चना चबेना गंगजल / श्याम बिहारी श्यामल

Gadya Kosh से
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...तो, इसे कहते हैं अस्सी का चौरासी फेरा. रूका था कुछ मिनटों के लिए किंतु दो घंटे पूरे होने को आये और अब भी यहां से खिसक पाना आसान नहीं. मित्रों की जकड़ ढीली पड़ने का नाम नहीं ले रही. पप्पू से पोय की चाय-दुकानों तक अड़ी पर अड़ी. यहां से वहां तक चौपालें ही चौपालें. आचार्य जी से मिलने का समय तो निकला जा रहा है किंतु लम्बे अंतराल के बाद यहां आने का सुख सब पर भारी पड़ रहा है. बनारस छूटने के बाद दिल्ली में यही सुख तो सपना बन गया है ! माह में दो-एक बार सौ-डेढ़ सौ रुपये इकट्ठे ढीलने का साहस जुटाओ तो मोहनसिंह पैलेस, कॉफी हाऊस या श्रीराम सेंटर में कुछ घंटे कहकहों से आबाद हो पाते हैं ! वह भी कामचलाऊ बौद्धिक जुगाली! कह लीजिये कि वैचारिक गाज-फेन छोड़ने की वैकल्पिक सुविधा-भर. फचाफच गाली-गिलौरी के बीच अस्सी वाली यह गलाफाड़ चिल्ला-चिल्ली, पीठियाठोंक हुरपेटा-हुरपेटी और पूंछतान सिंघफंसव्वल-टंगअड़व्वल बनारस के सिवा भला और कहां!

मन में आया कि सबको बताकर आचार्य जी से मिलने चला जाऊं. लौटने के बाद यहां फिर से एक बार खूंटा गाड़ा जायेगा. किंतु, दूसरे ही पल सतर्क हो जाना पड़ा. कहीं ऐसा नहीं कि नाम आते ही यहां की सारी तोपें आचार्य जी की ओर मोड़ दी जायें और बैठे-बिठाये खुद ही किचकिच में फंस जाऊं ! बहस और विमर्शों में मशगूल झुण्ड के झुण्ड. जरा-सा उठता तो कभी पीछे से कोई गर्मजोश स्वागती व्यग्र स्वर तो कभी आगे से कोई व्यंग्य पुकार. वाद-विवाद, वाद-अपवाद और वाद-संवाद. कहकहे से लेकर मुंहबिरव्वल और जीभऐंठव्वल तक. तर्क-सतर्क, तर्क-वितर्क और तर्क-कुतर्क. कहीं अर्थ-नीति पर भाषा की अनर्थ-सीमा तक जाकर बनारस से अमरीका वाया दिल्ली स्तरीय मीमांसा, तो कहीं गठबंधन की राजनीति पर दोनों परस्पर विपरीत नजरियों की आक्रामक पड़ताल. बतरस, बतकुच्चन और बतबनव्वल. क्षेत्रीय दलों का एक्सरे भी और राष्ट्रीय दलों का पोस्टमार्टम भी. गलबजव्वल, गललड़व्वल और गलचऊर. किसी झुण्ड में साहित्य तो किसी में संगीत-कला से लेकर मोबाइल-इंटरनेट तक की तकनीकी खूबियों-खामियों का बारीक निरीक्षण. अध्ययन-आलोचन, खनन -मनन और उत्खनन-चिन्तन. सितार-शहनाई पिंपिंयाने से लेकर ढोलक-तबले ढुकढुकाने-ठुकठुकाने वालों को बड़े-बड़े सम्मान देने के मुकाबले विचार और शब्द की दुनिया के क्रान्तिदर्शियों से डरने और उन्हें किनारे धकेलने की सरकारी नीतियों का कहीं लंका-दहनी अंदाज में खूंखार मूल्यांकन तो कहीं विचार और इतिहास की मौत का शोर गढ़ने वाले बाजारवादियों-उत्तर आधुनिकों की जमकर खबर. पुराने साथियों की अपेक्षा कि मैं चूंकि इन दिनों राजधानी में रह रहा हूं, इसलिए मुझे इन प्रसंगों पर दिल्ली का समकालीन नजरिया सामने रखना चाहिए! पता नहीं क्यों, ऐसे ज्यादातर मौकों पर न चाहकर भी मैं हां-हुं करके ही निकलता रहा! समय धार-वेग से बहता रहा. कहां शाम चार बजे का तय समय और कहां आठ! मैं उठ गया, चलकर देख लें! आचार्य जी कहीं बाहर नहीं निकले होंगे तो भेंट हो भी सकती है. देर के लिए क्षमा मांग लूंगा. गया सिंह और वाचस्पति ने प्रश्नवाचक दृष्टि अड़ायी तो जल्दी ही आगे से लौटने का इशारा कर मैंने कदम बढ़ा दिये. घाट के रास्ते का भूगोल कुछ खास नहीं बदला था. बिजली गुल थी. सड़क पर अंधेरा काली रूई जैसा उड़ रहा था. अधिकांश भवनों में टिमटम इनवर्टरी प्रकाश. अभी थोड़ा इधर ही था कि चकित रह जाना पड़ा.

