चना चबेना गंगजल / भाग 2 / श्याम बिहारी श्यामल

Gadya Kosh से
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सुबह विचार आया कि अभी ही चलकर आचार्य जी को प्रश्नावली दे देना अच्छा रहेगा. वे न मिलें तो लिफाफा घर में थमाया जा सकता है. इसके बाद वहीं से आगे बढ़कर घाट पर एतवारु को भी दूर से देखा जा सकता है. ठीक-ठाक वक्त लगे तो मिला भी जा सकता है.

आचार्य जी के घर के सामने से रिक्शा जब आगे बढ़ गया तो जेब की प्रश्नावली का ध्यान आया. सोचा अब घाट से लौटते हुए उन्हें सौंपूंगा. मिल जायेंगे तो कुछ गप्पबाजी भी हो जायेगी अन्यथा लिफाफा घर में ही किसी को देकर निकल लूंगा.

गाढ़ी होती धूप. धीपता अस्सी घाट. गंगा के किनारे सुबह-सुबह ऐसी गर्मी! बहती धारा की ओर से आने वाला झोंका बीच-बीच में शीतलता का पुष्ट स्पर्श दे रहा था. बेहाल मन इस छुअन से जलतरंग की तरह गोल-गोल घूमता फैलता-खिलता चला जाता लेकिन तुरंत दूसरे ही पल फिर वही ब्लेड जैसी धूप. किनारे लगी नावों के आसपास नहाने वालों की मामूली हलचल. इनमें बच्चे व महिलाओं की संख्या ज्यादा.

मैंने सीढ़ियों पर बैठे हुए लोगों को ध्यान से देखते हुए चक्कर लगाने शुरु किये. कई बार इधर से उधर और उधर से इधर. उसका कहीं पता नहीं चल पा रहा था. धूप उग्र होती जा रही थी. सीढ़ियों पर मंदिरों-आश्रमों की बनती प्रच्छाया और जहां-तहां लटकती दूसरी छायाओं के संरक्षण में कुल कोई पचास-पचपन लोग. इनमें कुछ विदेशी पर्यटकों की जोड़ियां सुबह-सुबह ही काम के मूड में. थक जाने पर लगा कि मैं अब उसे यहां शायद ही खोज सकूं. अब और भटकने-थकने से अच्छा है कि लौट चलूँ!

तभी एक युवक पास आ गया, “घूमेंगे क्या! नाव निकालें?”

“नाहीं इयार! हम कौनो बिदेस से नाहीं आयल हईं...’’

उसने हंसते हुए बीच में ही बात काट दी, “अच्छा, कौनो बात नाहीं हौ! बनारसो के लोग नाव से खूब घूमऽलन! चलबा त चलाऽ! अस्सी से राजघाट तक अउर फिर वापसी! तीन सौ दे दिहाऽ! बस! बिदेसिन लोग त पांच सौ से आठ-नौ सौ तक दे देलन! कुछ सोचाऽ मत, चलाऽ आवाऽ!”

मैंने उसकी ओर गौर से ताका, “अरे इयार, हम एतवारु से मिले आइल हईं, घूम्मे नाहीं!”

“एतवारु बाबा से? काहेऽ ? केहू बूड़ल हौ काऽ ?”

“नाहीं हो! बस, उनकरा से मिल्लेके हौ!”

