चन्द्रमाधव: भाग 2 / नदी के द्वीप / अज्ञेय
चंद्रमाधव को पहचानते ही रेखा के चेहरे पर विस्मय की दौड़ती लहर के साथ...स्थान है, न झगड़ा करके फ़ायदा है। रेखा को झुकना पड़े, वह समय आएगा अपने-आप आएगा, ज़रूर आएगा।
“नहीं रेखा जी, मैं केवल अपने दोषों की बात कह रहा था-उन्हें भूलकर फिर आप मुझे फ्रेंड का गौरव दे सकें तो-”
“फ्रेंडशिप बाहर की स्थिति नहीं है, चन्द्र जी, वह अपनी प्रवृत्ति का नाम है। मैं तो फ्रेंड के सिवा कुछ हो ही नहीं सकती अब-”
चन्द्र ने आँखें सकोच कर उसकी ओर देखा। मन-ही-मन कहा, “तो ऐसी बात है-फ्रेंड के सिवा कुछ हो नहीं सकतीं आप हम सबके लिए-सारी दुनिया के लिए-केवल एक ही व्यक्ति है जो-” और वह उसके चेहरे में खोजने लगा उस एकमात्र व्यक्ति के प्रभाव की कोई छाप-क्या यह जो दीवार की-सी दूरी है, वह आवरण, यह केवल गहरी अनुभूति का परदा नहीं है जो भोक्ता को बाकी जगत से अलग कर देता है? जो भी किसी ऐसी अनुभूति से गुजरता है, उसकी छाप को एक कवच की तरह पहन लेता है, और वह उसे औरों से अलग कर देती है, वैसे लोगों की एक अलग बिरादरी हो जाती है-रेखा कहेगी 'जीवन की नदी में अनुभूति के द्वीप'...अगर वह थोड़ा-सा कोंच कर, कुरेद कर, नीचे उस सतह पर पहुँच सके जहाँ जीव को दर्द होता है, वह तिलमिलाता है...
प्रत्यक्ष उसने कहा, “थैंक यू, रेखा जी; मैं भी शायद अब फ्रेंड के सिवा कुछ नहीं हो सकता।” वाक्य का दोहरा अर्थ है, यह उसने लक्ष्य किया पर उसमें दोष क्या है, कलाकार तो हमेशा दोहरे अर्थों से खेलता ही रहता है। “पर क्या हम लोग बाहर कहीं नहीं चल सकते-वाई. डब्ल्यू. लाउंज तो बात करने के लिए नहीं है।”
“चलिए।”
ज़ीने से नीचे उतर कर चन्द्र ने कहा, “कश्मीरी गेट में हज़रतगंज वाली बात नहीं है-यहाँ टहला नहीं जा सकता। टहलना चाहें तो आगे कुदसिया बाग़ की तरफ़”
रेखा ने निश्चयात्मक स्वर से कहा, “नहीं।” फिर कहा, “चलिए नयी दिल्ली की तरफ़ चलें-”
चन्द्र ने ताँगा ठहराया, दोनों सवार हो गये। काफ़ी देर तक चुपचाप चलते रहे। फिर चन्द्र ने पूछा, “भुवन जी की कोई खबर है? मुझे तो बहुत दिनों से पत्र नहीं आया-”
“पत्र तो मुझे भी नहीं आया। पर कश्मीर में ही हैं; रिसर्च कर रहे हैं।”
चन्द्र ने प्रतीक्षा की कि रेखा कुछ और कहे। फिर बोला, “आप से तो भेंट हुई होगी?”
“हाँ।” इस बार और भी संक्षिप्त उत्तर था।
चन्द्र थोड़ी देर सोचता रहा, दाँव तोलता रहा। फिर उसने कहा, “गौरा जी-गौरा को आप जानती हैं न? भुवन की शिष्या और अन्तरंग मित्र-कह रही थीं कि आप भी भुवन जी के साथ गयी हैं; मुझसे आप के बारे में पूछ रही थीं।” तनिक रुककर, “अपने मास्टर साहब के लिए बहुत चिन्तित थी।”
चन्द्र के प्रश्न पर रेखा का मन कुछ भटक गया था। पर अन्तिम बात से फिर एकाग्र हो आया। “क्यों?”
चन्द्रमाधव एक उड़ती-सी हँसी हँसा। मानो कहता हो, 'उसका चिन्तित होना स्वाभाविक ही है; और ऐसी मामूली बात में मेरी कोई दिलचस्पी भी नहीं है।' फिर साभिप्राय बोला, “गौरा भुवन की सबसे प्रिय शिष्या है-और अब शिष्या नहीं, मित्र है।”
“मैं जानती हूँ।” भुवन के प्रति भक्ति की अभिव्यक्ति आवश्यक है, कुछ ऐसी भावना से रेखा ने कहा, “भुवन जी ने स्वयं मुझे बताया था।”
“अच्छा!” चन्द्र ने किंचित् आश्चर्य दिखाते हुए कहा, “तब तो आप को उनसे ज़रूर मिलना भी चाहिए।”
“पर वह तो मद्रास में हैं न?”
“थीं। आजकल यहीं हैं। उनकी शादी की बात चली थी दो बरस पहले, तब भुवन की सलाह से मद्रास चली गयी थीं संगीत सीखने। वहाँ से लौट आयी हैं।”
“ओः।”
फिर थोड़ी देर मौन रहा। नयी दिल्ली में डेविको के नीचे ताँगा रुका; चन्द्र ने कहा, “यहाँ चाय पिएँगे, काफ़ी तो दिल्ली की अच्छी नहीं होती-”
“जो आप चाहें।”
बैठकर चन्द्र को सहसा याद आया, गौरा की बात से असली बातचीत बीच ही में रह गयी थी। यों गौरा की बात रेखा को बताना भी कम ज़रूरी नहीं था, पर सबसे ज़रूरी था यह जानना कि रेखा और भुवन के बीच स्थिति क्या है-दोनों कितने गहरे में हैं...
“मैंने तो सुना था आप नैनीताल गयी हैं और भुवन, कश्मीर, पर गौरा कह रही थी कि आप भी कश्मीर गयी थीं-मुझे तो अचम्भा हुआ-”
“हाँ, मैं कश्मीर भी गयी थी। नैनीताल पहले गयी थी, लौटकर फिर कश्मीर।” रेखा ने स्थिर भाव से कहा। फिर सहसा एक ऊब की लहर-सी उसके भीतर उमड़ी : जानना चाहता है तो जान ले न, यह भी अधूरी बात है, एक बार कह ही दी जाये पूरी बात तो यह पैंतरेबाजी खत्म हो। उसने अनमने से ढंग से जोड़ दिया, “डाक्टर भुवन भी नैनीताल गये थे; वह पहले लौटकर कश्मीर गये; मैं सीधी चली गयी थी।”
उसके अनमनेपन की ओर लक्ष्यकर के चन्द्र सोचने लगा, यह बात क्या है? क्या सारी बात ऐसी है कि इस अनमने ढंग से कह डाली जाये-या कि बात इतनी बड़ी है कि अब छिपाव को भी छोड़ दिया गया? ऐसा है तो-अगर भुवन न होता, वह होता, तो वह भी छिपौवल छोड़ दिया-बल्कि इतना भी नहीं, वह ऐलानिया कहता; वह काम छोड़कर रेखा को लेकर कहीं चला जाता बर्मा-वर्मा; वह प्रेम क्या जिसके लिए सब कुछ वारा-न्यारा न कर दिया जाये? आशिक वह जो सर पै कफन बाँधे फिरे, यह क्या कि आशिकी भी हो रही है, रिसर्च भी, और नौकरी भी चल रही है...
“कैसा है पहाड़ों का मौसम? सुना है बड़ी भीड़ है इस साल, ठहरने को भी कहीं जगह नहीं मिलती-”
हाँ, तो यह भी आप पूछना चाहते हैं...थके भाव से रेखा ने कहा, “नैनीताल में तो जगह थी होटलों में, पर हम लोग नीचे चले गये थे; होटल में नहीं ठहरे। और कश्मीर तो मेरा घर ही है।”
“हाँ, ऑफ़ कोर्स।” कहकर चन्द्र ने कुछ ऐसे भाव से रेखा की ओर देखा, मानो कह रहा हो, देखिए, इससे आगे मैं कुछ नहीं पूछ रहा हूँ, टैक्ट का तकाज़ा है; यों जानना चाहना स्वाभाविक होगा आप मानेंगी...
रेखा की विरक्ति सहसा एक शारीरिक थकान बनकर उसकी देह पर छा गयी। एक धूमिल उछटती नज़र से उसने डेविको के चायघर के फैलाव को, विशाल गलीचे और भारी परदों को देखा; उफ़ कैसी है यह घुटन-कहाँ है इसमें कोई रन्ध्र जिसमें से धुन्ध का अजगर आकर सारी झील को छा ले और क्षितिजों को मिला दे! उसने क्षण भर आँखें बन्द कर लीं, उसका हाथ कनपटी तक उठा और उस काल्पनिक लट को सँवारता हुआ कान के पीछे से ग्रीवा के मोड़ के साथ लौट आया। सहसा उसने पूछा, “चन्द्र जी, आप का परिवार कहाँ है?”
चन्द्र के ओठ पतले हो आये, लेकिन निमिष-भर के लिए ही; फिर उसने तपाक से कहा, “ओ, हाँ, रेखा जी, आप को ख़बर देना तो भूल ही गया। वे लोग लखनऊ आ रहे हैं। मेरे पास ही रहेंगे।”
“सच?” रेखा ने सहसा गम्भीर होकर कहा, “यह बहुत अच्छी बात है चन्द्र जी। आइ होप यू आर हैपी।”
“ह्वट इज़ हैपिनेस, रेखा जी; कुछ और बात करिए, हैपिनेस तो एक कल्पना है-या उस अवस्था का नाम है जिसमें हम अपनी ज़रूरत को अभी जानते नहीं हैं। इनसान के लिए हैपिनेस नहीं है-क्योंकि वह लाइलाज जिज्ञासु है। वह जान के रहेगा-और जानेगा तो भोगेगा!”
