भुवन / नदी के द्वीप / अज्ञेय
गाड़ी जब तक प्रतापगढ़ से नहीं चली, तब तक भुवन ने नहीं जाना कि उसे अपने बारे में सोचने की कुछ ज़रूरत है; और गाड़ी चलने पर भी ठीक इस रूप में ही उसने यह बात जानी हो, ऐसा भी नहीं; वह केवल हक्का-बक्का-सा चलती गाड़ी का हैंडल पकड़े खड़ा रह गया-विस्मय से अपने मुक्त दूसरे हाथ की ओर देखता हुआ, मानो वह उसका नहीं, कोई पराया हाथ हो जो किसी रहस्यमय क्रिया से उसके शरीर के साथ लग गया हो और अब अपने और पराये के सन्धिस्थल उसकी कुहनी पर चुनचुनाहट हो रही हो।
वह सवार ही चलती गाड़ी पर हुआ था; उसके प्लेटफार्म पर खड़े रेखा से बातें करते-करते कब गाड़ी चल पड़ी थी यह उसे मालूम नहीं हुआ था, और अगर रेखा ही सहसा उसकी कुहनी पकड़ कर मुस्करा कर उसे ठेलती हुई न कहती-”अच्छा, जल्दी से सवार हो जाइए, आप की गाड़ी जा रही है,” तो वह ज़रूर गाड़ी से रह जाता।
और यहीं से उसके विस्मय का आरम्भ होता था। क्योंकि यद्यपि वास्तव में रेखा ने उसे ठेलकर गाड़ी पर सवार करा दिया था, तथापि उस बहुत हल्के धक्के में यही लगा था कि रेखा वास्तव में उसे कुहनी पकड़ कर खींच रही है : कि उसके शब्द और उसकी क्रिया भी उसके वास्तविक अभिप्राय को झुठला रहे हैं और वह वास्तव में उसे रोक ही लेना चाहती है। और जहाँ उसने भुवन की कुहनी को छुआ था, वहीं यह अद्भुत, अपूर्व-परिचित चुनचुनाहट हो रही थी-उसकी कुहनी में, जो सदा अपने साथियों पर हँसता आया है कि उन्हें स्त्री का सान्निध्य सहन नहीं होता, वे उसे सहज भाव से न ले पाकर उत्तेजित या अस्थिर हो उठते हैं-उसने यहाँ तक देखा है कि किसी स्त्री द्वारा चाय का प्याला दिया जाने पर लोगों के हाथ ऐसे काँपने लगें कि चाय छलक जाये!
और आज : एक स्त्री के द्वारा सहज भाव से ठेलकर गाड़ी पर सवार करा दिये जाने पर उसी की कुहनी में स्पर्शित स्थल पर चुनचुनाहट होने लगी है और वह यह रूमानी कल्पना कर रहा है कि रेखा ने वास्तव में उसे ठेला नहीं बल्कि खींचा था...भुवन बाबू, यों हक्के-बक्के अपने हाथ की ओर ताकते और अपनी कुहनी को पहचानते न खड़े रहिए, आख़िर आपको हुआ क्या है?...