आचार्य जी के भवन के बंद गेट के बाहर दिखा एक तलमलाता हुआ व्यक्ति. जोर-जोर से चिल्लाता हुआ. ध्यान जाते ही घनघोर आश्चर्य, यह तो वीभत्स गालियां बरसा रहा है! दृश्य-सदृश्य, चित्रोत्पादक गालियां! कदम धीमे हो गये. अचानक भक्क्-से इलाका रोशन हो उठा. पास के पोल पर तेज बल्ब जाग उठा. व्यक्ति की स्पष्ट झलक मिली. लंबा, सूखा-सा वृद्ध. कमर से चलकर ठेहुने तक आकर सिमटी मटमैली धोती और पूरा निचुड़ा-सा शरीर उघार-निघार. त्वचा जर्जर पुरानी नाव की तरह काली पड़ी हुई. भीगने के बाद बगैर कंघी किये उठे-ऐंठें बाल, सिर पर बौखलाये-खमखमाये हुए-से. गंदी-घिनौनी व दुर्गंधपूर्ण गालियां जारी! आक्रोश नाव के मचलते पाल जैसा. गरियाता हुआ वह रह-रहकर कूदने लगता. गेट के पास पहुंचता और फिर उसी तरह पीछे वापस. गालियों में कभी ‘अचरजवा‘, कभी ‘मिसिरवा’ तो कभी ‘महंतवा’ के संबोधन. दुर्दान्त गालियों में वह कई पीढ़ियों को तबाह करता हुआ उनके निजी जीवन को भी रौंद रहा था.

मैंने गौर किया, आचार्य जी के घर का मेनगेट ही नहीं, अहाते के भीतर भी तमाम खिड़की-दरवाजे बंद. बहुत चिंता हुई, अब क्या करें! तभी कूदने-फांदने के क्रम में किसी तरह उसने मुझे अपनी ओर मुखातिब देख लिया. अचानक वह तेज गति से मुड़ा. मैं सन्न! कलेजा धक्क! कहीं झपट्टा न मार दे! यहां से अब भागना भी खतरे से खाली नहीं. क्या पता, दौड़ता देख वह उग्र और आक्रामक हो जाये! या, खदेड़कर पकड़ ही ले! न चाहते हुए भी कदम स्वमेव पीछे खिसक गये.

वह मेरी ओर उंगली उठाकर वहीं से चीखा, “काऽ होऽ! तुहों कौनो दलाले हउवा काऽ ? अचरजवा साले से मिलेके हौऽ? आवा मिलाऽ! हम्मर आज के कोटा पूरा हो गल! हम ओने खिसकब अउर इ सरवा तुरंते सब खिड़की-दरवज्जा खोल ली! येतना कौनो सरीफ आदमी के सुनावल जाये तऽ सरवा इहें गंगा जी में कूद मरी! बाकी येकरा कौनो सरम ना हौ! बस माल हाथ से ना निकले के चाही, चाहे जूता मारके सब इज्जत ले लाऽ!”

वह तलमलाता हुआ धीरे-धीरे कदम बढ़ाता बगल से दूरी बनाये गुजरने लगा. शराब के तेज भभके छूट रहे थे. एक क्षण लगा, जैसे मैं ही चक्कर खा जाऊंगा. मैं कुछ देर ठिठका उसे जाते देखता रहा. जब वह रेंगता हुआ कुछ दूर निकल गया तो मैं गेट के पास गया. हांक लगायी. एक-एक कर खिड़कियां खुलती जा रही थीं. दरवाजा खुलने के बाद नौकर ने आकर मेन गेट खोला और हंसते हुए बाहर झांका, “सरवा रोज नरक मचा देलाऽ! भागल कि नाऽ ?”