खण्डन में रेखा की रुचि नहीं थी। फिर भी इतना कहे बिना वह न रह सकी : “जिज्ञासु ही हैपिनेस जान सकता है; नहीं तो जिसने उसे जाना नहीं वह भोगेगा क्या? कोई चीज़ स्थायी नहीं है, इसी से वह कल्पना-मात्र तो नहीं हो जाती?”
“पर स्थायी नहीं है तो हैपिनेस कैसे है? जिसके साथ छिन जाने का डर बराबर लगा है, वह प्राप्ति कैसी है?”
रेखा के भीतर कुछ पुकार उठा, “वही प्राप्ति है, वही प्राप्ति है।” उसने धीरे-से कहा, “जो छिन जा सकता है पर जब है तब सर्वोपरि है, वही आनन्द है।” फिर विषय बदलने के लिए, बिना उत्तर का मौका दिये कहा, “लेकिन गृहस्थ-जीवन में दूसरे स्तर की बात सोचनी चाहिए न-उसका आधार है स्थायित्व, उड़ान नहीं; गृहस्थी की आधार-भूमि पर पैर टेककर आप घूम भी सकते हैं-”
“रेखा जी, इस बात को गुस्ताखी न समझा जाये तो कहूँ कि गृहस्थी के मामले में आपको ऑथारिटी मानने में संकोच भी हो सकता है।”
“सो तो है।” रेखा ने कहा; फिर मानो उसे तभी ध्यान आया हो कि बात हँसी की है, वह हँस दी।
चन्द्र ने चाय के प्याले की तलछट राखदान में उड़ेल कर चायदानी की ओर हाथ बढ़ाते हुए कहा, “आप गौरा जी से मिलने चलेंगी?”
रेखा ने चायदानी सँभालते हुए कहा, “लाइये, मैं बना दूँ।” फिर प्रश्न का उत्तर देते हुए, “हाँ, अगर उन्हें बुरा न लगे-”
“वाह, उन्हें क्यों बुरा लगने लगा? भुवन जिस पर-जिसकी इतनी प्रशंसा करते रहे हैं उसे उनकी प्रिय शिष्या न देखना चाहे, यह हो ही नहीं सकता। वैसे बड़ी अच्छी लड़की है-और बड़ी सुन्दर। संगीत में भी रुचि रखती है यह तो आपको मालूम ही है। इण्टेलिजेण्ट भी है, पर ज़रा मुँहज़ोर-”
रेखा ने अनमने-से कहा, “हाँ?”
× × ×
गौरा ने कहा, “आइये, बैठिए, पिता जी अभी आते हैं-”
यह स्वागत इतना असाधारण था कि चन्द्र सहसा यह भी पूछना भूल गया कि वह मसूरी से कब लौटे। वह बैठा ही था कि गौरा ने भीतर के किवाड़ तक जाकर पुकारा, “पिता जी, चन्द्रमाधव जी आये हैं।”
फिर वह आकर कर्तव्यनिष्ठ लड़की की तरह बैठ गयी और अतिथि का मनोरंजन करने लगी।
“आप पहाड़ नहीं गये? दिल्ली में तो ऐसी गर्मी पड़ रही है कि बस-”
चन्द्र ने सहसा कहा, “गौरा, मैं तुमसे मौसम की बात करने नहीं आया।”
गौरा ने अज्ञान बनकर कहा, “जी?”
चन्द्र एक बार साहस करके 'तुम' कह गया था, पर इस 'जी'? के आगे उसका साहस जवाब दे गया। फिर भी, जैसे कोई ठण्डे पानी में गोता लगा ही तो डाले, उसने कहा, “रेखा जी यहाँ हैं, आप से मिलने को इच्छुक हैं।”
गौरा को थोड़ी देर अचकचाते देखकर उसे बड़ा सन्तोष हुआ।
गौरा ने खड़ी होते हुए कहा, “आपके लिए चाय लाऊँ-चाय तो पियेंगे न?” फिर तनिक रुककर, “वह जब चाहें आवें-मैं तो यहीं रहती हूँ-”
अब जाकर चन्द्र ने पूछा, “पिता जी कब आये? बड़ी जल्दी लौट आये”
“नहीं, फिर जाएँगे, मेरी वजह से आ गये।”
“आप भी जाएँगी?”
“शायद-”
“कब?”
“इसी हफ़्ते जाने की सोच रहे हैं-” भीतर से उत्तर आया, और साथ-साथ गौरा के पिता ने दरवाज़े पर प्रकट होते हुए कहा, “कहो भई, कब आना हुआ?”
गौरा ने फुर्ती से कहा, “मैं चाय लाती हूँ,” और भीतर चली गयी।
× × ×
तीन दिन बाद जब रेखा को लेकर चन्द्रमाधव फिर वहाँ गया तब भी गौरा का बर्ताव कुछ ऐसा ही था-चिकना, विनीत, शिकायत से परे, मगर दूर...परस्पर नमस्कार और परिचय के बाद जब तीनों बैठ गये तो एक क्षण का मौन उन पर छा गया। चन्द्र चाहता था कि इन दोनों को मिला देने की अपनी सफलता पर प्रसन्न हो, पर एक अजब संकोच का भाव उसके भीतर भर रहा था-एक अनिश्चय, एक आशंका-सी...वह चुप-चाप चोर आँखों से कभी रेखा को, कभी गौरा को देख रहा था; ये दोनों बात करने लगें तो कुछ ठीक हो...
पर वे दोनों भी चुप थीं। रेखा को गौरा ने चन्द्र के पास ही सोफे पर बिठाया था, स्वयं दूसरी ओर तख़्त के कोने पर सीधी बैठी थी-एक हाथ हल्का-सा तख़्त पर टिका हुआ, आँखें नीचे झुकी हुई। उसने बिल्कुल सफेद धोती पहन रख थी-बहुत छोटी छोटी सफेद बूटी वाली चिकन की-गहने वह यों भी नहीं पहनती थी और आज चन्द्र ने लक्ष्य किया कि उसके हाथों पर साधारण एक-एक चूड़ी और एक अँगूठी भी नहीं, स्फटिक से घिरी हुई निष्कम्प लौ की तरह वह अपने में सिमटी बैठी थी। रेखा ने भी सफेद रेशमी साड़ी पहन रखी थी, जिस अनुपात में रेशम की सफेदी चिकन की अपेक्षा कोमल थी, उसी अनुपात में उसका साँवला वर्ण भी मानो गौरा का धूमिल प्रतिबिम्ब था। गौरा सिमटी हुई और दूर थी, रेखा की आँखों में वह अस्पृश्य खुली दूरी नहीं थी पर मानो एक मेघ घिरे आकाश का-सा भाव था...
रेखा ने कहा, “गौरा जी, चन्द्र जी बता रहे थे कि आप दक्षिण से संगीत की विशेष शिक्षा पूरी करके आयी हैं?”
गौरा ने सायास कहा, “जी, दक्षिण से तो अभी आयी हूँ। गयी थी संगीत सीखने ही, पर दो वर्ष में क्या आता है!”
रेखा ने पूछा, “दक्षिण का संगीत तो बिल्कुल अलग है न-मैं कुछ जानती तो नहीं पर सुना है-”
“हाँ-पर मैंने तो सुना है आप बहुत अच्छा गाती हैं-”
“नहीं गौरा जी, वह तो-”
चन्द्र ने बात काटते हुए कहा, “हाँ गौरा जी, हमने बहुत दिन से सुन रखा था, पर उस दिन भुवन के आग्रह से सुनने को न मिल गया होता तो रेखा जी कबूलती थोड़े ही कि-”
रेखा सहसा उठकर गौरा के पास चली आयी। “यहाँ बैठ जाऊँ-यह बीच में शून्य का एक चौखट रख के आर-पार बात करने का अंग्रेज़ी तरीका मुझे पसन्द नहीं है।”
“बैठिए।”
चन्द्र बोला, “इस समय भुवन को भी यहाँ होना चाहिए था-कितना अच्छा होता।” फिर दोनों की ओर देखकर, “गौरा जी, भुवन का कोई पत्र-वत्र आया है इधर? मुझे तो बहुत दिनों से कोई खबर नहीं है।”
“नहीं तो।” गौरा ने बिना किसी की ओर देखे उत्तर दिया। फिर सहसा बोली, “वह लगनवाले आदमी हैं-खोज में लगे हैं तो और किसी बात की खबर उन्हें थोड़े होगी! उन्हें खाने-पीने का भी होश नहीं रहता जब काम कर रहे हों-”
रेखा ने कहा, “आप तो उन्हें बचपन से जानती हैं न?”
“जी, उन्होंने मुझे पढ़ाया है-”
चन्द्र ने हँसते हुए कहा, “गुरु वैज्ञानिक, शिष्य संगीतज्ञ-यह अच्छा विरोधाभास है न, रेखा जी?”
रेखा ने सीधा उत्तर देकर कहा, “अच्छा गुरु उदार होता है, चन्द्र जी, और उदार बनाता है।”
गौरा खड़ी हुई। “आप लोगों के लिए चाय लाऊँ-”
रेखा ने कहा, “नहीं गौरा जी, आप बैठिए-”
“सब तैयार है-”
“तो चलिए, मैं मदद करूँ,” कहकर रेखा भी उठ खड़ी हुई, “मैं आप की रसोई में आऊँ तो कोई-”
“आप कैसी बात करती हैं, रेखा देवी?” कहकर गौरा आगे चल पड़ी, रेखा पीछे-पीछे।
गौरा ने चलते-चलते कहा, “काम वास्तव में कुछ नहीं है रेखा देवी; सिर्फ़ पानी डालकर ले आना है, मेज़ लगी है।”
दोनों उस समय चाय का कमरा पार कर रही थी। रेखा ने कहा, “सो तो देख रही हूँ।”
“या-आप पसन्द करें तो बैठक में ही ले चलूँ-”
“नहीं, यहीं ठीक है, गौरा जी-”
“आप चाय पसन्द करेंगी या काफ़ी?”
