रेखा: भाग 2 / नदी के द्वीप / अज्ञेय
पत्र को बन्द कर देने से पहले बहुत देर तक रेखा देखती रही, यद्यपि था वह मुश्किल से आधे पृष्ठ का। लेकिन उसकी आँखें पत्र के शब्दों पर नहीं टिकी थी, वरन् उसके आशय पर; और पत्र का आशय उसके शब्दों के आशय से भिन्न कुछ गहरा कुछ था, जिसके कारण उसकी दृष्टि दूर कहीं खो गयी थी। जहाँ वह बैठी थी, वहाँ उसके आगे कुछ बादाम के पेड़ थे, उससे आगे मौसमी विलायती फूलों की क्यारी, उसके बाद फिर पेड़, दूर पर पहाड़ों की कतार जो घनी बदली के कारण डरावनी हो आयी थी। पत्र पर टिकी हुई आँखें मानो इस सारे दृश्य को भी अपने में समा ले रही थीं और कुछ नहीं देख रही थीं। यह कश्मीर था-उसके पूर्वजों का कश्मीर, इसलिए उसका कश्मीर, जिसका सब-कुछ उसका ग़ैर था। जलवायु, वनस्पति, आकाश, लोग, यहाँ तक कि सर्वत्र बिखरे हुए उसके नाते-रिश्तेदार भी, जिनके नाम भी वह नहीं जानती थी, चेहरे तो दूर, और जिनमें से अधिकांश को उसके अस्तित्व का भी पता नहीं था...कितना अजनबी, अकेला और ग़ैर हो सकता है व्यक्ति, जब यह अपने घर में अजनबी होता है...लेकिन यही अच्छा है : क्योंकि इस अजनबीपन में कोई भी वास्तव में ग़ैर नहीं है; वह एक द्वीप है जिसके चारों ओर नदी का प्रवाह है; उसमें और द्वीप हैं; कहीं कोई साझा सीमान्त नहीं है, किसी से कोई सीधा सम्पर्क नहीं, केवल नदी के माध्यम से, नदी जो माँ है, धारयित्री है, तारयित्री है, जो अन्त में एक दिन आप्लवन में सबको समा लेगी...
नीचे कहीं वह रास्ता है, जिससे दो-ढाई महीने पहले वह पहलगाँव गयी थी, तुलियन गयी थी। क्या सचमुच गयी थी? लेकिन नहीं, यह सन्देह फिर कभी उसके मन में नहीं उठा है। अयथार्थ को आत्म-समर्पण करने का जो डर कभी उसने जाना था, जो कभी उसने जीत लिया था, वह फिर कभी नहीं जागा है; वह समर्पित है और जिसके प्रति समर्पित है वह उसकी धमनियों में स्पन्दित...”मैं फुलफ़िल्ड हूँ”, इस अनुभूति की दीप्ति अब भी उसके अन्तःकरण को आलोकित किये है, और कभी बात करते-करते या बैठे-बैठे इसकी कान्ति सहसा उसके चेहरे पर फैल जाती है तो बूढ़ी मिसेज़ ग्रीव्ज़ चकित होकर देखने लगती है, और ख़ुश होती है कि उसकी संगिनी, सहायिका और प्रबन्धकर्त्री में ऐसी आध्यात्मिक कान्ति है...।
एंजेला ग्रीव्ज़ एक पादरी की विधवा है; पर पादरी कहने से जैसे स्वल्प-साधन, बहुधन्धी, सेवा-रत व्यक्ति का चित्र सामने आता है, वैसे मिस्टर ग्रीव्ज़ भी नहीं थे, और उनकी विधवा तो नहीं ही है। ग्रीव्ज़ ने सेवा बहुत की, पर साधन भी काफ़ी जुटाये और जायदाद तो बहुत जुटा ली। फल उपजाने वाले कुल से आकर यहाँ बाग़वानी के लिए उत्तम ज़मीन देखकर जितना ध्यान उसने 'आत्माओं की खेती' में लगाया उतना ही फलों की खेती में भी, और अब श्रीनगर में बँगले के अलावा आस-पास कई बग़ीचों और बंगलों की देख-भाल निस्सन्तान विधवा एंजेला के जिम्मे है। उसी के विज्ञापन के जवाब में रेखा यहाँ आयी है और यद्यपि उसका पद है 'कम्पैनियन' अर्थात् संगिनी का, तथापि काम उसके नाना प्रकार के हैं और संग उसका कम ही होता है, क्योंकि एंजेला जब बाहर के बग़ीचों में जा रहती है तब उसे श्रीनगर छोड़ जाती है, और जब श्रीनगर जाती है तब उसे यहाँ पहुँचा कर एक-आध दिन काम समझा कर फिर छोड़ जाती है। एंजेला की उम्र साठ से ऊपर है पर उसका शरीर सीधा और फुर्तीला है, और बुद्धि बड़ी सजग; काम उसके लिए बहुत हैं पर वह हारती नहीं और कभी मानती नहीं कि वह थक गयी है-यद्यपि संगिनी की खोज मूलतः थकान का ही एक पर्याय है...।
सेब कच्चे ही तोड़ कर पेटियों में भर लिए गये हैं। पेड़ों पर बहुत थोड़ा फल है। कुछ को पकने पर तोड़ा जाएगा और श्रीनगर में ही बिकेगा क्योंकि बाहर भेजने लायक वह नहीं होता, कुछ जो अनन्तर उतारा जाएगा और जाड़ों तक बिकता रहेगा रेखा को काम विशेष नहीं है, एंजेला श्रीनगर में काम देखती है और वह यहाँ सवेरे बग़ीचे का एक चक्कर लगा लेती है, पैकिंग वग़ैरह के काम पर नज़र दौड़ा लेती है...और बाकी घर की ही देख-भाल करती है। काम विशेष नहीं है, उपस्थिति ही प्रयोजनीय है...।
वर्षा लगभग हो ली; पर बादल कभी-कभी घिर आते हैं और ठण्ड हो जाती है और यहाँ की वर्षा का कोई भरोसा भी नहीं, अगस्त के उत्तरार्द्ध में प्रायः बड़े जोरों का एक दौर आता है और कभी सितम्बर तक चला जाता है...काले बादलों के नीचे सारा दृश्य घुँट कर बन्द हो जाता है, पेड़ छोटे हो आते हैं, बँगला खिलौना-सा बन जाता है। मानो पूरा दृश्य अजायबघर के काँच के शो-केस में रखा हुआ एक मॉडल हो...केवल पहाड़ उभर कर बड़े भारी और तीखे हो आते हैं, जैसे आकाश के तेवर चढ़ गये हों, घनी काली भौंहें उभर-सिकुड़कर और भी काली हो गयी हों...फिर धूप कभी निकल आती है और सारा दृश्य खिल आता है, मधु-मक्खियाँ गुंजार करने लगती हैं, धूप के उजलेपन में अन्तर्हित एक ललाई उस तेज को मीठा कर देती है; उसकी चुनचुनाहट त्वचा को सुहानी लगती है और नाड़ियों में अलस तन्द्राभर जाती है...यह अलसाना भाव ही पहाड़ के शरदारम्भ का पहला और सबसे प्रीतिकर चिह्र होता है-सबसे प्रीतिकर भी, लेकिन साथ ही एक विशेष प्रकार की व्याकुलता लिये हुए...उस व्याकुलता को रेखा नाम देना नहीं चाहती; नाम देना आवश्यक भी नहीं है, क्योंकि धमनियों में उसकी अकुलाहट के साथ ही मन में जो विचार या वांछा-चित्र उठते हैं वे अपने-आप में सम्पूर्ण होते हैं। इस अर्थ में सम्पूर्ण कि समूचे अस्तित्व की माँगें उनमें अभिव्यक्ति पा लेती हैं...पहाड़ की पहली शरद का यह मदालस भाव अकेले अनुभव करने का नहीं है, क्योंकि वह मूलतः एक प्रतिकर्षित भाव नहीं है जैसी जाड़ों की ठिठुरन-सिकुड़न, न वैसा मुक्त विस्फूर्जित भाव है जैसा बरसात का उल्लास; वह मूलतः एक उन्मुख भाव है, अन्यापेक्षी भाव, जो दूसरे की उपस्थिति से ही रसावस्था तक पहुँचता है...
रेखा ने एक लम्बी साँस ली। दूसरे की उपस्थिति...तुलियन की चाँदनी झील के वक्ष को दुलराती हुई धुन्ध की बाँह, उसकी छाती को बहुत हलके गुदगुदाते सोनगाभा के फूल और वह स्निग्ध गरमाई जिसे वह नाम नहीं देगी, जिसका चित्र वह अपने आगे मूर्त्त नहीं करेगी...एक सिहरन-सी उसकी देह में दौड़ गयी, वह उठकर खड़ी हो गयी और पत्र को पढ़ती हुई चलने लगी; पर उठते ही उसे चक्कर-सा आने लगा, मतली होने लगी, आँखों के आगे अँधेरा-सा छा गया, चिट्ठी का सफेद कागज़ नीला हो गया और स्याह अक्षर हरे-सुनहले होकर मानो एक दूसरे से उलझते-लड़खड़ाते कभी पास कभी दूर होने लगे...वह उलटे पाँव चलकर हाथ से कुरसी टटोल कर फिर बैठ गयी; कड़े संकल्प से अपने को सँभाल कर उसने एक बार पत्र पूरा पढ़ डाला और फिर सफ़ाई से तीन तह कर के लिफ़ाफे में डाल कर बन्द कर दिया जिस पर पता पहले से लिखा था। फिर उसने पीठ और सिर पीछे टेक कर आँखें बन्द कर लीं, लिफ़ाफ़ा उसके हाथ से गोदी में झूल गया।
मेरे भुवन,
तुम्हें जब-तब पत्र लिखती रही हूँ-जान-बूझ कर देर-देर से; पर एक महत्त्व की बात फिर भी नहीं लिखी, क्योंकि ठीक जानती नहीं थी...अब लिखती हूँ-अब जानती हूँ, पर लिखने से पहले बहुत सोचा है कि लिखूँ या नहीं।
वह बीनकार-सर्जन वाली बात सच है, भुवन। मैं भगवान् का आशीर्वाद तुम्हारे लिए माँगती हूँ, और तुम्हारे चरण गोद में लेकर माथे से लगाती हूँ-उन्हीं के स्पर्श से वह आशीर्वाद मुझे भी घेर ले।
मुझे कुछ चाहिए नहीं भुवन, तुम्हें बताया इसलिए कि-वह भविष्य में मेरी आस्था है भुवन, और उसे तुम ने मुझे दिया है! अगर अब हम न मिले, तो भी वह भूलना मत।
रे.
थोड़ी देर बाद वह फिर उठी; धीरे-धीरे खड़ी हुई, दो-चार कदम चली, और फिर बग़ीचे के पार चल पड़ी। चिट्ठी किसी और को भी दी जा सकती थी, पर वह स्वयं ही जाएगी, स्वयं ही उसे बक्स में छोड़ेगी और इस निमित्त से थोड़ा टहलना भी हो जाएगा-बगीचे से निकल कर टेढ़ी-मेढ़ी सड़क से नीचे बड़ी सड़क तक, कुछ आगे गाँव के सिरे तक जहाँ लेटर-बक्स लगा है, फिर दूसरी ओर सड़क के मोड़ तक जहाँ से उपत्यका की चितकबरी ओढ़नी पर लगा हुआ नदी का बल खाता हुआ गोटा चमक जाता है-यद्यपि इस बदली में वह चमकेगा नहीं, सीसे-सा झलकेगा-जैसे बहुत-बहुत पुरानी सफ़ेद जरी हो...पुरानी तो है ही-न मालूम कितना पुराना गोटा है, और न मालूम उससे भी कितनी पुरानी यह धूसर ओढ़नी...रेखा को एक पंजाबी टप्पा याद आ गया, जो उसने घूमते हुए एक दिन किसी राह चलते बूढ़े सिख को गाते सुना था :
मेरा चोला लीराँ दा
इक वारी पा फेरा तक्क हाल फकीराँ दा !
(मेरा चोला चिथड़ों का है : एक बार इधर फेरा लगाकर इन फकीरों का हाल देख जाओ!)
चलते-चलते वह स्वयं भी धीरे-धीरे गुनगुनाने लगी; कुछ तो उसके सुर की, और कुछ अर्थ की करुणा ने सहसा उसे छा लिया कि वह मानो उसकी अपनी करुणा हो गयी, मानो अभी लम्बी तान के साथ उसके आँसू उमड़ आएँगे...लेकिन उमड़े नहीं, रेखा बीच-बीच में रुक-रुक कर गुनगुनाती रही “तक्क हाल फकीराँ दा...तक्क हाल फकीराँ दा...” और बढ़ती रही गन्तव्य की ओर।
× × ×
वकील से भेंट में ज्यादा समय नहीं लगा था; पर हेमेन्द्र के चेहरे पर जो कुटिल सन्तोष का भाव था, उसमें से एक झल्लाहट भी प्रकट हो रही थी। उसे क्या कहना था, वह अच्छी तरह जानता था, आने से पहले मलय में भी उसने कानूनी सलाह ले ली थी और दिल्ली के इस वकील से भी पत्र-व्यवहार कर लिया था; दूसरी ओर वकील भी तलाक़ के कानून का पारंगत था और उसे जो कहना था वह न केवल अच्छी तरह जानता था बल्कि साफ़ सुलझे, सान पर चढ़े हुए चाकू की तरह बेलाग फ़िकरों में कह भी सकता था। ऐसी भेंट का अपना एक रस होना चाहिए था, पर हेमेन्द्र की झल्लाहट की वजह दूसरी थी। वकील ने कहा था कि जहाँ तक तलाक़ की दरख़ास्त के कारणों की बात है, उचित कारण सब दूसरी तरफ़ हैं : न्यायतः रेखा ही दरख़ास्त दे सकती है क्योंकि उत्पीड़ित पक्ष वही है, और अगर वह नहीं देती तो उसकी मर्ज़ी है। पर हेमेन्द्र किसी तरह छुटकारा चाहता है, तो यही तरकीब हो सकती है कि वह धर्म-परिवर्तन कर ले और फिर रेखा से भी कहे, उसके इनकार करने पर तलाक की दरखास्त दे...यह बताकर उसने कहा था, “मैं मानकर चल रहा हूँ कि आप दोनों छुटकारा चाहते हैं, नहीं तो अगर वह न चाहती हों और धर्म-परिवर्तन करने को तैयार हों तो आप कुछ नहीं कर सकते-यानी ऐसे स्मूथली नहीं हो सकता-फिर तो आपको ऐसे आरोप उन पर लगाने पड़ेंगे जो सच होने पर भी कोई स्त्री आसानी से न मानेगी-और झूठ हो तब तो...और यह तो सवाल ही दूसरा है कि वह कितनी क्रूरता होगी-”
हाँ, वकील ने कोई मुरव्वत नहीं की थी-एकदम बेलाग बात की थी...वह ठीक ही था, पर यह पराधीनता उसे अखर रही थी। वह मनमानी का आदी है; इतनी छोटी-सी बात के लिए उसे रेखा का मुँह जोहना पड़ेगा-वह चाहेगी तो तलाक़ होगा, न चाहेगी तो नहीं-यह स्थिति उससे सही नहीं जा रही थी...रेखा बाधा नहीं देगी, वह जानता है; फिर उस सूरत में जब मुक्ति देने में उसे स्वयं भी तो मुक्ति मिलेगी-यद्यपि यह भी वह जानता है, रेखा को कानूनी मुक्ति की परवाह नहीं है, वह किसी भीतरी बन्धन से बद्ध या मुक्ति से मुक्त होगी; और वह अब भी अपने को इतना मुक्त समझती होगी कि कानून की बन्दिशों का बोझ उस पर न हो। यह सब ठीक है, पर क्यों वह रेखा पर निर्भर करने को लाचार है? इससे तो अच्छा होता कि वह यही कह कर तलाक़ माँगता कि रेखा दुराचारिणी है-वह उस हालत में भी सफ़ाई देने न आती अहंकारिणी, पर उसमें उसकी मुँहजोही तो न होती!
वह तो सचमुच वही करता। कुछ जब तोड़ना ही है, तो सीधे स्मैश करना चाहिए। यह क्या कि तोड़ना भी चाहो, और ढेला मारते भी डरो, गिराओ भी तो धीरे-धीरे कि चोट न आये? तोड़ना है, दो हथोड़ा-स्मैश! वकील ने कहा है कि रेखा को पत्र वही लिखेगा, और हेमेन्द्र से वायदा लिया है कि वह स्वयं कोई पत्र-व्यवहार नहीं करेगा, पर क्यों न वह रेखा को एक पत्र लिखे, साफ-साफ पता लगाते क्या देर लगेगी-लिख दे कि वकील ने ऐसा कहा है पर वह सोचता है कि सीधी साफ़ बात-पूछ ले कि क्या तुम सफ़ाई देने आओगी? वकील ने कहा था, क्रूरता होगी। सभी पुरुष-स्त्री क्रूर होते हैं-और सबसे क्रूर वे जो एक-दूसरे से शादी कर लेते हैं।
क्या जाने, रेखा भी शादी करना चाहे; पर यह विचार आते ही हेमेन्द्र ठिठक-सा गया-रेखा और शादी! एक विकृत मुस्कान उसके चेहरे पर फैल गयी। एक शादी का ही अनुभव उसके लिए काफ़ी होगा...प्यार? लेकिन रेखा के लिए पुरुष-मात्र ऐसा जहरीला जीव हो गया होगा-औरतों की बनावट ही ऐसी होती है, कि पुरुष से चोट खाकर वे सारी पुरुष जाति को बुरा समझ लेती हैं-उदार दृष्टि से तो सोच ही नहीं सकतीं, कि मर्द-मर्द में भेद भी हो सकता है, कि-
यहाँ आकर उसकी विचार-परम्परा टूट गयी। क्यों नहीं वह रेखा पर तरस खा सकता, करुणा कर सकता, क्यों नहीं उसे अपनी दया दे सकता? रेखा-उसके प्रेम-शरीर का एक मरा हुआ अवयव जिसे उसने काट दिया है-काट देने के बाद अवयव पर आक्रोश कैसा?
ख़ैर, वह रेखा को एक चिट्ठी तो लिखेगा ही, देखा जाएगा-करुणा करने के लिए सारा भविष्य पड़ा है!
× × ×
तुलियन से लौटकर भुवन फिर प्रयोगशाला में डूब गया था। यद्यपि यह डूबना पहले से कुछ भिन्न था; क्योंकि तुलियन के प्रयोगों को लेकर वह जब भी गणना करने बैठता, तो उन प्रयोगों से मिलने वाली बौद्धिक प्रेरणा ही नहीं, उनकी ओट में तुलियन का वह भावोन्माद भी झलक आता जिसे ओट से खींच कर सामने लाने का प्रयत्न उसने नहीं किया था; वह अनुभूतियों का एक संघट्ट, संवेदनाओं का एक घना सम्पुंजन था जिसे विश्लिष्ट करके देखना चाहना ही मानो बर्बरता थी-जिस तरह किसी हलकी गैस से भरे हुए गुब्बारे से लटक जाने पर गुरुत्वाकर्षण को काट कर मानव मानो भार-मुक्त हो जाता है-पृथ्वी पर पैर रख कर चलता भी है तो भार देकर नहीं चलता, वैसी ही उसकी अवस्था थी; वह अपनी सब चर्या पूरी करता था, पर मानो धरती पर पैरों की छाप डाले बिना : जैसे मानवी काया-पिंजर में बँधा कोई आकाशचारी देव-गन्धर्व...रेखा के दो-एक पत्र उसे आये थे, छोटे-छोटे, सूचनात्मक, जिनमें कभी एक-आध वाक्य अन्तरंग सम्बोधन का आ जाता तो आ जाता : उनसे वह भावोन्माद फिर भीतर ही भीतर पुष्ट हो जाता था, उभर कर सतह पर नहीं आता था। भुवन ने अधिक पत्र नहीं माँगे, बल्कि अपनी ओर से भी विशेष कुछ नहीं लिखा, वैसे ही सूचनात्मक पत्र...हाँ, रेखा की तरह उसने भी जब-तब कागज़ पर अपने विचार लिख कर रख छोड़ना आरम्भ कर दिया था-वह भी वैसा इरादा करके नहीं, रेखा के उदाहरण का ध्यान करके भी नहीं, लगभग अनजाने ही; उसकी वैज्ञानिक दीक्षा के कारण अन्तर इतना था कि अलग-अलग परचों की बजाय उसने एक कापी रख ली थी। यह जिज्ञासा भी उसके मन में कभी नहीं हुई कि क्या रेखा भी अभी वैसे कुछ लिखकर रखती होगी, या कि क्या वे विचार और भावनाएँ कभी वह देख-पढ़ सकेगा...लेकिन ऐसा वह क्यों, कैसे हो गया वह स्वयं नहीं समझ पाता था-जीवन के प्रति ऐसा स्वीकार भाव उसमें कहाँ से आया? चन्द्रमाधव की भाँति वह जीवन को नोचने-झँझोड़ने का आदी तो नहीं था; बछड़े की देखा-देखी नृशंस ग्वाले जैसे गाय के थनों में हुचका मार कर दूध की अन्तिम बूँद निकाल लेना चाहते हैं, जीवन की कामधेनु को वैसे दुह लेने की प्रवृति उसकी नहीं थी; पर ऐसा प्रश्न-विहीन भाव भी तो उसका नहीं रहा था : यह क्या रेखा की छाप थी कि वह भी मानो धीरप्रवाहिनी जीवन की नदी का एक द्वीप-सा हो गया है? रेखा...उसकी आकृति का, विशेष घटनाओं या स्थितियों का चित्र भुवन के सामने कदाचित् ही आता; स्मृत संस्पर्शों या दुलारों का राग कदाचित् ही उसे द्रवित करता; पर रेखा के अस्तित्व का एक बोध मानो हर समय उसकी चेतना के किसी गहरे स्तर को आलोकित किये रहता और उसके प्रतिबिम्बित प्रकाश के अन्तःकरण को रंजित कर जाता-जैसे किसी पहाड़ी झील पर पड़ा हुआ प्रकाश प्रतिबिम्बित होकर आस-पास की घाटियों को उभार देता है...केवल कभी-कभी वह साँझ को बाइबल उठाकर उसमें सालोमन का गीत पढ़ने बैठ जाता, पढ़ते-पढ़ते ऐसा विभोर हो जाता कि जोर-जोर से पढ़ने लगता; फिर अपना स्वर उसे चौंका देता-मानो जाग कर वह जानता कि वह रेखा के कारण उसे पढ़ रहा है-प्रकारान्तर से रेखा के साथ है...