वह मुझे कमरे में ले गया. कक्ष की दीवारों पर आचार्य जी के विभिन्न सम्मान-अवसरों, बड़े-बड़े लोगों के साथ उनकी संगत और संगीत-समारोहों के ढेरों अनमोल क्षण चित्रों में उपस्थित. फ्रेमों की कतारें. सबमें उनकी भिन्न-भिन्न मुद्राओं में केंद्रीय उपस्थिति. किसी में रजत बाल-मूंछों सहित स्वर्णिम चिंतक मुद्रा तो किसी में महान संगीत-कलाकारों के साथ उनकी गहन मर्मज्ञता. किसी में माइक के सामने बोलते हुए वे खूब जीवंत भाव-मुद्रा में, तो किसी में गंगा-सेवा या घाट के सफाई अभियान के दौरान उनकी लोक-सेवक छवि. खड़ा-खड़ा निकट से यह सब देख रहा था कि आचार्य जी आ गये, “अरे डाक्टर साहब, आप खड़े हैं! यहां टेबुल पर मिष्ठान्न और समोसे आपकी व्यग्र प्रतीक्षा कर रहे हैं! चाय भी आने ही वाली है. आइये, बैठिये!”

मैंने बैठते हुए अपने दोनों पंजे आपस में सटाये और आंखें मूंदकर सिर तेज-तेज हिलाते हुए कहा, “बाप रे बाप! वह आदमी कितनी गालियां उढ़ेल गया! एकदम दरवाजे पर चढ़कर! ऐसी गंदी- गंदी गालियां! गोलियों से भी ज्यादा आग्नेय और तेज-कर्कश! कैसे आपने इतना सब बर्दाश्त कर लिया! हमलोग से कोई ऐसे उलझता तो यहां से सलामत नहीं लौट पाता!”

वे सहज भाव से ताकते रहे. कुछ यों जैसे उक्त व्यक्ति वाले प्रसंग पर मेरी टिप्पणी सुनी ही न हो, ‘‘दिल्ली जाकर तो आप अपने बनारस को भूल ही गये हैं!”

“नहीं! कदापि नहीं! जन्मभूमि कभी बिसरती है क्या! नौकरी है, इसलिए ...”

“आप प्रश्नावली लेकर आये हैं नऽ ?’’

“नहीं!”

“ऐसा है कि वह सब जानकारी लेने के लिए मुझे भी बीएचयू के एक प्राध्यापक मित्र से मदद लेनी होगी. आप प्रश्नावली देंगे तभी काम आगे बढ़ेगा!”

“मैं तो आज यहां आने का कार्यक्रम ही भूल गया था... आया था गोदौलिया, बच्चों के साथ... मिसेज की दोनों बहनें अपने बच्चों के साथ विश्वनाथ गली में मिल गयीं. बच्चे घुल-मिल गये बच्चों से और तीनों बहनें आपस में मशगूल! ...मैं पड़ गया अकेला! ...मैंने उनलोगों को एक जरुरी काम का हवाला दे दिया और अस्सी निकलने की बात बता इधर आ गया... अब अस्सी का हिसाब-किताब आपको क्या बताना! वहां कैसे बतकहियों में घंटे पर घंटा घुंटता चला गया पता ही न चला! ...वहीं अचानक कुछ मिनट पहले स्मरण हुआ कि आज शाम चार बजे का आपका समय तो मेरे नाम आवंटित था!”

मेरे आखिरी वाक्य के परिहास पर वे हो-हो कर हंसने लगे. आश्चर्य कि उनकी इस हंसी पर कुछ देर पहले की गालियों का एक भी खरोंच या दाग-धब्बा नहीं!

मैंने अपनी बात आगे बढ़ायी, “देर काफी हो गयी थी, लगा कि चलकर क्षमा तो अवश्य मांग ली जाये! भागा-भागा आने लगा तो यहां गेट को छेंके विस्फोट करता वह गालीबाज दिख गया! मैं तो कुछ दूरी पर ठिठका यहां से लौट जाने की बात भी सोचने लगा था कि...” मुझे आश्चर्य हो रहा था कि कैसे वे गालीबाज वाले प्रसंग को सीधे पी गये!