“अरे तऽ पहिचानऽलऽ ना काऽ ? उहे नऽ हउवन एतवारु बाबा!’’ उसने हाथ उठाकर ऐन मेरे ही पीछे पान की छोटी-सी गुमटी की ओर संकेत किया. मुड़कर देखा तो मैं चौंक गया. महज एक हाथ की दूरी पर गुमटी की ओट में बैठा था एतवारु. नीचे पीढ़ा की तरह प्लास्टिक का कोई गुल्टियाया हुआ टुकड़ा रखे. गौर करने पर चेहरा रात की देखी शक्ल से तो मिलता-सा, लेकिन उसकी इस मुख-मुद्रा और रात की गालियों की उस बरसात में तालमेल बिठाना मुश्किल. मन ही मन यह मान लेना पड़ा कि मैं अपने बूते तो उसे इस भावशून्य चेहरे में कत्तई नहीं पहचान पाता. लड़के का आभार माना. एतवारु वैसे ही उघार-निघार. केवल कमर में एक-सवा हाथ की घिंचोरायी हुई धोती. अधभीगी व गंदी. चेहरे पर कोई गति नहीं. थकान और स्थगन से लदी-फदी निढाल चुप्पी. लगा कि यह व्यक्ति सचमुच इतना वृद्ध हो चुका है कि मजबूरी में ही काम कर रहा होगा. मजबूरी न होने पर कोई भी व्यक्ति इस उम्र में भला क्यों काम करेगा! वह भी गोताखोरी का ऐसा खतरनाक काम! सामने से आते एक परिवार को देख लड़का आगे लपक गया था. मैंने बहुत बारीकी से निरीक्षण करते हुए करीब जाकर पूछा, “आप ही एतवारु बाबा हैं नऽ?”

“अरे हम कौनो बाबा-फाबा नाहीं हैं! केवट बंस के हैं. गंगाजी में से बूड़ल लाश खोजकर निकालते हैं! समझे? यहां एक बाबाजी भी इसी नाम के हैं! आप किसे खोज रहे हैं ?” वह साफ हिन्दी बोल रहा था. ध्यान आया, यहां तो ज्यादातर मल्लाह विदेशी पर्यटकों से अंग्रेजी में भी बतिया लेते हैं. तो यह घाट का दिया हुआ इल्म है! सामने वाला लोकल लगे तो खांटी बनारसी, हिन्दी में बोले तो हिन्दी, विदेशी हों तो अंग्रेजी भी हाजिर!

“रात में आप ही न थे आचार्य जी के दरवाजे पर? गुस्से में?” मेरे मुंह से जब बात अचानक फिसल गयी तो भूल का अहसास हुआ. लगा कि उसकी बोली-बानी तौलने में यह तो बड़ी गलती हो गयी! अब क्या हो! वह कहीं बिगड़ न जाये! रात का उसका रूप-स्वरुप याद आते ही सिहर गया. कहीं बवाल न खड़ा कर दे! ऐसे व्यक्ति का क्या ठिकाना! एहतियात के तौर पर तत्काल दो कदम पीछे खिसक आया. दिमाग पर जोर देते हुए उसने मुंह को सिकोड़ा, “मैं पहचान नहीं पा रहा... आप हैं कौन? कहां से आ रहे हैं ? कोई काम ?”

“अरे बाबा! मैं आप से ऐसे ही मिलने आ गया हूं... कोई काम नहीं है! आपका बहुत नाम सुना है... गोताखोरी में आपकी विलक्षण दक्षता के कई किस्से! इसी आकर्षण में आपसे मिलने मैं यहां तक आ गया!”

“अच्छा! अच्छा! तो बैठिये! आइये! चाय पियेंगे? मंगायें?”

“हां, हां! हमलोग एक साथ बैठकर चाय पीते हुए कुछ देर बतिया लें तो अच्छा रहेगा!”

“देखाऽ, भइया! चलाकी मत बतियावाऽ! तोरा कौनो काम होवे तऽ साफ बतावाऽ! हम गंगाजी में डुबकी लगाके बूड़ल मुर्दो खींच लिहिला अउर चलाक आदमी के दिमाग से गड़ल बातो!”

“नहीं! नहीं! आप विश्वास करिये मैं न अखबार का आदमी हूं न कालेज का रिसर्चर! शुद्ध निजी जिज्ञासा में आप तक आ गया हूं!” उसके संदेह पर मैं सकपका कर रह गया “मैं भी बनारसी हूं. गांव मेरा सेवापुरी के पास ही है. यहां शहर में नाटीइमली में हमलोगों का पुराना घर है. मलदहिया में भी अपना मकान है. दिल्ली के एक कालेज में नौकरी लग गयी है... इसलिए आजकल वहीं रह रहा हूं!”