केवल एक बार पिछले कुछ महीने की घटनाएँ-और विशेष कर दो-तीन मास पहले के नौकुछिया-ताल और तुलियन के थोड़े से दिन-एक तीखे मर्मान्तक दर्द की तरह उसे साल गयी थीं। थोड़ी देर वह तिलमिला गया था, फिर लज्जा से भर गया था-इसलिए और भी अधिक कि वह तिलमिलाना भी और सिमटना भी एक और व्यक्ति ने भी देख लिया था। फिर उसने प्रकृतस्थ होकर बात सँभाल ली थी-या सँभालनी चाही थी, क्योंकि कहाँ तक वह सँभल सकी है वह नहीं जानता था...
गौरा कुछ घण्टों के लिए आयी थी। दिल्ली से बनारस जा रही थी जहाँ उसने कालेज में संगीत-शिक्षिका की नौकरी स्वीकार कर ली थी; सीधी न जाकर उसने भुवन से मिलते हुए जाने का निश्चय किया था। अपनी ओर से तो वह चाहती ही, पर भुवन ने भी बुलाया था : उसने केवल यह सूचना दी थी कि वह बनारस जाएगी और उत्तर में भुवन ने पूछा था कि क्या वह उधर से होकर न जा सकेगी-उसने निस्सन्देह बहुत प्रमाद किया है और गौरा का रोष स्वाभाविक ही होगा, पर रोष न करके उसे देखते जाना भी कम स्वाभाविक न होगा और वह कृतज्ञ भी होगा-गौरा का वह सदैव कृतज्ञ है...
वह स्टेशन लिवाने गया था। स्टेशन से वे दोनों पहले उसकी प्रयोगशाला में गये थे, वहाँ से होते हुए घर आने की बात तय हुई थी। प्रयोगशाला से लगे हुए भुवन के कमरे में वैज्ञानिक यन्त्रों से घिरे हुए बैठकर गौरा ने बताया था कि वह बनारस नौकरी करने जा रही है; फिर भुवन से यन्त्रों के बारे में पूछने लगी थी। यन्त्रों से कॉस्मिक रश्मियों, और उनसे तुलियन की बात उठना स्वाभाविक थी; गौरा ने सहसा पूछा था, “तुलियन झील सुन्दर है?” और साथ ही जोड़ दिया था, “वहाँ भी आप यन्त्रों से ऐसे ही घिरे बैठे रहते होंगे-प्रकृति के लिए आप को फुरसत ही कहाँ होगी?”
तब, पहली बार वह दर्द उसे साल गया था। “प्रकृति के लिए फुरसत”-एक प्रकृति बाहर की जड़ प्रकृति है, एक उसकी धमनियों में गरम-गरम प्रवाहित होने वाली उसकी प्रकृति-और क्या सचमुच उसे फुरसत नहीं हुई थी? झूठ वह नहीं बोलेगा, गौरा से बिलकुल नहीं, पर कहे क्या वह? जो-कुछ भी वह कहेगा, क्या वह झूठ नहीं होगा?
उसने कहा था, “कितने भी यन्त्र हों, पहाड़ को और प्रकृति को नहीं छिपाते”, फिर कुछ रुक कर अपने को बाध्य करते हुए, “तीन-चार दिन के लिए रेखा देवी भी वहाँ आयी थी-बल्कि यन्त्रों के आने से पहले-”
एक भारी-सा मौन उनके बीच में पड़ गया था। वह दर्द भुवन को फिर सालने लगा था, पर इस मौन को ठेल कर हटा देने की प्रेरणा उसमें नहीं थी। गौरा भी कुछ कहने को हुई थी-फिर सहसा चुप लगा गयी थी; भुवन देख सका था कि वह कुछ कहती रुक गयी है, पर क्या, वह नहीं सोच सका था। अन्त में गौरा ने ही कहा था, “अब कहाँ हैं रेखा देवी?”
“कश्मीर में-वहाँ उन्होंने नौकरी कर ली है। पीछे दिल्ली में थी-दिल्ली से वहाँ चली गयीं।”
गौरा ने फिर कुछ रुककर, सकुचाते हुए कहा था, “हाँ।” फिर वह कुछ कहने को हुई थी, और फिर रुक गयी थी।
मौन और भी भारी हो गया था। अब की बार उसे कोई नहीं तोड़ सका था। अन्त में जब भुवन ने कहा था, “चलो, घर चलेंगे-यहाँ कुछ और नहीं करना है”, तब भी उसे यह नहीं लगा कि उस भारी मौन को वह तोड़ सका है; बात उसने की है ज़रूर, पर यह दूसरे स्तर पर है, जिस स्तर पर मौन है उस पर यह पहुँची ही नहीं...
और न गौरा ही उसे तोड़ पायी थी जब उसने घर पहुँच कर कहा था, “लाइये, मैं आयी हूँ तो थोड़ी सँभाल मैं कर जाऊँ-पर पहले चाय बना लाऊँ।” स्वयं यह अनुभव करती हुई वह बिना भुवन के रास्ता दिखाने की प्रतीक्षा किये भीतर चली गयी थी-वह इस घर का भूगोल नहीं जानती, पर एक अकेले बैचलर साइंटिस्ट के घर का भौगोलिक रहस्य हो ही कितना सकता है...
भुवन तिलमिलाया हुआ टहलता रहा था। दर्द उसे सालता हुआ सारी देह में छा गया था, एक भीतरी दबाव-सा उसकी आँखों के पपोटों में स्पन्दित होने लगा था; भवों के ऊपर उसका माथा सीसे-सा भारी हो आया था...
गौरा चाय बनाकर ले आयी थी। एक बार भुवन के चेहरे को देखकर चुपचाप ढालने लगी थी। बढ़ा हुआ प्याला लेकर भुवन बैठ गया था।
उसी प्रकार, मौन की दीवार को तोड़ने में, भुवन ने पूछा था, “गौरा, तुम ने नौकरी जो कर ली-तो क्या जीवन का मार्ग अन्तिम रूप से चुन लिया? माता-पिता की क्या राय है?”
“हाँ, भुवन दा। नौकरी मैंने नहीं चुनी, संगीत ही चुना है; पर आगे सीखने के लिए यह सहारा ज़रूरी है-माता-पिता पर बोझ बने रहना कहाँ तक ठीक होता?”
भुवन उसे देखता रहा था। माथे का नाड़ी-स्पन्दन वैसा ही था, उसे मानो वह सुन सकता था। फिर उसने पूछा था, “गौरा, विवाह क्या कभी नहीं करोगी?”
तब यह मौन थरथरा कर टूट गया था। गौरा खड़ी हो गयी थी। उसका मुँह तमतमा आया था। मुद्रा तनिक भी नहीं बदली थी, इससे यह स्पष्ट नहीं था कि वह तमतमाहट कैसी है; उत्तर देने से पहले भी वह क्षण-भर रुकी रही थी और जब बोली थी तो बिलकुल सम स्वर से : “भुवन दा, मुझसे तो आप पूछते हैं, पर नौकरी तो आप भी करते हैं, आपने क्या सोचा है यह सब-सोच चुके हैं?”
भुवन ने कहना चाहा था, “मेरी बात दूसरी है-पुरुष के लिए विवाह और नौकरी विरोधी कैरियर नहीं है और स्त्री के लिए साधारणतया तो होते ही हैं-साथ नहीं चलते-” पर कह नहीं पाया था; गौरा के मुँह की ओर देखते-देखते अचानक कह गया था, “गौरा, आज देखता हूँ तुम मुझसे छोटी अब नहीं हो-और अब से बराबर-बराबर बात करूँगा; यों पहले भी बिलकुल छोटी तो नहीं मानता था”
गौरा एकदम बैठ गयी। उसका चेहरा शान्त हो आया। बोली, “माफ़ी चाहती हूँ, भुवन दा-आप सदैव बड़े हैं।”
भुवन ने निश्चयात्मक स्वर से कहा, “नहीं।” फिर मानो असली विषय पर लौटते हुए, “पर मेरे लिए एक चुन लेना आवश्यक नहीं है। इस मामले में पुरुष दिग्भ्रान्त भी रहे तो चल सकता है-स्त्री को बिलकुल सुलझे ढंग से सोचना पड़ता है-निर्मम होकर।”
गौरा ने ज़िद की, “अच्छा ज़रूरी न सही, आपने सोचा तो होगा?” फिर सहसा अपनी ज़िद पर थोड़ा-सा शरमा कर वह मुस्करा दी।
उस मुस्कराहट से भुवन सँभल गया। स्वयं भी मुस्करा कर बोला, “ठीक सोचा तो नहीं-सोचना तो एक वैज्ञानिक क्रमागत क्रिया है-पर हाँ, यों ही कुछ धारणाएँ तो हैं-”
“क्या?”
“यही कि उसके विरुद्ध मैंने कोई प्रतिज्ञा तो नहीं की। राह चलते यदि कोई उपयुक्त साथी मिला, तो-”
“लेकिन इस देश में राह चलते कुछ नहीं होता, भुवन दा, बड़ी खोज करनी पड़ती है।” गौरा स्पष्ट ही उसे चिढ़ा रही थी।
भुवन ने उसी ढंग से कहना चाहा, “न, मिरेकल इस देश में भी होते हैं-” पर यह मानो उसे अनुगूँज लगी दूर कहीं की घंटियों की-ज़बान पर आयी बात रुक गयी और वह फिर चुप हो गया। थोड़ी देर बाद उसने फिर हँसने का यत्न करते हुए कहा, “खोज तो दूसरे करते हैं-विज्ञान के विद्यार्थी का तो सारा जीवन ही खोज है।”
“ओ हो! तब जब कुछ मिल जाएगा तो भौंचक-से देखते रह जाएँगे। सब-कुछ कॉस्मिक रश्मियों की तरह थोड़े ही यन्त्र से नाप लिया जाता है।”
“खास कर स्त्री-यही न? पर यह क्यों मान लेती हो कि मैं ही खोजूँगा-वह भी तो खोजेगी-बल्कि वही खोज लेगी-स्त्रियों की बुद्धि तो अचूक होती है न ऐसे मामलों में? मैं-यन्त्र-केवल इतना जान लूँगा कि खोज पूरी हो गयी।”
भुवन को थोड़ा-थोड़ा लग रहा था कि वह उसके लिए अस्वाभाविक ढंग से बात कर रहा है, कुछ-कुछ बेवकूफ़ी की भी बात कर रहा है। पर इस तरह की गैर-ज़िम्मेदार बातें मानो एक छद्म थी जिस की ओट में उसकी भीतरी आकुलता और असमंजस छिप जाता था। वह कहता गया, “राह चलते जिस दिन बैठे-बैठे जानूँगा, मेरे पीछे कोई है और मुड़ कर नहीं देखूँगा और वह झुककर अपने खुले बाल मेरी आँखों के आगे डाल देगी-उस दिन में जान लूँगा कि मेरी खोज-कि मेरे लिए खोज समाप्त हो गयी, और पड़ाव आ गया।”
गौरा अनिश्चित-सी हँसी, “क्या बच्चों की-सी बात करते हैं आप। या रोमांटिकों जैसी।”
“क्यों?”
“और नहीं तो क्या। कौन वह सुन्दरी होगी जो ऐसे अपने केशों में आप को बाँध लेगी-ऐसी तो रोमांटिकों की वह सनातन चुड़ैल थी-लिलिथ-जो अपने सुनहले बालों से लोगों के दिल बाँध लिया करती थी और वे सूख जाते थे। क्यों नहीं आप उन नाइटों की बात सोचते जिनके माथे पर तारा चमका करता था?”
“तारों की खोज क्या कम पागलपन है, गौरा? इतने बड़े आकाश में कोई एक तारा चुन लीजिए, अच्छा चुन ही लीजिए, अंग्रेजी में कहते तो हैं कि 'अपना छकड़ा तारे के पीछे जीत लो' पर तारे तक पहुँचे तब तो-”
“या तारा ही आप तक पहुँचे-”
नहीं, यह भी प्रतिध्वनि है-कहाँ किस की प्रतिध्वनि? 'कोई बात नहीं, मैन फ्राइडे, तारा ख़ुद तुम्हें ढूँढ़ लेगा।'-'मैं अँधेरे में डूबना नहीं चाहती, नहीं चाहती!'-'अच्छा मैन फ्राइडे, तुम्हारा तारा कौन-सा है?'-'और तुम-शुक्रतारा।' 'क्यों, चाँद नहीं?' 'वेन मैन! नहीं, शुक्र, केवल शुक्र!'-'मेरा तारा।'
भुवन खड़ा हो गया। प्याला उसने रख दिया, टहलने लगा।
“क्या बात है भुवन दा?”
भुवन ने पैंतरा करते हुए कहा, “हमारे प्रोफ़ेसर कहते थे, विज्ञान से जिसकी शादी हो जाती है, उसे फिर और कुछ नहीं सोचना चाहिए। वह बड़ी कठोर स्वामिनी है।”
गौरा ने कहा, “हूँ। यों तो संगीत-कोई भी कला-और भी कठोर स्वामिनी है; और विज्ञान का मनचलापन तो सन्दिग्ध भी हो सकता है, कला के बारे में तो सन्देह की गुंजाइश नहीं।” फिर वह रुक कर क्षण-भर स्थिर दृष्टि से भुवन को देखती रही। “मगर भुवन दा, हम लोग क्या बे-बात की बात कर रहे हैं; आप-आप हैं कहाँ?”
“गौरा-” भुवन ने पास आकर एक हाथ गौरा के कन्धे पर रखा और चुप हो गया। धीरे-धीरे उसका हाथ हटने लगा पर गौरा ने उस पर अपना हाथ रखकर उसे रोक लिया और बड़े अनुरोध से कहा, “बताइये न, भुवन दा-”
भुवन ने धीरे-धीरे हाथ खींच लिया। “कुछ नहीं गौरा; अपने भविष्य के बारे में नहीं सोचा करता, तुम्हारे ही भविष्य की बात सोचा करता हूँ।” कुछ रुककर, पर गौरा को बोलने का मौका दिये बिना, “यों तो भविष्य की बात ही नहीं सोचनी चाहिए-वर्तमान ही सब-कुछ है, भविष्य केवल उसका एक प्रस्फुटन-”
यह क्या हो गया है उसको? यह भी प्रतिध्वनि है...”
गौरा ने उलहने के स्वर में कहा, “यह आप कहते हैं, भुवन दा, आप?”
ठीक है गौरा का उलहना, भुवन के भीतर कुछ उमड़ कर बोला था, तुम कैसे ऐसी बात कह सकते हो, और गौरा को...
ठीक इस समय, बड़े मौके से, भुवन का नौकर आ गया था। साधारणतया उसी को आकर चाय देनी चाहिए थी, पर रसोई में आकर उसमें उथल-पुथल के लक्षण देखे तो भीतर देखने चला आया, भीतर गौरा को चाय लिए बैठे देखकर वह मुड़ गया एक हलकी-सी मुस्कराहट को छिपाने के लिए-तो डाक्टर साहब के लिए अभी कहीं कुछ उम्मीद है...'
भुवन अपनी ही बात को लेकर हँस दिया। “और नहीं तो क्या? सोचने को तो हम बहुत सोचते हैं, पर जब जाँच कर देखते हैं तो यही मानना पड़ता है कि हाँ, वर्तमान ही सब-कुछ है।”
गौरा थोड़ी देर वैसे उलहने से देखती रही। फिर उसने कहा, “हो सकता है। यों मेरे लिए भी यही बात है-अभी जहाँ तक मुझे दीखता है, उसी के अनुसार मैंने भी सोच लिया है; आगे जब-नया वर्तमान खुलेगा तब उसके अनुसार और सोच लूँगी। नहीं तो आप ही बताइये-”
भुवन ने कुछ सोचते हुए कहा, “हाँ, यों तो ठीक है।”
अगली गाड़ी से गौरा चली गयी थी। जाने के समय वातावरण कुछ स्वच्छ हो गया था; भुवन ने यह भी कहा था कि अगले दशहरे की छुट्टियों में वह शायद बनारस आएगा-दो-एक दिन, फिर गौरा के साथ दिल्ली लौटेगा अगर उसके पिता वहाँ होंगे, या अगर मसूरी होंगे तो वहीं जाएगा। गौरा ने कहा था, “ज़रूर चलिएगा-आप पिता जी को बहुत नेग्लेक्ट करते रहे हैं-रहे हैं न?” फिर चारों ओर नज़र डालकर कहा था, “घर को भी आपने नेग्लेक्ट कर रखा है। मैं एक-दो दिन रह जाती तो सब सँभाल देती-पर आप रहने ही कहाँ देते हैं?” भुवन ने हँस कर उत्तर दिया था, “घर की सँभाल एक-दो दिन का काम थोड़े ही है, गौरा? एक बार सँभालोगी, फिर वैसा ही हो जाएगा-पर वैसे नुक्स क्या है, मुझे जबानी ही बता दो, मैं सँभालूँगा-”
“ऐसे काम जबानी ही हो सकते तो...”
“तो क्या?”
लेकिन गौरा ने अपना वाक्य पूरा नहीं किया था।
× × ×
गौरा के जाने के बाद वापस लौटकर बहुत देर तक भुवन कमरे में और छत पर चक्कर काटता रहा। गौरा के आने ने उसके भीतर जो उद्वेलन उत्पन्न कर दिया था, उसका कारण वह नहीं जानता था, न कोई स्पष्ट विचार ही उसके मन में उठ रहे थे, केवल एक आकारहीन, केन्द्रविहीन आकुलता...फिर वह अपनी कापी लेकर बैठा, लेकिन उसमें भी कुछ न लिख सका : कापी सामने रख कर बैठा रहा, साँझ घिर आयी, बादल छा गये और गरजने लगे...उसने कापी रख दी और टहलने निकल गया
दूसरे दिन फिर वह पूर्ववत् अपने काम में जुट गया; उद्वेलन भीतर-ही-भीतर कहीं दब गया और पहले की स्थिति फिर हो गयी-काम, काम, काम केवल चेतना के भीतरी किसी स्तर पर एक आलोकमय छाप, और उसके साथ गुँथा हुआ रेखा का ध्यान जो सतह पर नहीं आता...
इस अवस्था से रेखा के पत्र ने उसे झकझोर कर जगा दिया-और ऐसा जगाया कि फिर वह कभी उस अवस्था को नहीं लौटा; फिर जब आयी तो एक प्रकार की जड़ता आयी, और उसके भीतर एक आलोक नहीं, एक गुथीला अन्धकार...
पत्र पाकर उसने पढ़ा, तो पहले शान्त भाव से ही पढ़ गया; कोई आश्चर्य की बात उसमें नहीं थी। रेखा से जब वह विदा हुआ था, तब तो बात हुई थी उससे यह परिणाम निकलता ही था-रेखा ने सूचित कर दिया था और यह भी कह दिया था कि वैसा ही वह चाहती है...पर क्या तब सच-मुच वह समझ सका था? उसने मन-ही-मन स्थिति को मूर्त किया-नदी के आर-पार पड़े शहतीर पर वे दोनों, दोनों स्तब्ध, नीचे दौड़ता उफनता पहाड़ी नदी का जल; और दोनों की अपूर्ण आकांक्षाओं का आरोप उस भविष्यत् जीव पर जिसे-शायद!-उन्होंने अनजाने और एक आविष्ट मोहावस्था में रचा है...क्या तब वह उस बात का पूरा अभिप्राय समझा था जो रेखा ने कही थी-क्या वह अब भी समझ रहा है? धीरे-धीरे एक-एक स्मृति उसके मन में उभरने लगी, और मानो तेजाब से एक-एक गहरी रेखा उसके चेतन-पट पर कोरने लगी...”आर यू रीएल-तुम हो, सचमुच हो, भुवन?...मैं तुम्हारी हूँ, भुवन, मुझे लो...रेखा, आओ...लेट अस गेट अप अर्ली टु द विनयार्डूस : देयर विल आइ गिव दी आफ़ माई लव्ज...महाराज ए कि साजे एले मम हृदयपुर माझे...भुवन, मेरी मोहलत कब तक की है? शुभाशंसा चूमती है भाल तेरा...पगली, पगली, तुम तो चाँदनी में ही जम गयी थी। और तुम? तुम पिघल गये थे?...लव मेड ए जिप्सी आउट आफ मी...लजाती हो-मुझ से-अब? तुम से नहीं तो और किस से लजाऊँगी?...वेट विदाउट होप, फ़ार होप वुड बी होप आफ़ द रांग थिंग...देबे कि गो वासा आमाय देबे कि एकटि धारे?...” एक अद्भुत भाव उसके मन में भर गया, जिसमें वात्सल्य भी था, करुणा भी, एक आतुर उत्कंठा भी और एक बहुत हलकी-सी जुगुप्सा भी। “न, मैं कुछ मागूँगी नहीं, तुम्हारे जीवन की बाधा नहीं बनूँगी, उलझन भी नहीं बनूँगी। सुन्दर से डरो मत...लेकिन भुवन, मुझे अगर तुमने प्यार किया है, तो प्यार करते रहना-मेरी यह कुंठित बुझी हुई आत्मा स्नेह की गरमाई चाहती है कि फिर अपना आकार पा सके, सुन्दर, मुक्त, ऊर्ध्वाकांक्षी...” क्यों नहीं माँगेगी रेखा कुछ भी? यों सब कुछ दे देगी, और फिर चुपचाप चली जाएगी-अपनी सबसे अधिक आवश्यकता के समय मूक? नहीं, इतना बड़ा दान वह नहीं ले सकेगा। उदार होकर देना कठिन है, होगा, पर उदार होकर ले लेना और भी कठिन है...”तुम ने मुझे एक बार भी नहीं बताया कि मेरे लिए तुम्हारे हृदय में क्या भाव हैं...” ठीक कहा था रेखा ने, उसने सचमुच कभी कुछ नहीं बताया, शायद स्वयं ही नहीं सोचा-और बिना एक प्रश्न तक भी पूछे रेखा ने-नहीं, यह एक-पक्षीय व्यापार वह नहीं सह सकेगा-घुट जाएगा इसके बोझ से...ऐसा दान वह नहीं लेगा जो पाने वाले का दम घोट दे, और देने वाले को-देने वाले को भी संकट में डाल दे...