पीछे किसी ने चिड़चिड़े स्वर में कहा, “अजी साहब, फुटबोर्ड पर क्यों लटके खड़े हैं, भीतर चले आइए और दरवाज़ा बन्द कर दीजिए।”
चिड़चिड़ापन वाज़िब था; क्योंकि इण्टर क्लास ही सही, रात को सोते सब हैं, और तड़के तीन बजे दरवाज़ा खोल कर खड़े हो जाना दूसरे मुसाफ़िरों को न सुहाए तो अचम्भा नहीं होना चाहिए।
भुवन ने भीतर प्रवेश करके दरवाज़ा बन्द किया और एक सीट पर सिमट कर बैठ गया। उसके विस्मय की जड़ता कुछ कम हुई तो उसकी स्मृति धीरे-धीरे पिछले कुछ घंटों की दृश्यावली के पन्ने उलटने लगी।
रेखा से उसका परिचय लम्बा नहीं था। बल्कि परिचय कहलाने लायक भी नहीं था, क्योंकि एक सप्ताह पहले ही अपने मित्र चन्द्रमाधव के घर पर एक छोटी चाय-पार्टी में इनकी पहली भेंट हुई थी। और उसके बाद दो-तीन बार हज़रतगंज़ के कोने पर या काफ़ी हाउस में, उनका कुछ वार्तालाप हुआ था। भुवन को लखनऊ से इलाहाबाद जाना था, रेखा किसी परिचित परिवार के पास कुछ दिन बिताने प्रतापगढ़ जाने वाली थी; बातचीत के सिलसिले में यह जान कर कि दोनों एक ही दिन एक ही गाड़ी से जा रहे हैं, चन्द्रमाधव की सलाह से यह निश्चय हुआ था कि तीनों साथ हज़रतगंज़ में कहीं भोजन करके स्टेशन पहुँच जावेंगे और दोनों को गाड़ी पर सवार कराकर चन्द्रमाधव लौट जायेगा-भुवन का सामान तो चन्द्रमाधव का नौकर ले जायेगा, और रेखा का सामान उनके आतिथेय का चपरासी पहुँचा आयेगा।
यह तो बिलकुल साधारण बात थी। लेकिन गाड़ी में भीड़ बहुत थी; पहले यह सोचा गया कि दोनों अलग-अलग स्थान खोजें, क्योंकि शायद ज़नाने डिब्बे में कुछ अधिक जगह हो तो रेखा क्यों अधिक कष्ट उठाए? चन्द्रमाधव उसे बिठाने ज़नाने डिब्बे की ओर गया, और भुवन अपने लिए स्थान खोजने निकला। कोई पन्द्रह मिनट में, अनेक डिब्बों का मुआइना करके आँखों-आँखों से प्रत्येक में मिल सकनेवाली जगह के घन इंच और वर्ग इंच का हिसाब लगाने के बाद जब भुवन ने एक डिब्बे में खिड़की के रास्ते अपना छोटा-सा बक्स और संक्षिप्त बिस्तर अन्दर ठेल दिया, और तय कर लिया कि किवाड़ के आगे लगे सामान के ढेर के कारण उधर से न जा सकने पर भी खिड़की के रास्ते घुस सकेगा, वह यह देखने लौटा कि रेखा पर कैसी बीत रही है। मन-ही-मन उसने यह भी सोचा, इसी गाड़ी में जाना ऐसा क्या ज़रूरी है? एक दिन देर भी हो सकती है। इलाहाबाद पहुँचना कोई ऐसा ज़रूरी तो है नहीं, मुफ़्त में तकलीफ़ का सफर क्यों? क्यों न कल पर टाल दिया जाए? यही सोचते-सोचते वह वहाँ पहुँचा जहाँ चन्द्रमाधव एक खिड़की के पास खड़ा था। रेखा डिब्बे के भीतर तो पहुँच गयी थी, पर डिब्बा अपना यह देसी नाम इतना सार्थक कर रहा था कि जहाँ वह खड़ी थी वहाँ उसे इधर-उधर मुड़ने लायक भी स्थान नहीं था; वह खड़ी थी तो बस, जैसे खड़ी थी वैसे खड़ी रह सकती थी।
भुवन ने मुस्कराते हुए पुकार कर अंग्रेजी में पूछा, “रेखा जी, कैसा चल रहा है?”
रेखा ने ज़रा गर्दन उसकी ओर मोड़ कर, हँसते हुए कहा, “स्विमिंग्ली! मैं जैसे सागर की मछली हूँ; जमीन से पैर उठा लूँ तो भी गिरूँगी नहीं, तैरती रह जाऊँगी!”
भुवन ने चन्द्रमाधव से कहा, “चन्द्र, रेखा जी का इसी गाड़ी से जाना क्या ऐसा ज़रूरी?”
चन्द्र ने फौरन शह लेते हुए आवाज दी, “रेखाजी, अब भी सोच लीजिए, आज जाना क्या ज़रूरी है? मेरा कल के शो का निमन्त्रण अभी ज्यों-का-त्यों है-अब भी लौट चलिए, कल रात चली जाइएगा।”
रेखा ने भुवन की ओर उन्मुख होने की चेष्टा करते हुए पूछा, “आप को कैसी ज़गह मिली?
“सामान तो भीतर पहुँच गया है। यों तो खिड़कियों से रास्ता है-अभी तो हवा भी मजे में आ-जा सकती है।”
“तो आप का क्या मत है?”
