गोरा / रवीन्द्रनाथ ठाकुर / पृष्ठ २१

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इस बात से हरानबाबू के प्रति वरदासुंदरी की पहले की श्रध्दा खत्म हो गई। वह उन्हें मामूली स्कूल-मास्टर मानकर उनकी अवज्ञा करने की कोशिश करने लगी।

जब सुचरिता ने भी यह जान लिया कि विख्यात हरानबाबू के चित्त पर उसने विजय पाई है, तब उसे मन-ही-मन भक्ति-मिश्रित गर्व का अनुभव हुआ।

प्रधान पक्ष की ओर से कोई प्रस्ताव न आने पर भी सबने जब यह तय कर लिया कि हरानबाबू के साथ ही सुचरिता का विवाह ठीक हो गया है,तब मन-ही-मन सुचरिता ने भी हामी भर दी थी; और हरानबाबू ने ब्रह्म-समाज के जन हितों के लिए अपना जीवन उत्सर्ग किया है, उनके उपयुक्त होने के लिए उसे कैसे ज्ञान और साधना की आवश्यकता होगी, उसके लिए यह विशेष उत्सुकता का विषय हो गया था। वह किसी मनुष्य से विवाह करने जा रही है, इसका हृदय से उसने अनुभव नहीं किया- मानो वह समूचे ब्रह्म-समाज के महान मंगल से ही विवाह करने जा रही हो, और बहुत-से ग्रंथ पढ़कर मंगल विद्वान हो गया हो तथा तत्व-ज्ञान के कारण बहुत गंभीर भी। विवाह की कल्पना उसके लिए मानो बहुत बड़ी जिम्मेदारी की घबराहट के कारण रचा हुआ एक पत्थर का किला हो गई। केवल सुख से रहने के लिए वह किला नहीं है बल्कि युध्द करने के लिए है- पारिवारिक नहीं, ऐतिहासिक है।

ऐसी स्थिति में ही विवाह हो जाता तो कम-से-कम कन्या-पक्ष के सभी लोग हमें बहुत बड़ा सौभाग्य मानकर ही ग्रहण करते। किंतु हरानबाबू जीवन के अपने ही बनाए हुए महान उत्तरदायित्व को इतना बड़ा करके देखते थे कि केवल अच्छा लगने के कारण आकर्षित होकर विवाह करने को वे अपने लिए योग्य नहीं मानते थे। ब्रह्म-समाज को इस विवाह के द्वारा कहाँ तक लाभ होगा, इस पर पूरा विचार किए बिना वह इस ओर प्रवृत्त नहीं हो सकते थे। इसीलिए उन्होंने इसी नज़रिए से सुचरिता की परीक्षा लेनी आरंभ कर दी।

इस प्रकार परीक्षा देनी आरंभ कर दी। हरानबाबू परेशबाबू के घर में सबके सुपरिचित हो गए। उनके अपने घर के लोग उन्हें पानू बाबू कहकर पुकारते हैं, इसलिए इस घर में भी उनका वही नाम चलने लगा। अब उन्हें केवल अंग्रेजी विद्या के भंडार, तत्व-ज्ञान के आधार, और ब्रह्म-समाज के मंगल के अवतार के ही रूप में देखना काफी न रहा-वह मनुष्य भी है यही परिचय सबसे निकटतम परिचय हो गया। इस तरह वह केवल श्रध्दा और सम्मान के अधिकारी न रहकर अच्छा और बुरा लगने के नियम के अधीन हो गए।