लेकिन दान वह नहीं लेगा, यह कहने के अब क्या मानी हैं जब वह दान ले चुका है? अब वह क्या करेगा, अब, यही उसे सोचना है, और स्पष्ट सोचना है, परिणाम तक ले जाकर सोचना है...
पत्र उसे कालेज में मिला था। कालेज से लौटने से पहले उसने रेखा को तार दे दिया कि वह आ रहा है, और छुट्टी का आवेदन भी दे दिया, बल्कि थोड़ी देर बाद स्वयं पि्रंसिपल के पास जाकर स्वीकृति भी ले ली। शाम को रवाना हो गया।
× × ×
मोटर के अड्डे पर रेखा हो भी नहीं सकती थी, पर भुवन ने उतर कर चारों ओर नज़र दौड़ाकर देख लिया मानो उसे खोज रहा हो, फिर जब वह कहीं न दीखी तो उसे सन्तोष हुआ। बाहर निकल कर ताँगा लिया, पर पते के लिए दो-एक जगह पूछना पड़ा। अन्त में जब ठीक पता पाकर ताँगा मिसेज़ ग्रीव्ज़ के बग़ीचे की ओर बढ़ चला, फाटक पर पहुँच कर रुका और भुवन ने उतर कर उस पर लगा हुआ ग्रीव्ज़ नाम का बोर्ड भी देख लिया, तब ताँगे को जल्दी बढ़ने के लिए न कहकर उसने वहीं रोक दिया। “हम अभी पूछ कर आते हैं ठीक होने से भीतर बुला लेंगे-” कहकर वह गेट खोल कर भीतर बढ़ा, ताँगे वाले की पुकार उसने अनसुनी कर दी कि “सा', ब, ताँगा भीतर ले चलूँ, सा'ब!”
एक डर-सा उसके मन पर छा गया, पर उसने उसे साफ़ सामने लाकर नहीं देखा। प्रार्थना-सी यही बात बार-बार उसके ओठों पर आने लगी कि जब वे मिलें तो रेखा अकेली हो-चाहे कितनी थोड़ी देर के लिए, औरों के बीच में न उसे रेखा से साक्षात् करना पड़े...मन में यह भी प्रश्न उठता कि क्या रेखा ठीक वैसी ही होगी, या उसका रूप कुछ बदल गया होगा-पर इस प्रश्न को भी वह दबा देता : कुछ नहीं सोचेगा वह रेखा को देखने तक-और देखे तो वह अकेले में ही देखे...
दूर से ही उसने उसे देख लिया। बरामदे में आराम-कुरसी पर वह बैठी थी; सारा शरीर ढलती धूप में, केवल चेहरा छाँह में था और स्पष्ट दीखता नहीं था। रेखा ने वही परिचित मक्खनी सफ़ेद रेशमी साड़ी पहन रखी थी, पहनने का ढंग कुछ अनोखा था और मानो उसे और भी दूर अलग ले जाता था। उसने भुवन को अभी नहीं देखा था, भुवन कुछ और भी ओट होकर दबे-पाँव चलने लगा; बिलकुल बरामदे के पास आकर जब उसने बरामदे की काठ की सीढ़ी पर पैर रखा, तभी आहट से वह चौंकी, मुड़कर उसने देखकर पहचाना और कहा, “भुवन! अरे, भुवन, तुम-” और उठ बैठी पर उठी नहीं, वहीं से उसने बाँहें बढ़ायीं कि भुवन लपक कर पहुँच गया, एक बाँह से उसने रेखा को घेर लिया और कुरसी की बाँह पर अध-बैठा होते-होते उसे खींच कर अपने से लगा लिया, उसके माथे पर गाल टेककर स्तब्ध रह गया, रेखा के दिल की धड़कन उसकी जाँघ पर बहुत हलका ताल देने लगी...थोड़ी देर बाद उसने बहुत धीमे भर्राये स्वर में कहा, “रेखा, तुम-रेखा...” रेखा ने चेहरा थोड़ा ऊँचा उठाया, उसकी नाक भुवन के गाल में धँस गयी, अब-खुले ओठों से साँस का हलका स्पर्श भुवन के नासा-मूल को गुदगुदाने लगा, तब सहसा भुवन के ओठों ने उसके ओठ ढूँढ लिए...फिर उसने खड़े होते हुए कहा, “रेखा, मैं अभी आया-बाहर ताँगा है-”
रेखा ने कहा, “तुम नहीं जाओ, यहीं से पुकारो 'सलामा'-वह बुला लाएगा।”
भुवन क्षण-भर उसे ताकता रहा। “कितना अच्छा हुआ कि तुम अकेली थी जब मैं पहुँचा, रेखा-”
रेखा ने समझ कर धीरे से हाथ उसकी ओर उठा दिया, कुछ कहा नहीं, उसकी आँखों की गहरी मुस्कराहट ही उसे दुलरा गयी।
भुवन ने बरामदे की ओर बढ़ कर पुकारा, “सलामा!” फिर मुड़ कर रेखा ने पूछा, “मिसेज ग्रीव्ज़ कहाँ रहती हैं-तुम अकेली हो?”
“हाँ, वह श्रीनगर में हैं-मैं निगरानी के लिए यहाँ बैठी हूँ। जब वह आएँगी तो मैं उधर चली जाऊँगी। पर अभी दो महीने शायद यही व्यवस्था रहे। फिर जब बर्फ पड़ने लगेगी तो यहाँ खाली हो जाएगा-मैं भी श्रीनगर उनके साथ रहूँगी।”
“कैसा लगता है, रेखा?”
रेखा ने गहरी दृष्टि से स्थिर भाव से उसे देखा, कुछ बोली नहीं।
सलामा ताँगेवाले को बुला लाया। भुवन ने कुछ झिझकते हुए पूछा, “एम आइ-स्टइंग विथ यू?-वैसे मैं-”
रेखा ने आँखों से ही उसे घुड़क दिया। सलामा ने कहा, “साहब का सामान मेहमान कमरे में लगा दो-”
भुवन ताँगेवाले को विदा करने लगा, सलामा ने सेवा-पटु कश्मीरी लहजे में पूछा, “चाय लाऊँ मेम साब?”
भुवन को रेखा का बोलने का ढंग अतिरिक्त मधुर लगा। यों वह सदा विनय से बात करती थी, पर भुवन ने सोचा, उसके स्वर में न बंगालियों की आदर्श-प्रियता है, न कश्मीरियों की बनावट; एक सहज शालीनता उसमें है जिसे न अकड़ना पड़ता है, न झुकना पड़ता है, जिससे प्रकृतस्थ रहकर ही वह बड़े-छोटे सबके बराबर हो जाती है...व्यक्ति का अभिजात्य क्या है, उसकी सर्वोपरि सत्ता, उसका अखण्ड चक्रवर्तित्व, यह रेखा के निकट रहकर और उसका लोक-व्यवहार देखकर समझ में आ जाता है...
चाय के बाद दोनों बरामदे से उतर कर टहलने लगे। रेखा ने कहा, “बग़ीचा देखोगे? घूम आयें-”
भुवन ने उसकी ओर देखते हुए कहा, “तुम्हें-कष्ट तो नहीं होगा?”
“न। मुझे तो अच्छा लगता है-”
“तो चलो।” फिर कुछ रुककर, “लेकिन-तुम्हारी शाल ले आऊँ-पर तुम्हारा कमरा भी तो नहीं जानता?”
“तो पहले वही देखोगे?” रेखा मधुर मुस्करायी, “नहीं वह फिर दिखाऊँगी। पर शाल तो अन्दर जाते दाहिने को टँगी है-मैंने दिन में रखी थी-”
भुवन उठा लाया।
रेखा ने कहा, “फल तो लगभग सब उतार लिए गये हैं, जिधर हैं उधर ही चलें-उधर तो कुछ धूप भी होगी-”
भुवन को याद आया। डूबते सूर्य का उन्होंने पीछा किया था, और हार गये थे। नहीं, आज वह डूबते सूर्य का पीछा नहीं करेगा; सूर्य को डूब जाने दो, पकते सेब पर उसकी धूप की चमक ही इष्ट है-उसी को वह देखेगा, उसकी लालिम कान्ति में सूर्य की धूप पकेगी, सुफला होगी...शारदीया साँझ की धूप में फलों-लदा सेब का पेड़-जीवन के आशीर्वाद का, जीवन-रूप आशीर्वाद का इससे बढ़ कर और कौन-सा प्रतीक है? शरदारम्भ अभी नहीं हुआ, अभी बरसात का अन्त ही है, फलों पर भी अभी वह सूर्यास्त की लाल-सुनहली कान्ति नहीं आयी, पर उस फले हुए जीवन-तरु को वह देख सकता है-
...देयर इज़ येट फेथ
एण्ड द फेथ एण्ड द लव एण्ड द होप आर आल इन द वेटिंग ...
(...फिर भी विश्वास है-किन्तु विश्वास और प्रेम और आशा सब प्रतीक्षा में ही हैं... -टी. एस. एलियट)
उसने बढ़ कर रेखा का हाथ थाम लिया, और मानो राह दिखाता हुआ साथ ले चला। सामने पेड़ के ऊर्ध्व भाग पर धूप पड़ रही थी, उसमें जगमग एक फलों-लदी डाली को दिखा कर भुवन ने कहा, “इस जाति का नाम बता सकती हो?”
रेखा कहने को थी, “क्विंस-” पर भुवन ने इशारे से टोकते हुए कहा, “ये हैं “सन-सेट ग्लोरी'।”
“सो तो जानती हूँ।” रेखा ने मुग्ध भाव से उसके कोट की आस्तीन से सिर छुआते हुए कहा, “मेरा सारा बग़ीचा 'सनसेट ग्लोरी' है।”
“देखो हम हारे नहीं रेखा; ढलते सूर्य को हमने पकड़ा ही नहीं, उसके बीच में खड़े हैं।”
रेखा ने फिर वह गहरा अपांग उसे दिया : “क्या जाने, भुवन; पर तुम कहते हो तो-ऐसा ही हो, ओ मेरे मालिक, ऐसा ही हो...” दोनों खड़े देखते रहे। सूर्य की कान्ति फीकी पड़ी, फिर डाली के फल स्याह हो गये, आलोक का धान्य मानो बादल के एक बहुत बड़े तामलोट में बन्द हो गया, तामलोट भी काला पड़ गया, हवा चलने लगी, रेखा सिहर गयी। भुवन ने अपनी बाँह पर पड़ी शाल रेखा को ठीक से ओढ़ा दी। रेखा ने कहा, “चलो अब चले-”
“हाँ, चलें-बैठकर बात करेंगे-मुझे बहुत-कुछ कहना है-”
“कहना है, भुवन-क्या कहना है?” रेखा उसकी ओर घूम गयी। दोनों की आँखें मिलीं। देर तक मिली रहीं। फिर दोनों चुप-चाप चलने लगे। भुवन ने धीरे से कहा, “नहीं, ठीक कहना नहीं है-कहना कुछ नहीं है। लेकिन-” वह सहसा चुप हो गया। पर मन-ही-मन वह कहता रहा, “रेखा, रेखा, रेखा...”
× × ×
पहले दृग्मिलन के क्षण से कभी भी दोनों में किसी को यह नहीं लगा था कि उनका सम्पर्क कहीं टूट गया है और उसे फिर स्थापित करना होगा; बराबर ही वे सम्पृक्त थे। पर फिर भी, यद्यपि उन की बातों में घनिष्ट सौहार्द था, प्रणय था-मानो बात करने में दोनों यह भी अनुभव करते जा रहे थे कि वे बात नहीं कर रहे हैं, केवल पैंतरे कर रहे हैं...
रात को भोजन के बाद-जिसमें रेखा ने लगभग कुछ नहीं खाया-रेखा उठकर अपने कमरे में चली गयी तो भुवन भी अपने कमरे में गया, कपड़े बदलकर उसने दो-एक चीज़ों को इधर-उधर करके अपनी सुविधा के अनुकूल रख लिया; फिर टेबल लैम्प को बहुत नीची मेज़ पर रख कर कि प्रकाश कमरे में बहुत मन्दा हो जाये, एक कुरसी उसने खींच कर लैम्प के पास कर दी। पलंग के सिरहाने की ओर खिड़की पर जाकर खड़ा हो गया और एकटक बाहर देखने लगा। बादल घिर आये थे, दूर की बिजली की प्रतिबिम्बित चमक से बादल की चादर रह-रह कर सफ़ेद हो आती थी।
रेखा का स्वर आया-”मैं आ सकती हूँ? तुम्हारे कमरे में बैठ सकती हूँ?”
भुवन ने घूमकर कहा, “यह मैं पूछनेवाला था। आओ-पर तुम तो मुझे अपना कमरा दिखानेवाली थी-”
“चलो, अब चलो।”
साफ़-सुथरा और करीने से सजा तो था ही रेखा का कमरा, पर भुवन को लगा कि उसमें कुछ और भी विशेषता है। क्या, यह सहसा वह नहीं जान सका, पर थोड़ी देर में वह स्पष्ट हो गयी-कमरे में कोई चीज़ फ़ालतू नहीं थी : सब-कुछ मित, मानो आवश्यक होने के कारण अनिच्छा रहते भी रखा गया था। अपने कमरे से उसने तुलना की-वहाँ सब-कुछ अधिक था-अधिकतम आराम के लिए वह सजाया गया था; और यहाँ-अल्पतम आवश्यक सुविधा की ही कसौटी रखी गयी थी...उसने कहा, “रेखा, तुम तपश्चारिणी होने जा रही हो?”
“क्यों? ओ-यह! नहीं भुवन, अधिक कुछ भी हो तो मुझे चुभता है-मैं अपने साथ ही जीना चाहती हूँ-बाहर का अनावश्यक लटा-पटा मुझसे सहा नहीं जाता।”
“और मैं मुगल बादशाह हूँ-क्यों?”
“वह तो मेहमान का कमरा है, डाक्टर साहब-आप हमारे मेहमान हैं।”
भुवन ने हाथ बढ़ाकर बिस्तर टटोला-तख्तों का पलंग, उस पर गद्दा नहीं था-दरी, नमदा, चादर; अचानक उसने तकिया एक ओर को खींचा, उसके नीचे एक कापी थी। उसने चुप-चाप तकिया वैसे ही रख दिया, मानो कापी न देखी हो।
“यहाँ बैठोगे, भुवन, या उधर चलें?'
“कहना तो यह चाहता हूँ कि मैं इधर रहूँगा, तुम उधर जाओ; पर-चलो, उधर बैठेंगे; क्योंकि मैं मेहमान हूँ!”
“हाँ!”
× × ×
रेखा को उसने टेबल पर लैम्प के पासवाली कुरसी पर बिठाया, स्वयं पलंग पर बैठ गयी। दोनों थोड़ी देर एक-दूसरे को देखते रहे।
“तुम-फिर आ गये, भुवन; मैंने नहीं सोचा था-”
“यह सोच लिया था कि अब नहीं आऊँगा?”
“नहीं भुवन, यह नहीं; पर आओगे, यह कभी नहीं सोचती थी।”
दोनों फिर थोड़ी देर चुप रहे।
सहसा भुवन ने कहा, “अच्छा, रेखा, अब क्या?”
“अब क्या, भुवन?” रेखा ने सहज भाव से कहा, “जीवन अपनी गति से चलता है। उससे बहुत अधिक तो मैं पहले भी नहीं माँगती थी-”
अगर रेखा बात को ऐसे टाल दे तो वह कैसे पूछे? उसने फिर यत्न किया, “रेखा, तुम अब भी-अब भी क्या-”
“हाँ, भुवन, मैं अब भी वैसी फुलफ़िल्ड हूँ-और तुम्हारी कृतज्ञ-”
“वह नहीं रेखा-तुम-तुम क्या नौकरी ही-तुम यहाँ से मेरे साथ चलो”
बिजली चमकी-पहले दूर से प्रतिबिम्बित, फिर कड़कती हुई; कड़क के धीमी पड़ते-न-पड़ते वर्षा होने लगी। उसकी पटपटाहट के ऊपर स्वर उठाते हुए भुवन ने कहा, “रेखा, यह क्या सम्भव होगा कि-तुम मुझसे विवाह कर लो?”
रेखा सिहर गयी, उठने को हुई और बैठी रही। बोली नहीं।
वर्षा की पटपटाहट बढ़ती गयी, हवा के साथ जोर की बौछार आयी और खिड़कियाँ खटखटाने लगीं, भुवन ने उठकर खिड़की बन्द कर दी, बाहर का शब्द सहसा कम हो गया, मानो सन्नाटा छा गया हो।
उस भ्रमात्मक सन्नाटे को तोड़ते हुए रेखा ने स्पष्ट स्वर में कहा, “नहीं भुवन; नहीं।”
फिर एक लम्बा मौन रहा। फिर भुवन बोला, “मुझे यही डर था, रेखा। बात भी बहुत जटिल हो गयी है। पर-इतना तुम्हें विश्वास दिलाना चाहता हूँ कि-यह करुणा नहीं है, रेखा; न निरी एक नोबल जेसचर-मैं सचमुच कहता हूँ।” उसके स्वर में व्यथा थी।
रेखा ने उठते हुए पास आकर कहा, “हाँ भुवन। तुम्हें क्लेश पहुँचाना नहीं चाहती थी-अविश्वास मैंने नहीं किया। पर-वह असम्भव है। मैंने-तुम से प्यार माँगा था; तुम्हारा भविष्य नहीं माँगा था, न मैं वह लूँगी।”
भुवन भी खड़ा हो गया। “तुमने नहीं माँगा, नहीं माँगोगी। तुम्हारे माँगने न माँगने का सवाल भी नहीं है। मैं माँग रहा हूँ रेखा।”
“न भुवन! बात वही है।” “तुम कुछ कहो, मैं नहीं भूल सकती कि-जो हुआ है वह न हुआ होता तो-तुम न माँगते-न कहते; इसलिए तुम्हारा कहना-परिणाम है। और यह कहना परिणाम नहीं, कारण होना चाहिए, तभी मान्य-तभी उस पर विचार हो सकता है।”
“रेखा!” भुवन ने अपने दोनों हाथ उसके कन्धों पर रख दिये। धीरे-धीरे उसे फिर कुरसी पर बिठा दिया, फिर दो कदम पीछे हटकर मैंटल के सहारे खड़ा हो गया।
“रेखा, और भी बातें सोचने की हैं-”
रेखा ने एक फीकी मुस्कान के साथ कहा, “हैं न?” इसीलिए यह बात सोचने की नहीं रही-यह तभी सोची जा सकती है जब एक और अद्वितीय हो, दूसरी किसी बात से असम्बद्ध हो।”
भुवन ने चाहा कि झल्ला उठे। क्यों रेखा उसकी बात ठीक नहीं समझती-क्यों उलटे अर्थ लेती है? पर वह जो कहती है, उसमें भी तो तथ्य है...तथ्य है, यही तो झल्लाहट का कारण है-यह ऐसी गुत्थी है कि बँधी उनके चाहने से, पर खुलेगी नहीं, जितना वे चाहेंगे और उलझती जाएगी...
“रेखा, उस-उस बीनकार की बात भी तो सोचो-”
रेखा ने दर्द से आँखें बन्द कर लीं, जैसे कोड़ा पड़ा हो। फिर उसने पीठ पीछे टेक दी, बड़ी थकी हुई आँखें भुवन की ओर उठायीं, और कहा, “उसकी बात सोचने के लिए तुम्हें मुझे नहीं कहना होगा भुवन! नहीं, बुरा मत मानो, मैं ताना नहीं दे रही।” वह थोड़ी देर रुक गयी। “पर भुवन, तुम समाज की दृष्टि से देखते हो : वह दृष्टि गलत नहीं है, अप्रासंगिक भी नहीं है; निर्णायक भी वह नहीं है। व्यक्ति को दबाकर इस मामले का जो भी निर्णय होगा-गलत होगा-घृण्य होगा, असह्य होगा!”
फिर थोड़ी देर वह चुप रही। फिर आँखें गिराते हुए कहा, “हो सकता है कि मेरा सोचना शुरू से ही गलत रहा हो-पर शुरू से वह यही रहा है। मेरे कर्म का-सामाजिक व्यवहार का नियमन समाज करे, ठीक है; मेरे अन्तरंग जीवन का-नहीं। वह मेरा है। मेरा यानी हर व्यक्ति का निजी।”
“हाँ, मगर दोनों में क्योंकि विरोध है, और अपरिहार्य विरोध है-”
“तो यह भी जीवन की एक न सुलझने वाली गुत्थी रह जाएगी। यह तो नहीं है कि ऐसी गुत्थी कभी हुई न हो-बीसियों पड़ी रहती हैं चारों ओर-एक और सही-”
“लेकिन-लेकिन ऐसा मान लेने से तो कोई रास्ता नहीं निकलता-” कहकर वह झल्लाया-सा मुस्करा दिया क्योंकि वास्तव में यही तो रेखा कह रही थी। फिर वह चुपचाप टहलने लगा। रेखा बैठी रही। वर्षा की टपाटप ही एकमात्र शब्द रह गया।
“तुम थके हो, भुवन?-सोओगे?”
