चना चबेना गंगजल / भाग 3 / श्याम बिहारी श्यामल

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एतवारु मुस्कुराया, “ई हम्मर आपन अदमी हउवन! संगे रहियन!” उसने मेरी पीठ पर हाथ फिराया तो बहुत भला लगा. दूसरे ही पल तेवर बदल लिये और नाव खे रहे युवक को आंखें तरेरकर देखा, “तूं सांस मत खींचाऽ! एकदम एके बार में सर्र-से इहां से राजघाट पुल के लग्गे ले चलाऽ!” युवक ने सहमते हुए स्वीकार में सिर हिलाया और सामने ताकने लगा.

कुछ ही दूर आगे बढ़ने पर झोला खुल गया. उसने सब खोलकर देखना शुरु किया. शराब की तीन बड़ी और चार छोटी बोतलें. चार बड़ी-बड़ी पोटलियां. घाट पर मैंने यह झोला देख सोचा भी नहीं था कि खुद पुलिस वाले उसकी खिदमत में इस तरह शराब लेकर आये होंगे! इसकी भनक भी मिल गयी होती तो किसी भी कीमत पर मैं नाव पर नहीं चढ़ता. मुझे यह समझते देर नहीं लगी कि अब तो सब के सब मिल-बांटकर पियेंगे. यह बूढ़ा पीकर क्या-क्या कर सकता है, यह मेरे लिए समझना कठिन नहीं रह गया था. ...तो, मैं तो इसमें फंस ही गया न! कैसे निकला जाये इस भंवर से! बहुत चिंता होने लगी. किसी हद तक घबराहट भी. आखिर यह पानी पर तैरती हुई नाव है! कहीं इसी पर कोई धमाचौकड़ी मचने लगे तो! मुझे तो कुछ बहाना बनाकर हर हाल में उतर ही लेना चाहिए! उतरने में क्या है, नाव को जरा-सा किनारे करके कहीं भी किसी घाट से हल्के सटा दे! उतर लूंगा और सरपट अपनी राह ले लूंगा. दूसरे ही पल खुद ही यह भी लगा कि मैं शायद बहुत अच्छे ढंग से बहाना नहीं बना सकूंगा. मेरा ध्यान नाव खे रहे युवक पर गया तो राहत महसूस हुई. वह झोले की तरफ नजर भी नहीं डाल रहा था! मतलब यह कि मेरे साथ एक शायद वह भी ऐसा हो जो न पिये!

एक बोतल को बाहर निकालते हुए पुलिसकर्मी ने कहा, “चच्चाऽ, तोहार कोटा इहां पूरा हौ! बस काम जल्दी करावाऽ! देखाऽ, बुलानाले जाके ठठेरी बाजार से तोरे लिये एक से एक नमकीन लावल गल हौ. काजू के अलग, मखाना के अलग! गुजराती गठिया भी हौ, बनारसी दलमोट भी! तूं जमके मारऽ लेकिन काम कराऽ!”

एतवारु ने मुंह में मुट्ठी भर-भरकर लगातार दो बार काजू झोंका और हापुस-हापुस चबाने लगा. सिर को आसमान की ओर कर बोतल लगा ली और मुंह से तभी हटायी जब वह पूर्णतः खाली हो चुकी. यह छोटी बोतल थी. तो, क्या बड़ी वाली भी इसी तरह एक ही सांस में धकेल लेगा! बहुत डर लगा.

अब तक यह संकेत भी मिल चुका था कि झोले का सारा कोटा अकेले उसी का है. यानी बाकी सभी लोग होश में ही रहेंगे. थोड़ी-सी राहत! उसने इस बार बड़ी बोतल खोल ली. नाव पर से ही पानी की सतहों का उसका मुआयना गजब बारीक! जैसे आंखों से ही जल के तल को इंच-इंच बुहार रहा हो. एक बार में इस तरफ मुंह करके आंखों से जाल फेंकता तो दूसरी बार में उधर घूमकर पूरजोर दृष्टि-दौड़! जल के तल के एक-एक स्पंदन को वह जैसे जज्ब कर रहा हो! हां, एकदम इसे ही तो कहेंगे सिंहावलोकन! दशकों से लिखे-पढ़े जा रहे इस शब्द का सटीक अर्थ अचानक सामने आकर जैसे साकार खड़ा हो गया हो. जंगल का राजा जैसे अपने साम्राज्य के चप्पे-चप्पे की खबर लेता कदम बढ़ाता है!