“मैं तो चन्द्र से बिलकुल सहमत हूँ। आप और एक दिन रुक जाइए-कल चली जाइएगा-”
रेखा के चेहरे पर विकल्प की हल्सी-सी रेखा पहचान कर चन्द्र ने जोर दिया। “हाँ, हाँ, आइये, बस! बल्कि अभी तो आज रात का शो भी देखा जा सकता है” और वह खिड़की में से भीतर झुककर रेखा का सूटकेस पकड़ने लगा।
रेखा उतर आयी। उतर कर भुवन से बोली, “और आप?” फिर चन्द्र की ओर उन्मुख होकर : “मिस्टर चन्द्र, अपने मित्र को भी रोक लीजिए न?”
चन्द्र ने कहा, “इन्हें जाने कौन देता है! आप रुक जाएँगी तो यह नहीं जा सकेंगे, इतने अनगैलेन्ट यह नहीं हो सकते-क्या हुआ प्रोफ़ेसर हैं तो! क्यों भुवन? कहाँ है तुम्हारा सामान?”
भुवन ने आनाकानी की। स्वयं उसने सफ़र एक दिन टाल जाने की बात सोची थी, पर रेखा को वैसा करते देख न जाने क्यों एक प्रतीप-भाव उसके मन में उमड़ आया-कि जो निश्चय किया सो किया, अब बदलना ढुलमुलपन है और ढुलमुलपन बुरी चीज़ है, आदमी की संकल्प-शक्ति दृढ़ होनी चाहिए, ऐसी दृढ़ कि बस फ़ौलाद!
रेखा ने कहा, “हाँ, डाक्टर भुवन, आप भी रह जाइये न? छुट्टी तो आप की अभी कई दिन और है-”
“लेकिन-”
“बस अब लेकिन-वेकिन कुछ नहीं”, चन्द्र ने डपट कर कहा। “चलो आगे, बताओ सामान कहाँ रखा है।” और जिस कुली ने रेखा का सामान उठाया था, उसी को आगे करके वह भुवन के डिब्बे की ओर बढ़ चला।
स्मृति के पन्ने उलटते हुए भुवन ने सोचा, यहाँ तक भी ठीक था; रुक जाना कोई असाधारण बात नहीं हुई थी, और दोनों के रुक जाने में भी कोई बात नहीं थी; अगर उसे इलाहाबाद में जरूरी काम नहीं था तो रेखा को प्रतापगढ़ में और भी कम काम था, वह घूमती हुई और एक जगह कुछ दिन बिताने जा रही थी। और चन्द्र दोनों का मित्र था, और खासा दिलचस्प आदमी, उसके आग्रह का असर होना स्वाभाविक था। और इस प्रकार दोनों रुक गये थे, और अगली शाम को उसी प्रकार उसी गाड़ी के लिए पहुँचे थे।
फिर भीड़ थी; पर उतनी नहीं; फिर अलग-अलग डिब्बों में सवार हुआ गया-रेखा को जनाने डिब्बे में बैठने लायक स्थान मिल गया यद्यपि बिल्कुल दरवाज़े के पास, और भुवन ने भी अपना बक्स जमा कर अपने बैठने लायक सीट बना ली। विदा-नमस्ते करके सीटी के साथ वह अपने डिब्बे की ओर चला और सवार हो गया।
यहाँ तक भी ठीक था। और अगर बीच में थोड़ी-थोड़ी देर बाद गाड़ी के रुकने पर वह रेखा के डिब्बे तक जाकर उससे एक-आध बात कर आता रहा, तो यह भी कोई ऐसी असाधारण बात नहीं थी; यह साधारण शिष्टाचार ही है; और अग़र रात दस बजे के बाद भी हुआ तो भी अधिक-से-अधिक कोई यह कह सकता है कि शिष्टाचार में कुछ अनावश्यक मुस्तैदी थी, या दिखावा था। वह स्वयं यही जानता था कि रेखा बड़ी मेधावी स्त्री है और उससे बातचीत विचारोत्तेजक है और मानसिक स्फूर्ति देती है, बस। बातें भी वे ऐसी ही करते आये थे; और प्रतापगढ़ में जब रेखा उतर गयी और भुवन ने कहा, “आप से भेंट कर के बहुत प्रसन्न्ता हुई-मेरा लखनऊ प्रवास बड़ा सुखद रहा”, तो उसने अपने स्वर में शिष्टाचार से-यद्यपि हार्दिक शिष्टाचार, निरी औपचारिक शिष्टता नहीं-अधिक कुछ नहीं पाया था। रेखा ने भी वैसे ही अव्यक्तिक पर सच्चे विनय से कहा था, “मैं आपकी बड़ी कृतज्ञ हूँ-और आप ने तो इस वापसी की यात्रा को भी प्रीतिकर बना दिया-”
तब?
