चन्द्रमाधव / नदी के द्वीप / अज्ञेय

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स्टेशन से चन्द्रमाधव की घर जाने की इच्छा नहीं हुई। हजरतगंज़ की सड़क पर टहला जा सकता था, और रात के दस बजे यहाँ चहल-कदमी करते नजर आना बुरा नहीं है, उससे प्रतिष्ठा बढ़ती ही है-पर अकेले टहलना चन्द्र की समझ में कभी नहीं आया-कोई बात है भला! अकेले वे टहलते हैं जो किसी की ताक में रहते हैं-बल्कि वे भी अकेले नहीं टहलते, जैसे कि जिनकी ताक में वे डोलते हैं वे भी अकेली कम ही नजर आती हैं। अकेले टहलते हैं पागल-या कवि, जो असल में पागल ही होते हैं पर रेस्पेक्टेवल होने के लिए जीनियस का ढोंग रचते हैं। शब्दों पर अधिकार-रचना-हुँह; वह अधिकार तो पत्रकार का है, वही असल रचयिता है, स्रष्टा है। कुछ बात लेकर बात बनाना भी कोई बात है भला? कला वह जो न-कुछ को लेकर खड़ा कर दे, सनसनी फैला दे, दंगे-बलवे-इनक़लाब करवा दे! कभी किसी कवि ने, कलाकार ने इनक़लाब नहीं कराया, जर्नलिस्ट ही अपनी मुट्ठी में इनक़लाब लिए फिरता है। चन्द्र ने मन-ही-मन जरा सुर से कहा, “मैं मुट्ठी में इनक़लाब लिए फिरता हूँ, आँखों-आँखों में ख्वाब लिए फिरता हूँ”-और फिर अवज्ञा से अपने को ही मुँह बिचका दिया। फिर उसने सोचा, मैं बराबर ही अपने को ही मुँह बिचकाता आता हूँ-दुनिया मेरे बनाये या चाहे ढंग से नहीं चलती तो दुनिया मुझे मुँह बिचका कर चली जाती है, मैं भला क्यों अपने को मुँह बिचकाता हूँ? उसने ज़ेब टटोला, हाँ सिगरेट थे अभी; एक सिगरेट सुलगा कर लम्बा कश खींचा, मुँह गोल कर धुएँ की पिचकारी छोड़ी-यह धुआँ अगर वैसा ही जमा-का-जमा तीर-सा जाता, हवा को छेद देता, तो उसे कुछ सन्तोष होता; पर वह बिखर गया, कमबख्त उड़ कर उसी की आँखों में आ कर चुभने लगा। चन्द्र ने रिक्शावाले से कहा, “सिनेमा ले चलो।”

“कौन से सिनेमा, हुजूर? मेफेयर?”

“हाँ।” चन्द्रमाधव बिना सोचे कह गया।

फिर सहसा उसे याद आया, मेफेयर में तो वह आज ही मैटनी देख कर गया है; बोला, “नहीं, मेफेयर तो हम दिन में गये थे। और कहीं ले चलो-”

रिक्शावाले ने कहा, “एल्फिन्स्टन में 'जवानी की रीत' लगा है-वहाँ जाइएगा?”

“अच्छा वहीं चलें।”

रिक्शावाला बढ़ चला। धीरे-धीरे कुछ गुनगुनाता वह पैडल फेंकता चला जा रहा था, उसकी गति कुछ तेज हो गयी थी। चन्द्र ने सोचा, सिनेमा मैं जा रहा हूँ, मस्त यह हो रहा है। इसी तरह लोग दूसरों के मजे में मस्त दिन काटते चले जाते हैं-क्या ज़िन्दगी है! जैसे दूसरे के घर से सवेरे अस्त-व्यस्त निकली अलसाती सुन्दरी को देखकर कोई खुश हो ले। उसका मुँह कड़वा हो आया-हुँह, सीला हुआ सिगरेट है! उसने सिगरेट निकाल कर फेंक दिया, एक ओर झुक कर जोर से थूका।

पुराने ज़माने में प्रतिनिधियों की मारफ़त शादी हो जाती थी-वह जहाँ खुद नहीं जा सकता था प्रतिनिधि भेज देता था। क्या बेहूदगी है। प्रातिनिधिक शादी हो सकती है तो प्रातिनिधिक सुहाग-रात-! पर यहाँ भी तो राजा लोग अपनी रानियों को नियोग के लिए भेजा करते थे ऋषियों के पास-वह भी तो प्रातिनिधिक...उसे असल में ऋषि होना चाहिए था-पुराने जमाने का; पर कमबख्त नये जमाने का महन्त भी तो न हुआ-हो गया स्पेशल रेप्रेजेंटेटिव अख़बार का! जाट की घोड़ी के बछेरे की तरह 'माँगा था नीचे, दे दिया ऊपर।' दुनिया में इतना कुछ होता है, उसी के साथ कुछ नहीं होता; वह केवल खबरें पाता और देता है, टिप्पणी करता है-टिप्पणी भी नहीं, दूसरों की टिप्पणियों का संग्रह करता है-

रिक्शा रुक गया। सामने एल्फिन्स्टन की रंगीन बत्तियाँ थीं, एक बड़े भारी पोस्टर पर वही परिचित तिरछी खड़ी कोई 'लड़की', वही परिचित कन्धे पर से झाँकता हुआ 'लड़का'-पोस्टर में नहीं आया, लेकिन दाहने को ज़रूर एक पेड़ की शाखा होगी, जिस पर बड़ा-सा मैग्नोलिया का फूल होगा शायद कागज़ का, या शाखों पर दो फूल भी हो सकते हैं और लड़की-लड़के के तुक-ताल बँधे फ्लर्टेशन में बीच-बीच में दोनों पास-पास लाए जाएँगे और फिर दूर हट जायेंगे, छुएँगे नहीं, क्योंकि सेंसर के नियम में चुम्बन अभारतीय है, चाहे मुँह से सटा और न्योतता मुँह पाँच मिनट तक स्क्रीन पर स्थिर खड़ा रहे, और चवन्नीवाले सिटकारियाँ मारते और फब्तियाँ कसते रहे।

चन्द्रमाधव ने ज़ेब में हाथ डालकर पैसे निकालते हुए बड़े रूखे स्वर में रिक्शावाले से कहा, “लो!”

उसकी रुखाई से रिक्शावाले ने समझा कि बाबू साहब थोड़े पैसे दे रहे होंगे, पर हथेली पर एक-एक रुपए के दो नोट देखकर वह चौंक गया; फिर तत्परता से हाथ उठा कर बोला, “सलाम हुजूर!” उदारता के लिए धन्यवाद देने का और तरीका ही उसे नहीं आता था।

पर चन्द्रमाधव में उदारता नहीं थी। उसने जवाब में गुर्राकर कहा, “हूँ!” मानो कह रहा हो, 'जा साले, तू भी प्रातिनिधिक फ्लर्टेशन कर ले-और क्या तेरे भाग्य में बदा है!”

× × ×

फिर वह सिनेमा के पोर्च के अन्दर घुस गया।

तथ्य और सत्य के बारे में चन्द्रमाधव और भुवन की राय नहीं मिलती। कालेज ही से इस बात को लेकर उनमें बहस होती आयी है। रागात्मक लगाव की बात तो दूर रही-तथ्य ही लोगों के अलग-अलग होते हैं। इतिहास की घटनाओं से तो हमारा रागात्मक सम्बन्ध नहीं होता-फिर क्यों दो इतिहासकार दो इतिहास लिखते हैं? इसलिए कि दोनों भिन्न-भिन्न तथ्य चुनते हैं। रागात्मक लगाववाली बात मान लें, तो जो सत्य है, वही झूठ है क्योंकि वह पूर्वग्रह-युक्त तथ्य है-और ऐतिहासिक तथ्यों पर पूर्वग्रह लादना ही सारे झूठ की जड़ है और ऐसे झूठे इतिहासों ने ही दुनिया में फूट और लड़ाई के विष-बीज बोये हैं...