विस्मय की बात यह थी कि पहले दूर से हरानबाबू की जो प्रवृत्ति सुचरिता की श्रध्दा पाती थी, निकट आने पर वही अब उसे अखरने लगी। ब्रह्म-समाज में जो कुछ सत्य, मंगल और सुंदर है, हरानबाबू द्वारा उस सबका मानो पालक बनकर उसकी रक्षा का भार लेने पर उसे बहुत ही छोटे जान पड़े। मनुष्य का सत्य के साथ संबंध भक्ति का संबंध है- वह भक्ति स्वभावतया मनुष्य को विनयशील बना देती है। ऐसा न होने पर वह संबंध जहाँ मनुष्य को उध्दत और अहंकारी बनाता है, वहाँ मनुष्य उस सत्य की तुलना में अपने ओछेपन को बहुत स्पष्ट प्रकाशित कर देता है। सुचरिता इस मामले में मन-ही-मन परेशबाबू और हरान के अंतर की समीक्षा किए बिना न रह सकी। ब्रह्म-समाज से जो कुछ परेशबाबू ने पाया है उसके सम्मुख वह मानो सदा नत-मस्तक है, वह उसे लेकर ज़रा भी प्रगल्भ नहीं होते, उसकी गहराई में उन्होंने अपने जीवन को डुबा दिया है। परेशबाबू की शांत मुख-छवि देखने पर, जिस सत्य को हृदय में वह धारणा किए हैं उसी की महत्ता ऑंखों के सामने आती है। हरानबाबू किंतु वैसे हैं, उनमें ब्रह्मत्व नाम का एक तीव्र आत्म-प्रकाश बाकी सब-कुछ के ऊपर छा जाता है और उनकी प्रत्येक बात तथा उनके प्रत्येक काम में अशोभन ढंग से प्रकट हो जाता हैं इससे संप्रदाय में उनका सम्मान बढ़ा था; किंतु परेशबाबू की शिक्षा के प्रभाव से सुचरिता साम्प्रदायिक संकीर्णता में नहीं बँध सकी थी, इसलिए हरानबाबू की यह एकाकी ब्राह्मिकता उसकी स्वाभाविक मानवता को ठेस पहुँचाती थी। हरानबाबू समझते थे धर्म-साधना के कारण उनकी दृष्टि इतनी स्वच्छ व तेज़ हो गई है कि‍ दूसरे सब लोगों का भला-बुरा और झूठ-सच वह सहज ही समझ सकते हैं। इसीलिए वह सदा हर किसी का विचार करने को तैयार रहते। विषई लोग पर निंदा और नुक्ताचीनी करते रहते हैं; लेकिन जो धार्मिक भाषा में यह काम करते हैं उनकी इस निंदा के साथ एक तरह का आध्याकत्मिक अहंकार भी मिला रहता है जो संसार में बहुत बड़ा उपद्रव पैदा कर देता है। उस भाव को सुचरिता बिल्कुाल नहीं सह सकती थी। उसके मन में ब्रह्म-संप्रदाय के बारे में कोई गर्व न हो ऐसा नहीं था; किंतु ब्रह्म-समाज में जो बड़े लोग हैं वे ब्रह्म होने के कारण ही एक विशेष शक्ति पाकर बड़े बने हैं, या कि ब्रह्म-समाज के बाहर जो चरित्र-भ्रष्ट लोग हैं वे ब्रह्म न होने के कारण ही विशेष रूप से शक्तिहीन होकर बिगड़ गए हैं, इस बात को लेकर हरानबाबू से सुचरिता की कई बार बहस हो जाती थी।

ब्रह्म-समाज के मंगल की आड़ लेकर विचार करने बैठकर हरानबाबू जब परेशबाबू को भी अपराधी ठहराने से नहीं चूकते थे तब सुचरिता मानो आहत नागिन-सी तिलमिला उठती थी। बंगाल में उन दिनों अंग्रेजी पढ़े-लिखे लोगों में भगवद्गीता को लेकर बातचीत नहीं होती थी, लेकिन परेशबाबू सुचरिता के साथ कभी-कभी गीता पढ़ते थे, कालीसिंह का महाभारत भी उन्होंने सुचरिता को लगभग पूरा पढ़कर सुनाया था। हरानबाबू को यह अच्छा नहीं लगा। इन सब ग्रंथों को वह ब्रह्म-घरों से दूर देने के पक्षपाती थे। उन्होंने स्वयं भी ये सब नहीं पढ़े थे। रामायण, महाभारत, भगवद्गीता को वह हिंदुओं की किताबें कहकर दूर रखना चाहते थे। धर्म-शास्त्रों में एक मात्र बाइबल ही उनका मान्य ग्रंथ था। परेशबाबू अपनी शास्त्र-चर्चा में एवं छोटी-मोटी अनेक बातों में ब्रह्म-अब्रह्म की सीमा की रक्षा करते हुए नहीं चलते, यह बात हरान के मन में काँटें-सी चुभती थी। परेशबाबू के आचरण के बारे में प्रकट या मन-ही-मन कोई किसी तरह का दोषारोपण करने का साहस करे, सुचरिता यह नहीं सह सकती थी। हरानबाबू का ऐसा दु:साहस प्रकट हो जाने के कारण ही वह सुचरिता की नज़रों में गिर गए थे।

अनेक ऐसे ही कारणों से परेशबाबू के घर में हरानबाबू का मान दिन-प्रतिदिन घटता गया था। वरदासुंदरी भी ब्रह्म-अब्रह्म का भेद निबाहने में यद्यपि हरानबाबू से किसी मायने में कम उत्साही न थी, और उन्हें भी अनेक समय पति के आचरण के कारण लज्जा का बोध होता था, फिर भी हरानबाबू को वह आदर्श-पुरुष नहीं मानती थीं। हरानबाबू के हज़ारों दोष उनकी नज़रों में रहते थे।