और फिर भुवन ने अपने हाथ और कुहनी की ओर देखा, फिर उसे लगा कि वह चुनचुनाहट अभी गयी नहीं है, वह अपनी कुहनी पर अब भी रेखा के स्पर्श का दबाव अनुभव कर सकता है, और वह दबाव ढकेलने का नहीं है, खींचने का है।
तब?
स्पष्ट ही केवल यात्रा का प्रत्यवलोकन काफ़ी नहीं है; थोड़ा और पीछे देखना होगा। और पीछे देखने में-या क्रम से विश्लेषणपूर्वक देखने में-उसे झिझक क्यों है, वह अनमना क्यों है? सप्ताह-भर से कम का सामान्य सामाजिक परिचय-कौन उसमें ऐसे छायावेष्टित रहःस्थल हैं जिनमें जिज्ञासा की किरण के पहुँचने से वहाँ पलती कोई छुई-मुई अनुरागानुभूति मर जाएगी!
आग की लौ आलोक देती है : उससे हम आलोक विकीर्ण हुआ देखते हैं। और व्यक्ति की तुलना लौ से करें तो यही ध्वनित होता है कि उससे कुछ उत्सृष्ट होकर फैलता है। लेकिन रेखा मानो एक शीतल आलोक से घिरी हुई, उसके आवेष्टन में सँची हुई, अलग, दूर और अस्पृश्य खड़ी थी।
भुवन ने एक बार सिर से पैर तक उसे देखा। घूरना इस बीसवीं सदी में भी अशिष्ट है, लेकिन एक ऐसी पारखी दृष्टि भी होती है जिसे घूरना नहीं कहा जा सकता और जो न केवल अशिष्ट नहीं है बल्कि सौन्दर्य का नैवेद्य मानी जाती है। तब मन-ही-मन भुवन ने कहा, यों ही नहीं रेखा देवी की इतनी चर्चा होती। उनमें कुछ है जिसका उन्मेष जीवन का उन्मेष है और जिसे जान सकना ही एक महान् अनुभूति होगी-फिर वह जानना सुखद हो, दुखद हो।
और उसने मुड़कर रेखा की सुनाई में आ सकने वाले विनय के स्वर में अपने साथी से पूछा, “क्यों मिस्टर चन्द्रमाधव, रेखाजी काफ़ी पीती हैं-हम लोग काफ़ी हाउस चलें?”
इस परोक्ष निमन्त्रण का उतना ही परोक्ष उत्तर देते हुए रेखा ने कहा, “हाँ, चन्द्र, तुम बहुत बार काफ़ी पिला चुके हो मुझे, आज मेरा निमन्त्रण रहा; और-तुम्हारा मित्र भी आवे।”
चन्द्रमाधव ने कहा, “वाह, यह नहीं हो सकता, मैं तो स्थायी मेज़बान हूँ।”
तब भुवन ने कुछ साहस बटोर कर कहा, “रेखा देवी, अगर आज मुझे ही मेज़बान होने का गौरव प्रदान करें तो-”
रेखा ने कुछ मुस्करा कर छद्म-विनय से कहा, “आप की प्रार्थना स्वीकार की जाती है।”
हज़रतगंज़ का कोना युक्तप्रान्त के नागरिक जीवन की धुरी है। यह दूसरी बात है कि जीवन वहाँ जिया नहीं जाता; वहाँ केवल जीवन से विश्रान्ति की व्यवस्था है। तथापि जो लोग उस जीवन का संचालन और नियमन करते रहे हैं उनका एक स्वाभाविक संगम वह कोना है। इसीलिए भुवन जब से लखनऊ आया है तब से रोज चन्द्र के साथ काफ़ी हाउस आता है : दिन में एक बार तो अवश्य, कभी-कभी दो-दो तीन-तीन बार-और उस रूप-रस-गन्ध-सिक्त मानव-प्रवाह को किनारे से देखकर मन-ही-मन यह समझता चला जाता है कि वह भी जीवन के प्रवाह के बीच में है, कि जीवन का तीव्र स्पन्दन जिस नाड़ी में हो रहा है, उसे वह पकड़े है, और चाहे तो दबाकर रुद्ध भी कर दे सकता है!