“अच्छा, तो तूं प्रोफेसर हउवाऽ! ...लेकिन तूं ई बतावाऽ बनारस में बीएचयू हौ, विद्यापीठ हौ, सम्पूर्णानंद हौ... तोरा इहां नोकरी ना मिलल! तूं काशी छोड़ देलाऽ!”

“काशी छोड़ने का तो सवाल ही नहीं. अभी नौकरी के लिए ही...”

आश्चर्य कि उसकी भाषा अचानक प्रच्छन्न हो गयी, ‘‘देखिये, बड़े-बड़े राजे-महाराजे किसी समय अपना सारा राजपाट और सुख-ऐश्वर्य छोड़कर इसी काशी में अंतिम समय बिताने आया करते थे... कहा गया है कि भगवान अगर चना-चबेना भी पूरा कर रहे हों तो काशी को कभी नहीं छोड़ना चाहिए क्योंकि यह बाबा विश्वनाथ का दरबार है! आपने यह प्रसिद्ध पद सुना होगा- चना चबेना गंगजल जो पुरवै करतार, काशी कभी न छाड़िये विश्वनाथ दरबार!” वाणी तरल और आंखें डबडब. मेरा मन भी उमड़ते-घुमड़ते छिजते बादलों से भर गया.

“हां! मेरा मतलब यही कि आप मुझे गलत न समझें!”

“कोई बात नहीं! अब साफ बात यह कि यह चाय मैं पिला रहा हूं. ऐसा नहीं कि एक कप चाय पिलाकर आप हमसे कुछ उगलवा रहे हैं! हां, तो अभी आप कुछ पूछ रहे थे रात में अचरजवा...’’

“वाह! यह तो बहुत अच्छा है कि आप स्पष्टवक्ता हैं! मैं भी साफ बता दूं... रात में मैं आचार्य जी के यहां उनसे मिलने गया था तो वहीं गेट पर आप खड़े मिले... बहुत तेज-तेज चिल्लाते हुए!”

“साफ कहिये न! मैं अचरजवा को गरिया रहा था!” तनाव से मुक्त परिहास का अंदाज.

“मैं आचार्य जी से आपकी नाराजगी की वजह तो नहीं जानता और उम्र में भी आपके बेटे-पोते की तरह ही हूं लेकिन आपसे एक बात कहना चाहता हूं...”

“क्या, बोलिये!” उसने जैसे अपनी दृष्टि मेरे चेहरे पर चुभो दी.

“बाबा! इस शरीर से निकलने वाला हर पदार्थ घृणित व दुर्गंधपूर्ण है. आप खुद सोचकर देखिये न! नाक से, कान से, आंखों से या पूरे शरीर से जो कुछ भी निकलता है, वह सब क्या है, कैसा है! दुनिया का सबसे गंदा पदार्थ यदि कहीं से निकलता है तो वह यही शरीर है. वह चाहे कोई राजा हो, बाहुबली हो, अकूत धन-सम्पति वाला या कैसा भी कोई संत-विद्वान; किसी की यह औकात नहीं कि अपने शरीर से विसर्जित होने वाले घृणित पदार्थों को बदल दे. क्या कोई राजा या धनवान या बाहुबली चाहकर भी अपने शरीर से गुलाबजल या स्वर्णमल विसर्जित कर सकता है? कौन माई का लाल है जो अपनी ही आंखों से, नाक से या कान से सुवासित पदार्थ विसर्जित करके दिखा दे! इसके ठीक विपरीत यह देखिये कि प्रकृति ने क्या चमत्कार किया है, वह यह कि कोई भी मनुष्य, वह चाहे कोई नितांत निर्धन हो या निर्बल, यदि चाह ले तो अपनी वाणी में अमृत पैदा कर सकता है. इसके लिए न राजा होना जरूरी है, न अमीर, न बाहुबली, न विद्वान! तो सोचिये कि हमारे लिए ईश्वर का यह कैसा दुर्लभ उपहार है! इकलौता मौका! ...ऐसे में इसे क्यों खाली जाने दिया जाये! क्यों न हम अपनी वाणी में अमृत की अनंत धार बहा लें!...’’