चन्द्रमाधव के जीवन के ही तथ्य ले लें। भुवन को यही दीखता है कि अच्छी तरह पास करके वह विदेश चला गया था, विदेशों में बहुत घूमा है और सदा सनसनी की खोज में-भुवन के मत से उसका सारा जीवन सनसनी की लम्बी खोज है, और वह यह भी ज़रूर सोचता होगा कि निरी सनसनी की खोज से व्यक्ति की सूक्ष्मतर संवेदनाएँ भोंडी हो जाती हैं और वह सिवाय तीखी उत्तेजना के कुछ समझता ही नहीं, लिहाजा चन्द्रमाधव भी एक तरह का नशेबाज है और जीवन की महत्त्वपूर्ण चीज़ों को नहीं पहचान सकता। भुवन का दुःख-पूजा का एक सिद्धान्त है : पीड़ा से दृष्टि मिलती है। इसलिए आत्मपीड़न ही आत्म-दर्शन का माध्यम है? क्या दलील है!

भुवन अकेला है; घर-गिरस्ती की चिन्ताएँ उसने जानी नहीं, दुःख की दूर से रोमांटिक कल्पना की है, इसीलिए बातें बना सकता है। अगर सचमुच दुःख उसने जाना होता-दुःख कैसे तोड़ कर, चूर-चूरकरके रख देता है, दृष्टि देना तो क्या, आँखों को अन्धा करके, पपोटे निकालकर उनमें कीचड़ भर देता है, यह देखा होता-तो उसकी जबान ऐंठ जाती...

चन्द्रमाधव ने सनसनी खोजी है? असल में उसने जीवन खोजा है, तीव्र बहता हुआ प्लवनकारी जीवन, और वह उसे मिला कहाँ है? मिली हैं ये छोटी-छोटी टुच्ची अनुभूतियाँ, चुटकियाँ और चिकोटियाँ-और उसके किस दोष के कारण? प्यार? नहीं, बीबी-बच्चे। स्वातन्त्र्य? नहीं, तनख़्वाह। जीवनानन्द? नहीं, सहूलियत, घर, ज़ेब-खर्च, सिनेमा, पान-सिगरेट, मित्रों की हिर्स...

कालेज छोड़ने के अगले वर्ष उसकी शादी हो गयी थी। लड़की साधारण पढ़ी थी मैट्रिक और भूषण पास; साधारण सुन्दरी थी-साफ रंग, अच्छे नख-शिख; साधारण बुद्धिमती थी-घर सँभाल लेती थी, साथ घूम लेती थी, मित्रों-मेहमानों से निबाह लेती थी और पढ़े-लिखों की बातचीत में आत्म-विश्वास नहीं खोती थी। पत्नी ने उससे कुछ अधिक माँगा नहीं था, साधारण गिरस्ती की जो माँगें होती हैं बस; कुछ अधिक दिया भी नहीं था, साधारण गिरस्ती जो देती है, बस। दो बच्चे, साफ-सुथरा घर, बिना झंझट के खाना-सोना, छोटा-सा बैंक बैलेंस, दिल-बहलाव की साधारण सहूलियतें।

मध्यवर्गीय मानदंडों से उसके पास सब कुछ था-और कोई क्या चाह सकता है? पर दूसरे बच्चे के-पहली सन्तान लड़की थी, दूसरी लड़का-बाद वह गिरस्ती से टूट गया था। कोई झगड़ा हुआ हो, शिकायत हो, ऐसी बात नहीं थी; बस यों ही तबियत उचट गयी थी, और वह पत्नी और बच्चों को छोड़ आया था। खर्चा भेज देता था, कभी-कभार चिट्ठी लिख देता था, बस इससे अधिक उलझन नहीं थी, न वह चाहता था। बच्चे बड़े होंगे तब पढ़ाई-वढ़ाई का प्रश्न उठेगा, अभी तो कोई चिन्ता नहीं, और पहले दो-चार बरस तो माँ ही देख-भाल लेगी-फिर बड़ी तो लड़की है, उसकी पढ़ाई की कौन इतनी चिन्ता है, लड़के की शुरू से फिक्र होती है...

अकेले रहना बुरा नहीं था। गिरस्ती का अनुभव हो जाने के बाद तो वह प्रीतिकर भी था-उसमें एक आजादी और आत्म-निर्भरता थी जिसका मूल्य शायद बिना गिरस्ती के अनुभव के समझा ही नहीं जा सकता था। और वह जो काफ़ी हाउस का उसके जीवन में एक स्थान बन गया है, यह भी एक चीज़ है। उसे समझने के लिए भी वैसा बैकग्राउंड चाहिए। बिना भोगे कोई उस स्थिति को नहीं समझ सकता है।

बिना भोगे। लेकिन बिना क्या भोगे? क्या उसी ने कोई कष्ट भोगा है, दुःख जाना है? बराबर ही तो साधारण सहूलियत का जीवन उसने बिताया है-बड़े पैमाने पर ऐश नहीं की तो दरिद्र होकर टुकड़ों को भी तो नहीं तरसा-ऐसे में दुःख भी अगर हो तो उसी स्केल पर तो होगा, साधारण छोटा दुःख! पर यही तो असल बात है-यह साधारणपन ही तो असली खा जाने वाला घुन है; यह तो सब से बड़ा, सब से चुभने वाला, अकिंचनता की कसक से बराबर सालते रहने वाला दुःख है! 'तुम्हें साधारण से बड़ा दुःख नहीं होगा'-यही तो बड़े आनन्द की, बड़े सुख की, विराट् की अनुभूति की मौत का परवाना है।-'तुम्हें साधारण से बड़ा कुछ नहीं होगा!'

लेकिन-क्या वह द्राविड़ प्राणायाम से भुवन वाले नतीजे पर पहुँचा है? क्या वह भी बड़े दुःख की पूजा कर रहा है? नहीं, दुःख अपने आप में इष्ट है यह वह कहाँ मानता है? लेकिन बड़ा दुःख बड़ी सम्भावना का द्योतक तो है; सम्भावना हो, अनुभूति की सामर्थ्य हो, तभी तो बड़ी अनुभूति होगी...

पर क्या भुवन दुःख को इष्ट मानता है? क्या रेखा भी वैसा मानती है? विराट् अनुभूति के प्रति खुले रहने का ही क्या वे अनुमोदन नहीं करते-विराट् के प्रति समर्पित होने का?

रेखा क्षण के प्रति समर्पित होने की ही बात करती है। क्षण को ही विराट् मानती है।

लेकिन क्या सचमुच मानती है? क्या जब भी क्षण के प्रति आत्म-समर्पण का अवसर आया है, उसने इनकार नहीं किया है? वह अपने को सँजो-सँजो कर रखती है, कोई असूर्यम्पश्या भी इस तरह बचा-बचा कर कदम न रखती होगी-और बात करती है क्षण के प्रति समर्पण की। जैसे भुवन अनुभूति से बचता है, और विराट् अनभूति के प्रति समर्पण की बात करता है। असल में सब सिद्धान्त क्षतिपूरक होते हैं : आप जो हैं, जैसे हैं, उससे ठीक उल्टा सिद्धान्त गढ़ कर उसका प्रचार करते फिरते हैं। इससे एक तो आप अपने लिए एक सन्तुलन स्थापित कर लेते हैं, दूसरे औरों को ग़लत लीक पर डाल देते हैं ताकि आप को ठीक-ठीक कोई पकड़ न पा सके। रेखा ही कहती है कि मैं कुछ नहीं हूँ, जीवन के प्रवाह में एक अणु हूँ-पर कितना अहं है उसमें, कि...