हरानबाबू के साम्प्रादायिक उत्सह के अत्याचार और नीरस संकीर्णता से भीतर-ही-भीतर सुचरिता का मन प्रतिदिन उनसे विमुख होता जाता था,फिर भी उसका विवाह हरानबाबू से ही होगा, इस संबंध में किसी पक्ष के मन में कोई विघ्न या संदेह नहीं था। धर्म समाज की दुकान में जो व्यक्ति अपने ऊपर बड़े-बड़े अक्षरों में बहुत ऊँचे दाम का लेबिल लगाए रहता है, धीरे-धीरे अन्य लोग भी उसका महूँगापन स्वीकार कर लेते हैं। इसलिए न तो स्वयं हरानबाबू के, न और किसी के मन में इस बारे में कोई शंका थी कि अपने महान संकल्प के अनुसार चलते हुए अच्छी तरह परीक्षा करके सुचरिता को पसंद कर लेने पर हरानबाबू के निश्चय को सभी लोग सिर-ऑंखों पर नहीं लेंगे। और तो और, परेशबाबू ने भी हरानबाबू के दावे को अपने मन में अग्राह्य नहीं माना था। सभी लोग हरानबाबू को ब्रह्म-समाज का भावी नेतृत्व मानते थे; वह भी इसके विरुध्द न सोचकर हामी भर देते थे। इसीलिए उनके लिए भी विचारणीय बात यही थी कि हरानबाबू जैसे आदमी के लिए सुचरिता उपयुक्त होगी या नहीं; सुचरिता के लिए हरानबाबू कहाँ तक उपयुक्त होंगे, यह उन्होंने भी नहीं सोचा था।

इस विवाह के सिलसिले में और किसी ने जैसे सुचरिता की बात सोचना ज़रूरी नहीं समझा, वैसे ही अपनी बात सुचरिता ने भी नहीं सोची। ब्रह्म-समाज के और सब लोगों की तरह उसने भी सोच लिया था कि हरानबाबू जिस दिन कहेंगे, “मैं इस कन्या को ग्रहण करने को तैयार हूँ”, वह उसी दिन इस विवाह के रूप में अपने महान कर्तव्य को स्वीकार कर लेगी।

सब ऐसे ही चलता जा रहा था। इसी मध्य उस दिन गोरा को उपलक्ष्य करके हरानबाबू के साथ सुचरिता का दो-चार कड़ी बातों का जो आदान-प्रदान हो गया, उसका सुर समझकर परेशबाबू के मन में शंका उठी कि सुचरिता शायद हरानबाबू पर यथेष्ट श्रध्दा नहीं करती, या शायद दोनों के स्वभाव में मेल न होने के कारण ऐसा है। इसीलिए जब वरदासुंदरी विवाह के लिए ज़ोर दे रही थीं तब परेशबाबू पहले की तरह हामी नहीं भर सके। उसी दिन वरदासुंदरी ने अकेले में सुचरिता को बुलाकर कहा, “तुमने तो अपने पिता को सोच में डाल दिया है।”

सुनकर सुचरिता चौंक उठी। भूल से भी वह परेशबाबू के दु:ख का कारण ो, इससे अधिक कष्ट की बात उसके लिए और नहीं हो सकती। उसका चेहरा फीका पड़ गया। उसने पूछा, “क्यों, मैंने क्या किया है?”

वरदासुंदरी, “मैं क्या जानूँ, बेटी! उन्हें लगता है, पानू बाबू तुम्हें पसंद नहीं है। ब्रह्म-समाज के सभी लोग लोग जानते हैं कि पानू बाबू के साथ तुम्हारा विवाह एक तरह से पक्का हो चुका है- ऐसी हालत में अगर तुम.... ”

सुचरिता, “लेकिन माँ, इस बारे में मैंने तो किसी से कोई बात ही नहीं की?”

सुचरिता का आश्चर्य करना स्वाभाविक ही था। वह हरानबाबू के व्यवहार से कई बार क्रोधित अवश्य हुई है; किंतु विवाह-प्रस्ताव के विरुध्द उसने कभी मन-ही-मन भी कुछ नहीं सोचा। इस विवाह से वह सुखी होगी या दु:खी होगी, उसके मन में यह सवाल भी कभी नहीं उठा, क्योंकि वह यही जानती थी कि सुख-दु:ख की दृष्टि से इस विवाह पर विचार नहीं किया जा सकता।

तब उसे ध्याचन आया, परेशबाबू के सामने ही उस दिन उसने पानू बाबू के प्रति अपनी विरक्ति प्रकट की थी। इसी से वे उद्विग्न हुए हैं- यह सोचकर उसे दु:ख हुआ। ऐसा असंयम उससे पहले तो कभी नहीं हुआ था। उसने मन-ही-मन तय किया कि अब फिर ऐसी भूल कभी न होगी।

उधर उसी दिन हरानबाबू भी कुछ देर बाद फिर आ पहुँचे। उनका मन भी चंचल हो उठा था। इतने दिन से उनका विश्वास था कि मन-ही-मन सुचरिता उनकी पूजा करती है, और इस पूजा का अर्घ्य और भी संपूर्णता से उनको मिलता अगर अंध-संस्कार के कारण बूढ़े परेशबाबू के प्रति सुचरिता की अंध-भक्ति न होती। परेशबाबू के जीवन में अनक कमियाँ दीखने पर भी सुचरिता मानो उन्हें देवता ही समझती है, इस पर मन-ही-मन हरानबाबू को हँसी भी आती थी तथा खीझ भी होती थी; फिर भी उन्हें आशा थी कि यथा समय मौका पाकर वह इस अत्यधिक भक्ति को ठीक राह पर डाल सकेंगे।