लखनऊ आये उसे कुल तीन दिन हुए हैं। चन्द्रमाधव उसका कालेज का सहपाठी और मित्र, स्थानीय 'पायनियर' का विशेष संवाददाता है और लखनऊ से परिचित है, यों भी बहुधन्धी आदमी है। उसके साथ रहने-घूमने से जीवन के प्रवाह को अनुशासित कर सकने का यह भ्रम सहज ही हो जा सकता है। इससे क्या कि कालेज के बाद से चन्द्रमाधव निरन्तर सनसनी की खोज़ में दौड़ा किया है-अफ्रीका, अबीसीनिया, इटली, जर्मनी, चीन, कोरिया-और वह चार-छः वर्ष वैज्ञानिक खोज़ और देशाटन में लगा कर, पहले से भी कुछ अधिक अन्तर्मुखी और तटस्थ होकर एक कस्बे के कालेज में लेक्चरर हो गया है जो कि यों ही दुनिया के प्रवाह से बहुत दूर रहता है? यह जीवन की धमनी को पकड़े रहने का भ्रम बड़ा ही लुभावना और अहं को पुष्ट करनेवाला है...
और इससे क्या कि चन्द्र का कहना है, वह जीवन के निरन्तर दबाव से बचकर दो मिनट चैन से बिताने के लिए ही काफ़ी हाउस आता है? शायद उसको वही भ्रम लुभा सकता हो...
और रेखा?
भुवन को याद आया, तीन दिन पहले चन्द्र के यहाँ उसने पहली बार रेखा को देखा था। परिचय के समय उसने लक्ष्य किया था कि रेखा के पास रूप भी है और बुद्धि भी है, किन्तु बुद्धि मानो तीव्र संवेदना के साथ गुँथी हुई है और रूप एक अदृश्य, अस्पृश्य कवच-सा पहने हुए है; पर इस आरम्भिक धारणा को उसने तूल नहीं दिया था। प्रचलित धारणा है कि बुद्धिजीवी स्त्री के आवेग शिथिल होते हैं, और अगर किसी को चट से 'फ्रिज्डि वूमन' का बिल्ला दे दिया जा सकता हो तो उसे लेकर माथा-पच्ची कौन करे? फलतः परिचय के साधारण शिष्टाचार के बाद भुवन अपने में खिंच गया था और रेखा चन्द्र के यहाँ जुटे हुए बुद्धिप्राण मानव-जीवनों के गिरोह में खो गयी थी-चन्द्र ने भुवन को मिलाने के लिए लखनऊ का साहित्यिक समाज इकट्ठा किया था...