चन्द्रमाधव का रेखा से परिचय पुराना था। रेखा के पति को भी वह थोड़ा जानता था; विवाह के कुछ समय बाद ही दोनों से उसकी पहले-पहल भेंट हुई थी। यद्यपि कोई घनिष्टता किसी से नहीं थी, तथापि तब से वह उनमें रेखा के पति का ही परिचित गिना जाता था, और उनके विच्छेद के बाद जब वह रेखा से मिला, तब पहले रेखा ने उससे पति के मित्र के अनुकूल ही व्यवहार किया था-शिष्ट, विनीत पर बिल्कुल असम्पृक्त और दूर। उनके विच्छेद की बात सहसा नहीं फैली थी, क्योंकि दोनों के दुराव को लोगों ने धीरे-धीरे ही जाना था : पति के मलय चले जाने के बाद भी लोग यही समझते रहे थे कि वह नौकरी के लिए ही गया है, और बहुधा रेखा से उसका हाल-चाल भी पूछ लेते थे। इतना ही अचम्भा उन्हें होता था कि वह पत्नी को साथ क्यों नहीं ले गया। पीछे जब रेखा ने अलग नौकरी कर ली, और यह भी खुल गया कि मलय में उसके पति के साथ कोई और स्त्री रहती है, तभी लोगों को उनके दुराव का पूरा पता लगा। और ऐसे में जैसे होता है, लोगों को पहले इसी बात का गुस्सा आया कि वे इतने दिनों तक भुलावे में ही क्यों रहे-या रखे गये। पति तो दूर चला गया था, रेखा पर यह गुस्सा भरपूर प्रकट हुआ। एक के बाद एक कई नौकरियाँ उसे छोड़नी पड़ी और उसके साथ-साथ यह भी बात बन चली कि वह कहीं टिकती नहीं, दो-चार महीने बाद काम छोड़ देती है, जिससे आगे नौकरी मिलने में क्रमशः कठिनाई बढ़ती गयी।

इसी बीच चन्द्रमाधव फिर से मिला था। उसकी स्थिति पर सहानुभूति प्रकट करके, कुछ शिकायत भी की थी कि रेखा ने उसे क्यों न याद किया, वह ज़रूर कुछ सहायता करता। रेखा ने सहज विस्मय से कुछ झिझकते हुए कहा था, “आप तो-उनके मित्र हैं; मैं समझती थी कि आप जानते होंगे-और आपसे सहानुभूति की आशा भी कैसे कर सकती थी?” चन्द्र इस बात से कट गया था, पर उसने प्रकट नहीं होने दिया था, और सहायता करने और काम दिलाने का वचन दिया था।

वह उसने किया भी था। कई जगह उसने बात की थी; फिर एक जगह नौकरी मिल भी गयी थी। चन्द्र बीच-बीच में आकर उससे मिल भी जाता था।

लेकिन यह नौकरी भी और नौकरियों की तरह छूट गयी थी। बल्कि, रेखा चाहे न जानती हो, उसके छूट जाने में चन्द्र का भी हाथ था। उसके बार-बार मिलने आने पर स्कूल की कमेटी के एक सदस्य ने उससे पूछा था तो उसने कहा था कि रेखा के पति के मित्र के नाते वह अभिभावक है; पर रेखा, जिसे यों भी छिपाव पसन्द नहीं था और जो जानती थी कि छिपाना है भी व्यर्थ, लोग जान तो जावेंगे ही, कमेटी को पहले बता चुकी थी कि पति से उसका वर्षों से कोई सम्बन्ध नहीं है। बात समिति तक गयी थी, और उन्होंने रेखा को-यद्यपि बड़े शिष्ट ढंग से-नोटिस दे दिया था।

इसके बाद रियासत में गवर्नेस का पद दिलाने में भी चन्द्रमाधव ने सहायता की थी। पत्र-प्रतिनिधि के नाते रियासतों में उसकी वाकिफ़ियत भी काफी थी, आतंक भी कुछ था-राष्ट्रीय उत्तेजना के उस जमाने में रियासतों का पत्रकारों से डरना स्वाभाविक ही था!

यहाँ भी चन्द्र बराबर मिलने आता था। एक बार दो-एक दिन ठहर भी गया। दुबारा जब आकर ठहरने की बात उसने की तो रेखा के उत्तर से वह भाँप सका कि वह नहीं चाहती, और तड़ाक से पूछ बैठा, “रेखा देवी, अब मेरे आने पर आपको आपत्ति है?”

रेखा ने धीरे-से कहा, “मैं आपकी बहुत कृतज्ञ हूँ, मिस्टर चन्द्रमाधव! आप ज़रूर आइए-और अबकी बार अपनी पत्नी को भी साथ लाइए-उन्हें क्यों नहीं लाते आप?”

चन्द्रमाधव थोड़ी देर सन्न रह गया, मानो किसी ने उसे चपत मार दिया हो। फिर उसने कहा, “तो आपको मुझ पर विश्वास नहीं है-आप मुझसे डरती हैं।”

“विश्वास की बात नहीं है, मिस्टर चन्द्र। पर वह शोभन है। और मैं उनसे भेंट करना भी चाहती हूँ।”

चन्द्रमाधव उठ कर थोड़ी देर कमरे में टहलता रहा। टहलते-टहलते उसने एक बड़ा निश्चय किया। बोला, “रेखा जी, आप शायद मेरे बारे में बहुत कम जानती हैं। मैं अपनी जीवन-कहानी आप को सुनाना चाहता हूँ। सुनेंगी?”

रेखा ने झिझकते स्वर में कहा, “आप सुनाना चाहते हैं, तो ज़रूर सुनूँगी। पर कहानी जितनी अपने-आप कही जाये उतनी ही ठीक होती है। जो सुनायी जाती है, उस पर पीछे अनुताप भी हो सकता है और मैं नहीं चाहती कि आप ऐसा कुछ करें जिस से पीछे अनुताप हो-मेरे कारण ऐसा करेंगे तो मेरा बोझ-”

“नहीं, आप को सुनना होगा। क्योंकि आपने अभी जो बात मुझे कही, वह दुबारा कहें, ऐसा मौका मैं नहीं आने देना चाहता।”

जितनी देर चन्द्रमाधव बोलता रहा, रेखा एक शब्द नहीं बोली। न उसने चन्द्र की ओर देखा ही। बल्कि जब कहते-कहते चन्द्र का स्वर कुछ भर्रा आया, तब उसने नीरव पैरों से उठकर बड़े टेबल लैम्प का प्रकाश मन्द कर दिया, और फिर अपनी जगह आकर बैठ गयी। खिड़की के बाहर एक शेफाली का छोटा पेड़ था, उसकी ओर देखती रही।

चन्द्र चुप हो गया। रेखा तब भी नहीं बोली। देर तक दोनों चुप रहे। फिर चन्द्र ने धीरे से कहा, “रेखा जी।” उसका स्वर अभी आविष्ट था।

रेखा ने धीमे, किन्तु साफ और ठण्डे स्वर में पूछा, “यह सब आप मुझे क्यों बताते हैं?”

चन्द्र सहसा खड़ा हो गया। नये आवेश से बोला, “अब भी मुझसे यह पूछ सकती हो, रेखा! रेखा!”