एतवारु गंभीरता से पूरी बात सुन लेगा, इसकी उम्मीद नहीं थी. कुछ क्षणों तक वह मुझे देखता रहा. एकटक. हिलती पलकों के भीतर पुतलियों पर सक्रिय चुप्पी. उसने मुंह खोला तो आवाज में मिठास थी, ‘‘बेटा, ऐसा है, आपकी यह बात मेरे दिल को छू गयी है... सचमुच बहुत अच्छी लगी! ...इसका पालन निःसंदेह सबको करना चाहिए... लेकिन मुझे क्षमा करना, उसके बारे में मैं अपना प्रण नहीं तोड़ूंगा! मैं जब तक जिंदा हूं उसे रोज गरियाऊंगा और यह अहसास कराता रहूंगा कि तुम वही नहीं हो जो दिख रहे हो... बल्कि तुम विश्वासघाती और बेईमान हो तो हो! दुनिया मतलबी है, रंग बदल लेती है... कल के चोर को आज गाड़ी और रूतबे में देख लोग सलाम ठोंकते है ...मैं ऐसा कभी नहीं करूंगा! आपको नहीं पता है कि मैंने उस व्यक्ति को कैसे-कितना सहारा दिया और किस हद तक जाकर मदद की थी! लेकिन वह क्षण भर में ऐसा बदल गया कि मेरे लिए मनुष्य जाति का पूरा मनोविज्ञान ही पहेली बनकर रह गया! आदमी इस तरह भला रातोंरात बदलता है!”

चाय आ गयी थी. केतली और पुरबे से भरी डोल्ची पकड़े खड़ा युवक रफ्तार में था, “जल्दी! जल्दी!’’

हमदोनों ने एक-एक पुरबा पकड़ लिया. वह चाय डालकर चला गया. हमदोनों चुस्कियां लेने लगे. उसका अंदाज खास. आंखें मुंदी हुईं और गाढ़ी तन्मयता. मिठास और ताप से निकली ऊर्जा का रंग हर घूंट के साथ उसके चेहरे पर रेंग-रेंग जाता. कुछ ही घूंट में मेरा पुरबा भी खाली. उसने फेंकते हुए आंखें खोली, ‘‘...सबसे पहले तो आपको मैं यह बता दूं कि मैंने संस्कृत से शास्त्री परीक्षा उत्तीर्ण की है! वह भी आज की तरह देह ऐंठकर या गुरुओं का झोला ढोकर नहीं, बल्कि ग्रंथों को घोंट-मथकर...’’

मैं हक्का-बक्का. बातों के दौरान बीच-बीच में चमक उठने वाले उसके शुद्ध उच्चारणों का भेद अब जाकर समझ में आया! मैं अवाक् मुंह ताकता रहा. उसकी वाणी में खांटीपन की ठनक, ‘‘...हां एक बात और! मैंने अपना पुश्तैनी धंधा और गंगा का किनारा छोड़ना कभी स्वीकार नहीं किया... जीवन के आरम्भ में ही परिवार में कुछ ऐसे भूचाल आये कि मैं टूटकर रह गया! ...तो अब यह बहुत पुरानी बात हुई... यह उन्हीं दिनों की बात है जब मैं छात्र था... दशाश्वमेध घाट पर एक रात मुझे एक लड़का दिखा... उम्र में मुझसे कुछ छोटा ही... सीढ़ी पर बीमार लेटा हुआ... भीड़- भाड़ जा चुकी थी... चांदनी रात... मैं कुछ दूर से उसे देख रहा था... वह रह-रहकर उल्टी करता, फिर पड़ रहता... ज्योंही उसकी स्थिति की गम्भीरता का अंदाजा लगा, मैं तुरंत उसके पास जा पहुंचा... निचली सीढ़ी पर उबकाई धीरे-धीरे टघर-फैल रही थी... निढाल पढ़ा वह अशक्त दृष्टि से ताक रहा था... तभी उसके सिर के नीचे दबी एक पुस्तक पर ध्यान गया... भरी हुई आंखों में चमक भी विशेष लगी!... मैंने उससे पूछा-सिर के नीचे कौन-सी पुस्तक है भाई? ...उसका उच्चारण शुद्ध और वाणी में गाम्भीर्य- कुमारसम्भवम्! मेरे पूछने पर उसने संक्षेप में अपने बारे में सारी जानकारी दे दी... वह बिहार के मिथिलांचल से भटकता हुआ यहां आया था... पिता की असमय मौत के बाद पढ़ाई छोड़कर, रोजी-रोटी की तलाश में... इसी क्रम में वह लगातार दो दिनों तक यहां-वहां धूल फांकता फिरा... दिन भर भटकना और रात में घाट की सीढ़ियों पर सो जाना! ...न खाने का कोई जुगाड़ न जेब में पैसे! तबीयत हो गयी खराब... सबकुछ सुनने-जानने के बाद मैंने उसे सहारा देकर उठाया और अपने साथ घर ले गया... वह भी संस्कृत का ही अध्ययेता निकला, इस कारण बहुत अपनापन महसूस होता रहा... मैंने अपनी पढ़ाई तो रोक दी लेकिन उसे आचार्य तक की परीक्षा दिलायी... वह साथ ही घाट पर रहता और काम में हाथ बंटाता... कुछ साल अच्छे बीते...