“अरे, वह ऐसे ही है! रोज इसी तरह एकदम इसी समय गेट के सामने आकर खड़ा हो जाता है और यही दृश्य उपस्थित करता है. दस से बारह मिनट तक अपना काम करता है फिर खुद चला जाता है!”

“आंय! रोज? वह रोज इसी तरह दरवाजे चढ़कर गालियां बरसाता है?”

“हां! हाड़ गला देने वाला पाला पड़ रहा हो या बाढ़ गिरा देने वाली मूसलधार बरसात. शहर में कर्फ्यू लगा हो या उमड़ रहा हो मेला... कोई भी बंदी या होली-दशहरा जैसा कोई पर्व-त्योहार ही, वह यहां आता अवश्य है... जब तक वह यहां आकर अपना यह काम पूरा नहीं कर लेता उसे चैन नहीं मिलता... कभी कोई लाश-वाश निकालने में देर-अबेर हो जाये तो यह सीन कुछ देर आगे-पीछे खिंच सकता है... उसी तरह बीमार-वीमार पड़ने पर कभी छठे-छमाही भले यह एक-दो दिन टल जाये लेकिन आम तौर पर उसका यह शो अटल है... वह करीब पैंतीस-अड़तीस साल से यह कार्यक्रम चला रहा है. मैं जब यात्राओं पर होता हूं तब भी वह आता है... ऐसे समय वह यात्राओं का जिक्र करता हुआ कुछ नये ढंग के आरोप वाली गालियां बरसाता है...”

“गजब! आप यह सब पैंतीस सालों से भी ज्यादा समय से बर्दाश्त करते आ रहे हैं?”

“हां, क्या करें! शुरू में उसे रोकने का प्रयास किया था... एक-दो बार उसे ठुंकवाया- पिटवाया भी... वह मरने-मारने तक पर उतारु हो जाता है लेकिन गाली में कभी कोई रियायत नहीं... बाद में मैंने ही हार मान ली... अब शाम में उसके समय पर हमींलोग अपने खिड़की-दरवाजे और गेट -ग्रिल सब बंद कर लेते हैं... वह जब यहां से खिसक लेता है, तब फिर सब खोलते हैं. ...खैर, तो बन्धु ऐसा है कि अभी मुझे एक शिष्य से मिलने बीएचयू जाना है... वह गाजीपुर से आकर एक साथी के साथ महेंद्रवी में टिका है... इसलिए मैं तो अभी लंका की ओर निकलूंगा! क्या आप साथ देंगे?”

“नहीं, मुझे अनुमति दीजिये ! असल में कई बार रिंग कर चुका हूं, घर का मोबाइल आफ बता रहा है... हो सकता है विश्वनाथ गली से रिश्तेदारों का पूरा गोल मेरे घर ही पहुंच गया हो! ऐसे अवसरों पर गप्पबाजी को अबाध रखने के लिए मोबाइल आफ हो जाता है न! ...तो मैं यहीं से सीधे मलदहिया के लिए ऑटो लेकर निकलना चाहता हूं! ...वहीं लहुरावीर से आगे दो मिनट के लिए एटीएम पर उतरूंगा उसके बाद सीधे घर! ...लेकिन कृपया यह तो बता दीजिये कि वह गालीबाज आखिर है कौन ? आपसे वह इस कदर क्यों है नाराज ?”

“अरे उसकी चिंता छोड़िये! वह एतवारु मल्लाह है. एक नंबर का गोताखोर! गंगा में डूबे का जो लाश खोजने में सभी गोताखोर हार मान लें उसे वह एक छलांग में खोजकर बाहर ला देता है! दिन में कभी आ जाइये, यहीं अस्सी घाट पर कहीं टहलता मिल जायेगा! खैर तो उसे अब बिसारिये!” वे साथ ही बाहर निकले. लगा कि शायद आगे कुछ दूर तक साथ चलें लेकिन गेट के पास रूककर उन्होंने तेज आवाज लगायी, “अरे, चौबे! गाड़ी जल्दी निकालो! अब तो देर हो गयी है काफी!”

मैने नमस्कार किया और आगे बढ़ने लगा.

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