भी देख रहा हूँ- देखो, मेरे हृदय के भीतर कौन डमरू बजा रहा है!”

विनय ने कहा, “भाई गोरा, मैं तुम्हारे साथ ही रहूँगा। किंतु तुमसे इतना कहता हूँ, मुझे कभी दुविधा में मत रहने देना! एकदम भाग्य की तरह कठोर होकर मुझे खींचे लिए जाना। हम दोनों का रास्ता एक है, लेंकिन दोनों की शक्ति तो बराबर नहीं है।”

गोरा ने कहा, “हमारी प्रकृतियाँ अलग-अलग हैं। लेकिन एक बहुत गहरा आनंद हमारी भिन्न प्रकृतियों को एक कर देगा- जो प्रेम तुम्हारे-मेरे बीच है उससे भी बड़ा प्रेम हमें एक कर देगा। जब तक वह प्रेम प्रत्यक्ष नहीं होगा तब तक हम दोनों के बीच पग-पग पर टकराहट, विरोध, अलगाव होता रहेगा- फिर एक दिन हम सब-कुछ भूलकर, अपना अलगाव, अपना बंधुत्व भी भूलकर, एक बहुत विशाल, प्रचंड आत्म-परिहास के द्वारा, अटल शक्ति के द्वारा एक हो जाएँगे-वह कठिन आनंद ही हमारे बंधुत्व की चरम उपलब्धि होगा।”

गोरा का हाथ पकड़ते हुए विनय बोला, “ऐसा ही हो!”

गोरा ने कहा, “लेकिन तब तक तुम्हें मैं बहुत दु:ख देता रहूँ। मेरे अत्याचार तुम्हें सहने होंगे, क्योंकि अपने बंधुत्व को ही मैं जीवन का अंतिम उद्देश्य नहीं मान सकूँगा- किसी भी तरह उसी को बचाते रहने की कोशिश करके उसका अपमान नहीं करूँगा। इससे अगर दोस्ती टूट जाए तब तो कोई उपाय नहीं है, लेकिन गर रहे तभी उसकी सार्थकता है।”

इसी समय पैरों की आवाज़ सुनकर चौंककर दोनों ने पीछे मुड़कर देखा आनंदमई छत पर आ रही थी। उन्होंने दोनों के हाथ पकड़कर खींचकर उन्हें नीचे ले जाते हुए कहा, “चलो, जाकर सोओ!”

दोनों ने कहा, “अब क्या नींद आएगी, माँ!”

“आएगी”, कहकर आनंदमई ने दोनों को बिस्तर पर पास-पास लिटा दिया और कमरे का दरवाज़ा उढ़काकर सिरहाने बैठकर पंखा झलने लगीं।

विनय ने कहा, “माँ, तुम्हारे पंखा झेलते रहने से तो हमें नींद नहीं आएगी।”

आनंदमई बोली, “कैसे नहीं आएगी, देखूँगी! मैं चली गई तो तुम लोग फिर बहस करने लगोगे- वह नहीं होने का।”

दोनों के सो जाने पर चुपके से आनंदमई कमरे के बाहर चली गईं। उन्होंने सीढ़ियाँ उतरते हुए देखा, महिम ऊपर जा रहा है। उन्होंने कहा, “अभी नहीं- सारी रात वे लोग सोए नहीं। मैं अभी-अभी उन्हें सुलाकर आ रही हूँ।”

महिम ने कहा, “वाह रे, इसी को कहते हैं दोस्ती! ब्याह की कोई बात हुई थी या नहीं, तुम्हें कुछ पता है?”

आनंदमई, “पता नहीं।”

महिम, “जान पड़ता है, कुछ-न-कुछ तय हो गया है। उनकी नींद कब टूटेगी? ब्याह जल्दी न हुआ तो कई मुश्किलें आ खड़ी होंगी।”

हँसकर आनंदमई ने कहा, “उनके सो जाने से ऐसी कोई बड़ी मुश्किल नहीं होगी- वे लोग आज ही किसी समय जाग जाएँगे।”

वरदासुंदरी ने परेशबाबू से पूछा, “तुम सुचरिता का ब्याह नहीं करोगे?”

थोड़ी देर परेशबाबू अपने स्वाभाविक शांत गंभीर भाव से दाढ़ी सहलाते रहे, फिर मृदु स्वर में बोले, “पात्र कहाँ है?”

वरदासुंदरी बोलीं, “क्यों, पानू बाबू के साथ उसके विवाह की बात तो तय हो ही चुकी है- कम से कम हम लोग तो यही समझते हैं, सुचरिता भी यही समझती है।”

परेशबाबू बोले, “मुझे तो ऐसा नहीं लगता कि राधारानी को पानू बाबू ठीक पसंद ही हैं।”

वरदासुंदरी- ”देखो, यही सब मुझे अच्छा नहीं लगता। सुचरिता को कभी मैंने अपनी लड़कियों से अलग नहीं माना; लेकिन इसीलिए ही यह भी कहना होगा कि उसमें ऐसी क्या असाधारण बात है? पानू बाबू जैसे विद्वान धार्मिक आदमी को वह अगर पसंद है तो यह क्या यों ही उड़ा देने की बात है? तुम जो कहो, मेरी लावण्य देखने में उससे कहीं सुंदर है, लेकिन मैं तुमसे कहे देती हूँ, जिसे भी हम पसंद कर देंगे, वह उससे ब्याह कर लेगी, कभी 'ना' नहीं करेगी। तुम्हीं सुचरिता को अगर ऐसे सिर चढ़ाकर रखोगे तो उसके लिए पात्र मिलना मुश्किल हो जाएगा।