किन्तु उपेक्षा की जिस पिटारी में भुवन ने उसे डाल दिया था, उसे हठात् झकझोर कर रेखा बाहर निकल आयी थी। बैठक के दौरान भुवन ने दो बार उड़ती नज़र से रेखा के चेहरे पर क्लान्ति और खेद के चिह्न देखे थे; जब साहित्य-चर्चा ने ज़ोर पकड़ा और वातावरण में गर्मी आयी तो भुवन की दृष्टि कौतूहलवश फिर रेखा को खोजती हुई गयी और सहसा ठिठक गयी।
रेखा कमरे की ओर शून्य के एक छोटे से वृत्त के बीचोंबीच कुरसी पर बैठी थी। उसका सिर कुरसी की पीठ पर टिका था, पलकें बन्द थी। वह बिजली के प्रकाश से कुछ बच कर बैठी थी, अतः उसका माथा और आँखें अँधेरे में थी, बाकी चेहरे पर आड़ा प्रकाश पड़ रहा था जिससे नाक, ओठ और ठोड़ी की आकार-रेखा सुनहली हो उभर आयी थी। और इसी स्वर्णाभ निश्चलता पर भुवन का कौतूहल आकर टिक गया था।
कहते हैं कि आँखें आत्मा के झरोखे हैं। झरोखे बन्द भी हो सकते हैं, पर ओठों की कोर एक ऐसा सूचक है कि कभी चूकता नहीं; और इन्हीं की ओर भुवन अपलक देखता रहा। वह कुछ क्षणों की तन्द्रा मानो रेखा को उस कमरे से दूर अलग कहीं ले गयी थी, जहाँ ओठों के कोरों का कसाव, बिना तनिक-सा काँपे भी, जैसे अनजाने कुछ नरम पड़ गया था; मुँह के आसपास की असंख्य शिराओं का अदृश्य तनाव कुछ ढीला हो गया था और जीवन का अदम्य लचकीलापन जैसे फिर उभर कर एक स्निग्ध लहर बन गया था। जहाँ तक भुवन जान पाया, किसी और ने यह परिवर्तन नहीं लक्ष्य किया था; पर उस क्षण के सहज शैथिल्य के द्वारा मानो रेखा ने अपनी सारी क्लान्त शक्तियों को विश्राम देकर पुनरुद्दीपित कर लिया था। वैसे ही जैसे नास्तिकों की भीड़ में कोई भक्त अनदेखे क्षण-भर आँख बन्द करके अपने आराध्य का ध्यान कर ले और उसके द्वारा नये विश्वास से भर कर कर्म-रत हो जाये। रेखा जैसी आधुनिका के लिए भक्त की उपमा शायद ठीक न हो पर उस तुलना के द्वारा रेखा का पार्थक्य और उभर आता था, और यह बात बार-बार भुवन के सामने आती थी कि रेखा में एक दूरी है, एक अलगाव है, कि वह जिस समाज से घिरी है और जिस का केन्द्र है उससे अछूती भी है-यद्यपि कहाँ, अस्तित्व के कौन से स्तर पर विभाजन-रेखा है जो दोनों को अलग रखती है, इसकी कल्पना वह नहीं कर सकता था...
काफ़ी पीते-पीते ये सब बातें चलचित्र-सी उसके आगे घूम गयीं। और जैसे रेखा की रहस्यमयता उसे चुनौती देने लगी। व्यक्तित्व की चुनौती की प्रतिक्रिया भुवन में प्रायः सर्वदा नकारात्मक ही होती है-वह अपने को समझा लेता है कि चुनौती के उत्तर में किसी व्यक्तित्व में पैठना चाहना अनधिकार चेष्टा है, टाँग अड़ाना है; क्योंकि व्यक्तित्वों का सम्मिलन या परिचय तो फूल के खिलने की तरह एक सहज क्रिया होना चाहिए। पर रेखा के व्यक्तित्व की चुनौती को उसने इस प्रकार नहीं टाला, टालने की बात ही उसके मन में नहीं आयी; रहस्यमयी की चुनौती स्वीकार करना तो और भी अधिक 'टाँग अड़ाना' है-क्योंकि किसी का रहस्य उद्घाटित करना चाहने वाला कोई कौन होता है?-यह भी उसने नहीं सोचा। पर अनधिकार हस्तक्षेप की भावना भी उसके मन में नहीं थी। यह जो जन-समुदाय से घिरे रह कर भी अलग जाकर, किसी अलक्षित शक्ति के स्पर्श से दीप्त हो उठने जैसी बात उसने देखी थी, रह-रह कर वही भुवन को झकझोर जाती थी; जैसे किसी बड़े चौड़े पाट वाली नदी में एक छोटे-से द्वीप का तरु-पल्लवित मुकुट किसी को अपनी अनपेक्षितता से चौंका जाय। या कि अँधेरे में किसी शीतल चमकती चीज़ को देखकर बार-बार उसे छूकर देखने को मन चाहे-कहाँ से, किस रहस्यमय रासायनिक क्रिया से यह ठंडा आलोक उत्पन्न होता है?
