गोरा / रवीन्द्रनाथ ठाकुर / पृष्ठ २२

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जो हो, जब तक हरानबाबू अपने को सुचरिता की भक्ति का पात्र समझते रहे तब तक उसके छोटे-छोटे कामों और आचरण की भी केवल समालोचन करते रहे और सदा उसे उपदेश देकर अपने ढंग से गढ़ने की कोशिश करते रहे- विवाह के बारे में कोई साफ बात उन्होंने नहीं की। उस दिन सुचरिता की दो-एक बातें सुनकर सहसा जब उनकी समझ में आ गया कि वह उन पर विचार भी करने लगी है, तब से उनके लिए अपना अविचल गांभीर्य और स्थिरता बनाए रखना दूभर हो गया। इधर सुचरिता से दो-एक बार जो उनकी भेंट हुई है उसमें वह पहले की तरह अपने गौरव को स्वयं अनुभव या प्रकाशित नहीं कर सके हैं, बल्कि सुचरिता के साथ उनकी बातचीत और व्यवहार में कुछ झगड़े का-सा भाव दीख पड़ता रहा है। इसे लेकर वह अकारण ही, या छोटे-छोटे कारण ढूँढ़कर नुक्ताचीनी करते रहे हैं। इस मामले में भी सुचरिता की अविचल उदासीनता से मन-ही-मन उन्हें हार माननी पड़ती है, और घर लौटकर अपनी मान-हानि पर वह पछताते रहे हैं।

जो हो, सुचरिता की श्रध्दाहीनता के दो-एक प्रकट लक्षण देखकर हरानबाबू के लिए अब बहुत समय स्थिर होकर उसके परीक्षक के आसन पर बैठे रहना मुश्किल हो गया। इससे पहले परेशबाबू के घर वह यों बार-बार नहीं आते-जाते थे। कोई यह न समझे कि सुचरिता के प्रेम में वह चंचल हो उठे हैं, इस आशंका से वह सप्ताह में केवल एक बार आते थे और अपनी गरिमा में ऐसे मंडित रहते थे मानो सुचरिता उनकी छात्र हो। लेकिन इधर कुछ दिन से न जाने क्या हुआ है कि कोई भी छोटा-मोटा बहाना लेकर हरानबाबू दिन में एक से अधिक बार भी आए हैं, और उससे भी छोटा बहाना ढूँढ़कर सुचरिता के करीब आकर बातें करने की चेष्टा करते रहे हैं। इससे परेशबाबू को भी दोनों अच्छी तरह पर्यवेक्षण करने का अवसर मिल गया है, और इससे उनका संदेह क्रमश: दृढ़ ही होता गया है।

आज हरानबाबू के आते ही उन्हें अलग बुलाकर वरदासुंदरी ने पूछा, “अच्छा पानू बाबू, सभी लोग कहते हैं कि हमारी सुचरिता से आप विवाह करेंगे लेकिन आपके मुँह से हमने तो कभी कोई बात नहीं सुनी। सचमुच अगर आपका ऐसा अभिप्राय हो तो आप साफ-साफ कह क्यों नहीं देते?”

अब हरानबाबू और देर नहीं कर सके। अब सुचरिता को वह किसी तरह बंधन में कर लें तभी निश्चिंत होंगे- उनके प्रति उसकी भक्ति की, और ब्रह्म-समाज के हित के लिए उसकी योग्यता की परीक्षा फिर कभी की जा सकेगी। वरदासुंदरी से उन्होंने कहा, “कहने को अनावश्यक मानकर ही मैंने नहीं कहा। सुचरिता के अठारह वर्ष पूरे होने की ही इंतज़ार कर रहा था।”

वरदासुंदरी बोलीं, “आप तो ज़रूरत से ज्यादा सोचते हैं। हम लोग तो चौदह वर्ष की उम्र विवाह के लिए काफी समझते हैं।”

उस दिन परेशबाबू चाय के समस्त सुचरिता का व्यवहार देखकर चकित रह गए। बहुत दिनों से सुचरिता के हरानबाबू के लिए इतना जतन और आग्रह नहीं दिखाया था। यहाँ तक कि वह जब जाने को उठे तब लावण्य की शिल्पकारी का एक नया नमूना दिखाने की बात कहकर सुचरिता ने उनसे और कुछ देर बैठने का अनरोध किया।

परेशबाबू निश्चिंत हो गए। उन्होंने मान लिया कि उनसे समझने में भूल हुई थी। बल्कि मन-ही-मन वह थोड़ा हँसे भी। उन्होंने सोचा कि दोनों में कोई हल्का-फुल्का प्रणय-कलह हुआ था और अब फिर से सुलह हो गई है।

विदा होते समय उस दिन हरानबाबू ने परेशबाबू के सम्मुख विवाह का प्रस्ताव रख दिया। उन्होंने यह भी जता दिया कि इस संबंध में और देर करने की उनकी मंशा नहीं है।

कुछ अचरज करते हुए परेशबाबू ने कहा, “लेकिन आपका तो मत है कि अठारह वर्ष से कम उम्र की लड़की का विवाह करना अनुचित है?बल्कि आपने तो अखबारों में भी ऐसा लिखा है।”

हरानबाबू बोले, “सुचरिता के बारे में वह शर्त लागू नहीं होती। क्योंकि जैसा उसका मन विकसित है वैसा उससे कहीं अधिक उम्र की लड़कियों में भी नहीं पाया जाता।”

शांत दृढ़ता के साथ परेशबाबू ने कहा, “वह होगा, पानू बाबू! लेकिन जब कोई हानि नहीं दीख पड़ती तब आपके मन के अनुसार राधारानी की उम्र पूरी होने तक प्रतीक्षा करना ही प्रथम कर्तव्य है।

अपनी दुर्बलता से साक्षात हो जाने पर लज्जित हरानबाबू ने कहा, “वह अवश्य ही कर्तव्य है। मेरी इतनी इच्छा है कि एक दिन सबको बुलाकर भगवान का नाम लेकर संबंध पक्का कर दिया जाय।”

परेशबाबू ने कहा, “यह तो बहुत अच्छा प्रस्ताव है।”