इस पर परेशबाबू ने और कुछ नहीं कहा। वह वरदासुंदरी के साथ कभी बहस नहीं करते, खासकर सुचरिता के संबंध में।

सतीश को जन्म देकर जब सुचरिता की माँ की मृत्यु हुई तब सुचरिता सात बरस की थी। उसके पिता रामशरण हालदार ने पत्नी की मृत्यु के बाद ब्रह्म-समाज अपनाया और पड़ोसियों के अत्याचार के कारण गाँव छोड़कर ढाका में आ बसे। वहीं पोस्ट-ऑफिस की नौकरी करते परेशबाबू के साथ उनकी घनिष्ठता हो गई। तभी से सुचरिता परेशबाबू को ठीक अपने पिता के समान मानती है।

रामशरण की मृत्यु अचानक हो गई। अपनी वसीयत में अपना सब रुपया-पैसा लड़के और लड़की के नाम करके वह उनकी देख-भाल परेशबाबू को सौंप गए। सतीश और सुचरिता तभी से परेशबाबू के परिवार के हो गए।

घर या बाहर के भी लोग सुचरिता के प्रति जब विशेष स्नेह या दिलचस्पी दिखाते तो वरदासुंदरी को ठीक न लगता। फिर भी चाहे जिस कारण हो, सुचरिता सभी से स्नेह और सम्मान पाती। वरदासुंदरी की अपनी लड़कियाँ भी उसके स्नेह के लिए आपस में झगड़ती रहतीं। विशेषकर मँझली लड़की ललिता तो अपने ईष्या-पोषित स्नेह से सुचरिता को मानो दिन-रात जकड़कर बाँधे रखना चाहती थी।

पढ़ने-लिखने में उनकी लड़कियाँ उस ज़माने की सब विदुषियों से आगे निकल जाएँ, वरदासुंदरी की यही कामना थी। उनकी लड़कियों के साथ-साथ बड़ी होती हुई सुचरिता भी उन-सा ही कौशल प्राप्त कर ले, यह बात उनके लिए सुखकर नहीं थी। इसीलिए सुचरिता के स्कूल जाने के समय तरह-तरह के विघ्न खड़े होते ही रहते हैं।

इन सब विघ्नों के कारण को समझते हुए परेशबाबू ने सुचरिता का स्कूल छुड़ा दिया और स्वयं पढ़ाना आरंभ कर दिया। इतना ही नहीं, सुचरिता मानो विशेष रूप से उन्हीं की संगिनी हो गई। वह उसके साथ अनेक विषयों पर बातचीत करते, जहाँ जाते उसे साथ ले जाते, जब कहीं दूर रहने को मजबूर होते तब चिट्ठियों में अनेक प्रसंग उठाकर उनकी विस्तृत चर्चा किया करते। इसी ज्ञान के ारण सुचरिता का मन उसकी उम्र और अवस्था से कहीं आगे बढ़ गया था। उसके चहेरे पर और आचरण में जो एक सौम्य गंभीरता आ गई थी, उसे देखकर कोई उसे बालिका नहीं समझ सकता था;और लावण्य उम्र में उसके लगभग बराबर होने पर भी हर बात में सुचरिता को अपने से बड़ा मानती थी। यहाँ तक कि वरदासुंदरी भी चाहने पर भी किसी तरह उसकी अवज्ञा नहीं कर सकती थीं।

पाठक यह तो जान ही चुके हैं कि हरानबाबू बड़े उत्साही ब्रह्म थे। ब्रह्म समाज के सभी कामों में उनका सहयोग था- रात्रि-पाठशाला में वह शिक्षक थे, पत्र के संपादक थे, स्त्री-विद्यालय के सेक्रेटरी थे- वह मानो काम से थकते ही न थे। एक दिन यह युवक ब्रह्म-समाज में बहुत ऊँचा स्थान पाएगा, इसका सभी को विश्वास था। विशेष रूप से अंग्रेजी भाषा पर उनके अधिकार और दर्शन-शास्त्र में उनकी गहरी पैठ की ख्याति विद्यालय के छात्रों के द्वारा ब्रह्म-समाज के बाहर भी फैल गई थी।

इन्हीं सब कारणों से सुचरिता भी दूसरे ब्रह्म लोगों की तरह हरानबाबू को विशेष श्रध्दा से देखती थी। ढाका से कलकत्ता आते समय हरानबाबू से परिचय के लिए उसके मन में विशेष उत्सुकता भी थी।

अंत में इन्हीं सुप्रसिध्द हरानबाबू के साथ सुचरिता का न केवल परिचय हुआ, बल्कि थोड़े दिनों में ही सुचरिता के प्रति अपने हृदय के आकर्षण को प्रकट करने में भी हरानबाबू को संकोच न हुआ। उन्होंने स्पष्ट रूप से सुचरिता के सामने प्रणय-निवेदन किया हो ऐसी बात नहीं थी; किंतु सुचरिता की सब प्रकार की अपूर्णता पूरी करने, उसकी कमियों का संशोधन करके उसका उत्साह बढ़ाने, और उसकी उन्नति के साधन जुटाने का काम वह ऐसे मनोयोग से करने लगे कि सभी ने यह समझ लिया कि वह विशेष रूप से इस कन्या को अपने लिए उपयुक्त संगिनी के रूप में तैयार करना चाहते हैं