रेखा सहसा खड़ी हो गयी, यद्यपि अपने स्थान से हिली नहीं, न शेफाली की ओर से उसने मुँह फेरा। केवल उसका हाथ तनिक-सा मुड़ कर ऊँचा हो गया, उँगलियों में एक हल्का-सा निषेध या वर्जना का भाव आ गया।

चन्द्र ने फिर कहा, “तुम कैसे यह पूछ सकती हो, रेखा!” एक अधूरा कदम उसने रेखा की ओर बढ़ाया, पर ठिठक गया; रेखा की विमुख निष्कम्प देह-वल्ली को उसने एक बार सिर से पैर तक देखा, फिर उसके उस मुड़े हुए हाथ को; फिर बोला, “रेखा! रेखा देवी! मुझे क्षमा कीजिए रेखा देवी-” और जल्दी से बाहर चला गया।

लौट कर उसने एक क्षमा-याचना का पत्र भी लिखा। दो-तीन दिन बाद ही रेखा का उत्तर आया, उसमें सारी घटना का कोई उल्लेख ही नहीं था-यही लिखा था कि चन्द्रमाधव को बार-बार वहाँ आने में कष्ट होता है, अब की बार वही मिलने आवेगी। उसके ठहरने के लिए चन्द्र को कष्ट नहीं करना होगा, रियासतवालों का एक गेस्ट हाउस लखनऊ में है और वहीं उसे ठहरने की अनुमति मिल गयी है। बच्चे रानी के साथ ननिहाल जा रहे हैं अतः उसे कुछ दिन की छुट्टी है।

× × ×

भुवन से जब रेखा की भेंट हुई, उससे पहले भी एकाधिक बार रेखा लखनऊ आकर रह गयी थी। अक्सर वह रियासत के गेस्ट हाउस में ही रहती थी, एक-आध बार लड़कियों के कालेज के होस्टल में भी किसी परिचिता के पास रह गयी थी। चन्द्रमाधव से वह बराबर मिलती, पर अपने ठिकाने पर उसे कभी नहीं ले गयी थी; चन्द्र पहुँचाने जाता तो फाटक पर ही उसे विदा करके भीतर चली जाती। एक बार चन्द्र ने कहा भी था, “आप अपने पास किसी को आने नहीं देती, जैसे-”

रेखा ने तुरन्त हँस कर कहा था, “मेरे आस-पास दुर्भाग्य का एक मण्डल जो रहता है, उसके भीतर किसी को नहीं आने देती कि छूत न लग जाये!”

पर अगर उसने यह कहा होता कि 'मेरे आसपास एक प्रभामण्डल है जो किसी के छूने से मैला हो जाएगा', तो चन्द्र को लगता कि उसने अपने मन के अधिक निकट की बात कही है।

अपनी जीवन-कहानी कह देने के बाद से फिर कभी चन्द्र ने घनिष्टता की कोई चेष्टा नहीं की थी। रेखा ने भी कभी उसकी याद नहीं दिलायी; उसके व्यवहार में कोई मैल या दुराव नहीं था। न कोई अधिक समीपता ही थी, पर उसका स्वर पहले से कुछ अधिक नरम रहता था और चन्द्र को कभी-कभी लगता था कि उसकी आँखों में एक करुणा भी है। कभी-कभी वह चन्द्र को 'तुम' भी कहने लगी थी; उसने भी सोचा था कि उसे 'तुम' कहे, पर उस दिन के अपने विस्फोट की बात याद करके रह जाता था-रेखा ही जब उसे कहेगी तभी कहेगा अब...

बड़े दिनों की छुट्टियों में जब रेखा आयी, तब अपनी संरक्षित कुमारियों के साथ ही आयी थी-रानी भी आयी थी, और सब गेस्ट हाउस में ही ठहरे थे। आने के तीसरे दिन तक वह चन्द्रमाधव से मिलने नहीं गयी; जा ही नहीं सकी क्योंकि रानी के अनुरोध से बच्चों को लेकर घुमाती रही। तीसरे दिन शाम के लगभग वह चन्द्रमाधव के घर गयी तो देखा, वह अंगीठी में आग जलाये उसके निकट झुका बैठा है; घुटनों पर कुहनियाँ, हथेलियों पर ठोड़ी टेके, निर्निमेष दृष्टि से आग को देख रहा है। उसकी झुकी हुई पीठ, शिथिल पैर, माथे पर लटके हुए बाल, उदासी की उस मूर्ति को देखकर रेखा में सहसा करुणा उमड़ आयी, उसने द्वार से ही पुकारा, “चन्द्र-क्या बात है चन्द्र?'

चन्द्र नहीं बोला।

रेखा ने फिर कहा, “अच्छे तो हो, चन्द्र? बोलते क्यों नहीं?”

चन्द्र फिर नहीं बोला। रेखा ने उसके कन्धे पर हल्का हाथ रख कर कहा, “अगर मैं डिस्टर्ब कर रही हूँ तो चली जाऊँ? सवेरे फिर आ जाऊँगी-”

चन्द्र ने बिना हिले कहा, “आपको मिल गयी, फुरसत इधर आने की? अभी शाम को आने की क्या जल्दी थी-कल ही आ सकती थी-

रेखा को धक्का लगा। पर साथ ही तसल्ली भी हुई, क्योंकि बात उसकी समझ में आ गयी।

“चन्द्र, मैं रानी साहिबा और बच्चों के साथ आयी हूँ, उन्होंने छोड़ा नहीं। अभी थोड़ी फुरसत मिली है-वे सब किसी पार्टी में गये हैं-”

“आप को नहीं ले गये? आप भी जातीं-”

“चन्द्र, मैं सचमुच पहले आ सकती तो आती-परसों से आयी हुई हूँ-”

“परसों से? मैंने तो कल-नहीं, मैं कौन होता हूँ, मेरी ओर से तो आप अभी आयी हैं-”

रेखा ने मुस्कराहट दबा कर पूछा, “तुमने कब जाना-देखा था?”

“और नहीं तो। बच्चों को लिए बनारसी बाग़ के फाटक पर मूँगफली खरीद रही थीं-वहाँ से यह स्थान कुछ भी दूर नहीं है-”

“अच्छा, आज सुबह! तुमने देखा था तो तुम्हीं आ जाते-”

चन्द्र ने फिर तुनुक कर कहा, “जहाँ ज़रूरत न हो, वहाँ जा घुसने की आदत मेरी नहीं है।”

रेखा ने कहा, “बहुत अच्छी आदत है तुम्हारी। अच्छा उठो, घूमने चलना है, फिर काफ़ी पियेंगे। फिर मुझे ठिकाने तक छोड़ आना। और सर्दी है, कोट पहन लो।”

चन्द्र अनमना उठ खड़ा हुआ।

बाहर घूमते हुए उसे लगा, रेखा ने न केवल उसे क्षमा कर दिया है बल्कि उसके निकट भी आ गयी है। उसे अचम्भा भी नहीं हुआ, क्योंकि स्त्रियों में यह होता ही है, जब बहुत अधिक दुत्कार देती हैं तब भीतर द्रवित भी हो जाती हैं। रेखा लाख असाधारण हो, पर स्त्री तो है! उसका बुझा हुआ मन धीरे-धीरे खिलने लगा। उसने कहा, “रेखा जी, मेरे इन मूड्स का बुरा तो नहीं मानती?”

रेखा ने मानो किसी दूसरी विचार-तरंग में उत्तर दिया-बल्कि प्रश्न पूछा, “चन्द्र, तुम्हें अपना बचपन याद है?”

“हाँ तो; क्यों?”

“यों ही। अच्छे दिन होते हैं बचपन के।”

चन्द्र उसकी बात ठीक-ठीक नहीं समझा। “मैं तो कभी-कभी सोचता हूँ, फिर आ सकते तो-आप को कभी लगता है कि फिर आ सकते तो कितना अच्छा होता?”

“स्त्रियाँ बड़ी व्यावहारिक होती हैं-यह किसी तरह नहीं भूल सकतीं कि बीते दिन फिर नहीं आते और असम्भव कभी माँगती नहीं। यों भी-मुझे निरन्तर बड़े होते चलना अच्छा लगता है-”

“बड़े होना-यानी बूढ़े होना; आप ऐसी बात कैसे कह सकती हैं?”

“जो क्षण में जीता है, क्षण को स्वीकार कर लेता है, वह बूढ़ा होता ही नहीं। यों अगर मैं कहूँ कि पुरुष की तुलना में स्त्री हमेशा बूढ़ी होती है तो आप समझ लेंगे मेरी बात?”

चन्द्र ने प्रतिवाद करते हुए कहा, “रेखा जी, आप पर यह बात बिल्कुल लागू नहीं होती। आप-” पर फिर झिझक कर रुक गया-मुँह से कुछ ऐसी-वैसी बात निकल गयी तो फिर नाराज हो जाएँगी...सँभल कर बोला, “आप की बात ठीक है, क्षण को मान लेनेवाला कभी बूढ़ा नहीं होता, आप इसकी ज्वलन्त प्रमाण हैं।” इस ढंग से कह देने में तो कोई आपत्ति हो नहीं सकती...