“एक दिन घाट पर ही एक वयोवृद्ध महंत जी से मैंने उसका परिचय कराया... उन्होंने उसे अपने साथ आश्रम चलने को कहा... वह सहर्ष चला गया... उसके बाद कुछ ही माह के भीतर महंत जी की संदिग्ध परिस्थितियों में मौत हो गयी... मैं उससे मिलने गया तो मुझे बैरंग वापस आना पड़ा... बाद में भी दो-तीन बार और गया लेकिन वह कभी मुझसे मिला नहीं... उसने दूसरे दावेदारों से भिड़ते हुए आश्रम पर कब्जा जमा लिया था... उसके बाद तो वह धड़ाधड़ आश्रमों पर कब्जे जमाता चला गया... उसकी दबंगता और आपराधिक प्रवृत्ति के बारे में किस्से उड़ने लगे... पता चलता रहा कि वह बहुत खूंखार हो चुका है... दस साल के भीतर उसके कब्जे में आधा दर्जन आश्रम आ चुके थे... कई-कई कीमती गाड़ियां और दो-दो शादियां! इसके समानांतर गंगा-सेवा का उसका एक ऐसा ढोंग शुरु हुआ कि कुछ मत पूछिये... काशी में उसकी सर्वज्ञात छवि के विपरीत नेशनल और इंटरनेशनल मीडिया में उसे महान पर्यावरण-पुरुष के रूप में चित्रित किया जाने लगा... एक ऐसा शख्स जो गंगा को प्रदूषण-मुक्त बनाने के लिए अनथक महान कार्य करने में प्राणपन से जुटा हुआ हो! उससे मिलने अमरीका और ब्रिटेन तक से नेता और पर्यावरण-कर्णधार आने लगे... मेरे लिए यह पूरा वृतांत बेचैन कर देने वाला...

“खैर! उसने जब अस्सी वाला वह मकान खरीदा तो एक दिन मैं मकान में पहुंचा... जबरन भीतर घुस गया... वह कई लोगों के साथ बैठा था... दसेक सालों बाद उसका पूरा व्यक्तित्व बदला हुआ मिला... कहां वह गली-पिचकी काया और कहां यह हवा में खिलते पाल जैसा रूप-निखार! ...मैंने पहुंचते ही गालियां शुरु कर दी... उसने वहीं लठैतों से अपने सामने मुझे पिटवाया... उसके बाद से ही मैंने तय किया कि अब जब तक जिंदा रहूंगा, इसे रोज दरवाजे पर चढ़कर गाली दिया करूंगा... यह कितना गंदा है आप खुद समझिये कि इसने इस उम्र में अभी दो-तीन साल पहले एक और विदेशी कन्या को रख लिया है! इसमें कहीं से न कोई नैतिकता है न धार्मिक भावना लेकिन महान महंत और ज्येष्ठ विद्वान भी यही बना फिर रहा है! एक एनजीओ बनाकर गंगा-प्रदूषण-मुक्ति के नाम पर माल भी खूब पेल रहा है और महान पर्यावरण-संरक्षक भी बन गया है..! हर साल संगीत समारोह कराकर संगीत-उद्धारक भी बना हुआ है.... ऐसे व्यक्ति को रोज गाली न दूं तो क्या करूं?”