“ऊँ, नहीं।” भुवन ने रुककर रेखा की ओर देखा। “पर तुम-तुम्हें शायद आराम करना चाहिए-”
“मैं ठीक हूँ। अपने-आप चली जाऊँगी।”
थोड़ी देर फिर वर्षा की टपाटप। भुवन ने कहा, “यह वर्षा असमय नहीं है?”
“पता नहीं। हर साल ही असमय हो तो असमय कैसे कहा जाये? प्रायः ही शुरू सितम्बर में जोर का दौर आता है-और बाढ़ भी जब आती है इन्हीें दिनों”
फिर केवल वर्षा का स्वर रह गया।
“काफ़ी पियोगे?”
भुवन ने अचकचा कर कहा, “अब?”
“हाँ, मेरे कमरे में स्टोव है-मैं कभी-कभी रात को बनाती हूँ-”
“अब नहीं, रेखा। पर-तुम पियो तो मैं बना लाऊँ-”
रेखा ने सिर हिला दिया।
थोड़ी देर बाद बोली, “कैसे हम लोग मानो सात बरस से ब्याहे पति-पत्नी की तरह हो गये हैं-बातचीत के लिए कोई विषय नहीं मिलता, तकल्लुफ की बातें कर रहे हैं-”
भुवन ने हँसकर कहा, “तकल्लुफ बाकी है, यही क्या कम है? सात बरस बाद तो रुखाई का वक़्त आ जाता है-या बिलकुल मौन उपेक्षा का!”
रेखा ने कहा, “इसीलिए क्या तुम मुझे कह रहे हो-”
भुवन ने एकाएक पास आकर उसके दोनों कान पकड़ लिए, धीरे-धीरे उसका मुँह ऊपर को उठाते हुए कहा, “पगली, एक तो बात नहीं सुनती, फिर चिढ़ाती है?” और ओठों के कोमल स्पर्श से उसका सीमान्त छू लिया।
रेखा ने अस्पष्ट स्वर में कहा, “गाड ब्लेस यू...”
भुवन फिर मैण्टल के पास चला गया। थोड़ी देर बाद बोला, “रेखा, तुम्हें गाना सुनाने को आज नहीं कहूँगा-मैं कुछ पढ़ कर सुनाऊँ?”
“सुनाओ-पर बत्ती वहाँ रख दूँ?”
“नहीं, मैं वहीं आता हूँ”, कहकर भुवन ने दूसरी दीवार से लगी मेज़ पर से दो-एक पुस्तकों में से एक उठायी, अभ्यस्त हाथों से पन्ने उलटकर मनचाहा स्थल निकाला और रेखा के पैरों के पास फ़र्श पर बैठ गया, जहाँ रोशनी पुस्तक पर पड़ रही थी। रेखा ने झुककर देखा-ब्राउनिंग।
“साथ लाये हो?”
उत्तर दिये बिना ही भुवन पढ़ने लगा :
हाउ वेल आई नो ह्वाट आई मीन टु डू
ह्वेन द लांग डार्क ऑटम ईवनिंग्स कम , एंड ह्वेयर , माइ सोल, इज दाइ प्लैंजेंट ह्यू? विद द म्यूज़िक आफ ऑल दाइ वायसेज़ , डम्ब इन लाइफ़्स नवैम्बर , टू! आइ शैल बी फ़ाउण्ड बाइ द फ़ायर , सपोज़, ओवर ए ग्रेव वाइज बुक एज बेसीमेथ एज , ह्वाइल द शर्ट्स फ़्लैप ऐज़ द क्रासविंड ब्लोज़ , एण्ड आइ टर्न द पेज़ , एण्ड आइ टर्न द पेज़, नॉट वर्स नाउ , ओनली प्रोज़!...
(कितनी अच्छी तरह मैं जानता हूँ कि शरद की लम्बी अँधेरी सन्ध्याओं में मैं क्या करना चाहूँगा-जीवन के नवम्बर में , मेरी आत्मा की दीप्ति फीकी पड़ रही होगी और उसके अनेक स्वरों का संगीत मूक हो रहा होगा! मैं अपनी वय के अनुकूल कोई बड़ी ज्ञान-पोथी लिए आग के निकट बैठा करूँगा, और जाड़ों की हवा कपड़ों को फड़फड़ाया करेगी; और मैं पन्ने पर पन्ना उलटता जाऊँगा-अब काव्य नहीं, केवल गद्य... -ब्राउनिंग
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रेखा ने कहा, “सारी बात फिर से दुहराओगे, भुवन? मैं कहती हूँ, यह व्यर्थ की बहस है, निष्परिणाम!” थोड़ी देर चुप होकर उसने एक लम्बी साँस ली, फिर बोली-”मैं कहना नहीं चाहती थी, तुम कहला कर छोड़ोगे : तुम्हारे साथ-जीवन का जो-कुछ सुन्दर मैंने जाना है, तुम्हारे साथ; जो-कुछ असुन्दर जाना है विवाह में; और तुम कहते हो-”
उसके स्वर में जो थरथराती तीव्रता थी, उसके धक्के से भुवन क्षण-भर स्तब्ध रह गया; फिर समझाता हुआ बोला, “लेकिन रेखा, विवाह में जो हुआ वह विवाह के कारण ही हुआ, ऐसा तो नहीं है-एक व्यक्ति का दोष-”
“वह सब मैं जानती हूँ, भुवन-सारी दलीलें मैं अपने को दे चुकी हूँ। अब जो कहती हूँ, वह उस सबके बाद है।” भुवन के चेहरे का विमूढ़ भाव देखकर वह कहती गयी, “समझ लो कि यह निचोड़ है मेरी संचित की हुई तर्कातीत हठ-धर्मी का।”
भुवन फिर चुपचाप टहलने लगा। दिन में रेखा से बहुत कम बात हुई थी-जो हुई थी वह वैसी ही, जैसी आतिथेय-अतिथि में परिजनों के सामने होती है; फिर दिन में वह शहर चला गया था। रेखा ने पूछा था कि क्या कुछ काम है जो बारिश में जाएगा? तो कहा था कि नहीं सैर करेगा; तब रेखा ने भी कहा था कि अच्छा मैं भी लेटी रहूँगी। लेकिन भुवन छाता-बरसाती लेकर निकला था और शहर की बहुत-सी बातें जान आया था; बाज़ार, तार, डाकघर, अस्पताल, अच्छे डाक्टरों-सर्जनों के जगह-ठिकाने...निरुद्देश्य भाव से ही उसने यह पड़ताल शुरू की थी, पर निरुद्देश्यता में भी व्यवस्थितता थी और जब वह लौटा तो श्रीनगर के बारे में खासा जानकार होकर-यद्यपि सैलानियों के जानने की एक भी बात उसने नहीं जानी थी। उधर रेखा भी निगरानी का आवश्यक काम करके, सबको आवश्यक आदेश देकर भुवन के कमरे में गयी थी, चीज़ों की झाड़-पोंछ स्वयं करके उसने फूलदानों में नये फूल सजाये थे, उसकी इनी-गिनी किताबें देख उनके साथ अपने कमरे से तीन-चार और किताबें ला रखी थी; बिस्तर ठीक से लगाया था। फिर अपने कमरे में जाकर थोड़ी देर सुस्ता कर वह अपनी कापी लेकर भुवन के कमरे में लौट आयी थी और बैठकर रुक-रुककर थोड़ा-थोड़ा लिखती रही थी। लगभग दो घंटे बाद वह अचकचा कर उठी थी, अपने कमरे में जाकर घड़ी देख आयी थी और फिर वहीं आ बैठी थी। थोड़ी देर बाद उसने भीतर से लकड़ियाँ लाकर अँगीठी में ऐसे सँवार कर चुन दी थी कि झट से आग जलायी जा सके-बारिश अभी हो ही रही थी और काफ़ी सर्दी हो गयी थी। फिर अबेर होती जान वह उठी थी, थोड़ी देर अनिश्चित पलंग के पास खड़ी रही थी; तब उसने अपनी कापी भुवन के सिरहाने तकिये के नीचे दबाकर रख दी थी, ऊपर से सलवटें ठीककर के दरवाज़ा उढ़का कर बाहर चली गयी थी। बाहर आराम-कुरसी पर दो-तीन गद्दियाँ डालकर, पैरों के लिए चौकी और कम्बल रखकर, वह आराम से बैठ गयी थी; आँखें उसने बन्द कर ली थी। ऐसा ही भुवन ने थोड़ी देर बाद उसे पाया था। आते ही बरामदे में बरसाती-छाता टाँगते हुए उसने पूछा था-”आराम किया?” और रेखा ने कहा था, “देख लो।” और फिर, “एक कुरसी और ले लो-बैठो-या कि पहले कपड़े बदलोगे-भीग आये हो।” भुवन कपड़े बदलने चला गया था।
चाय पी गयी थी। शाम फिर वैसी ही मेहमान-मेजबान के ढंग से बीती थी, खाना भी वैसे ही खाया गया था। भुवन ने बताया था कि वह सारा शहर घूम गया; बन्ध, लाल-मण्डी, अमीरा कदल, वजीर बाग़-दो-चार नाम भी उसने अपनी जानकारी बताने के लिए ले दिये थे। रेखा ने बताया था कि वह थोड़ा पढ़ती-लिखती रही, बाकी उसने ख़ूब आराम किया...उसके बाद पूर्ववत् भुवन के कमरे में बात हो रही थी।
“एक बात और है भुवन-और यह बुनियादी बात है : विवाह हो ही कैसे सकता है-मैं तो बँधी हूँ-” सहसा कटु मुस्कान के साथ, “केवल दुराचार-”
“चुप!” भुवन ने डपट कर कहा : रेखा ने वाक्य अधूरा छोड़ दिया। “रेखा, और जो है, अपने को यों सताने की कोई ज़रूरत नहीं है।”
“आई'म सॉरी, भुवन!” रेखा ने सच्चाई से कहा-”पर-बँधी तो हूँ-”
“तो मैं प्रतीक्षा करूँगा-”
रेखा हँस पड़ी। “क्या बच्चों की तरह प्यारा मुँह बनाकर कहते हो, प्रतीक्षा करूँगा।” रेखा ने पास जाकर अँगुलियों से उसके ओठ पकड़कर भींच दिये, जैसे बच्चों के ओठ भीच देते हैं। “कब तक आख़िर-और किसलिए?” वह थोड़ा रुक गयी। “जिसके लिए-जिसके लिए सोचते हो वह तो...” सकपका कर वह फिर बैठ गयी।
भुवन फिर निरुत्तर होकर टहलने लगा। रेखा चुपचाप उसका मुँह निहारने लगी। उसकी चाल में निश्चय और विमूढ़ता का अजब मिश्रण था; हाथ पीछे गुँथे हुए, सिर कुछ झुका लेकिन ठोढ़ी सामने बढ़ी हुई, और भँवों के बीच में दो रेखाएँ, जिनसे बीच का हिस्सा कुछ लाल-लाल जान पड़ता था...।
रेखा ने पूछा, “आज तो काफ़ी पिओगे : ठण्ड है। मैं लाती हूँ।” भुवन कुछ कहे, इससे पहले ही उसने साथ जोड़ दिया, “मैं भी पियूँगी।”
“तब अच्छा। पर मैं बनाकर लाता हूँ। मेरी ज़िद।”
“अच्छा, यही सही। स्टोव ड्रेसिंग रूम में लगा है; और सब समान उसके पास के ताक में रखा है। हमेशा तैयार लगा ही रहता है।”
भुवन चला गया। तब रेखा भी उठी। अँगीठी में आग सुलगायी-अनुभवी हाथों की लगायी हुई लकड़ियों ने तुरन्त आग पकड़ ली; आठ-दस मिनट बाद जब भुवन ट्रे में लगी हुई काफ़ी लेकर आया, तब चटचटाती लाल शिखाओं का असम प्रकाश कमरे में नाचने लगा था। उसने कहा, “अरे-जादूगरनी!”
रेखा ने कहा, “हाँ, तुम्हारा जादू मेरे हाथ में भी चला आया है।”
आग के पास तिपाई उसने पहले ही रख दी थी। भुवन ने दो कुरसियाँ खींच कर ठीक जगह रखीं, रेखा को आदर से हाथ पकड़कर उठाया और तिपाई के पास वाली कुरसी पर बिठा दिया; फिर एक प्रश्नसूचक दृष्टि से उसकी ओर देखकर टेबल लैम्प बुझा दिया। आग के प्रकाश में उनकी और काफ़ी के बर्तनों की छायाएँ दीवार पर नाचने लगीं।
काफ़ी पीकर भुवन ने तिपाई हटा दी, अपनी कुरसी खींच कर रेखा की कुरसी के निकट कर ली। फिर मेज़ तक जाकर किताब उठाने लगा तो बोला, “मेरी किताबें बढ़ कैसे गयीं?”
चार-पाँच किताबें लिए वह लौट आया; किताबें ज़मीन पर रखकर कुछ आगे झुक कर उनके नाम देखने लगा। चार्ल्स मार्गन का 'द फाउंटेन',' आन्द्रे जीद का 'स्ट्रेट इज़ द गेट', ठाकुर की 'गीतांजलि', लुई एमो का 'मारिया शादलेन', सानुवाद 'कुमार-सम्भव', दो-एक कविता-संकलन, एक-आध और पुस्तक।
“ओह, यह मेरे मेज़बान की कृपा है।”
एक किताब निकालकर उसने खोली, नीचे झुकाकर ऐसे रखी कि रेखा भी देख सके, और स्वर-हीन ढंग से पढ़ने लगा। रेखा भी साथ-साथ पढ़ती रही। कभी बीच में एक-आध पंक्ति वह गुनगुना देती, भुवन जानता था कि दोनों लगभग साथ-ही-साथ पढ़ रहे हैं। पन्ना पलटने से पूर्व क्षण-भर रुकता और फिर धीरे-धीरे उलट देता।
सो लेट मी बी दाइ क्वायर , एण्ड मेक ए मोन
अपान द मिडनाइट आवर्स ; दाइ वाएस , दाइ ल्यूट, दाइ पाइप, दाइ इन्सेन्स स्वीट फ्राम संस्विगेड सेंसर टीमिंग , दाइ श्राइन , दाइ ग्रोव, दाइ आरैकल, दाइ हीट आफ़ पेल -माउथ्ड प्राफेट ड्रीमिंग।
(मुझे होने दो तुम्हारा गायक , जो मध्य रात्रि की घड़ियों को अपनी व्यथा से भरे; तुम्हारा स्वर, तुम्हारी वीणा, तुम्हारी वंशी, तुम्हारा झूलते हुए धूपदान से उठता हुआ गन्ध-धूम; तुम्हारा मन्दिर, तुम्हारा कुंज, तुम्हारी देववाणी, तुम्हारे विवर्ण स्वप्नदर्शी सन्देशवाहक की उत्तेजना! -जॉन कीट्स)
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जलती हुई एक लकड़ी एक ओर गिरी; प्रकाश कुछ मन्दा पड़ गया। आग ठीक करने के लिए रेखा खड़ी हुई तो भुवन ने कहा, “रेखा, तुम्हारे कमरे में तो आग नहीं है।”
“बनी हुई रखी है। जाऊँगी तो जला लूँगी।”
“पर कमरा गरम होते तो देर लगेगी, मैं अभी जला आऊँ।”
उसकी कलाई पर हाथ रखकर उसे रोकते हुए रेखा ने आग्रहपूर्वक कहा, “नहीं, तुम बैठो।”
दोनों फिर बैठ गये। किताबें हटा दी गयी, दोनों चुप-से हो गये।
थोड़ी देर बाद भुवन ने कहा, “रेखा, तुम्हें क्या ज़रूर अभी कमरे में चले जाना है?”
रेखा कुछ बोली नहीं, उसकी ओर देखकर रह गयी।
भुवन ने धीरे-धीरे हाथ पकड़ कर उसे उठाया, और पलंग पर जा लिटाया। स्वयं एक बाहीं पर बैठ गया, धीरे-धीरे रेखा का कन्धा थपकने लगा।
आग मन्दी पड़ गयी, अंगारे ही लाल-लाल चमकते रहे गये। छायाओं का नाच समाप्त हो गया, एक धुँधली लाल झलक छत पर रह गयी। रेखा का चेहरा मँजे ताँबे-सा दीखने लगा।
वह बोली, “तुम्हें-नौकुछिया याद है?”
भुवन ने सिर हिलाया।
“मैंने-माँगा था-और तुम रोये थे।”
भुवन ने हाथ झुका कर उसके ओठ ढँक दिये। रेखा ने उसका हाथ हटाकर कहा, “तब तुमने क्या कहा था-याद है?”
भुवन ने फिर सिर हिला दिया।
“तुमने कहा था, “यह इनकार नहीं है'...तुम ने कहा था, “जो सुन्दर है उसे मिटाना नहीं चाहिए-जोखिम में नहीं डालना चाहिए'...कहा था न?”
भुवन ने फिर सिर हिला दिया।
रेखा थोड़ी देर चुप रही। फिर उसने कहा, “तो वह सब मैं तुमसे कहती हूँ। यह भी प्रत्याख्यान नहीं है भुवन-मैं सचमुच तुम्हारे पैर चूम सकती हूँ-”
वह जैसे उठने को हुई; भुवन ने उसे रोक दिया। वैसे ही थपकता रहा।
थोड़ी देर बाद रेखा ने फिर कहा, “भुवन, इस विषय को समाप्त मान लिया जाये-क्या इसे फिर उठाना होगा?”
भुवन ने कहना चाहा, “पर मैंने तो फिर जोखिम उठाया था-और उससे सुन्दर पुष्ट ही हुआ, नष्ट तो नहीं हुआ-” पर कह नहीं सका, स्वयं उसे ही लगा कि दोनों बातों में कुछ अन्तर है। फिर उसने कहना चाहा, “जोखिम तो हर सुन्दर चीज़ में है-बल्कि आनुपातिक होता है,” पर यह बात भी उससे कहते नहीं बनी। वह केवल रेखा का कन्धा थपकता रहा।
थोड़ी देर बाद बोला, “अच्छा रेखा, तुम्हारी यही इच्छा है तो-यही सही। पर उससे पहले कुछ और कह लेने दो-और उसे याद रखना-भूलना मत कभी।”
रेखा ने उसका थपकता हाथ पकड़ कर निश्चल कर दिया, और प्रतीक्षा में चुप पड़ी रही।
“रेखा, जो कुछ हुआ है, मुझे उसका दुःख नहीं है, परिताप नहीं है। और जो हुआ है उससे मेरा मतलब केवल अतीत नहीं है, भविष्य भी है-कारण भी, परिणाम भी। और यह नकारात्मक बात लगती है-मैं कहूँ कि मैं प्रसन्न हूँ : एक आनन्द है मेरे भीतर-एक शान्ति-भविष्य के प्रति एक स्वागत-भाव...यही मैं तुमसे कहना चाहता हूँ-वह जो आएगा-आएगा या आएगी, वह तो मुहावरा है-वह मेरा है, मेरा वांछित है-उससे मैं लजाऊँगा नहीं, वह तुम मुझे दोगी। भूलना मत-तुम्हें और तुम्हारी देन को मैं वरदान करके लेता हूँ।...” भुवन का स्वर भर आया, वह चुप हो गया।
रेखा ने बड़ी गहरी साँस ली। भुवन का हाथ खींचकर अपनी पलकों पर कर लिया, वहीं पकड़े रही। उँगलियों की अतिरिक्त स्पर्श-संवेदना ने जाना, पलकों के भीतर आँखें हिल रही हैं। थोड़ी देर बाद अपनी मध्यमा भुवन को कुछ ठण्डी लगी-आँख की कोर पर होने से वह भीग गयी थी। उसने दूसरा हाथ बढ़ा कर कर्णमूल छुआ, गीला था। हथेली से उसने उसे पोंछ दिया, कुछ समीप सरक कर बैठ गया।
छत की वह लाल झलक भी बुझ गयी। वर्षा फिर होने लगी थी। भुवन ने रेखा को और अच्छी तरह ओढ़ा दिया, कुछ झुककर कोहनी टेककर बहुत हलकी थपकी से रेखा को थपकने लगा।
रेखा सो गयी। थोड़ी देर बाद जागी और कम्बल का आधा हिस्सा खींच कर भुवन पर कर दिया, उसका हाथ पकड़ लिया और फिर सो गयी...
भोर के फीकेपन के साथ बारिश का जोर का एक झोंका आया, तो भुवन जाग गया; उसने देखा, वह पलंग के एक सिरे पर तीन-चौथाई ओढ़े सोया है, रेखा न मालूम कब उठकर चली गयी है। उसने बदन ठीक से ढँक लिया, पर एक अजब सूनापन उसमें भरने लगा...उसने औंधे होकर तकिया खींच कर आधा छाती के नीचे कर लिया कि उसके सिरे में मुँह छिपा लेगा-कि सहसा हड़बड़ा कर कोहनी के सहारे उठ बैठा। तकिये के नीचे कुछ था। टटोल कर देखा-किताब-सी, आँखों के पास लाकर देखा, पहचान गया-रेखा की कापी।
आशंका की एक लहर उसके मन में दौड़ गयी। रेखा क्यों यह वहाँ छोड़ गयी है-कब? कहीं...