रेखा ने कहा, “उसका मैं प्रमाण हूँ या नहीं, नहीं जानती, पर इसका आप ज़रूर हैं कि पुरुष की तुलना में स्त्री हमेशा बूढ़ी होती है-” फिर सहसा विषय बदल कर बोली, “आप शामें कैसे बिताते हैं?”

चन्द्र ने कहा, “मैं कहाँ बिताता हूँ। अपने-आप न जाने कैसे बीतती हैं। पहले काफ़ी हाउस जाता था, पर अब-अब आपके साथ जाने की आदत पड़ गयी है और अच्छा नहीं लगता। रेखा जी, आप-यू आर वेरी गुड कम्पनी-”

रेखा ने भी अंग्रेज़ी में, पर हल्के स्वर में कहा, “एण्ड दैट्स ए वेरी नाइस काम्प्लिमेंट!” फिर कुछ गम्भीर होकर, “मगर चन्द्र, तुम कभी अपने बारे में नहीं सोचते कभी खूब गम्भीर होकर नहीं सोचते कि जीवन-जीवन नहीं, तुम्हारा जीवन, एक, विशेष और अद्वितीय-क्या है, क्यों है, कहाँ जा रहा है? कि उसका क्या बनाना चाहिए, वह कहाँ जा रहा है या जा सकता है? मैं तो कभी तुम्हारी बात सोचती हूँ तो अचम्भे में रह जाती हूँ।”

“आप मेरी बात सोचती हैं?” चन्द्र को परितोष हुआ। “मैं तो समझता था कोई नहीं सोचता, इसीलिए मैं भी नहीं सोचता था। और सोचने को है भी क्या? पीछे देखता हूँ तो-लेकिन वह तो मैं आपको बता चुका हूँ। कभी सोचता हूँ कि अतीत के प्रति कोई बहुत बड़ी ग्रीवेंस होती तो वह भी कुछ बात होती-उसी की कड़वाहट एक सहारा हो जाती, एक उत्पीड़ित मसीहा की तरह मैं चल निकलता। बहुत से लोग इस उत्पीड़न के आक्रोश के सहारे ही जीते हैं-उसमें से बड़े-बड़े जीवन-सिद्धान्त भी निकालते हैं और दूसरों का उत्पीड़न करने का जस्टिफ़िकेशन भी। ग्रीवेंस मुझे क्या है-यही तो कि ग्रीवेंस के लायक भी कुछ नहीं मिला। वर्तमान जो है सो आप देख रही हैं-उसमें आप ही एक रोशनी हैं नहीं तो...और फिर भविष्य की बात मैं क्या सोचूँ? मैं तो ऐसा फेटलिस्ट हो गया हूँ कि सोचता हूँ, मेरा भविष्य और कोई बना दे तो बना दे-मेरे बस का नहीं।”

रेखा ने कहा, “मेरा वश होता, और भविष्य बने-बनाये मिलते, तो मैं आप को एक ऐसा सुन्दर भविष्य ला देती कि बस। उसके चार पाये चार इन्द्रधनुष होते, और फूलों पर पड़ी हुई चाँदनी का उसका ऊपर होता, तितलियों के पंखों से रंग लेकर उसे रंगा जाता और-”

चन्द्र ने कुछ हँस कर कहा, “और उस चाँदनी की कुरसी पर जब मैं बैठता तो चारों इन्द्रधनुषों के बीच में चित हो जाता-क्योंकि चाँदनी किसका बोझ सह सकती है? पर, जोकिंग एपार्ट, रेखा जी, आप सचमुच मेरा भविष्य बना सकती हैं”

“मैं?” रेखा ने अतिरिक्त सन्देह से कहा : उसने अनुभव किया कि बातचीत फिर एक कँटीले स्तर पर चल रही है। “अन्धे क्या रास्ता दिखाएँगे? मैंने भविष्य मानना ही छोड़ दिया है। भविष्य है ही नहीं, एक निरन्तर विकासमान वर्तमान ही सब कुछ है। आपने कभी पानी के फव्वारे पर टिकी हुई गेंद देखी है? बस जीवन वैसा ही है, क्षणों की धारा पर उछलता हुआ-जब तक धारा है तब तक बिल्कुल सुरक्षित, सुस्थापित, नहीं तो पानी पर टिके होने से अधिक बेपाया क्या चीज़ होगी!”

“रेखा जी, आपकी कल्पना बड़ी सुन्दर है। लेकिन आप उस जीवन को अरक्षित समझें, है असल में वह एक्स्टेसी का जीवन, और एक्स्टेसी क्षणिक भी हो तो ग्राह्य उस पर सौ सेक्योर जीवन निछावर है।”

रेखा चुप रही। वह बात का रुख बिलकुल बदल देना चाहती थी, पर चन्द्र को क्लेश भी नहीं पहुँचाना चाहती थी। चन्द्र ने ही फिर कहा, “रेखा जी, आपकी कभी छुट्टियाँ नहीं होती?”

“क्यों?”

“अब की हों तो चलिए न, कहीं पहाड़ चला जाये? आप भी तो बहुत दिन से न गयी होगीं?”

“गयी तो नहीं। पर अबकी बार शायद नौकरी पर ही जाना पड़ेगा-”

“कहाँ?”

“शायद मसूरी-”

“अरे नहीं। वह भी कोई जगह है, इतना भीड़-भड़क्का! यों तो खैर अच्छी भी है, रौनक रहती है, ऐसा भी क्या पहाड़ कि बिलकुल मनहूसियत छायी रहे-पर नहीं, दूर किसी पहाड़ पर चलिए-हिमालय की भीतरी किसी शृंखला में-कुल्लू चलिए या कालिम्पोंग या ऐसी किसी जगह-”

“मेरा जाना तो पराधीन है-”

“छुट्टी ले लीजिए न? नहीं तो फिर जाना ही क्या हुआ अगर अर्दली में ही रहना पड़े तो-”

रेखा हँस दी, मानो टाल रही हो कि अभी तो जाने का कोई प्रश्न नहीं, जब सम्भावना होगी तो देखा जाएगा।

चन्द्र ने आग्रह किया। “चलिए न। अच्छा, यही रहे कि अगर आप को छुट्टी हो तो चलेंगी।” फिर कुछ रुक कर, “चाहे और किसी को, जिसे आप चाहें ले चलिए-हाँ मेरा एक मित्र है, कालेज में पढ़ाता है, उसे मैं निमन्त्रित कर सकता हूँ-यों आपके टाइप तो नहीं है, किताबी जीव है, पर कम-से-कम न्यूसेंस नहीं होगा, और बात-चीत में कभी जोश में आ जाये तो दिलचस्प भी हो सकता है।”

रेखा ने कहा, “मैं भविष्य ही नहीं मानती, और आप भविष्य बाँधना चाहते हैं। देखा जाएगा-”

“तब तो आपके लिए वायदा कर देना और भी आसान होना चाहिए। न होगा तो न जाइएगा-पर जाने की बात रहे इसमें आपको क्या एतराज़ है? मैं सोच-सोच कर ही खुश हो लूँगा-”

रेखा ने कहना चाहा, “यही तो खतरा है,” पर सहसा कह नहीं सकी। बोली, “अच्छा, रहा।”

चन्द्र ने कहा, “मैं भुवन को निमन्त्रित भी कर देता हूँ-अबकी छुट्टी में आ जाये। होली-ईस्टर जो हो। आप भी आवेंगी न?”