रेखा ने हँसकर कहा, “आपने ज़रूर यह भी सुना होगा कि मैं काफ़ी की पियक्कड़ हूँ; पर चाय पिऊँगी।”
गौरा ने तनिक-सा खिंचकर कहा, “भुवन दा ने ही लिखा था कि वह लखनऊ में बराबर काफ़ी हाउस जाते रहे”-मानो कहना चाहती हो, मैंने आपके बारे में कुछ पूछताछ की हो ऐसा न समझें।
रेखा ने वह खिंचाव भाँप लिया। सहसा गौरा के कन्धे पर हाथ रखकर बोली, “बुरा नहीं मानिएगा, गौरा जी; चन्द्र जी तो जर्नलिस्ट हैं न, हर बात का प्रचार करना उनका काम है-मेरे काफ़ी पीने का भी-”
गौरा ने कोई उत्तर नहीं दिया।
चाय रख कर गौरा ने कहा, “आप बैठिए, मैं चन्द्रमाधव जी को बुला लाऊँ”
रेखा ने कहा, “ऐसी क्या जल्दी है, दो मिनट अकेले बैठे रहेंगे तो कोई हर्ज नहीं होगा-बल्कि अकेले रहना तनिक भी सीख सकें तो फ़ायदा ही हो।”
गौरा ने कुछ विस्मय से उसकी ओर देखा, फिर बैठ गयी। रेखा कुछ कहना चाहती है शायद, और चन्द्रमाधव की उपस्थिति में बात कर सकना किसी को कठिन मालूम हो, यह ज़रा भी अस्वाभाविक नहीं है।
पर रेखा चुप रही। बल्कि उसने आँखें बन्द करके क्षण-भर हथेलियों से चेहरा ढँक लिया। गौरा स्थिर दृष्टि से उसे देखती रही, और इस समय सुविधा पाकर सिर से पैर तक देख गयी। फिर उसकी आँखें रेखा के हाथों पर टिक गयीं।
रेखा के हाथ सुन्दर नहीं कहे जा सकते, पर उसकी उँगलियों में एक संवेदन-क्षमता थी; और उँगलियों के जोड़ स्पष्ट ही एक चिन्तनशील स्वभाव के सूचक थे। छिगुनियों की सिरेवाली पोर थोड़ी-सी भीतर की ओर मुड़ी हुई थी। एक हाथ की अनामिका पर अँगूठी थी-सफेद धातु, चाँदी या प्लेटिनम?-जिसमें एक बड़ा-सा कटहला जड़ा हुआ था, रेखा के साँवले रंग पर वह फबता था। अँगूठी उँगली में ढीली थी, नगीना एक ओर को खिसक गया था। चिन्तनशील उँगलियों की यही मुश्किल होती है-जोड़ बड़े होते हैं, अँगूठी चढ़ाने में दिक्कत होती है और इसलिए ढीली अँगूठी पहननी पड़ती है...
सहसा रेखा ने हाथ हटा लिए, आँखें खोली, और पूछा, “गौरा जी, हमारे जर्नलिस्ट साहब हम दोनों को मिलाने को बहुत उत्सुक थे। और अब निस्सन्देह आप सोच रही होंगी कि हम लोग जो मिलीं, सो आखिर क्यों?”
गौरा ने अपने को सँभालते हुए कहा, “नहीं, मिलना तो मैं भी चाहती थी”
“और मैं भी चाहती थी। और मिलना हुआ, यह बड़ी खुशी की बात है। पर स्त्रियाँ जो चाहती हैं उसके होने के लिए प्रतीक्षा करती हैं। और-”रेखा रुक गयी, मानो अपने शब्द तौल रही हो, और तय कर रही हो कि बात कही जाये या नहीं, “और यह भी है कि आप मुझसे-आपका मेरे बारे में कौतूहल भुवन जी की मारफ़त ही रहा होगा-हम दोनों के बीच भी कड़ी वही हैं, चन्द्र तो नहीं।”
गौरा चुप रह गयी।
रेखा ने फिर कहा, “डा. भुवन, ही'ज़ ए वेरी फाइन मैन।”
गौरा ने कहा, “चाय ठण्डी हो जाएगी। चन्द्र जी को बुला लूँ-”
रेखा ने मुस्करा कर कहा, “आइ'ल टेक द हिंट। लेकिन एक बात कह ही डालूँ-क्योंकि फिर शायद न कह सकूँ-या मौका न मिले। चन्द्र ने आपसे क्या मेरे बारे में कुछ कहा है, यह नहीं पूछूँगी-कहा ही होगा। क्या, वह भी नहीं पूछूँगी। अपनी ही ओर से कहूँ-मेरे कारण डा. भुवन का अहित, जहाँ तक हो सकेगा, मैं नहीं होने दूँगी। चाहती हूँ कि विश्वास के साथ कह सकूँ कि बिल्कुल नहीं होने दूँगी, पर भीतर वह निश्चय नहीं पाती, और झूठा आश्वासन नहीं देना चाहती-खासकर आपको-”
गौरा ने तनिक उदासीनता चेहरे पर लाते हुए कहा, “यह सब आप मुझे क्यों कहती हैं, रेखा जी?”
“क्यों, यह तो नहीं जानती। पर कह देना चाहती हूँ-भविष्य में शायद-कभी आपको यह याद करने की ज़रूरत पड़े। किसी के निजी जीवन में-भावना-जगत् में हस्तक्षेप करना मैं कभी नहीं चाहती, गौरा; मैंने जो-कुछ कहा है, कुछ जानने के लिए नहीं, केवल अपनी बात कहने के लिए। फिर भी अगर कोई ऐसा स्थल छू गयी हूँ जिससे मुझे दूर रहना चाहिए था, तो-क्षमा चाहती हूँ।”
सहसा खड़ी होकर रेखा गौरा के पास चली आयी; दोनों हाथ उसके कन्धे पर रखकर उसने धीरे से पुकारा, “गौरा!” गौरा ने आँख उठायी; दोनों की आँखें मिलीं और देर तक मिली रहीं। फिर रेखा ने धीमे स्वर में कहा, “कभी हम किसी से मिलते हैं और तय कर लेते हैं कि हम अजनबी नहीं हैं; पर उससे ज़रूरी नहीं है कि बात करना सहज ही हो जाये-” वह कुछ रुकी, कुछ अनिश्चित स्वर में उसने कहा, “है न?” फिर उसके हाथ धीरे-धीरे खिसकते हुए हट चले; गौरा ने दाहिना हाथ उठाकर उसका हाथ पकड़ लिया और उसे थामे उठ खड़ी हुई। आमने-सामने खड़े दोनों की आँखें एक बार फिर मिलीं। फिर रेखा सहसा मुड़कर बाहर के कमरे की ओर चली गयी। क्षण-भर बाद एक नज़र मेज़ पर लगी हुई चीज़ों पर दौड़ाते हुए और उसके द्वारा मानो साधारण के स्तर पर उतरते हुए गौरा ने दो-तीन कदम आगे बढ़कर आवाज़ दी, “आइये, चाय तैयार है।”
चाय पीते-पीते चन्द्र को लगा कि वातावरण में कहीं कुछ परिवर्तन है। लेकिन क्या, यह वह नहीं जान सका। उसे केवल यह अनुभव हुआ कि कहीं किसी तरह वह असफल हुआ है, लेकिन इस असफलता की कुढ़न ऐसी थी कि वह यह भी नहीं सोच पा रहा था कि किस बात में वह असफल हुआ है...
गौरा ने कहा, “रेखा जी, चाय के बाद एक गाना सुनाएँगी?” चन्द्र ने कहा, गौरा जी, पहली ही भेंट में फर्माइश! मुझे तो हिम्मत न होती; और फिर रेखा जी-रेखा जी इज ए डिफिकल्ट वुमन टु नो! लेकिन-”और वह रुक कर स्थिर दृष्टि से रेखा की ओर देखता रहा, लेकिन डिफिकल्ट हैं इसीलिए शायद पहली बार ही कह देना चाहिए क्योंकि दूसरी बार ही कौन अधिक परिचित हो जाएँगी।”
गौरा ने कहा, “रेखा जी, मेरे कहने का बुरा तो नहीं मानेंगी?”
“गौरा, तुम चन्द्र को अभी नहीं जानती-वह जब नाराज़ होता है तभी कुछ क्लेवर बात कह कर दुनिया से बदला ले लेता है!”
“यानी? यानी आप यह कहना चाहती हैं कि असल में मुझे जानना ही डिफ़िकल्ट है? गौरा जी से मेरा-गौरा जी, आप इनकी बात न मानिएगा-मैं तो जो कुछ हूँ एकदम सतह पर हूँ-”
रेखा ने साभिप्राय कहा, “ओ हो, आज तो आप बहुत बड़ा कनफ़ेशन किये दे रहे हैं, चन्द्र जी-”
चन्द्र ज़रा-सा अप्रतिभ हुआ, पर तुरन्त पैंतरा बदलकर बोला, “हाँ, जो सतह पर है वही सच है; सतह के नीचे कुछ नहीं है, सिर्फ़ धोखा। जो कहते हैं कि यथार्थ कुछ नहीं है, जो गोचर है सब माया है, वे ही तो साबित करते हैं कि माया ही यथार्थ है, सतह ही वास्तविकता है-क्योंकि वह कम-से-कम गोचर तो है, उसके पीछे तो कुछ है ही नहीं!”
“ओफ़, चन्द्र जी, जिनके तर्क को आप इस रूप में पेश कर रहे हैं वे सुन लें तो-”
“तो आत्म-हत्या कर लें, यही न? लेकिन उसमें क्या बुराई है? आखिर एक भ्रम ही तो नष्ट होगा-माया का एक पुंज? और आत्मा तो अनश्वर है-तब आत्म-हत्या के माने क्या? लेकिन रेखा जी, आप गाना सुनायें ही, तो वही सुनायें जो लखनऊ में-”
“कौन-सा?”
“वही शरद की रात के बारे में कुछ; उस समय पूरा सुन नहीं पाये थे-”
रेखा ने गौरा की ओर उन्मुख होकर पूछा, “तुम बाँग्ला समझ लेती हो?”
गौरा ने कहा, “थोड़ी बहुत। पढ़कर समझ लेती हूँ, सुनकर थोड़ी अड़चन होती है।”
“तुम नहीं गाती?”