उसने मुझे लक्ष्य किया, “केवट वंश! समझ रहे हैं न?”

मैंने संदेह से उस पर नजर डाली. यह किसकी आवाज है, एतवारु की या शराब की ? क्या अभी से शराब ने अपना कंठ खोल लिया! डर लगा, कहीं यह आदमी नरक न कर दे!

आश्चर्य कि न तो नाव लड़खड़ा रही थी न उसकी आवाज, “क्षीरसागर में भगवान जब शेषशय्या पर होते तो एक कछुआ नीचे से चढ़ता हुआ उनके चरणों की ओर बढ़ने लगता... भगवान के चरणों की सेवा में जुटी माता लक्ष्मी की दृष्टि उस पर पड़ जाती और वह झिड़ककर उसे हटाने लगतीं... तब तक शेषनाग की आंखें जल उठतीं... वे ऐसी फुंफकार मारते कि कछुआ करोड़ों कोस दूर जा गिरता! लेकिन लक्ष्य-भंग का न कोई क्षोभ न पस्ती का कोई भाव! वह फिर वहीं से यात्रा शुरु कर देता. युगों-युगों तक चलकर वह फिर-फिर क्षीर सागर पहुंचता लेकिन फिर-फिर वही फुंफकार और वही करोड़ों कोस दूर जाकर गिरना और वैसे ही पुनः पुनः वही यात्रा! अथक-अनन्त और अपराजेय आस्था! उसने कभी हार नहीं मानी. लाखों साल तक शेषनाग ने कछुए को भगवान के चरणों तक पहुंचने से रोके रखा. लेकिन जब त्रेता में रामावतार हुआ तब जाकर कछुए को केवट के रूप में भगवान के श्रीचरणों की महास्पर्श-सिद्धि मिली. यहां भी लक्ष्मण के वेश में शेषनाग ने उसे रोकने का भरपूर प्रयास किया लेकिन भगवान को तो जन्म-जन्म के अपने इस भक्त का मर्म पता था, तो वही है यह केवट वंश!”

कंठ से कथा-प्रसंग के समानांतर ही नेत्रों से अविरल बह रही हैं कथा-रस की विरल धाराएं, ‘‘...तो केवट वंश का काम ही है सबको पार लगाना... डूबते को बचाना और जो डूब गया उसे भवसागर पार लगाना! लेकिन क्या करें बेटा! पेट है! पैसा न कमायें तो खायें क्या ?”

पुलिस वाले उसकी बातों में नहीं, पानी पर उसके मुआयना के जाहिर हो रहे संजीदा अंदाज पर ध्यान गड़ाये हुए हैं. इस तरफ सीढ़ियां-घाट और किनारे के बड़े-बड़े भवन पीछे छूटते जा रहे हैं किंतु दूसरी तरफ बालुका-राशि साथ-साथ चल रही है. ऊंचे घाटों, ऊपर उठती सीढ़ियों और गगनचुंबी भवनों की ओर दृष्टि गयी तो लगा जैसे हम आंगन में रखी किसी गहरी भरी थाली में तैर रहे हों! बालुका राशि देख मन में रेत-बवंडर जैसी अनुभूति! तभी सामने से सीधा इधर ही आते एक बड़े बजड़े ने ध्यान खींचा. लोग लदे हुए. यह एकदम इस तरह सीधे क्यों चला आ रहा है! कहीं यह अनियंत्रित तो नहीं हो चुका है? चिंता तब और बढ़ी जब इस ओर से दोनों सिपाहियों व अपने नाविक को एकदम गाफिल पाया. मन में आया कि इन तीनों का ध्यान इस ओर खींचूं लेकिन चुप रहा. बजड़ा सामने से एकदम बुलडोजर की तरह बढ़ता ही चला आ रहा है!

मुझे लगा कि अब चुप रह जाना आत्मघाती साबित हो सकता है. मैंने बगैर किसी से मुखातिब हुए भयमिश्रित आश्चर्य जताया, “बाप रे! ई बजड़ा केतना बड़हन हौ!” नाविक ने मेरी ओर देखा, फिर तुरंत मुंह फेर लिया.