“देखो-शायद-होली में छुट्टी तो होगी पर होली में कोई लखनऊ क्या आएगा।” चन्द्र ने उत्साह से अंग्रेजी में कहा, “इट्स ए डेट।”

लेकिन चन्द्रमाधव ने भुवन को पत्र लिखने में लगभग एक महीने की देर कर दी थी। और जब लिखा था, तब रेखा का कोई उल्लेख नहीं किया था। वह जानता था कि किसी स्त्री से भेंट कराने की बात से ही भुवन बिदक जाएगा; फिर वह परिचय कराना ठीक चाहता ही था यह कहना भी कठिन है। भुवन से उसकी पुरानी मैत्री थी; ठीक है, पर मैत्री-मैत्री में भी फ़र्क होता है, और रेखा के साथ भुवन की बात वह कभी सोच ही न सकता अगर उसे यह ध्यान न आता कि वैसे शान्त-गम्भीर 'सूफियाना' तबीयत के आदमी की उपस्थिति शायद रेखा की दृष्टि से उपयोगी हो, नहीं तो अकेले चन्द्र के साथ तो वह पहाड़ कभी नहीं जा सकती...दोनों का परिचय वह उतना ही चाहता था, जिससे रेखा की तसल्ली हो जाये, पर भुवन की मनहूसियत उस पर हावी न हो जाये!

लेकिन ईस्टर की छुट्टियों में भुवन के लखनऊ में बिताये हुए एक सप्ताह का ठीक वही असर हुआ, यह उसे नहीं लगा। बल्कि उसे अचम्भा, निराशा-और कुछ खीझ भी हुई, कि न तो भुवन उतना गब्बू ही साबित हुआ जितना वह जानता (और चाहता) था; और न उसकी उपस्थिति से चन्द्र की ब्रिलियेंस का वह प्रभाव ही रेखा पर पड़ा जिसकी उसने आशा की थी। जिस मुहावरे में सोचने का वह आदी था उसमें भुवन उससे 'बाज़ी ले गया' था; स्पष्ट ही रेखा उसकी बातों से प्रभावित हुई थी, और उसकी अप्रगल्भ गहराई के प्रति एक सम्मान का भाव उसमें आ गया था-मानो अप्रगल्भता ही गहराई हो। 'तावदेव शोभते-', पर भुवन बोला तो काफी था, प्रभाव उसकी चुप्पी का नहीं था...भुवन पढ़ता-वढ़ता रहता है, कोटेशन भी उसे बहुत याद हैं; और यह जो बारीक-बारीक भेद करने की बात है, इसका प्रभाव भी शायद स्त्रियों पर बहुत पड़ता है-वे खुद जो मोटी-मोटी व्यावहारिक बातें सोचती हैं। यों रेखा भी सोचनेवाली है, पर एक बात यह भी है कि पुरुष की उदासीनता का अपना एक आकर्षण होता है-खासकर उस स्त्री के लिए, जो बराबर पुरुषों का अटेंशन पाती रही हो...रेखा सुन्दर है-अपने यू.पी., पंजाब के स्टैंडर्ड से चाहे न हो, जहाँ गोरा-चिट्टा होना ही रूप है, यों चाहे चीनी का खिलौना हो, या कि रंगीन रोएँदार इल्ली जैसी तितली निकलने से पहले होती है-पर वैसे अत्यन्त रूपवती है, और उसका रूप एक सप्राण, तेजोमय पर्सनेलिटी के प्रकाश से भीतर से दीप्त है, भले ही एक कड़ा रिज़र्व उस प्रकाश को भी घेरे है-चन्द्र को एक बड़ी सी चन्द्रकान्त मणि का ध्यान आता, जो बाहर चिकनी सफेद होती है, अन्दर बिखरे से इन्द्रधनुष के रंग लिए, पर एकदम भीतर कहीं एक सुलगती आग का लाल आलोक-और पत्थरों का 'पानी' देखा जाता है, पर चन्द्रकान्त में 'आग' से ही उसका मोल आँका जाता है...और ऐसी मणि आज कई बरस से पारखी की खोज में भटकती फिर रही है!-तो क्या निरन्तर ही एडमायरर उसे न घेरे रहते होंगे? यही वह देखता है, उसी के यहाँ रेखा को जिसने आते-जाते देखा है, उसके बारे में पूछे बिना नहीं रह सका है; और जिसने पूछा है, उसकी मानो दीठ से ही टपकती लार का लिसलिसापन वह अनुभव कर सका है...जब से रेखा उसके यहाँ आती-जाती है, तब से उसके मित्र भी मानो बढ़ गये हैं। और काफ़ी हाउस में भी लोग 'हेलो' करने आ जाते हैं, और काफ़ी पिलाने का आग्रह करते हैं...और ऐसे में एक आदमी आये जिसके लिए स्त्री और एक रासायनिक फार्मूला एक बराबर हैं कि देखा और हल कर के एक तरफ़ रख दिया-

पर भुवन के आकर्षण का अपने लिए सन्तोषजनक कारण पा लेना तो काफी नहीं था; वह तो मानव-सम्बन्धों का अध्ययन करने नहीं बैठा है, वह ज़िन्दगी को अंगूर के गुच्छे की तरह तोड़ कर उसका रस निचोड़ लेगा, लता को झंझोड़ डालेगा, कुंज में आग लगा देगा, वह आराम से नहीं बैठेगा! एक पैनी ईर्ष्या की नोक उसे सालने लगी : भुवन को रेखा ने देख लिया है, भुवन जाएगा तो वह पहाड़ चलने को राजी हो जाएगी, पर चन्द्र को भुवन और रेखा के साथ नहीं जाना है, भुवन को चन्द्र और रेखा के साथ जाना है; क्योंकि एक ओट के रूप में उसकी उपयोगिता है। भुवन को बुलाया तो जाएगा, पर उसे ठीक जगह रखने की भी व्यवस्था करनी होगी। और जल्दी ही कुछ करना होगा-रेखा को छुट्टी की अड़चन अब न हो, यह तो पक्का हुआ; पर और भी कई 'कुछ' और बाकी हैं...

छुट्टी की अड़चन न हो, इसकी व्यवस्था से वह अपने पर खुश था। रेखा के जाने के कुछ समय बाद लखनऊ में रियासती प्रतिनिधियों की एक बैठक हुई थी, बातचीत के सिलसिले में चन्द्र ने एक उच्च अधिकारी से अमुक रियासत की राजकुमारियों की गवर्नेस की कुछ चर्चा कर दी थी। फिर पूछे जाने पर उसकी नेकी, सच्चरित्रता और लगन की बड़ी प्रशंसा की थी। 'क्या वह उसे काफी देर से जानता है?' 'हाँ, उसे ही नहीं, उसके पति को भी जानता है, उसके दो-एक प्रेमिकाओं को भी-रेखा देवी बड़ी समझदार और सावधान स्त्री है, कभी अपने पर आँच नहीं आने देती, न कभी किसी को संकट में डालती है; उससे कभी किसी की बुराई नहीं सुनी गयी।'...यों आजकल ऋषि-मुनियों का जमाना थोड़े ही है; अच्छा वह जिसके नाम पर कोई धब्बा न हो, इससे आगे किसी के निजी जीवन को कुरेदना भी नहीं चाहिए। 'मैं रेखा देवी को बहुत अच्छी तरह जानता हूँ-जी हाँ, इतना कि मैं चाहूँ तो...अपनी बात कहनी नहीं चाहिए, पर वहाँ उन्हें नौकरी भी मैंने ही दिलायी थी-' और चन्द्र कुछ ऐसे ढंग से मुस्कराया था, कि रेखा को जानने में, और उसे नौकरी दिलाने की लाचारी में, कोई सम्बन्ध हो-और चन्द्रमाधव जैसा उत्तरदायी आदमी जिसे अपने निकट लेता है, उसका ध्यान रखता है-उसकी उचित व्यवस्था करता है...