“मैं! मेरी आवाज़ तो-”
“बहुत मीठी है। अच्छा, संगत करोगी तो गा दूँगी-”
“वाह वा!” चन्द्र ने समर्थन किया, “बहुत अच्छा आइडिया है। आपका संगीत भी कभी नहीं सुना गौरा जी!” कह चुकने के बाद सहसा उसे ध्यान आया, गौरा को रेखा तुम कहकर सम्बोधन कर रही है, और गौरा इस पर चौंकी नहीं, मानो यह स्वाभाविक है; उसने सहसा चौकन्ने होकर दोनों की ओर देखा-यह कब, कैसे हो गया? क्या दोनों ने सहज मान लिया कि रेखा बड़ी और गौरा छोटी है और इसलिए-या कि दोनों ने वैसा परिचय बना लिया-लेकिन कब? कब? मिस्टरी, दाई नेम इज़ वुमन...मध्ययुग के सन्त ठीक मानते थे-हर औरत चुड़ैल होती है, झाड़ू पर सवार जादूगरनी, जो आदमी के किये-कराये पर झाड़ू फेर देती है...उसने फिर कहा, “हाँ, आप दोनों गाइये-बजाइये, मैं अकेला सुनूँगा, एक दोहरे मिरेकल का एकमात्र साक्षी-”
गौरा ने कहा, “नहीं रेखा जी, संगत नहीं करूँगी, आपका गान एकाग्र होकर सुनना चाहूँगी; संगत करने बैठूँगी तो ध्यान बँट जाएगा। आपका आग्रह हो तो पीछे सुना दूँगी। पर मुझे कुछ आता नहीं।”
रेखा ने कहा, “ऐसे ही सही।” फिर चन्द्र से, “लेकिन तुम साक्षी क्यों होंगे-तुम्हें भी तो मिरेकल में भाग लेना चाहिए?”
“मैं? लेकिन मुझे न गाना आता है, न बजाना-”
“तो तुम नाचना-”
“क्यों, वह आना ज़रूरी नहीं है शायद?” कुछ रुक फिर चन्द्र स्वयं ही बोला, “ठीक है, पुरुष हमेशा से नाचता आया है, स्त्रियाँ नचाती आयी हैं।”
“और बिना सीखे नाचता आया है, है न?” रेखा ने और चिढ़ाया।
गौरा ने भी उसी स्पिरिट में कहा, “हमेशा से नाचता आया है, तब यह हाल है, रेखा जी; बन्दर भी शायद तीन महीने में सीख जाता है-”
चन्द्र ने तीखी दृष्टि से गौरा की ओर देखा, मानो कह रहा हो “अच्छा, तुम्हें भी पंख लगे?' फिर बोला, “जी हाँ, पर फ़र्क जानवर-जानवर का नहीं, मदारी-मदारी का है। बन्दर का मदारी और उसका बन्दर जो खेल खेलते हैं, उसके नियम सीधे होते हैं; दोनों पक्षों का एक ही नियम होता है और दोनों उसे जानते हैं। पर हम...भला सोचिए, हम ब्रिज के डमी बन कर अपने सब पत्ते बिछा दें और आप तिपत्ती खेलने लगें तो-”
अब की रेखा ने टोका, “लेकिन है आप की कल्पना में पुरुष भी जुआरी, स्त्री भी; क्यों, नहीं?
“और नहीं तो क्या। जीवन जुआ तो है ही, बड़ा भारी जुआ, एण्डलेस गैम्बलिंग मैच?”
गौरा के मुँह पर कोई तीखा जवाब मचल रहा है यह दीख रहा था। रेखा ने कहा, “तुम्हारी बात में कुछ तत्त्व हो सकता है, चन्द्र; लेकिन क्या, इससे शायद तुम्हीं को अचम्भा हो।”
“क्या?”
“यह कि दाँव दोनों खेलते हैं; लेकिन हम अपना जीवन लगाती हैं और आप-हमारा।”
गौरा कुछ शान्त दीखी, वह जो कहना चाहती थी वह भी मानो इस उत्तर में कह दिया गया।
× × ×
चाय से उठकर तीनों फिर बैठक में आ गये। कमरे में कुछ-कुछ अँधेरा था, क्योंकि बाहर बदली घिरने लगी थी; बड़ी हुई उमस से आशा हो रही थी कि शायद वर्षा हो-उस मौसम की पहली वर्षा...कभी-कभी बादल गरज जाते थे।
चन्द्र ने कहा, “अच्छा रेखा जी, अब गाना हो जाये।”
गौरा ने उठ कर छोटी मेज़ पर एक चाँदी का डिब्बा रेखा की ओर बढ़ाते हुए कहा, “लीजिए-”
गौरा के बढ़े हुए हाथों में एक में डिब्बा, दूसरे में उसका ढक्कन था; लौंग-इलायची उठाते हुए रेखा की दृष्टि उन हाथों पर टिकी थी। सहसा उसने कहा, “बहुत सुन्दर हैं तुम्हारे हाथ-तुम चूड़ी-ऊड़ी नहीं पहनती?”
गौरा ने कुछ झिझकते हुए हाथ थोड़े-से पीछे खींच लिए, कुछ बोली नहीं।
“अच्छा मैं चूड़ियाँ लाऊँगी-गौरा, मे आइ?”
गौरा और भी संकुचित हो गयी, थोड़ा रुककर बोली, “थैंक यू, मगर काँच की हो, और नहीं-”
रेखा ने तनिक मुस्करा कर कहा, “तुम वर्किग वुमन की सीमाओं की बात सोच रही हो! खैर, तुम्हारी शर्त मान लेती हूँ, पर इन हाथों पर-सचमुच बहुत सुन्दर हाथ हैं, गौरा, ये दूसरे आभूषण माँगते हैं।”
गौरा ने सकुचाते हुए डिब्बा चन्द्रमाधव के आगे रख दिया, हाथ पीछे खींच लिए मानो छिपा लेगी।
बादल की गड़गड़ाहट ज़ोर से हुई। चन्द्रमाधव ने कहा, “सुनाइये, बादल का ही कोई गीत सुनाइये। आपकी बाँग्ला में तो सुना है वर्षा के गीत लाखों हैं।”
पहले रेखा ने यही सोचा था। पर गौरा के हाथों की बात से उसका मन मानो किसी दूसरी तरफ चला गया था। वह अनमनी-सी उन्हीं की ओर देखती जा रही थी।
गौरा ने कहा, “रेखा जी, जो आप की इच्छा हो गाइये-”
रेखा ने जैसे कुछ चौंक कर कहा, “ऊ-हाँ”, और गुनगुनाने लगी। गुनगुनाना अनिश्चित-सा था, पर सहसा मानो निश्चय करके उसने स्पष्ट स्वर में गाया :
तोमाय
साजाबो यतने कुसुमे रतने केयूरे कंकणे कुंकुमे चन्दने साजाबो किंशके रंगणे। तोमाय...
गान दोनों श्रोताओं के लिए कुछ अप्रत्याशित था; चन्द्र ने भवें हल्की-सी उठायी, गौरा सीधी होकर बैठ गयी। रेखा गाती रही :
कुन्तले बेष्टिबो स्वर्ण -जालिका
कण्ठे दुलाइबो मुक्ता -मालिका सीमान्ते सिन्दूर अरुण बिन्दुर चरण रंजिबो अलक्त -अंकणे किंशुके रंगणे तोमाये। साजाबो
(तुम्हें यत्नपूर्व सजाऊँगा कुसुमों-रत्नों से, केयूर-कंकण से, कुंकुम-चन्दन से, किंशुक और रंगन के फूलों से। कुन्तलों में स्वर्ण-जालिका पहनाऊँगा, कण्ठ में मुक्ता-मालिका झुलाऊँगा; सीमन्त में अरुण सिन्दुर-बिन्दु, चरणों में अलक्तक-तुम्हें सजाऊँगा... -रवीन्द्रनाथ ठाकुर)
गान समाप्त होने पर थोड़ी देर मौन रहा। फिर गौरा ने पूछा, “बहुत अच्छा गाती हैं आप। यह रवीन्द्र-संगीत है न?”
“हाँ।”
फिर एक विकल्प के बाद चन्द्र ने कहा, “गौरा जी, आप-?”
गौरा ने रेखा की ओर उन्मुख होकर पूछा, “मैं सिर्फ तबला सुनाऊँ आपको-अच्छा लगेगा?” फिर चन्द्र की ओर मुड़कर, “और कोशिश करूँगी बादल से सुर मिलाने की-”
“हाँ, हाँ, ज़रूर।” चन्द्र ने उत्साह से कहा।
गौरा भीतर जाकर जोड़ी उठा लायी, फ़र्श पर बैठ गयी। तबलों को ठोकने-खींचने लगी तो चन्द्र ने रेखा से पूछा, “आपने वर्षा का गीत क्यों न सुनाया?”
रेखा ने उत्तर न दिया। कमरे में प्रकाश और भी धुँधला हो गया था; चन्द्र उसके चेहरे के भाव को ठीक-ठीक देख भी न सकता था।
गौरा ने कहा, “मैं धम्मार में एक परण सुनाती हूँ।”
ताल वाद्य सबसे प्राचीन वाद्य है; नृतत्वविद् इसका कारण यह बताएँगे कि मानव बुद्धि ने पहले धमाके की ही संगीतात्मक सम्भावनाओं को पहचाना-या कि ताली से आगे बढ़ने पर किसी न किसी चीज़ को पीटना ही ताल देने का सरल माध्यम है। ऐतिहासिक दृष्टि से वह ठीक ही होगा। पर संगीतात्मक दृष्टि से ऐसे वाद्यों का महत्त्व यह है कि मौलिक प्राकृतिक शक्तियों की, प्रकृति के क्रीड़ा-कल्लोल की, सम-स्वरता वे ही सबसे अच्छी तरह कर सकते हैं-हवा, बादल, आँधी, पानी, बिजली, लहर, दावानल, जलप्रताप...ढोल-मादल-मृदंग-तबले की थाप मानव को जिस सहज भाव से इनके निकट ले जा सकती है, इनके साथ एकतानता स्थापित कर सकती है, दूसरे वाद्य नहीं कर सकते...