अब महज कुछ लग्गी ही दूर रह गया है बजड़ा. वह जिस तरह बढ़ता चला आ रहा है, भय लगातार बैलून की तरह फूल रहा है- यह सचमुच कहीं हमारी इस नाव पर ही न चढ़ जाये! अब तक मिलने वाली दूसरी छोटी-मंझौली नावों से ऐसा डर जरा भी नहीं लगा था. सांसें पहले रूंधती-सी महसूस हुईं फिर सिर में चक्कर-सा घूमने लगा. बजड़ा एकदम सामने! सांसें, भंवर के बीच! डूबती हुई-सी. बगल से गुजरने लगा तो कलेजा धक्क-से करके रह गया, एक हाथ से भी कम का अंतर! खैर, टक्कर टली! जान में जान आयी. बजड़े और नाव का यह युग्म गिल्ली-डंडे जैसा. संकट सामने से गुजर गया. अब हम दशाश्वमेध के सामने आ गये. वही गति, वही अंदाज. वही संजीदा मुआयना.

एक जवान ने राजेंद्र प्रसाद घाट की तरफ इशारा किया, “चच्चा, देखा! एकदम इहें से उऽ लड़िका नहायेके लेल पानी मे कूदल रहल!”

“अबे चोप्प! तूं दिमाग मत खराब कर! ढेर अइंठबऽ तऽ इहें उतर जाब साले! हाथ मीसत रह जइबाऽ!” एतवारु ने आंखें ऐसे तरेरी कि वह तत्काल सटक गया. मैं चकित. कहीं ऐसा न हो कि इसे दबोच ही लें दोनों जवान! भला कोई पुलिसवालों से ऐसे बोलकर बच सकता है! नशे में ही तो कर रहा है वह ऐसा! दूसरे ही क्षण घोर आश्चर्य! उसकी गाली पर दोनों खिलखिलाकर हंस रहे हैं!

एतवारु रात वाले अंदाज में आ गया है, “ई पुलिसन के शराफत देखा! आपन काम फंस गइला पर गाय बन जाऽलन! लेकिन कौनो मोटा मामिला पकड़ा जाये तो आपन बापो के पहिचाने से मुकर जालन! बहुत हरामी जात! केहु के आपन नाहीं!”

दोनों जवान एतवारु की बात को जैसे सुन ही नहीं रहे हों! नहीं तो यह आदमी तो अपनी भी दुर्गति करा लेता और जाने-अनजाने इसमें मुझे भी कुछ न कुछ झेलना पड़ जाता! एतवारु ने तीसरी बोतल खोल ली थी. खाली बोतलों को वह बहुत सावधानी से झोले में रख रहा था. गंगा में फेंकने का तो सवाल ही नहीं, नाव से भी कोई स्पर्श नहीं! बोला, “ई गंगा माई हइन! बाबा विश्वनाथ के तीसरकी आंख!” फिर आचार्य-मुद्रा में टिप्पणी, “गंगा माई की पवित्रता की समकालीन युग में किसी को चिन्ता नहीं... तो ऐसे में क्या होगा ? वह इसी तरह बलि लेंगी और क्या! अइसहीं नहीं न कोई डूब जाता है गंगा की धार में!”

एक जवान की जिज्ञासा, “चच्चा! लाश इहें कहीं होई कि आगे बहुत दूर निकल गल होई ?’’

“एकदम बैल हो ? मुर्दा कहां होगा, इसका कोई निश्चित विधान थोड़े न है! कहीं भी होगा! गंगा जी का मन! जहां दबाये रखी हों!” हर बार एतवारु का अंदाज सख्त लेकिन पुलिस वालों का रवैया खिलंदड़ेपन से भरा.

प्रहलादघाट से थोड़ा पहले एतवारु ने दाहिनी तरफ कुछ देख लिया है! मुंह बंद. आंखें फैलती हुईं. चेहरे पर लहराता लकीरों का जाल. कुछ टटोलती हुई-सी पुतलियां. अंग-अंग में गति. उसका पूरा शरीर जैसे बोल रहा हो! उसने तेज-तेज हाथ हिलाये और गति धीमी कर लेने का संकेत किया. एतवारु जितना ही एकाग्र, जल भी उतना ही थिर-स्थिर. बेहरकत.

एक जवान ने दूसरे को बताया, “इहां तो रात भर हमलोगों ने एक-एक चप्पा छान मारा है! यहां तो नो चांस!” एतवारु ने पानी से ध्यान समेटकर उसके चेहरे पर गड़ा दिया. वह आगे बोलता चला गया, “कई-कई बार दोनों गोताखोर एकदम यहीं आसपास उतरते और बैरंग लौटते रहे!”