चन्द्र के सामने कोई स्पष्ट योजना रही हो, ऐसा नहीं था; कुछ तो शेखी में वह बात करता था, कुछ इस प्रकार रेखा को अहसान से बाँधने की नीयत से, और कुछ शायद यह भी था कि रेखा की चर्चा से रियासत में लोगों की आँखें उसकी ओर जाएँगी, कुछ तनाव पैदा होगा और रेखा फिर उससे साहाय्य चाहेगी...यही हुआ भी, क्योंकि ये अफ़सर लौटकर रेखा से मिले, रेखा को पार्टी पर निमन्त्रित किया; रेखा नहीं गयी, पर उनके निमन्त्रण के बाद और भी निमन्त्रण उसे मिले, लोग उसके घर पर मिलने भी आये। वह जो सदा किसी की आँखों के आगे होने से बचती थी, सहसा अपने को इस हलचल का केन्द्र पाकर समझ न सकी कि मामला क्या है। रानी ने भी दो-एक बार हल्की-सी चुटकी ली, यद्यपि उसमें नापसन्दी या आलोचना की भावना बिल्कुल न थी। तब एक दिन सहसा रेखा ने इस्तीफा दे दिया-कारण उसने यही बताया कि उसका स्वास्थ्य कुछ ठीक नहीं है और वह विश्राम चाहती है। रानी ने वास्तविक अनिच्छा से उसे छोड़ दिया; यह भी कहा कि वह चाहे तो लम्बी छुट्टी ले ले और फिर लौट आये, और जब रेखा ने नहीं माना तो यह भी कहा कि भविष्य में जब भी वह पुनः आना चाहे आ सकती है, उन्हें हर्ष ही होगा। कभी उनकी सहायता की ज़रूरत हो तो वह निस्संकोच उन्हें लिखे।

इस प्रकार, सर्वथा सद्भाव के साथ, रेखा नौकरी छोड़ आयी। स्थिति-परिवर्तन का कारण उसे ज्ञात न था। चन्द्र को उसने पत्र लिख कर सूचना दे दी, कारण ठीक-ठीक लिख दिया कि रियासत के कर्मचारियों की उसमें आवश्यकता से अधिक दिलचस्पी है। चन्द्र मन-ही-मन मुस्कराया; फिर उसने लिखा कि रेखा लखनऊ आ जाये; दो-एक और नौकरियाँ उसकी निगाह में हैं पर रेखा के आने से उस की सलाह से प्रबन्ध करेगा।

रेखा तत्काल नहीं आयी थी; आते-आते ईस्टर निकट आ गया था और लखनऊ से वह एक परिचित परिवार के यहाँ कुछ दिन बिताने प्रतापगढ़ जाने को वचनबद्ध हो आयी थी।

चन्द्र ने संवेदना बता कर यह भी प्रस्ताव किया था कि अब गर्मी के बाद ही रेखा नया काम करे-कुछ घूम-घाम ले और पहाड़ भी हो आये। और इस सिलसिले में जाड़ों की बात की याद भी दिला दी थी, पर आग्रह नहीं किया था। ईस्टर में भुवन आएगा, यह भी बता दिया था।

× × ×

भीड़ के साथ सिनेमाघर से बाहर निकला, तब चन्द्रमाधव की मानसिक स्थिति में विशेष परिवर्तन नहीं हुआ था। एक खीझ अब भी उसके मन में भरी थी; पर खीझ जैसे केवल विमुख करती है, वैसा भाव उसमें नहीं था। खीझ में एक अन्तर्धारा किसी गोपन आशंका की थी; मानो एक चिन्ता उसे खा रही हो कि कुछ जल्दी करना है नहीं तो न जाने क्या एक शोचनीय बात हो जायेगी। न उस शंकनीय बात को, न उस काम को जो करना होगा, वह कोई नाम दे सकता था, या देना चाहता था; पर खीझ के भीतर से जैसे इस चाबुक की प्रेरणा उसे हाँक रही थी। उसने रिक्शा नहीं लिया, पैदल ही तेज चाल से घर की ओर चल पड़ा। सिनेमा से छूटी हुई भीड़ क्रमशः फैलती और छँटती गयी। नरहीवाले मोड़ पर बचे-खुचे लोग भी मुड़ गये और वह रास्ते पर अकेला रह गया। हवा बहुत तेज चल रही थी, धूल उस इलाके में अधिक नहीं फिर भी कभी-कभी कोई नुकीला कण आकर उसके गाल पर चिनगी-सा चुभ जाता-हवा इतनी तेज न होती तो शायद इस रास्ते पर नींबू के फूलों का सौरभ पाया जा सकता, पर अब तो कोई गन्ध नहीं है, उसी के कपड़ों में से सिगरेट के सीले हुए धुएँ की महक आ रही है जो सिनेमाघरों की विशेष देन है-दूसरों की धूमिल साँसों की गन्ध...बहुत से लोग इसी से तंग आकर सिगरेट पीना शुरू कर देते होंगे-दूसरों की गन्ध से हरदम दम घुटता रहे, इससे अच्छा है कि स्वयं अपना दम घोंट लो-अपने ज़हर...नहीं, वह भुवन को निमन्त्रित करेगा ही; और इतना ही नहीं, रेखा को लिखेगा कि वह भी भुवन को निमन्त्रित करे, दोनों के निमन्त्रण से भुवन अवश्य आ जाएगा, और फिर रेखा को आना ही होगा-उसी के निमन्त्रण पर भुवन आवे और फिर वह रह जाये यह कैसे हो सकता है? भीतर से रेखा इन औपचारिक बातों को जितना ही नगण्य मानती है, बाहर से उनके निर्वाह में उतनी ही सतर्क रहती है...

घर पहुँच कर उसने सब खिड़कियाँ बन्द की; सहसा स्तब्ध हो गये वातावरण में उसने कपड़े बदले, बालों को उँगलियों से थोड़ा मसल कर, हाथों में थोड़ा कोलोन-जल डाल कर माथे पर और कनपटी पर मल लिया, फिर कंघी से बाल सँवारे और टेबल लैम्प जला कर पत्र लिखने बैठ गया।

भुवन को जो पत्र लिखा गया वह छोटा ही था। भुवन के जाने के तत्काल बाद क्यों पत्र लिखा जा रहा है, इसकी सफ़ाई देते हुए उसने लिखा कि 'यह बात वह बहुत दिनों से कहना चाह रहा था पर कुछ झिझक ही रही क्योंकि भुवन एक तो अपने वैज्ञानिक कार्यों और पढ़ाई में व्यस्त रहता है, दूसरे चन्द्र को यह भी डर रहता है कि वह कहीं ख़ाहमख़ाह भुवन के स्वायत्त, स्वतःसम्पूर्ण जीवन में टाँग न अड़ा रहा हो। उसकी बहुत दिनों से इच्छा है कि भुवन के साथ कहीं पहाड़ की यात्रा करे, पर कभी मौका नहीं बना है; क्या अब की छुट्टियों में वह सम्भव हो सकेगा? यदि भुवन चलने को राजी हो तो वह भी एक महीने की छुट्टी ले रखेगा-उसके काम में तो पहले से छुट्टी का प्रबन्ध कर रखना नितान्त आवश्यक है, इसीलिए वह इतना पहले पूछ रहा है। और जाने के लिए वह तो कुल्लू की बात सोच रहा है, पर भुवन की जहाँ इच्छा हो वहीं जाया जा सकता है; उसे भरोसा है कि भुवन अच्छी ही जगह चुनेगा क्योंकि वह तो और भी अधिक शान्त-एकान्त जगह चाहता है।'

फिर 'पुनश्चः' करके उसने जोड़ दिया था : 'रेखा देवी ने भी पहाड़ जाने की इच्छा प्रकट की थी; और कुल्लू या वैसे ही किसी एकान्त स्थल की। पर तुम जानते हो, उसके साथ अकेले मेरा जाना कैसा लगेगा, वह तो सर्वथा मुक्त विहंगम है, पर मेरी तुम समझ सकते हो कि कैसी स्थिति होगी-मेरे काम में एक विशेष प्रकार की प्रतिष्ठा की बड़ी आवश्यकता है, क्योंकि जर्नलिस्ट को यों ही लफंगा समझ लिया जाता है और इसलिए उसके लिए दामन बचा कर चलने की विशेष आवश्यकता है। अगर तुम भी साथ चलो, तो आपत्ति की कोई बात न होगी; तुम्हारा उत्तर आने पर मैं रेखा देवी को सूचना दे दूँगा। आशा है कि तुम्हें उसके साथ पर आपत्ति न होगी।'