बादल की गड़गड़ाहट में वर्षा का सरसराता स्वर भी मिल गया था। पर किसी को उसका ध्यान नहीं था। तबले का स्वर कभी धीमा और तरल, कभी चौड़ा और परुष, कभी हलका और दौड़ता हुआ, धुँधलके में भर गया था। रेखा एकटक गौरा के हाथों को देख रही थी; पर हाथों की आकृति अब स्पष्ट नहीं दीखती थी, तबले के पड्डे और स्याही के वृत्तों पर उनकी छाया-सी ही पहचानी जाती थी। रेखा दबे-पाँव उठी, मैंटल पर से लैम्प उठाकर उसने गौरा के पास ज़मीन पर रखा, फिर उसका छादन तिरछा करके बटन दबाकर उसे जला दिया-ऐसे कि प्रकाश तबलों पर और कलाई तक गौरा के हाथों पर पड़े। आलोक के लम्बोतरे घेरे में गलीचे का नीला-भूरा पैटर्न दीखने लगा।
रेखा फिर मुग्ध-सी गौरा की थिरकती उँगलियों को देखती रही; चन्द्र छत के पंखे की ओर टकटकी लगाये सुन रहा था।
सहसा एक थाप के साथ सन्नाटा हो गया जिसमें तबले का स्वर ही थोड़ी देर गूँजता रहा, फिर वह बारिश के स्वर में लय हो गया। गौरा ने एक लम्बी साँस ली।
रेखा बढ़कर नीचे गौरा के पास बैठ गयी, अपने दोनों हाथ उसने तबलों पर टिके हुए गौरा के हाथों पर रख दिए। कुछ बोली नहीं। फिर सहसा उसने हाथ उठाकर अपनी अनामिका से अँगूठी उतारी और नरम हाथ से गौरा का हाथ अपनी ओर खींचते हुए उसकी उँगली में पहना दी।
गौरा ने अचकचा कर कहा, “रेखा जी-यह क्या-नहीं रेखा जी, यह नहीं-” और घबड़ाये-से हाथों से अँगूठी उतारने लगी।
“रहने दो, गौरा; कटहला शायद तुम्हारे हाथ के लायक नहीं है, पर यह मेरी माँ की अँगूठी है-”
“तब तो और भी नहीं रेखा जी; मैं आप की दी हुई चीज़ वापस नहीं कर रही-अवज्ञा न समझें-पर आपकी माँ की अँगूठी मैं कैसे ले सकती हू्रँ?” अँगूठी उतारकर वह रेखा का हाथ खोजने लगी।
रेखा ने कहा-”गौरा मैं-”
“नहीं, नहीं, नहीं!” गौरा अँगूठी फिर रेखा को पहनाने का यत्न करती हुई बोली, “आप मुझे चूड़ियाँ दे दीजिएगा, मैं पहनूँगी; पर यह-”
“चूड़ियों की बात तो अलग है। वह तो मेरी बंगालिन आँखों का खटका था कि तुम्हारी कलाइयाँ सूनी हैं, पर यह तो मेरा ट्रिब्यूट-”
“मुझे शर्मिन्दा मत कीजिए रेखा जी! अच्छा, आप मेरी ओर से ही रख छोड़िए-फिर कभी दे दीजिएगा-या मैं माँग लूँगी-”
“फिर कब? यह टालने की बात है-”
“नहीं सच; कभी जब-आपकी माँ ने आपको यह कब दी थी?”
रेखा का हाथ सहसा शिथिल पड़ गया। अँगूठी उसकी माँ ने उसे सगाई पर दी थी। वह कुछ बोल न सकी; गौरा ने अँगूठी उसे पहना दी, और क्षण भर उसका हाथ अपने हाथ में लिए रही। फिर सहसा उसकी शिथिलता और उसके चेहरे का अनुपस्थित भाव देखकर बोली, “आप नाराज़ तो नहीं हो गयीं रेखा जी? यू आर वेरी काइंड-लेकिन यह तो-”
रेखा ने सँभल कर कहा, “ठीक कहती हो, गौरा।” धीरे-धीरे हाथ खींच कर वह फिर अपनी जगह जा बैठी। गौरा भी उठी, पहले दीवार की ओर बढ़ी कि स्विच दबाकर कमरे की बत्तियाँ जला दे, पर अध-बीच में रुककर उसने हाथ खींच लिया; झुककर तबले उठाये और अन्दर चली गयी।
रेखा ने उसकी प्रत्येक भंगिमा को लक्ष्य किया था। उसी का लिहाज करके गौरा बत्तियाँ नहीं जला गयी। उसने ज़ोर से अपने को हिलाया; चन्द्र की ओर देखा, सायास मुस्करायी और बोली, “अब मेघ-संगीत सुनाऊँ?”
चन्द्र उसकी ओर ताकता रहा। सारी घटना उसकी कुछ समझ में नहीं आयी थी, वह बैठा-बैठा सोच रहा था कि औरत नाम का जन्तु भी न जाने किस ढब का है; सहसा उत्तर भी न दे सका। रेखा ने आगे बढ़कर स्वयं बत्तियाँ जला दीं, फ़र्श पर रखा लैम्प बुझा दिया, और गा उठी :
मन मोर मेघेर संगीते ,
उड़े चल दिग्दिगन्तेर पाने श्रावण वर्षण संगीते उड़े चल , उड़े चल, उड़े चल!
(मेरे मन , मेघ के संगीत के साथ उड़ चल दिग्दिगन्त की खोज में, श्रावण की वर्षा के संगीत के साथ उड़ चल, उड़ चल!)
गौरा लौटकर आयी, तो रेखा को कमरे के मध्य में खड़ी गाती देखकर किवाड़ के सहारे ही ठिठकी खड़ी रही।
× × ×
रेखा को उसके ठिकाने पर पहुँचाकर चन्द्रमाधव जब वापस मुड़ा, तब उसके चेहरे पर जो परिवर्तन हुआ वह इतना द्रुत था कि उसकी रेखाओं को मानो चलते देखा जा सकता था-सलवटों का चलकर नयी जगह बैठना, नयी झुर्रियों का उभरना, आँखों पर एक झिल्ली-सी का छा जाना...रेखा ने कहा कि पहुँचाने की ज़रूरत नहीं है, वह चली जाएगी, पर उसने कहा था कि उसे भी कश्मीरी गेट ही जाना है-और बिलकुल झूठ भी नहीं कहा था, क्योंकि जिस काम से उसे जाना था वह कश्मीरी गेट में भी हो सकता था...सीढ़ियों के नीचे ही रेखा ने कहा, “चन्द्र, तुम्हारा बहुत-बहुत धन्यवाद-गौरा से मिल कर मुझे बड़ी खुशी हुई-” फिर वह तनिक रुकी, मानो और कुछ भी कहने वाली हो, पर फिर सहसा, “अच्छा नमस्कार!” कहकर मुड़ी और सीढ़ियाँ चढ़ गयी। चन्द्र बाहर की ओर को मुड़ गया। हल्की-सी बारिश अब भी हो रही थी, पर चन्द्र ने उसकी परवाह न की।
सड़क के पार, कालेज की बगल में एक होटल का बोर्ड था 'होटल एण्ड बार'। क्या वहीं? चन्द्र थकी चाल से उधर बढ़ा, पर अध-बीच में तिकोने पार्क के सिरे पर रुक गया, फिर दाहिने मुड़कर कुछ आगे बढ़ा और फिर निकलसन रोड की ओर मुड़ गया। कोई दो फ़र्लांग जाकर एक और जगह थी। यहाँ वह बहुत दिनों से नहीं आया था, पर पहले अक्सर आया करता था...
पहले...अन्दर कुरसी पर बैठते हुए उसे याद आया, पीते लोग उन दिनों भी थे ही, पर उसका पीने आना मानो उसके लिए बड़ी असाधारण घटना थी, उसके लिए
ही नहीं, यों भी...और जब एक बार वह हेमेन्द्र के साथ आया था-हेमेन्द्र और उसके मित्र के साथ, और मित्र अनभ्यस्त मात्रा में पी जाने के कारण धुत्त हो गया था और दोनों उसे उठा कर ले गये थे...हेमेन्द्र था सो था, पर था ज़िन्दादिल आदमी; वैसे हमप्याला कहाँ मिलते हैं...उसने पुकारा, “बेयरा?”
बेयरा ने आकर सलाम किया। फिर ज़रा ध्यान से देखकर सहसा दुबारा सलाम किया, किंचित् मुस्कराहट के साथ। तो यह उसे पहचानता है...चन्द्र को अच्छा लगा। उसने पूछा, “बियर है? कौन-सी?” पर बेयरा उत्तर दे इससे पहले ही फिर कहा, “अच्छा नहीं, ह्विस्की ले आओ।”
“कौन-सी, सा'ब-”
“अच्छा, सोलन ले आओ। बड़ा पेग-डबल।”
बेयरा चला गया। चन्द्रमाधव ने सिगरेट जलायी और कुरसी में आराम से पीठ टेक कर धुआँ उड़ाने लगा।
हेमेन्द्र...कहाँ होगा हेमेन्द्र अब? चन्द्र ने कोशिश की, रेखा और हेमेन्द्र की साथ कल्पना करे, पर उसमें किसी तरह सफलता नहीं मिली, हेमेन्द्र की शबीह वह किसी तरह सामने लाता तो रेखा की बजाय गौरा आ जाती; फिर वह संकल्प-पूर्वक उसे हटा कर रेखा को सामने लाता और हेमेन्द्र की बजाय भुवन सामने आ जाता...हार कर उसने सिगरेट मुँह से निकाल कर उठकर एक ओर को थूका; फिर बैठ गया। बेयरा ह्विस्की ले आया; ट्रे में सोडा भी था पर चन्द्र ने ग्लास उठाकर इशारे से सोडा-पानी सब मना किया और उठा कर दो-तीन घूँट ह्विस्की के ही पी डाले। फिर उसने ज़ोर लगाना छोड़ दिया : न सही हेमेन्द्र, वह जो आवेगा उसी को देखेगा-गौरा सही, रेखा सही; उसकी अपनी पत्नी सही...
और यह मानव मन की प्रतिकूलता ही है कि उसके मानस-पटल पर रह-रहकर दो आकृतियाँ खिंचने लगीं-कभी उसकी पत्नी की, कभी हेमेन्द्र की...
उसने एकदम से उठाकर गिलास खाली कर दिया। आकृतियाँ कुछ फीकी हो गयीं, मिट गयीं। हाँ, यह ठीक है। आकृतियों की कोई ज़रूरत नहीं है। वह सोच रहा है, उतना ही काफ़ी है। देखना तो वह नहीं चाहता किसी को...पर क्या सोच रहा है? हाँ, वह कुछ ज़रूरी बात सोच रहा था, कुछ काम उसे करना है...