वह हड़बड़ा कर उठा, दबे पाँव कमरे से बाहर निकला, बरामदे से गैलरी में होता हुआ रेखा के कमरे में दरवाज़े पर पहुँच गया। झाँक कर देखा, परदे के पार कुछ दिखता नहीं था पर भीतर के असम प्रकाश की झलक मिलती थी-तो लकड़ियाँ जल रही हैं यानी अभी जलायी गयी हैं; रेखा थोड़ी देर पहले ही आयी होगी। पहले उसने चाहा, किवाड़ खोल कर भीतर जाये या कम-से-कम झाँक कर तसल्ली कर ले, फिर न जाने क्यों उसे विश्वास हो गया कि रेखा कमरे में है और सोयी है या कम-से-कम बिस्तर में तो है, और वह वैसे ही दबे-पाँव लौट गया। पलंग पर लेट कर कापी को एक हाथ में पकड़े हुए वह प्रकाश की प्रतीक्षा करने लगा-बत्ती जलायी जा सकती थी पर उसने नहीं जलायी, उतावली उसमें नहीं थी, कोई उत्कण्ठा नहीं, केवल एक स्थिर विश्वास-भरी प्रतीक्षा-हर बात का समय है, समय आने दो, वह होगी; कापी में जो-कुछ है वह भी वह जानेगा समय पर-ठीक समय पर...
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जो जानने का कारण है, उसे लोग कितना कम, और जो जानने का कोई कारण नहीं है उसे कितना अधिक जानते हैं, इसकी पड़ताल की जाये तो कदाचित् यही मान लेना पड़ेगा कि जानने का कारण न होना ही जानने के लिए पर्याप्त और वास्तविक कारण है! वकील से विदा लेकर हेमेन्द्र ने रेखा के बारे में इधर-उधर जो पूछ-ताछ करनी शुरू की, तो उसे बहुत-सी आश्चर्यजनक बातें मालूम हुईं। 'रेखा'? मुस्कराहट। रहस्य। 'जाने दीजिए-किसी स्त्री की बुराई नहीं करनी चाहिए।' चेहरे पर दर्द का भाव। 'लेकिन आजकल की औरतें भी-कुछ पूछिए मत-हिन्दुस्तान को यूरोप बना दिया है-बल्कि यूरोप में भी ऐसा न होता होगा।' 'कहें कैसे, कहने की बात भी हो? पर आप उसके हितैषी मालूम होते हैं'...'वह तो-अपने यारों को लेकर पहाड़ों की सैरें करती-फिरती है-कभी इसको, कभी उसको-नौकरी का तो सिर्फ बहाना है, कभी किसी के साथ रहती है कभी किसी के'...इसके बाद एक कटु कर्तव्य को साहसपूर्वक कर चुकने का क्लान्त पर आत्म-तुष्ट भाव।
हेमेन्द्र ने सहसा नहीं माना। उसे इस बात का गर्व था कि वह लोगों को पहचानता है। और रेखा? रेखा तो बरसों तक उसकी ब्याहता रही है-साथ सोया नहीं तो क्या, उसे पहचानता तो है...पर कई जगह से एक-सी बात सुनकर उसका निश्चय कच्चा पड़ गया, और जब यह मालूम हुआ कि रेखा अपने शिकार प्रायः लखनऊ से चुनती रही है और उनमें से एक का नाम भी लिया गया-चन्द्रमाधव-तब उसने लखनऊ जाकर पता लगाने की ठानी। यों रेखा क्यों करती है, उसे क्या-उसे रेखा से कुछ लेना-देना नहीं है, केवल तलाक़!-पर जिसके साथ बरसों का सम्बन्ध रहा है (क्या खूब शब्द है सम्बन्ध-साथ बँधना!) उसके बारे में कौतूहल स्वाभाविक ही है न...
चन्द्रमाधव उसे देखकर आश्चर्य-चकित रह गया। “मिस्टर हेमेन्द्र-आप यहाँ-ह्वट ए सरप्राइज़! मैंने तो आपको पत्र लिखा था-मिला?”
हेमेन्द्र ने भी आश्चर्य से कहा, “मुझे-पत्र? मुझे तो नहीं मिला-कब लिखा था?”
“अभी कुछ दिन पहले-डेढ़-दो महीने-”
“तब हो सकता है पीछे आये-मैं भटकता रहा, सिंगापुर था, फिर बर्मा होता आया हूँ। कोई खास बात थी?”
“नहीं, यों ही। पर चलिए-शैल वी गो एण्ड हैव ए ड्रिंक?”
साथ बैठकर शराब पीने की एक कला है। हेमेन्द्र बहुत अच्छा साथी था। अवश नहीं होता, लेकिन बातों में गैर-ज़िम्मेदारी की वह ठीक मात्रा होती है जिससे रस आता है : गैर-जिम्मेदारी की भी, और-अश्लीलता की भी, यद्यपि जो रस देती है, जीवन को उभारती है उसे अश्लीलता नहीं कहना चाहिए...
हेमेन्द्र को चन्द्रमाधव ने पत्र तो लिखा था, पर रेखा के बारे में बातचीत शायद इस रासायनिक सहायता के बिना न कर पाता। पर प्यालों में वह सहज भाव से बात कर सका; हेमेन्द्र की सुनी बातें उससे खण्डित भी हुईं, पुष्ट भी; निस्सन्देह अगर हेमेन्द्र उसे मुक्त कर दे तो वह शादी करना चाहेगी; क्योंकि अब शादी के सिवा और चारा क्या हो सकता है, और शादी भी जल्दी। इस पर उसने एक भद्दी कहानी भी सुना दी थी जो किसी मध्य-कालीन फ्रांसीसी किस्से में उसने पढ़ी थी-एक औरत शादी के लिए जल्दी मचा रही थी क्योंकि सवाल यह था कि शादी पहले होती है कि बच्चा; किसी तरह शादी हो गयी थी, दूसरे दिन सवेरे बच्चा हुआ था, और लोग नये बाप को बधाई देने आये थे उसके पुरुषार्थ पर-सुहाग-रात भर में यह जादू!...
दोनों ज़ोर से हँसे थे, फिर बात रेखा के विषय से कुछ दूर हट गयी थी, चन्द्र अपनी घरवाली की बात करने लगा था, हेमेन्द्र ने उस मलय मेम की कुछ बात बतायी थी; इस पर दोनों सहमत हुए थे कि औरत दुनिया की सब मुसीबतों की जड़ है, लेकिन उसके बग़ैर रहा भी नहीं जाता-इसीलिए तो वह मुसीबतों की जड़ है। चन्द्र ने आँख मार कर कहा था, “दोस्त, सुना है तुम्हारा काम तो उसके बग़ैर चल जाता है-” और हेमेन्द्र ने उसी सुर में जवाब दिया था, “चल जाता था, पर अब यह लत लग गयी!” और दोनों ठहाका मार कर हँसे थे। “तो दोस्त, रेखा को वापस ही क्यों नहीं बुलाते-मज़ा आ जाये एक बार बुलालो तो!” हेमेन्द्र क्षण-भर तक सोचता रहा था, फिर उसे बात बड़ी मनोरंजक जान पड़ी थी और वह हँसने लगा था। “पति के अधिकार...हाँ, इतने बरसों बाद पति के अधिकारों का दावा करूँ तो-” नहीं, यह बहुत ज्यादा मजे॓ की बात थी, इतनी कि हँसा भी न जाये, इस पर तो एक दौर और होना चाहिए...”लेकिन वैसे मैं मजे॓ में हूँ-उसके जो जी में आवे करे-कुतिया! फिरने दो आवारा...”
चन्द्रमाधव ने तय किया कि 'हेमेन्द्र इज़ आल राइट।' हेमेन्द्र ने भी उस समय तय किया कि 'चन्द्र इज़ ए नाइस फ़ेलो।' दूसरे दिन सवेरे अवश्य इस पर उसका निश्चय कुछ दुर्बल हो आया, पर हेमेन्द्र उन लोगों में से नहीं था जो रात के निश्चयों पर सवेरे कोई गहरी अनुशोचना करते हैं। रात रात है, दिन दिन; मलय में रहकर तो वह और भी अच्छी तरह जान पाया है कि दोनों के विचार, दोनों के दर्शन, दोनों का जीवन ही अलग-अलग है...
लेकिन, वाकई, रेखा को चिट्ठी तो लिखी जाये, और कुछ नहीं तो शुगल रहेगा! वह उसके साथ रहकर उससे बात कर सकता, तो अच्छा होता; पर अब तो वह नहीं हो सकता-न वह उसके पास जा सकता है, न रेखा उसके पास आएगी-अब तो चिट्ठी ही है। सहसा जीवन के खोये हुए अवसरों का तीखा बोध उसे हो आया : रेखा भी एक खोया हुआ अवसर था-कितना बड़ा अवसर-कैसे विदग्ध विलास का अवसर...
किसी बेहया ने ठीक कहा है-अन्तिम समय में मानव को अनुताप होता है, तो अपने किये हुए पाप पर नहीं, पुण्य करने के अवसरों की चूक पर नहीं; अनुताप होता है किये हुए नीरस पुण्यों पर, रसीले पाप कर सकने के खोये हुए अवसरों पर...
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कमरे से रेखा बहुत देर तक नहीं निकली, नाश्ता भुवन ने अकेले ही किया। उसके बाद ही रेखा ने उसे बुला भेजा।
वह पलंग पर तकियों के सहारे लेटी हुई थी, कन्धों पर शाल ओढ़े और पैरों पर कम्बल; बीच में उसने बारीक काली धारियों वाली उन्नाबी रंग की साड़ी पहन रखी थी जिससे उसके चेहरे का पीलापन कुछ कम खटकने वाला हो गया था।
“मेरी तबीयत ठीक नहीं है भुवन-यहीं बैठो-”
“क्या बात है, रेखा?”
“कुछ नहीं, चक्कर आते हैं-और मतली होती है-वही सब-” कहती हुई वह थोड़ा लजा कर मुस्करा दी।
भुवन ने कहा, “डाक्टर को नहीं बुलाना चाहिए, रेखा?”
“बुलाऊँगी, बुलाऊँगी : अभी मुझे सोच तो लेने दो-”
“इसमें सोचना क्या है, रेखा? कामन सेंस की बात है-”
“सो तो है। पर-सोचना भी तो है। आजकल में ही बुला लूँगी डाक्टर को भी एक बार-”
“मुझे आज श्रीनगर जाना है-मैं बुला लाऊँ?”
“आज फिर?”
भुवन ने बताया कि उसे लौटना है; शीघ्र ही वह फिर छुट्टी लेकर आ जाएगा। थोड़े दिन बाद ही दशहरे की छुट्टियाँ भी पड़ती हैं, उनसे लगी हुई छुट्टियाँ लेगा ताकि लगातार काफ़ी दिन तक रह सके। आठ-दस दिन में ही वापस पहुँच जाएगा-हो सका तो और भी जल्दी।
रेखा चुपचाप उसे देखती रही।
“क्या सोच रही हो, रेखा?”
“कुछ नहीं। ठीक कहते हो तुम...”
भुवन को डाक्टर की बात फिर याद आ गयी। उसके बहुत आग्रह करने पर रेखा ने वचन दिया कि दो-तीन दिन के अन्दर ही वह स्वयं डाक्टर के पास जाएगी और उस के आदेशों का पालन भी कड़ाई के साथ करेगी। फिर उसने कहा, “श्रीनगर जाओगे तो वक़्त हो तो मिसेज़ ग्रीव्ज़ से भी मिल जाना-तुम्हें अच्छी लगेगी बुढ़िया। और उसे यह भी कह आना कि तुम फिर आओगे।”
भुवन ने स्वीकार कर लिया।
दोपहर तक वह रेखा के पास ही बैठा रहा, कभी बातें करता और कभी किसी पुस्तक से कुछ पढ़कर सुनाता; बारिश थमी थी पर बादल वैसे ही थे और निश्चय था कि फिर बरसेंगे; भुवन ने फिर आग जलवा दी थी और ढेर-सी लकड़ियाँ भी चुनवा कर रख दी थी कि आग बराबर जलती रखी जा सके। दोपहर के भोजन के बाद, रेखा को भी स्वल्प कुछ खिलाकर वह चला गया। शाम को अपना सब प्रबन्ध करके लौटा; दूसरे दिन तड़के ही ताँगा उसे लेने आएगा ताकि वह सवेरे की पहली बस पकड़ सके जो शाम को उसे जम्मू पहुँचा दे; मिसेज ग्रीव्ज़ से भी वह मिल आया, चाय भी उसी के साथ पी।
जब वह वापस आया तब रेखा सो रही थी। भुवन चुपचाप उसके कमरे में जाकर बैठ गया; उसमें एक सुखद गरमाई थी, और दयार की लकड़ी की प्रीतिकर गन्ध कमरे की हवा को एक ताज़गी दे रही थी। लकड़ी का कभी-कभी चटकना, गाँठों के गन्ध-रसों का फुरफुरा कर जलना, रन्ध्रों से रुद्ध गैस का सीत्कार के साथ मुक्त होना और शिखाओं की हलकी सुरसुराहट-ये सब एक बड़े मधुर और धीमे संलाप की तरह थे, जो रेखा के साथ उसके मौन संलाप की मानो पीठिका था...एक तन्द्रा-सी उस पर भी छा गयी।
रेखा ने जाग कर कहा, “तुम आ गये, भुवन?” और उसके कुछ पूछने से पहले ही कहा, “मैं बहुत अच्छी हूँ। सो चुकी, अब चाय पी जाये-पिओगे?”
भुवन ने उठकर सलामा को आवाज़ दे दी।
रात में फिर हल्की बारिश होने लगी। भुवन के कमरे में भी आग जलायी गयी, पर वह रेखा के पास ही आराम-कुरसी लिए बैठा रहा, रेखा लेटी रही। एक मौन-सा उन पर छा गया; रेखा ने कहा, “जाओ सोओ, भुवन, तुम्हें सवेरे जाना है।”
भुवन बोला, “बहुत सवेरे जाना हो तो रात को जागने में ही सुविधा होती है। यह तो आजमाया नुस्खा है।”
रेखा मुस्करा दी। “मैं तो तैयार हूँ-रात को तो ठीक रहती हूँ। काफ़ी भी पिलाऊँगी।” फिर सहसा गम्भीर होकर, “नहीं, भुवन, सोओ तुम। अच्छा, ठीक बारह बजे तुम चले जाओगे-हाँ?”
भुवन ने आकर उसके माथे पर अपने ओठ रख दिये, बहुत देर तक उसके बाल सूँघता रहा। फिर पहले-सा बैठ गया; केवल दोनों के हाथ बराबर उलझते-सुलझते, एक दूसरे को सहलाते खेलते रहे, मानो उनकी बातचीत से अलग, अपने ही किसी रहःसंलाप में व्यस्त, तल्लीन...
ठीक बारह बजे भुवन ने उठकर रेखा का माथा चूमा-फिर क्षण-भर उसकी आँखों में देखकर उसकी पलकें, गाल, कर्णमूल; फिर नासापुट, ओठ; फिर उसके कण्ठ-मूल को चूम कर धीरे से कहा, “गॉड ब्लेस यू” और धीरे-धीरे उसके कन्धे से अँगुलियों तक उसकी बाँह सहलाता हुआ चला गया।
सवेरे फिर मिलने की बात नहीं थी; पर जब तैयार हुआ तो एक ड्रेसिंग गाउन पहने और सिर पर शाल लपेटे, मधुर उनींदी आँखोंवाली रेखा दरवाज़े पर आकर खड़ी हो गयी। भुवन ने उसे अन्दर खींच कर किवाड़ उढ़का दिये। और कहा, “तुम क्यों उठी रेखा? तुम्हारे उठने की तो बात नहीं थी-”
“तुम चुपके से चोर की तरह चले जाते?”
“नहीं, वह तो नहीं सोचा था-मैं आता और मिल जाता। अब तुम खड़ी रहोगी और मैं जाऊँगा तो-अधिक चुभेगा...।”
“नहीं भुवन, ठीक है; टेक ए गुड लुक एट मी ह्वेन यू गो*-मैं भी देखूँगी-”
(*जाते हुए एक बार मुझे अच्छी तरह देख लो।)
भुवन ने कुछ सहम कर कहा, “मैं हफ़्ते-भर में वापस आ रहा हूँ, रेखा।”
“जानती हूँ। विदा को थियेटर नहीं बना रही, भुवन! लेकिन सब विदाएँ अन्तिम होती हैं-चरम कोटि का जोखिम...।”
“मैं छोटा था, तब एक डरावना स्वप्न देखा करता था। दोनों हाथों को अलग करता हूँ, फिर ताली बजाने लगता हूँ तो न जाने क्यों, हाथ टकराते ही नहीं, एक-दूसरे से छूते नहीं, न मालूम कैसे एक-दूसरे के पार निकल जाते हैं। और स्वप्न देखकर न जाने क्यों डर लगा करता था, हालाँकि है हँसी की बात, डरने की नहीं।”
“हाँ। जब भी सम्पर्क टूटता है तो फिर कभी होगा कि नहीं, नहीं कहा जा सकता। आशा ही होती है।”
“पर सम्पर्क तो नहीं टूटता, अलग होना और बात है, सम्पर्क-”
“वह तो दूसरे स्तर की बात है भुवन; उस पर मैंने तुम्हें विदा कब किया है? उस पर 'तू ही है, मैं नहीं हूँ'-हमारा प्रत्येक क्षण हमारे सारे अनुभव का पुंज है उस स्तर पर...”
ताँगा आ गया था। भुवन ने रेखा के दोनों हाथ अपने हाथों में लिए, फिर सहसा मुड़कर बाहर चला गया। रेखा बरामदे में आकर खड़ी रही; ताँगा चला तो दोनों एक दूसरे की ओर देख कर मुस्कराते रहे जब तक कि चेहरे ओझल न हो गये...
× × ×
सातवें दिन ही भुवन लौट आया। उसने सोचा था कि शाम तक वह पहुँचेगा, पर पहुँचा देर रात को। बारिश हो रही थी और नदी बहुत चढ़ आयी थी। दोपहर को उसने तार दे दिया था : 'शाम को पहुँच रहा हूँ' पर रात को बँगले पर पहुँच कर उसे बाहर से ही न जाने क्यों लगा मानो अब उसके पहुँचने की बात न थी-क्या तार नहीं पहुँचा?
वह ताँगे से उतरा तो सलामा आ गया। सलाम करके बोला, “मेम सा'ब की तबीयत ठीक नहीं है-”
“कहाँ हैं-कमरे में जा सकते हैं?” कहकर भुवन उत्तर की प्रतीक्षा न करके रेखा के कमरे की ओर बढ़ गया, धीरे-से दस्तक देकर क्षण-भर बाद किवाड़ खोलकर भीतर चला गया।
नीचे टेबल लैम्प का प्रकाश कम था, क्षण-भर वह ठिठक रहा। फिर सहसा उसके मुँह से निकला, “रेखा।”
रेखा पलंग पर सीधी लेटी थी, चेहरा बिल्कुल पीला, निश्चल, माथे पर बल लेकिन वे भी निश्चल, मानो देर से दर्द सहते-सहते जड़ हो गये हों...भुवन ने छादन उठाकर प्रकाश कुछ बढ़ा दिया, रेखा ने ज़रा भी हिले बिना क्षीण स्वर में पूछा, “कौन है?” और भुवन का स्वर सुनकर वैसे ही निश्चेष्ट भाव से कहा, “तुम आ गये भुवन...क्यों आ गये तुम!”
भुवन सन्न रह गया। जल्दी से रेखा के पास घुटने टेक कर उसके माथे पर हाथ रखकर बोला, “क्या हुआ रेखा?”
रेखा कुछ नहीं बोली। उसका शरीर काँपने लगा, पहले थोड़ा-थोड़ा, फिर जोर से; ओठों की रेखा खिंच कर पतली हो आयी; बन्द आँखों की कोरों से आँसू झरने लगे, टप, टप, टप-टप...
भुवन भी जड़ बैठा रहा, न हिल-डुल सका, न बोल सका।
कई मिनट बाद उसे ध्यान आया कि वह भीगा हुआ है, वह उठकर अपने कमरे में कपड़े बदलने चला गया। जल्दी से सामान ठीक-ठाक कर, कपड़े बदल कर फिर रेखा के पास कुरसी खींच कर बैठ गया। उसकी दर्द से सिकुड़ी भौहों को देखता; फिर मानो साहस जुटा कर धीरे-धीरे उन सलवटों को सहलाने लगा।
उससे भौंहें कुछ सीधी हो गयीं, जैसे दर्द की खींच कुछ कम हुई। भुवन ने फिर पूछा, “रेखा, क्या हुआ है, क्या तकलीफ़ है?”
रेखा के आसूँ फिर टप-टप ढरने लगे-अब की बार शरीर को कँपाते हुए नहीं, यों ही, मानो अवश शरीर से स्वयं झर रहे हों। भुवन-बार-बार उन्हें पोंछने लगा।
थोड़ी देर बाद रेखा के ओठ हिले। वह कुछ कह रही थी। भुवन आगे झुक गया। रेखा ने आँखें खोल कर उसे देखा, फिर आँखें बन्द करते हुए कहा, “भुवन, मेरे भुवन, मुझे माफ़ कर दो-”
भुवन ने और भी व्याकुल होकर पूछा, “बात क्या है, रेखा?”
सहसा उसकी ओर करवट फेरकर रेखा बिलख-बिलख कर रो उठी।
भुवन सुन्न बैठ रहा।
दरवाज़े पर दस्तक हुई।
भुवन उठकर गया, सलामा था। बोला, “खाना तैयार है हजूर।” भुवन कहने को था कि नहीं खाऊँगा, पर रुक गया और बोला, “अच्छा, हम अभी आते हैं।”
द्वार बन्द कर के फिर वह रेखा के पास लौट आया। धीरे-धीरे रेखा शान्त होने लगी। थोड़ी देर बाद वह कोहनी के सहारे उठ बैठी, फिर पलंग से पैर नीचे लटका कर उसने स्लीपर टटोले और खड़ी हो गयी; ड्रेसिंग रूम की ओर जाने लगी। उसकी अटपटी चाल देख कर भुवन सहारा देने लगा, पर उसने सिर हिला दिया।
दो-तीन मिनट बाद वह मुँह-हाथ धोकर लौटी। चेहरा बिलकुल पीला, लेकिन स्निग्ध; सलवटें हट गयी थीं। चाल वैसी ही निर्बल, मगर संकल्प-शक्ति के सहारे सीधी। पलंग पर बैठ कर उसने पैर ऊपर समेट लिए, क्षण-भर आँखें बन्द की मानो इस आने-जाने के श्रम से टूट गयी हो, फिर सहसा उसके चेहरे पर ऐसी दिव्य मुस्कान खिल आयी कि भुवन विमूढ़ देखता ही रह गया-इतना दुर्बल पीला चेहरा, इतनी दुर्बल, वेदना-जर्जर देह, अभी पहले की वह अवश रुलाई, और-यह मुस्कान!