रेखा को देखते और इस ढंग की बात सोचते हुए भुवन कदाचित् अनमना हो गया था, क्योंकि उसने सहसा जाना, चन्द्र और रेखा में यह बहस चल रही है कि सत्य क्या है; और कब कैसे यह आरम्भ हो गयी उसने लक्ष्य नहीं किया था।
चन्द्र कह रहा था, “सत्य सभी कुछ है-सभी कुछ जो है। होना ही सत्य की एक-मात्र कसौटी है।”
रेखा ने टोका, “लेकिन होने को तो झूठ भी है, छल भी है, भ्रम भी है-क्या वह सब भी सत्य है? या कि आप होने की कुछ दूसरी परिभाषा करेंगे-पर यह कहना तो यही हुआ कि सत्य वह है जो सत्य है।”
“नहीं, सभी कुछ जो है। यानी उस में मिथ्या भी शामिल है, भ्रम भी। मुझे अगर भ्रम है, तो उसका होना भी होना है, और इसलिए वह भी सत्य है। और मुझे भूत दीखते हैं, तो भूत सत्य हैं; यों चाहे होते हों या न होते हों। यों कह लें कि भूत मेरा सत्य है, दूसरों का चाहे न हो।”
“तो सत्य बिल्कुल मुझ पर आश्रित है-व्यक्ति-सापेक्ष है? निरपेक्ष सत्य कुछ है ही नहीं?” रेखा ने आपत्ति के स्वर में कहा, “क्यों डाक्टर भुवन, आप भी ऐसा ही मानते हैं?”
भुवन कुछ कहे, इससे पहले ही चन्द्र ने कहा, “हाँ। सत्य सापेक्ष ही है। निरपेक्ष वह हो ही कैसे सकता है? निरपेक्ष तो चीज़ें हैं-पदार्थ। पदार्थ सत्य नहीं है, निरा पदार्थ। सत्य तो पदार्थ का हमारा बोध है-और बोध व्यक्तिगत है।”
भुवन ने कहा, “मुझे तो लगता है कि हम सत्य और वस्तु का भेद भूल रहे हैं। भूत हों या न हों, अगर मेरे लिए हैं तो हैं-यानी यथार्थ हैं। पर सत्य-सत्य तो दूसरी बात है। यों चन्द्र जो पदार्थ और सत्य में भेद कर रहे हैं वह मैं मानता हूँ, पर वह अधूरी बात लगती है।”
“क्यों? आगे और क्या है?”
“पदार्थ वास्तव में एक अंश है। वास्तव में और भी बहुत कुछ आता है। विचार, कल्पनाएँ, घटनाएँ, परिस्थितियाँ-ये सब भी वास्तव के अंग हैं जिन्हें पदार्थ नहीं कहा जा सकता-”
“मैं कब कहता हूँ। लेकिन सत्य तो कहा जा सकता है?” चन्द्र ने विजय के स्वर में कहा, “यही तो मैं कह रहा था।”
“नहीं। मैं वास्तव में और सत्य में भेद करना चाहता हूँ। या कहिए कि सापेक्ष और निरपेक्ष सत्य के प्रश्न को दूसरी तरह देखना चाहता हूँ।” भुवन क्षण भर रुका। “एक उदाहरण लीजिए : दो और दो चार होते हैं, इस बात को आप क्या कहेंगे?”
“सत्य। और क्या?”
“लेकिन मैं नहीं कहूँगा। मैं कहूँगा यह तथ्य है। और इस तरह के सब 'सत्य' केवल तथ्य हैं। सत्य की संज्ञा उन्हें तब मिल सकती है जब उनके साथ हमारा रागात्मक सम्बन्ध हो। यानी जो तथ्य हमारे भावजगत् की यथार्थता है, वह सत्य है; जो निरे वस्तु-जगत् की है, वह तथ्य है, वास्तविकता है, यथार्थता है, जो कह लीजिए, पर सत्य से वह ऊनी पड़ती है।”
क्षण भर सब चुप रहे। फिर रेखा ने, कुछ इस बात को स्वीकार करते हुए और कुछ विषयान्तर करते हुए-से, कहा, “सत्य को कटु क्यों कहते हैं, कटु वह कैसे हो सकता है? अंग्रेजी में भी कहते हैं 'पेनफुल ट्रुथ'-अगर हम उसे सत्य मानते हैं, जानते हैं, तो वह पेनफुल क्यों होता है?