उसने फिर पुकारा, “बेयरा।”
दूसरे डबल के साथ उसने सोडा भी लिया। फिर बेयरा से लिखने का कागज़ सामने रखकर वह उसकी चिकनी सफ़ेद सतह को देखता हुआ घूँट-घूँट ह्विस्की पीता रहा, थोड़ी देर बाद उसने जेब से कलम निकाल कर पत्र लिखना शुरू किया-हेमेन्द्र को।
लेकिन सम्बोधन लिखकर ही वह रुक गया। क्या लिखे, कैसे लिखे? इतने वर्षों में कभी तो उसने हेमेन्द्र को कुछ लिखा नहीं...उसने सिगरेट सुलगा कर लम्बा कश लिया, धुएँ के छल्ले बनाने के लिए ठोड़ी ऊँची उठाकर मुँह गोल करना चाहा पर ओठ जैसे अवश हो रहे थे, मुँह के आसपास की पेशियाँ उसका आदेश नहीं मान रही थीं और ऊपर के ओठ के सिरे पर एक अजीब फड़कन होने लगी थी जिसे वह किसी तरह नहीं रोक पा रहा था।
हेमेन्द्र को क्या उसकी याद होगी? उस मलय स्त्री के आलिंगनों में वह सब भूल गया होगा...पर स्त्रियाँ तो हेमेन्द्र को अच्छी नहीं लगती थीं-वह स्त्री क्या उसे छोड़ न गयी होगी? वह तो एंग्लो-मलय थी न-उसके और भी प्रेमी ज़रूर रहे होंगे...
न, हेमेन्द्र को उसकी याद बिलकुल न होगी। क्या चन्द्रमाधव और क्या-कोई भी...
पर चन्द्रमाधव ही क्यों? नाम से लिखना क्या ज़रूरी है? बल्कि बगैर नाम के पत्र लिखने से शायद उसका महत्त्व बढ़ जाये-क्योंकि किसी नाम के साथ हेमेन्द्र के जो पूर्वग्रह होंगे उनसे बचाव हो जाएगा...
वह जल्दी-जल्दी लिखने लगा। समाप्त करके उसने मानो अपने को ही सम्बोधन करके कहा, “वाह, मेरे दोस्त, जर्नलिस्ट चन्द्र, यू' र ए ग्रेट मैन।...”
सहसा उसने जाना, बारिश बड़े जोर से होने लगी। उसने पैड में से चिट्ठी के पन्ने अलग करके सफ़ाई से तह किये और भीतर की जेब में रख लिए; फिर बेयरे को बुलाकर खाने का आर्डर दे दिया।
डैम ऑल विमेन...नहीं, सबको नहीं, केवल उन्हें जिन्हें तबीयत माँगती है; तबीयत यानी वांछा की एक गरम लपलपाती जीभ...रॉटन मिडल क्लास विमेन-दबी वासनाओं की पुतली, मक्कार, बीमार, मर्दखोर औरतें-मर्द के खिलाफ़ सब एक, जैसे फन्दे फैलाये ठगों का गिरोह...ठीक कहते हैं कम्युनिस्ट, इस भद्रवर्ग को मटियामेट किये बिना स्वस्थ सामाजिक सम्बन्ध हो ही नहीं सकते...
× × ×
अपने जीवन में पहली बार गौरा ने एक पत्र लिखकर फाड़ा; लगभग वही दुबारा लिखा और दुबारा फाड़ दिया। तीसरी बार उसने केवल तीन पंक्तियों का पत्र लिखा; उसे सामने रखकर बहुत देर तक देखती रही। फिर उसने धीरे-धीरे उसे भी चार टुकड़े करके नीचे गिरा दिया। मेज़ पर से लिखाई का सामान इधर-उधर ठेलकर उस पर बाँहें रख उन पर सिर टेक कर बैठ गयी।
काफ़ी देर बाद उसने सिर उठा कर नीचे पड़े कागज़ के टुकड़ों की ओर देखा; पंखे की हवा में दो-एक टुकड़े फड़फड़ा रहे थे, एक पर लिखे हुए दो शब्द कभी दीख जाते, कभी छिप जातेः “मेरे भुवन दा”...गौरा शिथिल भाव से उठी, टुकड़ों को समेट कर छोटी-छोटी चिन्दियाँ कर उसने टोकरी में डाल दी, फिर कमरे में टहलने लगी।
कुछ देर बाद किसी ने दरवाजे पर हलके हाथ से दस्तक दी। गौरा ने किवाड़ खोले; एक चपरासी ने एक पैकेट उसे दिया और कहा, “मेम सा'ब ने भेजा है वाई. डब्लू. से-”
गौरा ने ले लिया, कहा, “अच्छा। हमारा सलाम कह देना।” दरवाज़ा फिर बन्दकर के उसने पैकेट खोला : हलके रंगों की काँच की दो दर्जन चूड़ियाँ थी।
गौरा स्थिर दृष्टि से उन्हें देखती रही। सुन्दर चूड़ियाँ थी। थोड़ी देर बाद गौरा ने उन्हें मेज़ पर रख दिया और फिर टहलने लगी। टहलते-टहलते वह रुकी, दो चूड़ियाँ उठाकर उसने बायें हाथ में पहन ली, बाकी फिर पैकेट में लपेट दी।
थोड़ी देर में पिता बाहर से आये तो गौरा ने कहा, “पापा, मसूरी वापस कब चलेंगे?”
“अब तो एक बारिश हो गयी-अब-”
“नहीं, चलिए-आज ही चलिए-”
“अच्छा, तुम्हारी माँ तो खुश ही होंगी-सामान ठीक कर लो-मेरा तो ठीक ही है, तुम्हारे ही सामान की बात है।”
× × ×
रेखा ने भी भुवन को एक पत्र लिखा पर उसे फाड़ फेंकने की बजाय अधूरा छोड़ दिया, और निश्चय किया कि वह उसे भेजेगी नहीं। उसे सहसा लगा कि पत्र में लिखने को कुछ नहीं है क्योंकि बहुत अधिक कुछ है; अगर वह सब कहने बैठ ही जाएगी, तो फिर रुक नहीं सकेगी, और उधर भुवन का काम असम्भव हो जाएगा...पत्र में जान-बूझकर उसने अपनी बातें न कहकर इधर-उधर की कहना आरम्भ किया था, गौरा से भेंट की बात लिखने लगी थी पर उसी के अध-बीच में रुक गयी थी। नहीं, गौरा की बात वह भुवन को नहीं लिखेगी। भुवन का मन वह नहीं जानती, लेकिन गौरा का...भुवन गौरा का मन जानता है कि नहीं, यह भी वह नहीं जानती पर जहाँ भी गहरा कुछ, मूल्यवान् कुछ, आलोकमय कुछ हो, वहाँ दबे-पाँव ही जाना चाहिए, वह कहीं हस्तक्षेप नहीं करना चाहती, कुछ बिगाड़ना नहीं चाहती...नदी में द्वीप तिरते हैं टिमटिमाते हुए, उन्हें बहने दो अपनी नियति की ओर, अपनी निष्पत्ति की ओर, नदी के पानी को वह आलोड़ित नहीं करेगी। वह केवल अपना मन जानती है, अपना समर्पित विह्वल, एकोन्मुख, आहत मन : उसे वह भुवन तक प्रेषित भी कर सकती है, पर नहीं-भुवन से उसने कहा था, वह अपने स्वस्थ और स्वाधीन पहलू से ही उसे प्यार करेगी, और गौरा से उसने कहा है...पर यह कैसे सम्भव है कि एक साथ ही समूचे व्यक्तित्व से भी प्यार किया जाए और उसके केवल एक अंग से भी? वह सबकी सब समर्पित है, स्वस्थ भी और आहत भी-बल्कि समर्पण में ही तो वह स्वस्थ है, अविकल, है, बन्धन-मुक्त है...भुवन, भुवन, मेरे भुवन, मेरे मालिक...
वह घूमने जाएगी। जमना की रेती में-जहाँ बैठकर भुवन ने उसका बालू का घर बनाया था, बारिश से रेत जम गयी होगी, वहाँ बैठ कर वह साँझ घिरती देखेगी : दिल्ली की साँझ तुलियन की नहीं है, पर तारे वही होंगे; उन्हें देखते वह अपने को मिटा दे सकेगी, उनकी टिमटिमाहट में वह सिहरन पा सकेगी जो भुवन का आत्म-विस्मृत स्पर्श...रेखा सहसा सिहर गयी, कुरसी पर उसने सिर पीछे टेक दिया, आँखें बन्द कर लीं, शरीर को छोड़ दिया। ऐसे ही भुवन ने उसे पहले देखा था लखनऊ में; क्यों नहीं वह आगे बढ़कर उसकी पलकों और उठे हुए ओठों को छू सकता-क्यों वह दिल्ली में है, छिपकर 'मेन ओनली' पढ़ने वाली स्त्रियों के इस बोर्डिंग में, भीड़-भड़क्के की इस दिल्ली में, चन्द्रमाधव की दिल्ली में और-और हेमेन्द्र की दिल्ली में...
रेखा उठ गयी-उठकर लाउंज में जा बैठी, दैनिक अखबार उठाये और 'वांटेड' के कालम देखने लगी।
× × ×
चन्द्रमाधव अगर देख सकता कि मलय में उस समय क्या स्थिति है, और हेमेन्द्र क्या सोच रहा है या कर रहा है, तो कदाचित् पत्र लिखने की बात उसके मन में न उठती। या क्या जाने फिर भी उठती बल्कि उसमें लिखने के लिए और भी बातें उसे सूझती, क्योंकि रेखा के प्रति एक सर्बुथा निर्बद्धि आक्रोश उसके भीतर उमड़ता आ रहा था। यों इसे वह स्वयं देख रहा हो या स्वीकार कर रहा हो, ऐसा नहीं था, उसके सामने वह स्त्री जाति के प्रति एक घृणा या प्रतिहिंसा के रूप में ही आया था, पर भीतर-ही-भीतर था वह केन्द्रित और एकोन्मुख : या अधिक-से-अधिक यह कहा जा सकता है कि उसके बिखरे हुए झाग भुवन पर भी आ पड़ते थे-पर भुवन पर उसके द्वेष का उसे बोध था, इसलिए उसे इसी का प्रक्षेपण नहीं माना जा सकता...