उसकी विमूढ़ता देखकर रेखा ने कहा, “पगले, ऐसे स्टेयर नहीं करते। इस मुस्कान का सम्मान मुस्कान से होता है-समझे?”
भुवन जैसे-तैसे मुस्करा दिया।
“मैं ठीक हूँ अब। तुम जाओ, खाना खाकर जल्दी से आ जाना मेरे पास”
“पर रेखा, तुम्हें-”
“जाओ न, खाना खा खाओ, अच्छे भुवन, राजा भुवन-त्रिभुवन के महाराज-'महाराज ए कि साजे एले मम हृदयपुर माँझे'-जाओ खाना खा आओ!”
भुवन वैसा ही विमुग्ध खड़ा हो गया। “अच्छा, अभी आया।”
उसने बाहर निकल कर किवाड़ बन्द किये कि रेखा एक हल्की-सी कराह के साथ मानो टूट कर पीछे गिरी, क्षण-भर के लिए अँधेरा हो गया; फिर उसने ओठ काट लिए और निश्चल पड़ी रही, दर्द के स्पन्दनों के साथ क्षण गिनती हुई...
× × ×
बाधा की सब सम्भावनाओं को काट कर भुवन फिर दबे-पाँव कमरे में आया-कपड़े बदल कर, गर्म चादर ओढ़ कर, पैरों में मोज़े पहन कर।
रेखा सो रही थी।
परली दीवार से सटी तिपाई पर दवा की दो-एक शीशियाँ रखी थीं। भुवन दबे-पाँव जाकर देखने लगा। दवाएँ पेटेंट थीं, डाक्टर की दी हुई भी हो सकती थी और स्वयं लायी हुई भी, ऐसी कोई दवा न थी जिस से कुछ पता लगे कि रेखा को तकलीफ़ क्या है। फिर उसने देखा, एक खाली डिब्बा पड़ा है जिसके अन्दर शीशी नहीं है। यह दर्द को दबाने और नींद लाने की दवा थी। शीशी क्या हुई? भुवन ने लौटकर रेखा के पलंग के पास की छोटी मेज़ देखी; ऊपर तो नहीं, पर एक तरफ़ के खाने में शीशी खुली रखी थी, गोलियों को ढँकने वाली रुई का गाला भी बाहर रखा था, उसके पास छोटे गिलास में ज़रा-सा पानी। तो रेखा ने दवा खायी होगी...भुवन फिर उसे देखता रहा; उसकी साँस नियमित चल रही थी-बल्कि कुछ भारी, थोड़ी खरखराहट के साथ जैसी दवा की नींद से उन लोगों में भी होती है जिनकी नींद का निश्वास-प्रश्वास साधारणतया बिलकुल अश्रव्य होता है...भुवन ने लैम्प का छादन झुकाया और धीरे-धीरे कमरे से बाहर हो गया।
अपने कमरे में जाकर वह टहलने लगा। रेखा सो रही है, इस ज्ञान से उसे कुछ तसल्ली थी; पर उसे हुआ क्या है? कमरे के चक्कर काटते-काटते उसे सहसा लगा, वह बन्दी है-इस कमरे का, इस बेपनाह बारिश का, और अपनी अज्ञता का...ऐसे ही जेल के कैदी अपनी बेबसी में चक्कर काटते होंगे कदम नाप-नाप कर-उसकी बेबसी बदतर है क्योंकि उस पर कोई बन्धन नहीं है, कोई उसे रोकता नहीं है...
थोड़ी देर बाद वह लेट गया और बारिश की टपाटप सुनने लगा। सोचना-अनुक्रमिक चिन्तन-उसने छोड़ दिया; जो विचार उठता, उठता, फिर स्वयं लीन हो जाता; फिर कोई सर्वथा असंगत दूसरा उठता और विलीन हो जाता-मानो बुलबुले, प्रत्येक गोलायित, सम्पूर्ण, अनन्य-सम्बद्ध, नश्वर...
न मालूम कितना समय ऐसे बीत गया। फिर बारिश की टपाटप की सम्मोहनी ने उसे भी तन्द्रालस कर दिया। वह भी न मालूम कितनी देर।
सहसा वह हड़बड़ा कर उठ बैठा। क्या हुआ? क्या उसने कोई पुकार सुनी थी-कोई कराह? वह कान लगा कर सुनने लगा कि बारिश के शब्द के ऊपर कुछ सुन सके। पर नहीं...
उठकर उसने किवाड़ खोला और बरामदे से होकर रेखा के कमरे की खिड़की के पास गया। हाँ, थोड़ी देर बाद भीतर से स्पष्ट शब्द आया-निस्सन्देह कराह का स्वर। वह लपक कर भीतर गया।
रेखा कराह रही थी। पर वह कुछ अस्पष्ट कह भी रही थी : भुवन ने सुना : “जीवन...जान...प्राण...”
भुवन ने उसे सँभाला। उसने आँखों से ड्रेसिंग रूम की ओर इशारा किया; भुवन उसकी बाँह कन्धे पर डालकर सहारा देने से अधिक उसे उठाये हुए बाथ-रूम के दरवाज़े तक ले गया, एक हाथ से दरवाज़ा उसने खोला और पूछा, “जा सकोगी?”
रेखा ने सिर हिला दिया, बाँह छुड़ा कर किवाड़ के सहारे खड़ी हुई और भीतर जाने लगी। जाते-जाते ड्रेसिंग की अलमारी की ओर उसने इशारा किया : “रुई”
भुवन ने वहाँ से डाक्टरी रुई का बण्डल निकाल कर दे दिया। रेखा ने किवाड़ बन्द कर दिया, भुवन खड़ा रहा।
रेखा लौटी तो किवाड़ के सहारे भी नहीं खड़ी हो पा रही थी। भुवन ने सँभाल लिया और ले जाकर पलंग पर लिटा दिया।
थोड़ी देर रेखा मूर्च्छित-सी रही, फिर उसने आँखें खोली और कहा, “मेरे जीवन...” और फिर ओठ काट लिए, दर्द से उठ बैठी। फिर उसने पहले की भाँति इशारा किया; भुवन अब की बार उसे सीधे उठा कर ही ले गया; एक हाथ से कुरसी खींच कर बाथ-रूम के दरवाज़े के आगे रख दी, और रेखा को बिठा दिया। रेखा अन्दर गयी, लड़खड़ाती लौटकर कुरसी पर बैठी, वहाँ से भुवन फिर उठाकर पलंग पर ले गया। लेटकर फिर वह अस्पष्ट पुकारने लगी-”जान, प्राण-” लेकिन भुवन उसके ऊपर झुका है इसका उसे होश नहीं था, और उसके शब्द भी मानो शब्द नहीं थे, केवल कराह को छिपाने का एक तरीका।
भुवन एकाएक उठकर ड्रेंसिंग-रूम में गया, कुरसी उठाकर बाथ-रूम में रखने चला, पर एक कदम अन्दर रखकर ठिठक गया।
कटार की कौंध-से तीखे क्षण में वह सब समझ गया। और एक उन्मत्त फुर्ती से वह काम करने लगा।
रेखा के पलंग के पास एक कुरसी उसने रखी, उस पर एक चिलमिची, तिपाई पर से सामान उठाकर उस पर पानी का भरा जग, रुई और साबुन-तौलिया, दूसरे जग में पानी भर कर आग के पास गर्म होने के लिए रख दिया, स्टोव पर केतली में भी; फिर बाथ-रूम में जाकर उसने चिलमिची खाली की, उसे धोकर पलंग के पास फ़र्श पर रख दिया। रेखा इतनी देर अर्द्ध-मूर्च्छित थी, अब फिर सचेत हुई और उठने का यत्न करने लगी; भुवन ने कहा, “रेखा, मैंने सामान यहीं रख दिया है-मैं बाहर जाता हूँ-”
रेखा ने किसी तरह अपने सारे बल को समेट कर कहा, “मुझे माफ़ कर दो, प्राण मेरे-” और एक दुर्बल हाथ उसकी ओर को बढ़ाया। भुवन ने उसे पकड़ते हुए कहा, “रेखा, यह हुआ क्या-तुम डाक्टर के पास नहीं गयी थी-”
“गयी थी-गयी थी मैं-” रेखा का उत्तर मानो एक चीख थी, “तभी तो-भुवन मुझे माफ़-”
“क्या?” आश्चर्य के थप्पड़ से भुवन का स्वर खुरदरा हो आया था; उसे फिर संयत करके किसी तरह उसने कहा, “क्या, रेखा-तुम ने-”
रेखा ने सिर हिलाया। साथ ही कहा, “तुम-जरा बाहर जाओ भुवन-”
वह जल्दी से जाने लगा तो रेखा ने कहा, “मेज पर दो चिट्ठियाँ हैं, ले जाओ-” बाहर निकल कर उसने देखा, एक चिट्ठी अपरिचित अक्षरों में, दूसरी परिचित-चन्द्रमाधव की; अपरिचित हाथ की चिट्ठी उलट कर उसने हस्ताक्षर देखे-हेमेन्द्र। चिट्ठियाँ उसने पूरी नहीं पढ़ी, यद्यपि छोटी थी, जल्दी से नजर उन पर दौड़ा गया; फिर भी जो-जो पद या पदांश उसने पढ़ा वह नोक-सा धँसता चला गया। वह जल्दी से कमरे की ओर लौटा, रेखा फिर कराह रही थी-चिट्ठयाँ जैसे-तैसे ज़ेब में ठूँस कर वह अन्दर चला गया। चिलमिची ले जाकर धो कर उसने फिर स्थान पर रख दी।
रेखा ने कहा, “तुम्हें कितना सता रही हूँ-मैं बहुत लज्जित हूँ भुवन-”
“किस डाक्टर के पास गयी थी तुम?”
भुवन के स्वर में अविश्वास था; रेखा ने कहा, “झूठ नहीं बोलती, भुवन, अच्छे डाक्टर के पास गयी थी-सर्जन के-”
“अच्छा डाक्टर! यह अच्छे डाक्टर के काम हैं?” भुवन की वाणी में अवश रोष उभर आया।
रेखा ने कहा, “भुवन, तुम अभी मुझे छोड़कर चले जाओगे तो मुझे शिकायत नहीं होगी। जाओ, मैं कहती हूँ-गाड ब्लेस यू, प्राण।”
भुवन चुप हो गया। रेखा थक कर लेट गयी, थोड़ी देर बाद फिर उठी और भुवन कमरे से बाहर चला गया।
फिर लौटा तो रेखा का चेहरा सफेद हो रहा था। थोड़ी देर बाद रेखा ने आँखें खोलीं तो भुवन बोला, “मैं डाक्टर बुलाकर लाता हूँ-ऐसे नहीं-”
रेखा ने सहसा चीख कर कहा, “नहीं भुवन, तुम मेरे पास से नहीं जाओगे।” फिर कुछ संयत होकर “या-जाते हो तो-अच्छा।”
वह फिर मूर्च्छित-सी हो गयी।
थोड़ी देर बाद फिर जागी, उसकी मुद्रा देखकर भुवन बाहर जाने लगा, पर किवाड़ पर न जाने क्यों रुक गया। मुड़कर देखा तो रेखा फिर पीछे गिर गयी थी। वह लौट आया। “नहीं सकती, भुवन-और नहीं सकती-”
भुवन थोड़ी देर सकुचाया खड़ा रहा। फिर उसने लैम्प और परे की ओर मोड़ दी, रुई का बड़ा-सा टुकड़ा लेकर तह जमायी, और रेखा की ओर झुक गया। रेखा ने हाथ रुई की ओर बढ़ाया। पर वह निर्जीव-सा रह गया, रुई को ठीक से पकड़ भी नहीं सका-
हाथ धोकर भुवन फिर लौटा तो उसे लगा, रेखा अभी फिर उठना चाहेगी। उसने घड़ी देखी; रात के साढ़े ग्यारह बजे थे। ऐसे तो रात नहीं कट सकती। वह...वह सहसा निश्चित कदमों से बाहर निकल गया। क्वार्टर तक जाकर उसने सलामा को बुलाया, अपने कमरे में लाकर एक चिट्ठी लिखकर दी, और उसे कहा, “मेम साहब की हालत नाजुक है-दौड़े हुए मिशन जाओ और उनको बोलना कि एम्बुलेंस गाड़ी लेकर आएँ-डाक्टर भी साथ में, फौरन-जाओ, शाबाश-”
सलामा गया। भुवन फिर रेखा के कमरे में लौटा।
रेखा ने वह इशारा करना भी छोड़ दिया। वह अर्द्ध-चेतन अवस्था ही स्थायी हो गयी। भुवन ही थोड़ी देर बाद उठता, एक पट्टी उठाकर दूसरी लगा देता, हाथ धोकर फिर आ जाता...
रेखा का कराहना भी बन्द हो गया था। कभी वह हल्का-सा 'हूँ-हूँ' करती, नहीं तो मौन : एक अजब डरावना सन्नाटा छा गया था। भुवन वर्षा का स्वर सुन रहा था। बीच-बीच में कभी अचानक कुछ गिरने का 'धप्' का स्वर सुनाई देता था-पहले वह समझ न सका कि यह क्या है, फिर सहसा जान गया : पके फल...रात के सन्नाटे में फल का यह चू पड़ना हैबतनाक था-मानो एक द्रुत कारणहीन मृत्यु आकर किसी को ग्रस ले...
अगर सलामा असफल रहा, अगर रात को डाक्टरों ने उसकी न सुनी-वह स्वयं जाता तो और बात थी-अगर अस्पताल में एम्बुलेंस न हुई-उसने लिख तो दिया था, डाक्टर तो आएगा पर अगर पैदल आना हुआ तो-ओह रेखा, यह तुम ने क्या किया-
वह फिर उठा। बाथ-रूम की ओर जाते हुए उसने अपने हाथों की ओर देखा-सहसा ऐसा सिकुड़ गया मानो आसन्न वार के आगे कोई सिकुड़ जाये : सर्जन-हुँह, हत्यारा! सर्जन-सर्जन-बीनकार सर्जन...हत्यारा कौन? हत्यारा वह है, वह स्वयं-पर रेखा, रेखा, यह तुम ने किया क्या-क्यों...
हाथ धोकर वह फिर लौट आया।
रेखा ने आँखें खोल दीं। स्थिर भाव से, मानो दर्द उसे नहीं है। भुवन अचम्भे में देखने लगा, तो वह बोली, “अब दर्द नहीं है, भुवन। मैं सुन्न हो गयी हूँ। तुम चले नहीं गये, भुवन, थैंक यू।”
उसका स्वर बहुत धीमा और दुर्बल था, पर टूटा नहीं, स्पष्ट। भुवन के मन के निचले किसी स्तर में प्रश्न उठा-क्या यह अन्त तो नहीं है। दिये की आख़िरी दीप्ति? पर इस से वह मानो और केन्द्रित हो आया रेखा की बातों पर, अस्पष्ट कही बात भी मानो किसी अपर इन्द्रिय से स्पष्ट सुनने लगा।
“तुम मेरे लिए यह भी करोगे नहीं सोचा था। मैं तुम्हें केवल एक्स्टेसी देना चाहती थी। यह नहीं...यह गलीज़ काम-मेरे भुवन...।”
भुवन ने घने उलाहने स्वर में कहा, “मुझसे पूछ ही लिया होता, रेखा? मैं तुम्हें कह गया था कि-”
“भूली नहीं, भुवन! पर-तुम्हें-उसे-लज्जा नहीं देना चाहती थी; तुम्हारा सिर झुके, यह नहीं चाहती थी-किसी के आगे नहीं, और उस-उस राक्षस के आगे...”
हेमेन्द्र की चिट्ठी के फ़िकरे उसकी स्मृति के आगे दौड़ गये। क्या इसी से? हेमेन्द्र तो स्वयं मुक्ति चाहता है-हाँ, ऐसे भी मिल सकती शायद-और बदला भी-काहे का बदला, वह नहीं जानता...
भुवन ने तौलिया उठाकर पट्टी फिर बदली।
“भुवन-एक बात पूछूँ-न चाहो तो उत्तर न देना, क्या तुम-मुझे-घृणा-मुझे अब भी प्यार कर सकते हो?”
“अब-ज्यादा, रेखा; जितना कभी नहीं किया उतना-”
रेखा ने आँखें बन्द कर लीं। मुस्कराना चाहा। ओठ खुले और ज़रा-सा खिंच कर रह गये। भुवन ने देखा, ओठ भी सफेद हैं-बल्कि धूमिल; ज़रा-सा गीलापन लिए; और रेखा ने फिर आँखें खोली तो उसने लक्ष्य किया, कोये भी पीले हैं-पीले और मैले, और पुतलियाँ कान्तिहीन यद्यपि बढ़ी हुई...वह प्रार्थना करता हुआ झुका, “ईश्वर, रेखा इस स्पर्श को अनुभव कर सके-शरीर से भी, मन से भी-ईश्वर, यह एक सन्देश उसकी चेतना तक पहुँच जाये-” और रेखा का नम माथा उसने चूमा, फिर ओठों से ही उसकी पलकें बन्द करते हुए पलकें।
रेखा निश्चल हो गयी। भुवन ने घड़ी फिर देखी। एक। अब तक तो एम्बुलेंस आ जानी चाहिए थी अगर अस्पताल में होती-क्या होगा?
भुवन ने रेखा पर झुककर कहा, “अब तुम मुझे माफ़ कर दो, रेखा; अब जो मेरी बुद्धि में समाता है करूँगा।”
उसने बहुत-सी रुई लेकर पट्टी लगायी, नया तौलिया लेकर कमर पर लपेट दिया, फिर कम्बल अच्छी तरह उढ़ाकर रेखा को करवट घुमाकर नीचे भी दबा दिया। बाहर से एक बरसाती लाकर रेखा के बगल में बिछायी, उसे उठाकर बरसाती पर लिटाया और बरसाती को लपेट दिया। कमरे और बरामदे के किवाड़ खोल दिये; अपने कमरे में जाकर उन्ही कपड़ों पर ओवरकोट पहना। दूसरी बरसाती सिर पर ओढ़ी और भीतर आकर रेखा के नीचे दोनों बाँहें ऐसे डाली कि उसकी ओढ़ी हुई बरसाती रेखा के सिर और पैरों पर आ जाय। फिर उसने रेखा को उठा लिया और बाहर चल पड़ा। ऐसे उठाये कितनी दूर जा सकेगा, उसने नहीं सोचा। कन्धे पर उठाकर जरूर अस्पताल तक के तीन मील जा सकता, पर उससे शायद रक्त-स्राव अधिक हो इसलिए गोदी में ही उठाना ठीक था।
अगर एम्बुलेंस आयी? तो हर्ज नहीं, रास्ते में मिलेगी ही। और अगर नहीं आयी? तो ऐसे भी वह तीन बजे तक अस्पताल पहुँच ही जाएगा...
वह तो पहुँच जाएगा, पर रेखा भी पहुँचेगी कि नहीं...
पौने दो...वह बड़ी सड़क पर आ गया था, कुछ आगे भी चल सका था। एक बार एक पेड़ के नीचे उसने तीन-चार मिनट रेखा को लिटा कर बाँहें सीधी की थी। बाकी चलता रहा था। हाँ, तीन नहीं तो सवा तीन तक वह अवश्य अस्पताल पहुँच सकेगा...
तभी दूर पर रोशनी दीखी-मोटर की ही है-फिर मोटर की घर्र-घर्र सुनायी पड़ी-क्या एम्बुलेंस है? न भी हो तो क्या? भुवन ने रुककर, सड़क के किनारे की ढाल पर एक पैर टेक कर रेखा का भार एक घुटने और बाँह पर लिया, दूसरी बाँह मुक्त कर ली कि हिलाकर गाड़ी रोकेगा।
× × ×
एम्बुलेंस ही थी। उसके पास आकर रुक गयी, सेवक कूद कर उतरा; भुवन ने चाहा कि रेखा को उठाकर स्ट्रेचर पर लिटा दे, पर बाँहें उठी नहीं। सेवक ने खींचकर स्ट्रेचर निकाला और हाथ देकर रेखा को लिटा दिया, ऊपर से डाक्टर ने स्ट्रेचर को अन्दर खींचा, सेवक सवार होकर भुवन को भी खींचने लगा तो डाक्टर ने कहा, “आप आगे-मरीज़ को देखना होगा।” आगे से सलामा उतर रहा था, भुवन ने उसे सवेरे ही अस्पताल पहुँचने को कहा और सवार हो गया। गाड़ी मुड़ने लगी तो डाक्टर ने भीतर से आवाज़ दी, “ठहरो अभी-इंजेक्शन लगा लें!” इंज़न बन्द हो गया।
फिर वही टपाटप-अब और भी जोर से क्योंकि बूँदें एम्बुलेंस की लकड़ी और कैनवस की छत पर पड़ रही थीं। भुवन के कान गाड़ी के भीतर से आने वाले शब्दों पर लगे थे, पर शब्द बहुत कम थे, और जो थे उनसे कुछ नहीं जाना जा सकता था कि क्या हो रहा है।
एकाएक भुवन को लगा कि रेखा कराही है। भीतर से डाक्टर का स्वर आया, 'विल यू कम ओवर, प्लीज़?”