पता नहीं किधर से ऐन उसी समय दो पुलिस वाले आ गये. दोनों ज्योंही पास में खड़े हुए, नजर पड़ते ही एतवारु में दूसरे ढंग की सक्रियता जाग उठी, “काऽ भइया, काल्ह सांझे वाला बॉडी ना निकलल ?”

सांवले वाले पुलिसकर्मी ने अपने दोनों हाथ जोड़ लिये, “चच्चाऽ! ई काम तोरे लगले बिना केहु दोसर से नाऽ होई! अब, चलाऽ! ...नोकरी मत खतम करावा! लड़िकवा जे डुब्बल हौ, मेरठ के कौनो बड़का भारी नेता के रिश्तेदार रहल! लखनउ से फोन पर फोन आवत हौ. एसपी साहेब हम्मन के डंडा कइले हउवन! उठाऽ, चलाऽ चच्चा!”

मुझे अफसोस हुआ कि उससे कुछ और खास बतियाने का अच्छा-खासा मौका हाथ से निकल रहा है! कहां मिलेगा फिर ऐसा अवसर! दूसरे ही पल इसके समानांतर यह भाव भी उठने लगा कि एतवारु यदि जाने में आना-कानी करे तो अपनी ओर से मैं भी उसे भेजने में जोर लगा दूं! जिसका बेटा डूबा है, उसका कलेजा फट रहा होगा!

एतवारु ने शर्त रखी, “तीन हजार रोपेया पहिले लेब! तूं पुलिसन के कौनो विश्वास नाहीं हौऽ... पहिले नोट गिनाऽ तब चलीं! नाव के व्यवस्था भी जल्दी कराऽ और हमार पूज्जा के भीऽ!”

“अरे तूं तीन हजार रोपेया पहिले ले लाऽ बाउऽ!” उसने अपने साथी को कुछ इशारा किया और जेब से निकालकर नोट उसे थमा दिये. एतवारु ने नोट पकड़कर खड़े होते हुए नीचे से प्लास्टिक का बैग उठ लिया. तहदार मुड़ा झोला. उसमें से एक और चिकनी छोटी प्लास्टिक निकाली जिसमें रुपये रखे और फिर सब पूर्ववत् मोड़-लपेट छोटा कर कांख में दबा लिया. दूसरा सिपाही तेज कदमों से गया और कुछ दूर खड़ी अपनी मोटर साइकिल से भारी-भरकम झोला उतार लाया.

नाव आ गयी थी. दोनों पुलिसकर्मी व एतवारु चढ़ गये थे. मैं किनारे खड़ा उन्हें देख रहा था. तभी नाव पर से एतवारु ने आवाज दी, “तुहों आवाऽ बाउ साब!”

मुझे लगा कि कहीं ऐसा नहीं कि वह जिद ही पकड़ ले! जितनी जल्दी हो मुझे पिण्ड छुड़ा यहां से खिसक लेना चाहिए. उसने फिर हांक लगायी, “चलाऽ, आवाऽ! देख लाऽ कि कइसे ई काम होलाऽ! ई लोग आ गइल हउवन तऽ कामे देख लाऽ नाहीं तऽ इहे सब बतिया हम मुंहे से बतइतीं!”

मुझे अचानक सूझा, सचमुच यह तो दुर्लभ मौका है! बेशक मुझे यह अनुभव प्राप्त करने का अवसर कतई नहीं छोड़ना चाहिए! लपक कर आगे बढ़ा और नाव पर सवार हो गया. पुलिसवाले आंखें तरेरकर मुझे देख रहे थे.