मलय में तनाव क्रमशः बढ़ रहा था; और हेमेन्द्र की अंग्रेज कम्पनी ने उधर अपना काम समेटना आरम्भ कर दिया था, हेमेन्द्र बदली पर उत्तर-पश्चिमी अफ्रीका में कहीं जा रहा था, जहाँ कम्पनी का कारोबार फैला था; मलय की बात और थी, पर वहाँ के सर्वथा गोरे समाज में रह सकने के लिए स्थिति में परिवर्तन आवश्यक था-जिस समय चन्द्र ने हेमेन्द्र को पत्र लिखा उस समय हेमेन्द्र दिल्ली में किसी वकील को लिखे हुए अपने पत्र के उत्तर की प्रतीक्षा कर रहा था, जिस में तलाक की व्यवस्था के सम्बन्ध में पूछा गया था, ताकि वह अफ्रीका जाये तो अपनी विवाहिता पत्नी को साथ ले जा सके। हेमेन्द्र ने यह भी लिखा था कि आवश्यक होने पर वह भारत भी आ सकता है-यदि उससे जल्दी निपटारे की कोई सूरत न निकल आये।
जिस दिन उसने रेखा और गौरा की भेंट करायी थी, उसके दूसरे दिन सवेरे चन्द्र फीका मुँह और झल्लायी हुई तबीयत लेकर उठा; बड़ी अनिच्छापूर्वक मुँह-हाथ धोकर चाय पीने बैठा तो उबकाई आने लगी; थोड़ा लिवर साल्ट खाकर वह फिर सो गया। तीसरे पहर उठकर उसने हजामत बनायी, नहाया; उससे तबीयत कुछ सुधरी पर 'मूड' वैसा ही चिड़चिड़ा और हिंस्र बना रहा। शाम को सिनेमा देखने से भी कोई फर्क नहीं हुआ; दूसरे दिन वही हालत रही। तीसरे दिन शाम को उसने तय किया कि गौरा से मिलने जाएगा, शायद उसे घूमने ले जाएगा या उससे संगीत सुनेगा-तबला नहीं, सितार या बेला या कुछ और। पर वहाँ पहुँचकर देखा ताला बन्द है; नौकर ने बताया कि गौरा पिता के साथ मसूरी चली गयी है। चन्द्र का वह जिघाँसु मूड फिर लौट आया; कुछ बियर पीने का संकल्प करके वह कनाट प्लेस की ओर चल पड़ा...साँझ को वह आधे मन से रेखा को देखने पहुँचा; वहाँ भी जब मालूम हुआ कि रेखा नहीं है तब उसे तसल्ली ही हुई। रात को फिर वह कनाट प्लेस पहुँच गया; भटकते हुए उसे दो-तीन पत्रकार बन्धु मिल गये और उनके साथ वह फिर पीने बैठ गया। तीन दिन बाद रेखा से मिले बिना ही वह लखनऊ लौट गया। स्टेशन पर उसे छोड़ने पत्रकार बिरादरी के चार-छः आदमी गये थे, एक ने फ़ोटो भी ले लिया, उसे यह सब अच्छा लगा; गाड़ी में बैठा तो दिल्ली के अनुभवों का कसैला स्वाद उसके मुँह में नहीं था, और यह भी वह भूल गया था कि लखनऊ में, जहाँ वह जा रहा है, वहाँ उसकी पत्नी और बच्चे या तो आ गये होंगे या आनेवाले होंगे।
अवध की शामें मशहूर हैं, लेकिन हज़रतगंज में शाम मानो होती नहीं, दिन ढलता है तो रात होती है। या शाम अगर होती है तो अवध की नहीं होती-कहीं की भी नहीं होती, क्योंकि उसमें देश का, प्रकृति का, कोई स्थान नहीं होता, वह इनसान की बनायी हुई होती है : रंगीन बत्तियाँ, चमकीले झीने कपड़े, प्लास्टिक के थैली-बटुए, किरमिची ओठ, कमान-सी मूछों पर तिरछे टिके हुए और ऊपर से रिकाबी की तरह चपटे फेल्ट हैट...और राह चलते आदमी जिनके सामने बौने लगने लगें, ऐसे बड़े-बड़े सिनेमाई पोस्टरों वाले चेहरे-कितना छोटा यथार्थ मानव, कितने बड़े-बड़े सिनेमाई हीरो-अगर लोग सिनेमा के छाया-रूपों के सुख-दुःख के सामने अपना सुख-दुःख भूल जाते हैं तो क्या अचम्भा, उन छाया-रूपों के स्रष्टा एक्टर-एक्ट्रेसों के सच्चे या कल्पित रूमानी प्रेम-वृत्तान्तों में अपनी यथार्थ परिधि के स्नेह-वात्सल्य की अनदेखी कर जाते हैं तो क्या दोष...यथार्थ है ही छोटा और फीका, और छाया कितनी बड़ी है, कितनी रंगीन, कितनी रसीली...
काफ़ी हाउस की काफ़ी न मालूम गोमती के कीचड़ से बनने लगी है-उसमें कोई जायका नहीं है। है तो कुछ मिट्टी का, पर नहीं, जली हुई मिट्टी का है। अधिक तपे हुए आँवे में जो ईंटें जलकर काली हो जाती हैं, उन्हें पीस कर कहवा बनायें तो शायद...चन्द्र का जी होता, काफ़ी फ़र्श पर थूक दे, पर जैसे-तैसे वह उसे गील लेता; फिर उस घूँट का उत्तर-स्वाद धोने के लिए दूसरा घूँट भरता और उसे भी गील लेता...
अब वह काफ़ी हाउस दो बार नहीं आता था, एक ही बार शाम को आता था, पर अब बैठता था बहुत देर तक; खाने के वक़्त ही घर पहुँचता था-कभी और भी देर से-और सीधा सोने चला जाता था। स्त्री साहस करके खाने को पूछती थी तो वह अनमना-सा इनकार कर देता था; उसके स्वर में जो प्राणहीन विनय होता था उसे लक्ष्य करके पत्नी मानो बुझ जाती थी और आग्रह नहीं करती थी। हाँ, जब वह खाट पर लेट जाता, तब कभी-कभी वह जाकर उसके जूते-मोजे खोल देती, कभी हिम्मत करके गले से टाई भी उतार लेती, पाजामा उसके पास लाकर रख देती और धीरे से कहती, “कपड़े तो बदल लेते-”
पहले दो-एक बार उसने बेटी को भेजा था कि बाबू जी के जूते खोल दे। पर फिर उसकी समझ में आ गया था कि बच्चों को देखकर उसे और भी झल्लाहट होती है; तब से वह शाम को जहाँ तक हो सके बच्चों को उसकी नज़र से दूर रखती थी, स्वयं आती थी। चन्द्र उसकी उन सेवाओं को बिलकुल उदासीन भाव से स्वीकार कर लेता था। कभी जब वह टाई खोल कर उसे कालर से निकालने के लिए उसके ऊपर झुकती तो उसकी कमीज़ के गले के भीतर से उसके उरोजों का जो थोड़ा-सा हिस्सा उसे दीख जाता उसे वह स्थिर दृष्टि से देखता रहता, कभी-कभी उस दृष्टि को लक्ष्य करके वह लजा जाती; कौतूहल से चन्द्र सोचता कि अगर वह नौकरानी होती, या कोई और स्त्री होती, तो चन्द्र उससे छेड़-छाड़ करना चाहता और शायद कमीज़ का गला पकड़ कर अपनी ओर खींच लेता, पर वह तो उसकी स्त्री थी जो उसके खींचने पर झुक जाएगी, हाथ बढ़ाने पर सहलेगी, चौंकेगी नहीं, विरोध नहीं करेगी, निषिद्ध के रोमांचकारी रस से उमड़े-सिमटेगी नहीं...वह वैसा ही स्थिर देखता रह जाता, पर उसकी आँखों का केन्द्रित भाव बिखर जाता, फिर वह एक करवट हो जाता, पत्नी चली जाती तो उठकर कपड़े बदल लेता...