भुवन उतर कर पीछे गया। पहले कपड़े हटाकर रेखा को अस्पताल के चार कम्बल ओढ़ा दिये गये थे, वह सचेत थी और धीरे-धीरे कुछ कह रही थी। “भुवन...जान...भुवन...” भुवन ने पास झुककर कहा, “मैं हूँ, रेखा, अब कोई चिन्ता नहीं-”
रेखा ने कहा, “कहाँ-”
“एम्बुलेंस में-अभी अस्पताल पहुँच जाएँगे-”
उसने आँखें बन्द कर ली, पर कुछ गुनगुनाती रही। भुवन ने और पास झुककर सुना : “क्लान्ति-आमार-क्लान्ति-”
वह समझ गया। रेखा ने उसके जाने से पहले जो कापी उसे दी थी, उसमें कहीं यह गीत लिखा था :
क्लान्ति आमार क्षमा करो हे प्रभु
पथे यदि पिछिये -पिछिये पड़ि कभु।
(- रवीन्द्रनाथ ठाकुर)
भुवन ने एक बार डाक्टर की ओर देखा, फिर उतर गया। डाक्टर ने कहा, “मैं भी सामने आता हूँ।” पीछे नर्स और सेवक रह गये। इंज़न स्टार्ट हुआ, गाड़ी घूमी और चल पड़ी। डाक्टर ने कहा, “रक्त रोकने के लिए इंजेक्शन दिया है-”
भुवन ने पूछा, “ख़तरा है?”
“हाँ। बहुत टाइम लूज़ हुआ। लेकिन-आई थिंक शी विल पुल थ्रू। अभी आपरेट करना होगा। शायद ब्लड ट्रांसफ्यूज़न भी-”
भुवन ने कहना चाहा, “मेरा रक्त अगर ठीक हो तो दे सकता हूँ,” पर न जाने कैसी झिझक ने उसे रोक दिया-ऐसी बातें उपन्यासों में होती हैं-पर डाक्टर ने कहा, “ब्लड प्लाज्मा है अस्पताल में-फॉर्चुनेटली।”
फिर अस्पताल में रुकने तक कोई नहीं बोला। उतरते ही डाक्टर ने कहा, “नर्स टॉमस, आरपरेशन-रूम तैयार कराओ। डाक्टर रेबर्न को ख़बर करो। इम्मीजिएट आपरेशन।”
स्ट्रेचर उतार कर अन्दर ले जाया गया। भुवन को खोया-सा खड़ा देखकर डाक्टर ने कहा, “आप घर जाएँगे या-” फिर सहसा याद करके कि वह कैसे आ रहा था, “आप आ कर वेटिंग-रूम में बैठिए-आइ विल ट्राइ एण्ड सेंड यू सम टी। आइ एम सारी देयर्स नथिंग एल्स आइ कैन।”
भुवन ने कहा, “नौ थैंक यू, डाक्टर, बट आइ'म मोस्ट ग्रेटफूल-फ़र्स्ट थिंग्स फ़र्स्ट।”
डाक्टर ने स्वीकृति-सूचक सिर हिलाया और फुर्ती से भीतर चला गया।
भुवन ने घड़ी देखी। ढाई। उसने कुरसी पर बैठते हुए तक लम्बी साँस ली। अगर उसका बचाया हुआ यह आधा-पौन घंटा...विचार उसने वहीं छोड़ दिया। सहसा कहा, “अब भी, रेखा, अब और ज्यादा-जितना कभी नहीं किया।”
मानो जवाब में रेखा के अन्तिम शब्द उसके मन में गूँज गये, और उसे जान कर अचम्भा हुआ कि कापी का गीत उसे याद है; वह गुनगुनाने लगा :
क्लान्ति आमार क्षमा करो , क्षमा करो प्रभु...
× × ×
वह थक गया था। लेकिन थकान उसकी पेशियों में नहीं थी, एक जड़ता उसके मन पर छा गयी थी। कारण बँगले से रेखा को उठाकर आने का श्रम नहीं था, कारण यह था कि बहुत-कुछ समझ चुकने पर भी इस विलायती गोरख-धन्धे के अलग-अलग टुकड़े जुड़ नहीं रहे थे, पूरा चित्राकार नहीं बन रहा था।
वेटिंग-रूम ठण्डा था। निश्चल बैठे रहने से ठण्ड उसके पैर के पंजों से चढ़ती हुई सारे शरीर में छा गयी थी, वह धीरे-धीरे ठिठुर रहा था।
रेखा की कापी से उड़ते हुए वाक्य सामने आते और विलीन हो जाते, फिर दूसरे आते और वे भी विलीन हो जाते, वेदना और अभिप्राय का एक अवदान उसे देकर : लेकिन ये ही वाक्य कभी दुबारा आ जाते तो नयी वेदना लेकर, और शायद कुछ नया अर्थ भी लेकर...
एक तन्द्रा उस पर छा गयी। अगर उसके पैर गीले, ठिठुरे हुए न होते तो वह ऊँघ जाता; यों वह एक तन्द्रिल अवस्था में बैठा था।
हठात् एक निश्चलता के बोध ने उसे जगाया। बारिश थम गयी थी। उसने खड़े होकर अँगड़ाई ली। स्निग्ध अलसाये शरीर की अँगड़ाई सुखद और स्फूर्तिदायक होती है पर ठिठुरे शरीर की अँगड़ाई मानो और भी जड़ बना देती है। वह बाहर के मण्डप में गया : बादलों की चादर अब भी समान रूप से आकाश में फैली थी, पर अब उनमें एक फीकापन था-भोर होने वाला है...भुवन ने फिर घड़ी देखी-छः बजने को थे। वह फिर वेटिंग-रूम की ओर मुड़ा।
प्रवेश कर के वह बैठने ही लगा था कि भीतर की ओर से एक नर्स निकली। उसने कुछ अचम्भे से पूछा, “आप कैसे?” फिर सहसा समझ कर कहा, “वह एमर्जेन्सी केस-”
भुवन ने कहा, “हाँ, हाउ इज़ शी?”
“आपरेशन तो ठीक हो गया। सो गयी हैं। मैं और पूछ आऊँ?” भुवन ने निहोरे से कहा, “प्लीज़-”
नर्स चली गयी। थोड़ी देर बाद डाक्टर भी साथ आ गया। डाक्टर बोला, “शी इज़ आल राइट नाउ। थैंक गाड। लेकिन-मिनटों की बात थी-शी इज ए वेरी ब्रेव वुमन...” सहसा रुककर उसने पूछा, “लेकिन-हाउ डिड इट हैपन-कोई चोट-ओट-”
भुवन क्या कहे? संक्षिप्त हाँ कह देने से तो नहीं चलेगा; और चोट के बारे में इतनी जल्दी कहानी भी वह नहीं गढ़ सकेगा! बोला, “आई डोंट नो-इट हैपंड सडनली-”
डाक्टर ने सिर हिलाया। ऐसा भी होता है...फिर पूछा, “आप उनके-”
भुवन ने कहा, “नहीं-ओनली ए-रिलेशन।” फिर परिचय देना उचित समझकर बोला, “भुवन इज़ माई नेम-डाक्टर भुवन।”
डाक्टर ने हाथ बढ़ाते हुए कहा, “माइन'ज़ पिनकॉट।” हाथ मिलाते हुए पूछा, “मेडिकल?”
भुवन ने कहा, “नो फ़िज़िक्स। कास्मिक रेज़ एण्ड थिंग्स।”
डाक्टर ने कहा, “मिल कर ख़ुशी हुई-पर अब मुझे जाना चाहिए। मस्ट गेट सम स्लीप-”
“थैंक यू, डाक्टर-”
सहसा कुछ याद करके डाक्टर ने कहा, “आपरेशन के बाद होश आते ही-शी आस्क्ड़ फ़ार यू। लेकिन-” कन्धे सिकोड़ कर उसने यह आशय व्यक्त किया कि भेंट तो, आप समझ सकते हैं, असम्भव थी। फिर कहा, “आप शाम को आइये-आई थिंक शी विल बी एबल टु सी यू।”
डाक्टर चला गया। भुवन चलने लगा, तो नर्स उसकी ओर देखकर मुस्करा दी। मुस्कराहट औपचारिक थी, पर उसने मुस्करा कर उसे स्वीकार किया, कहा,
“गुड मार्निंग-” और बाहर निकल आया। सड़क पर जगह-जगह पानी पड़ा था, लेकिन वह तेज़ चलने लगा। नदी की ओर-नदी बहुत चढ़ आयी थी और यद्यपि लोग उठे नहीं थे, वह मानो वहीं से उनके सहमे हुए भाव देख सकता था...उदास, मलिन, गन्दा, बदबूदार श्रीनगर, गँदली मैला ढोने वाली नदी, उदास मैला आकाश, जैसे म्रियमाण आबादी पर पहले से छाया हुआ कफ़न-भुवन ने ऊपर बायें को देखा, शंकराचार्य की पहाड़ी भी उतनी ही उदास, केवल उस धुँधले, तोते के पिंजरे जैसे मन्दिर के ऊपर की बत्ती टिमटिमा रही थी भोर के तारे की तरह धैर्यपूर्वक...
उसकी चाल और तेज़ हो गयी। डाक्टर का कहा हुआ वाक्य उसकी स्मृति में गूँज गया-”शी इज़ ए वेरी ब्रेव वुमन।” एक स्निग्धता उसके भीतर फैल गयी, उसने निःशब्द भाव से भीतर ही भीतर कहा, “रेखा...”
ताँगा लेकर वह वापस पहुँचा तो सलामा दौड़ा हुआ आया। “मेम साहेब”
भुवन ने कहा, “ठीक है, सलामा : अब कोई फ़िक्र नहीं है।
“बहुत तकलीफ़ हो गया-”
“हाँ, सलामा। ख़ुदा ने रहमत की-”
भीतर जाकर वह कपड़े बदलने लगा। सलामा ने आकर आग जलाने का उपक्रम किया। सहसा ज़ेब में कागज़ की खड़खड़ाहट से भुवन को याद आया-वे चिट्ठियाँ। उन्हें निकाल कर वह रेखा के कमरे में रखने चला। जहाँ से उठायी थीं, वहीं रखने लगा तो देखा, वहाँ रेखा के हाथ के लिखे और भी दो-एक कागज़ हैं। थोड़ी देर वह झिझका, फिर उसने मान लिया कि वे भी उसी के लिए हैं, और खड़ा-खड़ा पढ़ने लगा।
“नहीं जानती कि क्या कहूँ-मेरी सब इन्द्रियाँ जड़ हो गयी हैं। कहना चाहती हूँ बहुत, लिखना नहीं; पर कह सकूँगी नहीं, वह मुझी में रह जाएगा-जैसे कितना कुछ अनभिव्यक्त रह जाएगा!”
“तुम जब आओगे, तब क्या मेरी आँखों में नहीं पढ़ सकोगे कि मेरा यह आहत, चिथड़े-चिथड़े हो गया जीवन क्या कहना चाहता है?”
“मैं मानती हूँ कि अगर प्यार यह भी परीक्षा नहीं सह सकता तो वह प्यार नाम का पात्र नहीं है। मैं-मैंने तुम्हारे साथ आकाश छुआ है, उसका व्यास नापा है : उस सेटिंग में यह छोटी-सी बात लगती है-फिर लगता है कि हमें जोड़ने वाल सूक्ष्म सजीव तन्तु ही काट दिये जा रहे हैं...क्या हम टूटकर अलग हो जाएँगे? टूटकर नहीं, बहकर सही, अनजाने बहते रहकर इतनी दूर भी तो हट जा सकते हैं कि एक-दूसरे को छोड़ दें-मुक्त कर दें...मैं नहीं जानती क्या होगा-जो हो, अब हो...वही है तो वही हो-जिस सौन्दर्य को लिए हम पास आये थे, उसी को लिए दूर हट जायें-अगर हम और निकट आयें तो विधि को धन्यवाद दें, और अपनी आत्मा के सामर्थ्य भर ऊँचे उठें-सुन्दर के आकाश में। इतना छोटा-सा है मानव-जीवन...”
“काश कि मैं कह सकती-एक ही बात जो कहना चाहती हूँ वही कह सकती, पर सिर्फ़ आँसू ही कह सकते हैं। मैं टूट गयी हूँ, भुवन, मेरे जीवन, जैसी पहले कभी नहीं टूटी थी। लेकिन इतना कह दूँ-मुझे किसी बात का पछतावा नहीं है, और इससे भी दस-गुनी बुरी तरह टूट जाऊँ तब भी तुम्हारे साथ के एक क्षण को, हमारी साझी अनुभूति के एक स्पन्दन को भी छोड़ देने को मैं राज़ी नहीं हूँ...मेरे महाराज, यह याद रखना, और मुझे क्षमा कर देना...”
“लेकिन प्यार क्या है? तुम सचमुच प्यार करते हो, करते थे? यह दर्द क्यों है-किसलिए है? जो कुछ हुआ है, हो रहा है, क्यों-किस उद्देश्य की पूर्ति के लिए?”
“जो अब तक है, सुन्दर हो और हमारे व्यक्तित्वों का प्रस्फुटन हो : एक तुम्हारे और एक मेरे व्यक्तित्व का नहीं, तुम्हारे अनेक व्यक्तित्वों का, मेरे भी अनेक व्यक्तित्वों का सम्मिलन और विकसन-केवल मेरे उस एक पहलू का नहीं, जिसे मैं तुम्हें नहीं छूने दूँगी-जिससे मैं तुम्हें असम्पृक्त रखूँगी भुवन, तुम्हीं को नहीं, उस अपने को भी जिसे तुमने प्यार किया है-अगर तुम ने किया है; जिसने तुम्हें प्यार किया है जैसा और किसी को नहीं-प्राणी, वस्तु, विचार, भावना, किसी को नहीं...”
“शिथिल मत होना, महाराज; आत्मा का शैथिल्य ही प्यार की पराजय है, हम दोनों को बराबर सतर्क, सजग रहना है-क्योंकि हम दोनों ऐसे आत्म-निर्भर स्वतः-सम्पूर्ण हैं कि सहज ही बहकर, सिमटकर अलग हो जा सकते हैं-अपनी-अपनी सीपियों में बन्द, अन्तरंग अनुभूति के छोटे-छोटे द्वीप-और इस प्रकार बरसों जीते रह सकते हैं, मौन, शान्त, लेकिन एकाकी...”
“मैं सोचती हूँ और अवाक् रह जाती हूँ : मेरे साथ यह कैसे घटित हुआ-मेरे, जिस में सब वासना, सब आकांक्षा मर गयी थी-जो स्त्री होना भी नहीं चाहती थी, माँ होना तो दूर...
ह्वेन आइ एम डेड , माई डीयरेस्ट
सिंग नो सैड सांग्स फार मी -
(प्रियतम , मेरे मरने पर मेरे लिए कोई शोकगीत मत गाना -क्रिस्टिना रोजे॓टी)
यह तुम ने पढ़ी है? मुझे पूरी याद नहीं है, पर तुम्हें होगी-”
“मैं नहीं जानती कि यह भूल है या ठीक, भुवन, कर्म को जज करना मैंने छोड़ दिया है, क्योंकि जब जज करने बैठती हूँ, तो मानना पड़ता है कि न्याय करने वाला विधाता ही गलतियाँ करता है! अब-इतना ही मानती हूँ कि भीतर से जो प्रेरणा है-अगर उसके साथ ही पाप का, अपराध का बोध नहीं जुड़ा हुआ है तो-वही ठीक है, वही नैतिक है। यह नैतिकता अधूरी हो सकती है-पर इसलिए कि उसे देने वाला व्यक्तित्व अधूरा है। उस व्यक्तित्व की तो वह सर्वोच्च रचना है-उसी की कल्याण-कामी, कल्याण-प्रद सम्भावनाओं की सर्व-श्रेष्ठ अभिव्यक्ति...”
“भुवन, बड़ा कष्ट है भुवन...यहाँ सब-कुछ बदल गया है-कमरे में अँधेरा है-कैसा गाढ़ा द्रव अँधेरा जिसमें मैं हाथ-पैर मारती हूँ...फिर कभी हवा इतनी हलकी हो जाती है कि मैं हाँफने लगती हूँ, साँस लेती हूँ, पर हवा नहीं मिलती-ऊपर लगता है मृत्यु मँडराती है, उसके पंखों की फड़फड़ाहट सुन पड़ती है-मुझे माफ़ कर दो, भुवन, मुझे...”
“जो सुन्दर है, निरन्तर विकास करता है, रुक नहीं सकता : दूसरों को आनन्द देता है। तो क्या-मैं भूल करती आयी हूँ, क्या मैं बहते पानी को बाँधना चाहती आयी हूँ, क्या मैंने दूसरों के लिए दुःख ही की सृष्टि की है? अगर ऐसा है तो उसका भरपूर दण्ड मुझे मिले-विधि से, और तुम से भी, भुवन! लेकिन मुझसे कुछ कहता है कि नहीं, अपने लिए मैंने जो किया हो-और, हाँ, तुम्हारे लिए भी, मेरे दुःख के साथी और सहभोक्ता, सहस्रष्टा-दूसरों के लिए मैंने दुःख नहीं बोया, भुवन-कह दो कि नहीं बोया और ये सब झूठ बोलते हैं-ये खुद असुन्दर को लेकर मुझे भी उसकी सड़ाँध में पचा देना चाहते हैं! पर नहीं, मैं नहीं छूने दूँगी उन्हें कुछ जो मूल्यवान् है-इसी में मैं मर जाऊँ तो वह मेरा 'ऐक्ट आफ़ फ़ेथ'* हो-अभी जो हो भुवन, मैं धारे बैठी हूँ कि यह दर्द भी आगे आनन्द देगा क्योंकि वह विश्वास के साथ अपनाया गया है, मैं अपने को समर्पित करके उसे ले रही हूँ...”
(* धर्म-परीक्षा)
“तुम अब जब मुझे देखोगे, पहचानोगे? अपनाओगे?”
“नहीं तुम चले जाना भुवन, मुझे अकेली छोड़कर चले जाना। जीवन के सारे महत्त्वपूर्ण निर्णय व्यक्ति अकेले में करता है, सारे दर्द अकेले में भोगता है-और तो और, प्यार के चरम आत्म-समर्पण का सबसे बड़ा दर्द भी...मिलने में जो विरह का परम रस होता है-तुम जानते हो उसे? समर्पण के धधकते क्षण में जब ज्ञान चीत्कार कर उठता है कि हम अलग ही हैं, देना सम्पूर्ण नहीं हुआ, कि मिटने में भी मैं-मैं हूँ, तू-तू है, मैं तू नहीं हूँ और हमारी माँग बाकी है...इतना अभिन्न मिलन क्या हो सकता है कि माँग बाकी न रहे? सारी सृष्टि में रमा हुआ ईश्वर भी तो अकेला है, अपनी सर्व-व्याप्ति में अकेला, अपनी अद्वितीयता में अयुत, विरही...
“इसलिए तुम, भुवन, चले जाना। मैं शिकायत नहीं करूँगी, मन में भी नहीं। मान लूँगी कि मेरा व्रत पूरा हुआ-कि मैंने तुम्हें वही दिया जो देय था, स्वच्छ था और उससे बचा लिया जिससे तुम्हें रखना चाहती थी...”
“ठीकरे ने स्वप्न देखा, वह सोने का अमृत-पात्र है। स्वप्न था, अन्ततः चुक गया। जाग कर उसने जाना कि वह केवल ठीकरा है। कहने लगा, “मैं देवता के अमृत-पात्र का ठीकरा हूँ।” पर इसलिए क्या वह कम ठीकरा है? या कि अधिक-क्योंकि वह बृहत्तर सम्भावनाओं का ठीकरा है?”
“अनाथ, लावारिस धूल...”
“तुम्हीं में मेरी आशा है, तुम्हीं में मेरे सकल द्वन्द्वों का शमन।”
“वेदों की विवाह की ऋचाएँ हैं-सुन्दर जानो तो सुन्दर, अश्लील मानो तो अश्लील। मुझे याद आता है-'अस्थि से अस्थियाँ, मज्जा से मज्जा, त्वचा से त्वचा को युक्त करता हूँ...' ठीक कहती हैं वे, हमने आँखों से आँखों को वरा था, ओठ से ओठ को, वक्ष से वक्ष को, प्राण से प्राण को; प्यार से प्यार को, और हाँ, वासना से वासना को...
“और यह एक मैला नाखून, एक पार से दूसरे पार तक उस संयुति को फाड़ता हुआ चला जा रहा है...
“और मैं नहीं जानती कि उत्तरदायी मैं नहीं हूँ...
“मुझे कभी भी माफ़ करोगे, भुवन?”
“नहीं सहा जाता, भुवन! इसलिए नहीं कि कष्ट बहुत है, इसलिए कि मैं ऐसी लड़ाई लड़ते थक गयी हूँ जो व्यर्थ है, और जो अनिवार्यतः व्यर्थता ही में समाप्त हो सकती है...मान ही लो कि हम रह सकते-घर होता, संयुक्त जीवन होता, वह सर्जन-बीनकार भी आता-फिर क्या? मान लो कि मैं दस वर्ष बाद मरती हूँ-क्या
उससे अच्छा नहीं है कि अभी मर जाऊँ? या कि दस वर्ष बाद हम उदासीन, अलग हो जायें-उससे हज़ार गुना अच्छा है आज मर जाना!
“मैं विमूढ़ हो गयी हूँ! भुवन, मेरी कुछ समझ में नहीं आता कि क्या हुआ है और हो रहा है। ऐसी ही विमूढ़ सुन्न अवस्था में मेरे बरसों बीते हैं, इतना ही जानती हूँ कि तुम-इसीलिए और भी मर जाना चाहती हूँ, क्योंकि समझती हूँ, मेरी आकस्मिक अचिन्तित हरकतों से तुम्हें अपार क्लेश होगा। मुझ में डंक नहीं है, फिर भी चोट पहुँचाती हूँ-और तुम चुपचाप सह लेते हो-क्यों इतने चुपचाप सहते हो, भुवन; तुम्हारी चुप्पी तो मुझे और सालती है, मैं चाहती हूँ कि इसी क्षण धरती में समा जाऊँ...