रेखा को उसने लिखा : 'आपको यह बताने को भूल गया कि इस बार भुवन ने स्वयं कहीं पहाड़ चलने की बात की थी। मेरा विचार है कि अब गर्मियों में चलने का प्रोग्राम बनाया जाये तो वह सहर्ष चलेगा। यह नहीं कह सकता कि उसका साथ आप को कैसा लगेगा। है तो वह बिलकुल किताबी दुनिया का जीव, पर यों दिल का भला है, सामाजिक पालिश उसमें नहीं है पर पहाड़-जंगल में उसके अनगढ़पन को कौन देखेगा, उसका सामीप्य कोई कठिनाई नहीं पैदा कर सकता। आपका विचार हो, तो न हो तो आप भी उसे एक पत्र लिख दीजिए-मैंने अभी तक तो नहीं कहा कि आप भी चलेंगी पर आप स्वयं लिखें तो बहुत अच्छा होगा। आप काम के विषय में चिन्तित होंगी; मैं उसके लिए दत्तचित्त हूँ। और शीघ्र ही कुछ कर सकने की आशा करता हूँ। पर मेरी राय यही है कि आप गर्मियों के बाद कार्यारम्भ करें; वही ठीक सीजन है और उस समय अच्छा काम मिलने की सम्भावना होती है, गर्मियों में तो ऐसे लोग काम देते हैं जो वेतन देकर खरीदने और खून चूसने के आदी होते हैं...'

फिर नये पैरा में उसने उसी रात देखे हुए फिल्म का वर्णन किया था। रेखा के चले जाने के बाद उसका जी नहीं लगा; मन बहलाने वह सिनेमा चला गया था। 'रेखा नहीं जानती है, पर उसके लखनऊ में बिताये हुए दिन चन्द्रमाधव के लिए एक सुनहली धूप के दिन होते हैं : उनकी मधुर गरमाई उसे देर तक अभिभूत किये रहती है पर साथ ही एक कसक भी छोड़ जाती है क्योंकि तुलना में और दिन फ़ीके और एक अजीब कुहासे से-निरालोक से जान पड़ते हैं।'

यहाँ पर पृष्ठ समाप्त करके चन्द्र कुछ देर रुक गया था। इतना भी उसने अटक-अटक कर लिखा था; इसके बाद उसने अपने सामने एक नया पन्ना रखा और थोड़ी देर लैम्प के छादन की ओर सूनी दृष्टि से ताकता हुआ बैठा रहा। आँत के बने हुए उस छादन पर एक काली छायाकृति अँकी हुई थी-दोनों हाथ ऊँचे उठाये एक नंगी स्त्री-आकृति, हाथों में कमल के आकार के फूल...अनमने से भाव से उसने लैम्प को घुमा दिया; दूसरी ओर वैसी ही एक आकृति घुटने टेके आगे को झुकी हुई थी। आगे बढ़े हुए हाथों में फूल थे; कुहनी और घुटनों के बीच में कुचों को कुछ अतिरिक्त प्रशस्तता मिल जाती थी-उनका नुकीलापन बाकी आकार की प्रवहमान गोलाई को एक नया लचकीलापन दे देता था। सहसा आगे झुककर चन्द्रमाधव ने जल्दी-जल्दी लिखना शुरू किया। बड़े डाकघर के घड़ियाल ने दो खड़काये तब वह उसे अभी लिख रहा था, कई पन्ने रंग कर उसने एक ओर को गिरा दिये थे। रुक कर उसने उन्हें सँवारा और अनुक्रम से रखा, फिर संख्या दी-3, 4, 5, 6...13, 14, 15। फिर पन्ना उलट कर उसने 16 लिखने को हाथ बढ़ाया और खींच लिया; सारे कागज़ एक साथ उठाये और दो-एक बार उलटे-पलटे, फिर सब फाड़ कर छोटी-छोटी चिन्दियाँ बना कर रद्दी की टोकरी में डाल दी और उठ कर टहलने लगा। थोड़ी देर बाद आकर उसने पहले के दो पन्ने उठाये और उन्हें शुरू से अन्त तक पढ़ डाला; बैठ कर फिर नया पन्ना लिया और दो-तीन पंक्तियाँ जोड़ कर पत्र समाप्त कर दिया। दोनों पत्र लिफ़ाफों में डाल कर बन्द किये, पते लिख कर मेज़ के एक कोने में रख दिये, ऊपर दाब के लिए आलपिनदान रख दिया। फिर वह टहलने लगा।

अनन्तर रात में उसने फिर पैड सामने खींचकर कलम हाथ में साधा; थोड़ी देर कागज़ को देखते रह कर वह उठा; मेज़ पर जितने कागज़, किताबें, पुराने पत्र, कलमदान, फूलदान, अखबार के कटिंग वग़ैरह थे, सब समेट कर उठाये और ले जाकर मैंटल पर रख दिये, दुबारा आकर ताजे॓ लिखे हुए दोनों पत्र भी उठाये और अन्य सब चीज़ों के ऊपर उसी प्रकार दाब देकर रख दिये। सूनी मेज़ पर रह गया केवल पैड, कलम, और टेबल लैम्प। उसे भी चन्द्र ने घुमा कर ऐसे रखा कि दोनों ओर की कोई आकृति उसे न दीखे, केवल बीच का अन्तराल; आँत के मैले पीले रंग में से पार का आलोक मद्धिम होकर आता था और उससे छादन में जहाँ आँत का जोड़ था वहाँ एक धुँधली-सी, कहीं आलोकित और कहीं घनी टेढ़ी-तिरछी लकीर झलक उठी थी, जैसे पहाड़ी प्रदेश के नक्शों में कोई नाला आँका गया हो। एक सन्तुष्ट दृष्टि पूरे पैड पर डाल कर उसने फिर लिखा : 'प्रिय गौरा।'

यह पत्र समाप्त करके वह जब उठा, तब भोर का आकारहीन फीकापन क्षितिज पर छा गया था। डाकघर का गजर खड़कता रहा कि नहीं, चन्द्रमाधव ने नहीं सुना।

मेंटल पर रखे हुए पत्रों में से भुवन वाला पत्र उसने फिर उठाया, और सावधानी से खोल दिया। 'पुनश्चः' के नीचे लिखा : 'दूसरी बार पुनश्च : गौरा आजकल कहाँ है? उससे तुम्हारा पत्र-व्यवहार होता है? उसे पत्र लिखो, तो मेरा नमस्कार भी लिखना, और लिखना कि उसका कुशल-समाचार पाकर मैं अपने को धन्य मानूँगा। शायद मैं भी उसे लिखूँ।”

पत्र फिर बन्द करके उसने पूर्ववत् रखा, बत्ती बुझा दी, और बिछौने पर धम्म से लेट गया। बाहर क्षितिज कुछ स्पष्ट होने लगा था; एक बार त्यौरियाँ चढ़े चेहरे से चन्द्र ने उधर ताका, फिर औंधा होकर तकिये में मुँह छिपा लिया, ज़रा हिल-डुल कर शरीर को ढीला किया, नाक के सामने से तकिये को दबाकर साँस की सुविधा की, फिर बाँह मोड़ कर चेहरे को उसकी ओट दे दी और अधखुली मुट्ठी सिर पर ऐसी लगने लगी मानो चोट से बचने को ओट की गयी हो।

दो-तीन मिनट बाद ही उसकी साँस नियमित चलने लगी-उस नियम से जो हमारी संकल्पना का नहीं, उससे निरपेक्ष प्रकृति का अनुशासित है; और उसके औंधे शरीर की सब रेखाओं में एक बेबस शिथिलता आ गयी।