एतवारु का चेहरा लपटों की तरह फफा उठा, “साला! चोप!’’ सभी सटक सीताराम! वह आगे चीखा, “इहां अगर नाव नहीं निकला तो आज ही हम जलसमाधि ले लेंगे! ...यहीं! ...तुरंत!”

दोनों सिपाही स्तब्ध. मैं भी. नाविक भी. शुक्र कि दूसरे ही पल उसने अपना मुंह फिर धारा की ओर फेर लिया! देखते ही देखते नाव कुछ आगे बढ़ गयी तो एतवारु ने सिर नचाकर पानी पर से नजर उठायी और दांत पीसते हुए नाविक को घूरा. वह घबराकर हकला उठा, “समझली बाबा! लौटत हईं फिर पीच्छवें... उहैं! गोस्सा मत बाबा!”

नाविक का कमाल! उसने पानी को काटते हुए धाराओं को दबोचते नाव को सांय से ऐसे मोड़ा कि यह पूरी प्रक्रिया करतब जैसी लगी. पल भर में गोलार्द्ध घूमकर नाव पीछे! जैसे तीखी कटान का चौथाई चांद भरे-पूरे चमकते आसमान में कलाएं दिखाने लगा हो. मौका ऐसे दुःख का नहीं होता तो यह दृश्य मन पर अवश्य ही कुछ अनोखी आनन्द-रेखाएं खींचता.

एतवारु नाव पर खड़ा हो गया है. एकदम जल पर एकाग्र. पलकें झपकना भूल गयी हैं. चौकस -चौकन्ना. दृष्टि एकदम बगुले की तरह, जल-राशि की बून्द-बून्द की तलाशी लेती हुई. सभी उसकी आंखों के निशाने का अंदाजा लगाते हुए जल-विस्तार पर अपने-अपने हिसाब से नजर रखने के भरसक प्रयास में मशगूल. तभी जल के तल पर एक बड़ा बुलबुला आया- गुड़्प्प! इसके आकार की पुष्टता और आने-फूटने की क्रिया! सबने यह सब देखा. नाव को आगे-पीछे करते हुए बार-बार वहीं रखने का प्रयास जारी रहा. कुछ ही क्षणों बाद वहीं से फिर वैसा ही परिपुष्ट बुलबुला- गुड़्प्प!!

एतवारु ने दोनों पंजे सटाये हुए अपने प्रणामी हाथ आसमान की ओर उठा लिये हैं, “जै गंगा माई!” और दूसरे ही क्षण छलांग. पानी से उसके शरीर के टकराने का शब्द जोरदार गूंजा- छप्पाक्क्!

जरूर तेज चोट आयी होगी! दूसरे ही क्षण अब जल के भीतर उसका कहीं जरा भी अता-पता तक नहीं. कश्मकश का यह अंतराल बेचैन कर देने वाला. छलांग से पहले जब वह जल-तल के निरीक्षण में गुम था, उसके वृद्ध होने का खयाल कर मुझे भय होता रहा कि कहीं इसके साथ कुछ गड़बड़ न हो जाये! लेकिन, पुलिस वालों के चेहरे पर कोई संशय नहीं था. कहीं ऐसा तो नहीं कि उसे उसका यही अति-आत्मविश्वास ही...

अचानक जल का तल गुल्टियाती चादर-सा हल्के उठा और दूसरे ही क्षण पानी से एतवारु का सिर उठता हुआ बाहर निकल आया. सबकी निगाहें उसके आसपास नाचने लगीं. वह तेज-तेज सांसें ले रहा है और सिर हिलाकर पानी झाड़ रहा है. देखते ही देखते उसका मुखमण्डल चमकने लगा है. यानी यह सफलता का संकेत है! एक हाथ से पानी काटता हुआ वह नाव के करीब आने लगा तो उसके बगल में जल कुछ उठा-उठा-सा दिखने लगा. अब दूसरे हाथ से लाश पकड़े होने का आभास!

पानी से जूझता हुआ वह नाव के काफी निकट आ चुका है. हिलते जल पर उसके पीछे लाश अब रह-रहकर साफ झलकने लगा है. सिपाहियों के चेहरे खिल उठे हैं. पहुंचते ही दोनों जवानों ने मिलकर लाश को नाव पर खींच लिया और धक्का देकर एक ओर लुढ़का दिया. पानी में फुलने-गलने व नुंचने -चुंथने से यह विकृत हो चुका है. सिपाहियों के चेहरे पर राहत रेंग रही है!