“हजारों हैं, जिनमें प्यार मर जाता है लेकिन जो फिर भी जीते हैं, हँसते हैं...लेकिन यह मैं क्या लिख रही हूँ-क्या कह रही हूँ? यही कि मैं जीती हूँ भुवन, और तुम्हें प्यार करती हूँ : और सब भाव्य और सम्भाव्य अभी पड़े रहे जब तक मेरी शक्ति फिर लौट आये-”
× × ×
उस शाम को तो नहीं, अगली शाम को भुवन की रेखा से भेंट हुई। दोनों ही कुछ बोल नहीं सके, रेखा ने एक दुर्बल मुस्कान से उसका स्वागत कर दिया और पड़ी रही : भुवन पास बैठ गया और स्थिर दृष्टि से उसे देखता रहा। दोनों को लग रहा था कि जिस अनुभूति में से वे गुज़रे हैं, उसके बाद शब्दों में कुछ कहा नहीं जा सकता-शब्द मानो एक ख़तरनाक औज़ार हो गये हैं जिसकी चोट से जो कुछ बचा है वह सबका सब हरहरा कर गिर पड़ेगा-पहले ही उच्चारित शब्द पर सारा भविष्य टँगा हुआ है...
फिर रेखा ने एक साथ ही भँवें सिकोड़ते और मुस्कराते हुए पूछा, “भुवन-अब भी?”
और भुवन ने कहा, “हाँ, रेखा, ज्यादा-”
मानो हवा में तनाव कम हो गया। रेखा ने तकिया गले की ओर खींच कर जरा-सा ऊँचा कर लिया, भुवन खिड़की से बाहर का दृश्य देखता रहा।
“कैसी हो, रेखा?”
“ठीक हूँ। और तुम? क्या करते हो वहाँ?”
भुवन ने उत्तर नहीं दिया। “तुम्हारे लिए कुछ लाऊँ-किसी चीज़ की ज़रूरत”
“नहीं। अच्छा, दो-एक किताबें ले आना, और-एक छोटी कापी और पेंसिल”
भुवन मुस्करा दिया। “क्या कहना चाहती हो, रेखा?”
“जो कह नहीं पाती-”
“अब भी?”
रेखा ने भी मुस्करा कर कहा, “अब और भी ज़्यादा, भुवन!”
थोड़ी देर फिर दोनों चुप रहे। फिर रेखा ने कहा, “वहाँ मेरी कोई-चिट्ठियाँ आवें तो-तुम पढ़ लेना। जो ठीक समझो कर देना-चाहे उत्तर दे देना। और-चाहो तो-चिट्ठियाँ फाड़ कर फेंक देना।”
“तुम्हारी चिट्ठियाँ!”
“हाँ भुवन-मैं स्वयं तो कह रही हूँ! और ज़्यादा दिन तो यह बोझ तुम पर नहीं डालूँगी-यही पाँच-सात दिन। यहाँ कोई डाक मत लाना-अगर तुम ही ज़रूरी न समझो।”
भुवन ने विरोध करना चाहा कि यह बड़ा दायित्व है : फिर चुप रह गया-शायद ऐसी कोई चिट्ठी आये ही नहीं कि उसे सोचना पड़े...
दूसरे दिन वह रेखा की माँगी हुई चीज़ें और कुछ फूल लेकर पहुँचा। फूल सजाने लगा तो रेखा मुस्कराती देखती रही। फूलदान सजाकर वह उसे घुमा-फिरा कर रेखा की दृष्टि से ठीक कोण पर रखने लगा तो वह हँस पड़ी। “हाँ, तुम भी इसी एंगल पर खड़े रहो-तुम्हें भी देखती रहूँगी!”
लेकिन भुवन के आशावाद ने काम नहीं दिया : दो-तीन दिन बाद ही एक बड़े लिफ़ाफे में वकील की चिट्ठी आयी। हेमेन्द्र धर्म-परिवर्तन की दलील देकर तलाक़ की माँग कर रहा था, वकील ने राय दी थी कि रेखा भी दोस्ताना तौर पर मामला तय हो जाने दे, और अच्छा हो कि अपनी ओर से मामला किसी वकील को सौंप दे, दोनों वकील आपस में बात सुलझा कर ऐसा यत्न करेंगे कि सब काम स्मूथली हो जाये। “मेरे मवक्किल का कहना है कि आप भी तलाक़ चाहती हैं, और किसी तरह के साहाय्य से आपको कोई दिलचस्पी नहीं है-ऐसी सूरत में यही सबसे अच्छा होगा; यों आपको विशेष कुछ कहना हो तो मैं भरसक आपकी सुविधा प्राप्त करने की कोशिश करूँगा...अपने मवक्किल के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी तो निबाहूँगा ही, पर तलाक़ के मामले बहुत डेलिकेट होते हैं और उसमें सिर्फ़ पक्ष ले लेना उचित नहीं होता। कानून है, लेकिन जीते-जागते मानव प्राणी से बड़ा नहीं है...एक वकील के मुँह से ऐसी बात सुनकर आप को अचरज होगा; पर मेरे इस ग़ैर-रस्मी एप्रोच को आप गुस्ताख़ी न समझेंगी...”
शाम को भुवन ने और फूल, कुछ फल, बिस्कुट और रेखा के माँगे हुए दो-चार कपड़े आदि सब यथा-स्थान रखते हुए कहा, “रेखा, एक चिट्ठी है-”
रेखा बोली, “मैंने तो कहा था-किसकी है, हेमेन्द्र की?”
“नहीं। पर-”
“अच्छा, लाओ दे दो!”
भुवन से लेकर रेखा ने चिट्ठी आद्यन्त पढ़ ली। थोड़ी देर चुप रही, आँखें बन्द कर ली। एक आँसू कोर से ढरक गया। व्यथित स्वर से उसने कहा, “यह चिट्ठी-तो...वह चिट्ठी...” और वाक्य अधूरा छोड़ कर चुप हो गयी। थोड़ी देर बाद सँभल कर उसने कहा, “मेरी ओर से पहुँच और धन्यवाद लिख दोगे-यह भी कि मैं वकील-” और सहसा रुक गयी। एक काली छाया चेहरे पर आ गयी। “नहीं भुवन-मुझसे गलती हुई-यह ज़िम्मेदारी तुम पर नहीं डालनी चाहिए थी। लाओ मुझे कागज़ दो-अच्छा रहने दो-मैं कल लिख रखूँगी, तुम शाम को पोस्ट कर देना।”
अगले दिन उसने भुवन को तीन चिट्ठियाँ दी। एक वकील के नाम, एक दूसरे वकील के नाम, एक कलकत्ते के किसी पते पर। देते हुए बोली : “यह कलकत्ते में मेरी एक मौसी हैं-यहाँ से उनके पास जाऊँगी।”
भुवन ने चौंक कर कहा “हूँ? क्यों? कब-”
“हाँ, भुवन। लगता है, अब जीवन फिर सिफ़र से शुरू करना होगा। माता-पिता तो लौट नहीं सकते-पर घर की भावना ही सही-”
थोड़ी देर मौन रहा।
“और तुम भी तो लौटोगे अब-”
“अभी तो मेरी छुट्टियाँ हैं...”
“तो पाँच-सात दिन तो अभी मैं भी यहाँ हूँ-”
“तब तक तो मौसम बहुत अच्छा हो जाएगा-और कलकत्ता तो इन दिनों”
“बेगर्स कांट बी चूज़र्स,* भुवन! और कलकत्ते नहीं, शहर से तो बाहर नदी पर रहूँगी-”
(* भिखारी की पसन्द का सवाल नहीं होता।)
“फिर भी-”
सहसा रेखा ने पूछा, “यहाँ बाढ़ का क्या हाल है?”
“उतर रही है। कीचड़ सूख रहा है-”
“यहाँ ऐसी धूप है कि सोच भी नहीं सकते बाढ़ की बात; जिस दिन आयी थी-जिस दिन तुम लाये थे उठाकर-” सहसा उसका गला भारी हो आया। “भुवन?” और उसने भुवन की ओर दोनों हाथ बढ़ा दिये। भुवन, फुर्ती से आगे बढ़ा, दोनों हाथों की उँगलियाँ उसने अपने हाथों में लीं और बारी-बारी से उठाकर ओठों से लगा ली। फिर वह उँगलियों को देखने लगा-ठण्डी, पीली, नाख़ून लगभग सफ़ेद और नीचे किंचित् नीलाभ-फिर उसने धीरे-धीरे हाथ रेखा की बग़ल में रखकर ढँक दिये।
रेखा के कहने से भुवन फिर मिसेज़ ग्रीव्ज़ से मिल आया था, और वह आकर रेखा को देख गयी थी। तब से रोज़ ही आती, प्रायः ही खाने का कुछ सामान लाती केक, मधु, जैम, चॉकलेट...रेखा अस्पताल छोड़कर घर जाएगी, इस सूचना से वह बहुत खिन्न थी-”मैंने तो सोचा था, और मुझे कभी ढूँढ़ना नहीं पड़ेगा।” वह प्रायः जल्दी ही आती, भुवन देर से आता; कभी उनकी भेंट हो जाती, कभी उसके जाने पर ही भुवन पहुँचता।
भुवन ने कुछ डरते-डरते पूछा, “रेखा, अब-यह तो बता दो कि तुमने किया क्या था-यह कैसे हुआ?”
रेखा थोड़ी देर चुप पड़ी रही। फिर उसने कहा, “मैं डाक्टर के पास गयी थी। फिर वापस आयी तो-वह चिट्ठी-” उसने फिर आँखें बन्द कर ली, थोड़ी देर बाद फिर कहने लगी, “उससे सब बदल गया। फिर एक दूसरे डाक्टर के पास गयी जो सर्जन भी था-उसे जो कहा सो तो अब छोड़ो, पर बहुत अनुनय पर वह मान गया। आपरेशन के लिए उसी के क्लिनिक में गयी थी।”
“तो-यह-कैसे-”
उसका प्रश्न समझ कर रेखा ने कहा, “उसने कहा था कि दो-एक दिन बाद हेमरेज होगा। पर ऐसा, यह अनुमान तो नहीं था-”
“वह है कौन सर्जन, रेखा?”
“वह अब जाने दो, भुवन! मैंने उसे बहुत पर्सुएड किया था-बल्कि धर्म-संकट में डाला था। और लापरवाही उसने नहीं की। यह मत कहना कि वह प्रोफेशन का कलंक है-मैं नहीं मानूँगी।”
भुवन चुप रह गया, केवल एक लम्बी साँस उसने ली। थोड़ी देर बाद उसने कहा, “लेकिन रेखा, वह चिट्ठी तो-”
रेखा ने एक हाथ उठाकर उसे चुप कर दिया। पीड़ित स्वर में बोली, “अब वह जो हो, भुवन; इट इज़ टू लेट-”
जिस दिन रेखा अस्पताल से छूटने को थी, उस दिन भुवन दोपहर को टैक्सी लेकर आ गया। डाक्टर-मेट्रन-नर्स को धन्यवाद देकर वह रेखा को लेने पहुँचा तो वह धूप में आराम-कुर्सी पर बैठी थी। भुवन ने हाथ बढ़ाते हुए पूछा, “चल सकोगी?”
“हाँ सकूँगी-पर फिर भी सहारा लूँगी-मे आइ?” भुवन की बाँह में उसने बाँह डाल दी और उस पर झुकती हुई चलने लगी।
भुवन ने उसे कार में बिठाया, फिर लौटकर सामान वग़ैरह लेकर रखा। बख़शीशें दीं, और आ गया। गाड़ी चल पड़ी। रेखा ने कहा, “कितनी सुन्दर है धूप-और रोशनी-मैं मानो फिर से दुनिया को विज़िट करने आ रही हूँ-”
अपनी ही बात पर वह उदास हो गयी। “वापस लेकिन कोई कहीं नहीं आता।”
“न सही वापस-वापस आना कोई चाहे क्यों? दुनिया अनवरत अपने को नया करती जाती है-वह नयापन-”
टैक्सी नीची सड़क पर नदी के पास गुज़र रही थी। बेत के वृक्षों के नीचे कीचड़ की पपड़ियाँ जमी थीं और सूखने से चटक गयी थीं, दरारों के कई पैटर्न उनमें बने हुए थे।
“यही है वह नयापन-देखो न, दुनिया को नया होते हुए! ठीक है...पर उसका तो सोचो, जो नदी की इस धुलाई में बह गया-नदी के वे द्वीप जो मिट्टी के ही सही, कितने सुन्दर थे, पर अब हो गये ये सूखती पपड़ियाँ!”
भुवन रेखा की ओर देखने लगा।
“हाँ, मैं जानती हूँ, तुम सोच रहे हो, व्यक्ति की भावनाओं-अनुभूतियों का आरोप प्रकृति पर करना बचपन है। मैं भी जानती हूँ। फिर भी भुवन-आख़िर में फिर से मिट्टी से ही तो शुरू कर रही हूँ। बाढ़ के बाद की सूखती पपड़ी से!”
भुवन धीरे-धीरे उसका हाथ थपथपाने लगा। बोला नहीं। गाड़ी बड़ी सड़क छोड़ कर बँगले की ओर चढ़ने लगी।
“लेकिन यह सेल्फ-पिटी नहीं है भुवन; मैं दीन नहीं हो रही। जो हमें मिला है, वह बहुमूल्य है-अब भी, बल्कि अब और ज्यादा-” और एक मधुर चितवन से उसने भुवन को देखा और मुस्करा दी।
गाड़ी फाटक के अन्दर मुड़ी। दूर से सेबों से लदी हुई शाखें दीखने लगीं।
रेखा ने कहा, “अब तो सेब पक गये होंगे।”
भुवन ने कहा, “हाँ।” फलों पर और पेड़ों के नीचे की हरियाली पर खेलती धूप अत्यन्त सुन्दर थी; उसे किसी कविता की एक पंक्ति याद आयी-'द एपल ट्री, द सिंगिंग, एण्ड द गोल्ड'...सुन्दर, व्यंजना-भरी पंक्ति है-गाल्सवर्दी ने इसी पंक्ति को लेकर एक कहानी लिखी है जो उसे कभी बहुत अच्छी लगी थी...'शरद्, धुन्ध और स्निग्ध सुफलता की ऋतु'-लेकिन सहसा उसे याद आयी रात में चुपचाप टपक पड़नेवाले पके फल की वह लोमहर्षक आवाज़, और एक अनिर्वचनीय गहरी उदासी उस पर छा गयी। पका फल चुपचाप टपक पड़ना-उसके बाद फिर? हाँ, है शरद् की धूप का सोना, पकती दूब का सोना, है वह गिरा हुआ फल भी, पर-क्या वह अन्त है?
× × ×
भुवन दिल्ली तक रेखा के साथ गया।
कलकत्ते की गाड़ी में बैठ कर रेखा प्लेटफ़ार्म पर खड़े भुवन को देखने लगी। क्षण-भर के लिए जैसे सिनेमा में होता है, एक चित्र घुलकर दूसरे में पलट गया : भुवन हाथ से कुछ मसल कर उसकी गोली ठोकर से उछाल रहा है-उसका प्लेटफ़ार्म टिकट; फिर पहला दृश्य लौट आया। न, अब वह भुवन से नहीं कहेगी; किसी अनुभव को दुबारा चाहना भूल है...और अभी वह वैसी यात्रा पर जा भी नहीं रही : वह चुपचाप पड़ी रहना चाहती है, और-भुवन को भी अकेला छोड़ देना चाहती है। उस अकेले चिन्तन में जो निकले, निकले। वह बुद्धिमती होती, तो भुवन को पास रखना चाहती, उसके पास रहना चाहती, उससे बराबर सम्पर्क रखती कि जानती रहे, उसके मन से क्या गुज़र रहा है, पर वह बुद्धिमती नहीं है, न होना चाहती है। उसे कुछ चाहिए नहीं, उसे कुछ सँभालना नहीं है-'हाउ टु होल्ड ए मैन'...
भुवन ने थोड़े फल लेकर उसके पास रख दिये। फिर भीतर आकर एक नज़र इधर-उधर डाली, फिर बिस्तर खोलकर कुछ बिछा दिया, कुछ लपेट कर ऊपर रख दिया। रेखा ने कहा, “यहीं बैठो न?”
भुवन कुछ झिझका। ज़नाना डिब्बा था, और भी दो-एक स्त्रियाँ बैठी थीं। उसने कहा, “नहीं, मैं खिड़की पर खड़ा होता हूँ-”
“टहलें-”
“नहीं रेखा, तुम बैठो। थक जाओगी-और अभी कितना सफ़र बाकी है।”
रेखा ने हाथ खिड़की पर रखा था : भुवन ने बाहर से उस पर अपना हाथ रख दिया। धीरे से पूछा, “ठीक हो न, रेखा?”
“हाँ, बिलकुल : तुम?”
“हाँ-”
थोड़ी देर बाद भुवन ने पूछा, “रास्ते भर क्या करोगी-कुछ पढ़ने को ले दूँ?”
“क्या? ये स्टेशनवाली किताबें-मैगज़ीन! न-इससे तो सोऊँगी।”
“तो मैं कुछ दूँ? कविता है-ब्राउनिंग-” फिर सहसा रुककर, “नहीं और एक चीज़ देता हूँ-मेरी एक कापी-”
रेखा ने खिलकर कहा, “तुम्हारी कापी, भुवन?”
भुवन जल्दी से बोला, “नहीं, वैसी नहीं; यह दूसरे ढंग की कापी है-एकदम भानमती का पिटारा। जो पढ़ता हूँ उसमें जो अच्छा लगता है लिख लेता हूँ-बरसों की पढ़ाई का मुरब्बा है।”
भुवन का सामान प्लेटफ़ार्म पर रखा था : खोलकर उसने कापी निकाली और रेखा को दे दी। रेखा ने सब पन्ने चुटकी में लेकर फड़फड़ा कर देखे, फिर सहसा कापी उलटती हुई बोली, “दोनों तरफ़ से लिखी हुई है?”
भुवन कुछ सकपकाता-सा बोला, “उधर कुछ नहीं है।”
स्त्री-स्वभाव से रेखा ने पहले 'कुछ नहीं' वाला पक्ष देखना शुरू किया।
“वह रहने दो, रेखा, अच्छा रेल में पढ़ती रहना-वह जो मेरे अपने दिमाग में आया लिखता रहा हूँ-”
“ओ-उधर मुरब्बा है, इधर रसायन है,” रेखा ने चिढ़ाया। “तो ठीक तो है-पहले रसायन का सेवन, फिर मुरब्बे का-”
“नॉटी वुमन!” कहकर भुवन हँसने लगा।
दूसरी तरफ़ भुवन की गाड़ी भी लग गयी। कुली ने कहा, “साहब, सामान रख लीजिए नहीं तो भीड़ हो जाएगी।”
“होने दो।” कहकर भुवन कुछ रुका, फिर उसने कहा, “अच्छा ले चलो।” फिर रेखा की ओर मुड़कर, “मैं अभी आया।” रेखा के हाथ को उसने थपथपा दिया।
चार-पाँच मिनट में वह लौट आया। रेखा अपनी कापी में कुछ लिख रही थी, थोड़ा मुस्करा रही थी। भुवन खिड़की पर खड़ा हुआ, तो लिखा हुआ परचा फाड़कर रेखा ने उसे दिया।
उसने पढ़ा, “यह जो पड़ोसिन बैठी है, मुझसे पूछ रही थी, ये आपके हज़बैंड हैं? मैंने कहा, हाँ। शादी को कितने बरस हुए हैं? मैंने कहा, सात। बोली, बड़ी भाग्यवती हैं आप! क्यों? कि सात बरस बाद भी आप के हज़बैंड आपको इतना प्यार करते हैं! भुवन, आकारों में हम क्यों इतना बँध जाते हैं कि आत्मा मर जाये?”
रेखा की ओर देखकर वह मुस्करा दिया।
थोड़ी देर बाद गाड़ी ने सीटी दी। भुवन ने कहा, “पहुँचते ही लिखना, रेखा! और नियम से लिखती रहना कि कैसी हो-जल्दी से ठीक हो जाओ!”
“लिखूँगी, भुवन! रेल ही में से नहीं लिखूँगी, यह कैसे जानते हो?” वह मुस्करा दी।
गाड़ी चल दी। भुवन ने उसके दूर हटती खिड़की पर रखे हाथ को दबाकर कहा, “गाड ब्लेस यू।”
रेखा के ओठों की गति से उसने समझ लिया, वह कह रही है, “एण्ड यू।”
गाड़ी दूर हट गयी। जब उसकी गति तेज हुई, तो रेखा के ओझल होते हुए आकार को एक-टक देखते भुवन को एक अजीब अनुभूति हुई; उसे लगा कि गाड़ी उसके सामने से दूर नहीं, उसे भेदती हुई चली जा रही है आर-पार, जहाँ से गुज़र रही है वहाँ एक बहुत बड़ा रिक्त छोड़ती हुई, उस रिक्त को एक असह्य गड़गड़ाहट और गर्म फुफकारती भाप से भरती हुई...
एकाएक उसने अपने हाथ की ओर देखा-उसमें एक कागज़ था। ओ-हाँ...”भुवन, हम क्यों आकारों से इतना बँध जाते हैं कि आत्मा मर जाये?”
दूसरे प्लेटफ़ार्म पर दूसरी गाड़ी है। उसमें भुवन का सामान है। वह उसमें सवार होगा, फिर वह भी चल देगी; उसे आर-पार भेदती हुई, एक बड़ा रिक्त बनाकर उसमें असह्य गड़गड़ाहट और गर्म भाप भरती हुई। और रेखा...