बरसात जमकर शुरू हो गयी थी। पार्कों की स्वैरिणी हरियाली बढ़कर सड़क की पटरियों पर भी अधिकार जमाने लगी थी; संकर स्थापत्य की नवाबी इमारतों की छोटी-छोटी अलंकृतियाँ उसमें ऐसे खो गयी थीं जैसे किसी बग़िया में छोटी-छोटी फुलवाड़ियाँ। चन्द्र काफ़ी हाउस में बैठकर बारिश का शब्द सुना करता; पक्की सड़क पर बड़ी-बड़ी बूँदों की कोड़ें जैसी मार का स्वर न जाने क्यों उसकी पहले से तनी हुई शिराओं में एक नयी उत्तेजना भर देता : वह लगातार एक के बाद एक कई सिगरेट फूँक डालता, फिर कभी-कभी अपनी मेज़ से उठकर दूसरी मेज़ पर चला जाता जहाँ दो-चार लेखक-पत्रकार मिश्र जाति के लोग प्रायः सिगार पीते और बहस करते बैठे रहते थे : एक अंग्रेजी के लेक्चरर जिन्होंने कभी कुछ लिखा नहीं था पर अपनी सर्वसंहारी मौखिक आलोचनाओं के कारण प्रगतिशील लेखक समुदाय के अगुआ माने जाते थे; एक उर्दू के शायर, जो प्रायः नौ-साढ़े नौ बजे तक वहीं जमे रहते थे क्योंकि उस समय कुछ गोरी लड़कियाँ डिनर के या सिनेमा के बाद काफ़ी पीने वहाँ आया करती थीं, उनके जाते ही शायर साहब भी माँगा हुआ सिगार चुक जाने के कारण जेब से बीड़ी निकाल कर सुलगाते और उठकर चल देते; स्थानीय हिन्दी दैनिक के एक सहायक सम्पादक, जो बराबर इस मत का प्रचार करते थे कि युद्ध में इंग्लैण्ड हार जाएगा और उसके बाद लड़ाई में कमजोर हुए जर्मनी को भी हरा कर रूस भारत को आजाद करेगा; दो-एक और ऐसे व्यक्ति, जिनके बारे में चन्द्र यही जानता था कि वे 'प्रमुख लिटरेरी आदमी' हैं, पर किस लिटरेरी क्षेत्र में प्रमुख हैं यह नहीं, न किसी की किसी प्रकाशित रचना का जिक्र कभी हुआ था...यों शीघ्र ही एक विराट् विश्व-लेखक-सम्मेलन करने की बात प्रायः हुआ करती थी जिसमें भारत के लेखक तो ख़ैर होंगे ही, रूस से भी डेलीगेशन बुलाया जाएगा...इस दल में बैठकर चन्द्र कई एक नये शब्द और पद सीख गया था, और कई परिचित शब्दों का अर्थ-विपर्यय भी उसने अपनी बोलचाल में लक्ष्य किया था। और यह भी वह देख रहा था कि वह अब व्यक्तियों की बात सोचता है तो विशिष्ट इकाइयों के रूप में कदाचित् ही; सदैव कोई जातिवाचक विशेषण उसके साथ आता ही है-यहाँ तक कि उसे लगता, स्वयं अपने को वह 'मैं, चन्द्र' न कह कर कहीं 'वह बुर्जुआ पत्रकार चन्द्रमाधव' न कहने लग जाये! कभी वह उसे अच्छा भी लगता-इस प्रकार वह वैयक्तिकता से परे जा सकता है जो सिद्धि है; निर्वैयक्तिक हो सकना, निवैयक्तिक रूप से घृणा कर सकना, बिना दर्द के सब कुछ का तिरस्कार कर सकना-कितना अच्छा होगा वह! तटस्थता-संन्यास-केवल अलग, उदासीन हो जाना-उहुँक, वह गलत है, संन्यास और निवृत्ति-मार्ग केवल सामन्तवादी परम्परा की एक विकृति है, कर्मच्युति का एक बहाना, एक प्रकार का नशा; इनसान एक्टिविस्ट हो, पर निर्वैयक्तिक; घृणा करे, तिरस्कार करे, एक निर्वैयक्तिक रेवोल्यूशनरी घृणा के साथ-वर्ग-मुक्त हो, पीड़ा-मुक्त हो, इस डिकेंडेंट, रुग्ण, ह्रासशील समाज से और स्वयं अपने-आप से बाहर होकर इसके सब मानों-प्रमाणों को तोड़ गिराये, इसकी मान्यताओं को अमान्य कर दे...हो, किन्तु व्यक्ति न हो, मनुष्य न हो, एक शक्ति हो, एक नीति मुक्त, स्वैर-तन्त्र, सहस्र-शीश, कोटि-बाहु, अजस्र-वीर्य जैविक प्रक्रिया का एक स्फुरण...
कभी वह उठकर बाहर निकल आता, क्षण-भर बारिश को देखता जिसकी बूँदें आलोक के वृत्तों में आकर थोड़ी देर के लिए चमक जातीं और फिर अँधेरे में खो जातीं, मानो वह बारिश उसी वृत्त के एक सिरे पर न-कुछ से पैदा होती हो और दूसरे सिरे पर न-कुछ में विलीन हो जाती हो-न ऊपर बादल से उसका कोई सम्बन्ध हो, न नीचे पृथ्वी से...फिर वह फेल्ट उतार कर कोट में छिपा लेता; मुँह को बूँदों की सूक्ष्म बरछियों के प्रति समर्पित कर देता, और बारिश में ही घर की ओर चल पड़ता।
× × ×
रात के दस बजे थे। दिन-भर वह घर नहीं गया था। भीगता हुआ वह घर पहुँचा, बच्चे तो सो चुके थे, सोने के कमरे में प्रकाश था और वहाँ उसकी पत्नी सिलाई लिये बैठी थी। उसे आता देखकर वह उठी; धीरे से बोली, “हाय, सारे कपड़े भीग गये”, और लपक कर तौलिया, एक धोती, कमीज़, पाजामा ले आयी। दबे स्वर में, यथासम्भव उलाहने का भाव उसमें न आने देने का यत्न करते हुए, उसने कहा, “रोज भीग आते हैं। कहीं सर्दी-वर्दी लग गयी तो?”
चन्द्र कपड़ों-वपड़ों से परे हट कर तिपाई पर हाथ और कमर टेकता हुआ बोला, “तो क्या, घर रहूँगा तो तुम्हें सेवा का मौका मिलेगा।”
पत्नी ने अनिश्चय से उसके चेहरे की ओर देखा; क्या वह व्यंग्य है या हँसी? पर चन्द्र का चेहरा सूना था, दोनों में से कोई भाव उस पर नहीं था। वह साहस करके थोड़ा मुस्करायी और बोली, “न, सेवा ऐसे भी जितनी चाहिए कराइये।” फिर रुककर बोली, “अच्छा कपड़े तो बदल लीजिए, फिर मैं खाना लाऊँ।”
“नहीं कौशल्या, भूख नहीं है। और मैं थक भी गया हूँ।” कहते-कहते उसने हलकी-सी जँभाई ली।
कौशल्या बढ़कर उसके जूते खोलने लगी। मोजे गीले थे, आसानी से न उतरे, उस ने कहा, “ठीक से बैठ जाइये तो उतार लूँ।” चन्द्र ने बैठ कर पैर उठाये तो उसने उकडूँ बैठ कर पैर गोदी में लिया और मोज़ा उतार कर पंजे हाथों से मल दिये। जूते-मोजे॓ एक ओर रखकर वह तौलिया लेकर आयी; चन्द्र को निश्चल देखकर उसने तौलिया अपने कन्धे पर डाला और चन्द्र की टाई खोल डाली। क्षण-भर अनिश्चित खड़ी रह कर मानो साहस बटोर कर उसने पैंट की पेटी का बकसुआ खोल दिया, फिर कमीज़ खींच कर बाहर निकाल दी। फिर बोली, “अच्छा लीजिए, अब जल्दी बदल डालिए।” और जाने को मुड़ी।
चन्द्र उसे स्थिर दृष्टि से देख रहा था। कौशल्या थोड़ी-सी सिमट गयी। चन्द्र ने कहा, “तुम जा कहाँ रही हो?” वह कहने को हुई, “आप कपड़े-” पर बीच में ही रुक गयी, बोली, “आप की डाक ले आऊँ।”
चन्द्र तनिक-सा मुस्कराया, फिर कपड़े बदलने लगा। धोती की तहमद लपेट ली, बदन रगड़ कर सूखी कमीज़ पहन ली; फिर खाट पर बैठ गया। कौशल्या ने आकर कहा, “यह लीजिए।”
दो चिट्ठियाँ थीं। एक पर टाइप किया पता था-उसे सवेरे भी देखा जा सकता है। दूसरी-पर यह क्या? उस पर चन्द्र की ही लिखावट थी। सात-आठ दिन पहले उसने दिल्ली रेखा को पत्र लिखा था वही लौटकर आया था। 'एड्रेसी लेफ्ट'...तो रेखा वहाँ नहीं है, और डाक आगे भेजने के लिए पता भी नहीं छोड़ गयी है, न उसे सूचना दे गयी है...क्षण-भर वह सूना-सा ताकता रहा।
कौशल्या ने पूछा, “किस की चिट्ठी है?”
चन्द्र अनजाने ही कहने को था, “मेरी” पर रुक गया; स्वर में लापरवाही लाता हुआ बोला, “ऊँह, यों ही।” दोनों पत्रों को उसने तकिये के नीचे ठेल दिया; आँखें कौशल्या पर जमायी और पूछा, “तुम नहीं खाओगी?”
कौशल्या क्षण-भर अनिश्चित रही; उत्तर देने को थी कि चन्द्र ने हाथ बढ़ा, उसकी कमीज़ का गला पकड़ कर अपनी ओर खींच लिया। खींचने से दो-तीन टीप-बटन खुल गये, पर चन्द्र की पकड़ नहीं छूटी; कौशल्या खिंच आयी; चन्द्र ने सहसा खड़े होते-होते दूसरी बाँह उसके सिर के पीछे ले जाते हुए उसे और निकट खींच लिया; पास आते चेहरे पर उसने देखा, कुछ विस्मय, कुछ अचकचाहट, कुछ प्रतीक्षा, ओठों के अधखुलेपन में इन सब के मिश्रण से ऊपर भी एक अकथ्य भाव; इससे आगे वह नहीं देख सका क्योंकि ओठों के छूते-न-छूते कौशल्या ने हाथ बढ़ा कर बत्ती बुझा दी थी, चन्द्र ने उसकी काँपती-सी देह को खींचकर चारपाई पर गिरा लिया और एक क्रूर चुम्बन से उसके ओठ कुचल दिये-अँधेरे में कौशल्या की देह का कम्पन सहसा स्थिर हो आया-उन ओठों में वासना थी, सूखे गर्म ओठ, पुरुष के ओठ पर प्रेमी के नहीं; प्यार नहीं, बीते हुए स्मरणाश्रित चुम्बनों की गरम-गरम राख...
उसकी शिथिल देह पर भार दिये-दिये ही चन्द्र जब सो गया, तब भी वह निश्चल पड़ी रही, थोड़ी देर बाद जब वह करवट लेकर उससे अलग हो गया तब वह धीरे-से उठी, अपने कपड़े उसने ठीक किये, फिर दबे पाँव निकल कर दूसरे कमरे में चली गयी। साधारणतया वह उसी कमरे में दूसरी चारपाई पर सोती थी; पर सुबह जब चन्द्र उठेगा तब उसके द्वारा देखा जाना वह नहीं चाहती; वह जानती है कि उस समय उसे वहाँ पाकर चन्द्र सहसा अजनबी आँखों से उसे देखेगा और फिर उनमें घृणा घनी हो आएगी...यह-यह अपने-आप में कुछ भी है या नहीं वह नहीं जानती; प्यार होता तो अवश्य होता, पर जब नहीं है तो यही बहुत है; उस घृणा के साथ तो यह भी ज़हर हो जाएगा...ऐसे ही सही, सवेरे चन्द्र उठे तो उसे न देखे, न घृणा करे। राख ही सही, पर घृणा की साँस उसे भी उड़ा न दे...