गोली / आचार्य चतुरसेन शास्त्री / पृष्ठ 2

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गोली

‘‘मैं गोली हूं।

कलमुंहें विधाता ने मुझे जो रूप दिया है,

राजा इसका दीवाना था,

प्रेमी-पतंगा था।

मैं रंगमहल की रोशनी थी।

दिन में, रात में, वह मुझे निहारता।

कभी चम्पा कहता, कभी चमेली...।’’


यह ‘गोली’ की नायिका चम्पा कहती है।

सुप्रसिद्ध उपन्यासकार आचार्य चतुरसेन ने इस अत्यंत रोचक उपन्यास में राजस्थान के राजमहलों में राजों-महाराजों और उनकी दासियों के बीच चलने वाले वासना-व्यापार के ऐसे मादक चित्र प्रस्तुत किए हैं कि उन्हें पढ़कर आप हैरत में पड़ जाएंगे।

गोली...

जिसने बिना शस्त्र ग्रहण किए एक ही वर्ष में इतना बड़ा अखण्ड चक्रवर्ती राज्य स्थापित कर दिया- जितना न राम का था न कृष्ण का, न अशोक का था न अकबर का, न लहरों के स्वामी ब्रिटेन का। शरीर उसने अपनी इकलौती बेटी को सौंप दिया और चेतना अपनी जन्म-भूमि को अर्पित की। पुत्री रात-दिन सेवा-रत रहती। समय बचाकर सूत कातती। उसी सूत से उसका कुर्ता बनता, धोती बनती। और जब वह फट जाते तो पुत्री मणि उन्हीं को काट-कूटकर अपनी साड़ी-कुर्ती बनाती। यही था उस परम सत्व का जीवन-वैभव ! अपने ही में सम्पन्न, अपने ही में परिपूर्ण !! उन्हीं विश्व के अप्रतिम अपने ही में सम्पन्न, अपने ही में परिपूर्ण !! उन्ही विश्व के अप्रतिम राजनीति-चक्रवर्ती सार्वभौम सरदार वल्लभ भाई पटेल की दिवगंत पावन आत्मा को मेरा यह उपन्यास ‘गोली’ सादर समर्पित है।

आचार्य चतुरसेन शास्त्री