एतवारु आ गया है नाव पर. एक जवान ने गुणगान शुरु कर दिया, “चच्चा ! तोहरे पर गंगा माई के कौनो खास किरपा जरूर हौ! बतावाऽ, एकदम इहैं रात भर जाल गिरत रह गल... दू-दू ठे गोताखोर कूदत रह गइलन... लेकिन सब मेहनत बेकार! कौनो सुरागो ना लागल! लेकिन, वाह चच्चा ! तूं एके बार कूदला अउर लाश हाथ में!”

“अब चलाऽ, मस्का मत लगावा!” होठों के आसपास बहुत बारीक मुस्कान जिसमें स्वयं की प्रशंसा से उत्पन्न सलज्जता की महीन आभा. किंतु आवाज वैसे ही कांटेदार, ‘‘...तूं तारीफ पेलके हम्मे चूना लगावल चाहत हउवा? ...कायदे से तोहार काम हो गइल, अब जल्दी से पांच सौ रोपैया और ढीलाऽ! ...हम्मे अस्सी पहुंचावाऽ!” दूसरे ही पल उसने बोतलों पर नजर फेंकी, “हमार तऽ कोटा ढेरे बांचल रह गल इयार!”

लाश लेकर दोनों जवान दशाश्वमेध घाट पर ही उतर गये हैं. उन्होंने नीचे से ही एतवारु और नाविक को अलग-अलग कुछ नम्बरी नोट थमाये. मैंने उतरना चाहा तो एतवारु ने हाथ पकड़ लिया, “आप कहां! अस्सी चलिये!”

मैं रुक गया हूं. मेरी दृष्टि के सामने जैसे उसके अलावा कुछ भी और नहीं। कानों में सि‍र्फ उसी के गूंजते शब्दं। वह जैसे आत्मा से संवाद कर रहा हो, “नशा तो मुर्दा खोजने का मेरा साधन भर है!’’ झोले में बोतलों को बांधने में जुटा है वह, “लाश शुरू में मिल गया तो कोटा तुरंत बंद! अब यह सब चला झोले के अंदर! केवल एक छोटी बोतल रात में आचार्य जी की वंदना के निमित्त बाहर रखूंगा... बस ! ...क्या आपको अब तक विश्वास नहीं हुआ कि शराब पीकर मैं केवल और केवल मुर्दा खोजता हूं! रोज पानी के भीतर का मुर्दा तो नहीं मिलता लेकिन वह बे-पानी आचार्य नामक मुर्दा हर शाम मिलना लगभग फिक्स है! इसीलिए भर दम पीकर उसके दरवाजे पर जाता हूं... भई, जिसके भीतर ईमान, धरम और इंसानियत सब मर गये हों, वह मुर्दा ही तो हुआ!... मैं तो कहता हूं कि यह आचार्य नामक मुर्दा असली शवों से भी ज्यादा खतरनाक है... क्योंकि यह दुर्गन्ध भर नहीं फैला रहा, बल्कि पूरे समाज और समग्र जीवन-मूल्यों को ही लाश बना देने पर आमादा है! ...इसलिए इसे रोज दुत्कारने, धिक्कारने और गरियाने को मैं एक जरूरी कार्रवाई मानकर अंजाम दे रहा हूं!’’

मैंने जेब से लिफाफा निकाल लिया है. आश्चर्य कि यह अजीब ढंग से घृणास्पद लग रहा है! निस्तेज, निष्प्राण, असह्य और यथाशीघ्र त्याज्य. पता नहीं औचक कहां से हाथों में आवेग आ गया और यह टुकड़े-टुकड़े! भरी हुई मुट्ठी को हवा में जोर से लहराया किंतु सामने मचल रहे झोंके ने अपना अस्वीकार दर्ज कराने में क्षणांश भर भी देर नहीं की. तत्काल, तीव्र प्रतिरोध. तमाम चिंदियां चक्कर खाकर निकट ही गिरने लगीं. किनारे के मंथर जल पर पास-पास ही बिखरे कागज के टुकड़े छहलाने-मंडराने लगे हैं. एकदम मुर्दों की तरह.

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श्याम बिहारी श्यामल द्वारा लिखित कहानी "चना चबेना गंगजल" समाप्त