भुवन ने कहा, “मैं तो कहूँगा कि सत्य मात्र पेनफुल है, रागात्मक सम्बन्ध का यह मोल हमें चुकाना पड़ता है। सत्य, तथ्य-का रचनात्मक, सृजनात्मक रूप है, और सृजन सब पेनफुल होता है : 'अपने ताप की तपन में सब कुछ उसने रचा'-रचना के सत्य का कितना सुन्दर वर्णन है इस वाक्य में।”
रेखा ने कहा, “यह सचमुच बड़ी सुन्दर बात है। पर पेनफुल ट्रुथ की बात इससे हल नहीं हुई-मुझे तो नहीं लगता कि हल हो गयी।”
“शायद नहीं हुई। पेनफुल सत्य का एक उदाहरण लीजिए। मान लीजिए कि 'क' 'ख' से प्रेम करता है। उनका प्रेम एक तथ्य है : आप बड़ी आसानी से कह सकते हैं कि 'क' 'ख' से प्रेम करता है-आपका अपना कोई लगाव 'क' 'ख' से नहीं है इसीलिए। अब कल्पना कीजिए उस स्थिति की जिसमें अपनी ओर से यह बात कहनी हो। 'क' 'ख' से प्रेम करता है यह कह देना कितना आसान है, और 'मैं तुम से प्रेम करता हूँ' यह कह पाना कितना कठिन-कितना पेनफुल। क्योंकि एक तथ्य है, दूसरा सत्य-और सत्य; न कहना आसान है, न सहना आसान है।” भुवन साँस लेने के लिए तनिक-सा रुका और फिर बोला, “अंग्रेजी की कविता है, 'द पेन आफ़ लविंग यू इज़ आल्मोस्ट मोर दैन आइ कैन बेयर'-तुम्हारे प्रेम की व्यथा दुस्सह है। बड़ी सच बात है, ज़रूर दुस्सह होगी, और ज़रूर व्यथा होगी-अगर सचमुच प्रेम है।”
चन्द्र ने कुछ ठट्ठे के स्वर में कहा, “तब तो सत्य भी खतरनाक चीज़ है, और प्रेम भी। लेकिन ऋषि लोग सत्य को साध्य बता गये, प्रेम को धोखा-”
रेखा ने कहा, “वे लोग कदाचित् ऋषि न रहे होंगे मिस्टर चन्द्र; प्रेम को धोखा रोमांटिकों ने बताया है, और आप कितने भी ऋषि-भक्त क्यों न हों रोमांटिक ऋषि को नहीं पसन्द करेंगे। मैं तो यही जानती थी कि ऋषियों ने प्रेम और सत्य को एक माना है क्योंकि दोनों को ईश्वर का रूप माना है।”
“क्योंकि दोनों स्रष्टा हैं,” भुवन ने जोड़ दिया। और फिर सहसा न जाने क्यों, उसे अपने बोलने पर और सारी बातचीत पर एक अज़ब-सी झिझक हो आयी : वह कैसे इतना बोल गया, और सो भी प्रेम का विषय लेकर? उसे याद आया, अंग्रेजी का जो काव्य-पद उसने सुनाया था, वह वास्तव में यों आरम्भ होता था, 'डीयरेस्ट, द पेन आफ लविंग यू', पर उद्धरण देते समय उसे यह भी ध्यान न हुआ था कि वह कोई शब्द छोड़ रहा है। सत्य की चर्चा में प्रेम की बात ले आना और ऐसे सन्दर्भ देना-रेखा क्या सोचेगी कि इन प्रोफ़ेसर साहब के दिमाग़ में प्रेम भरा हुआ है। और सृजन-क्या-क्या बक गया वह...
बातचीत का सिलसिला टूट गया। तीनों चुपचाप काफ़ी पीते रहे।
चन्द्र के साथ तो भुवन टिका ही था; रेखा से भी उसके बाद प्रतिदिन भेंट होती रही। यों तो चन्द्र के नित्यप्रति काफ़ी हाउस जाने के प्रोग्राम में शामिल हो जाना ही काफी था-वहीं भेंट हो जाती थी और चन्द्र का विश्वास था कि अच्छे पत्रकार के लिए काफ़ी हाउस में घंटों बिताना आवश्यक है-'शहर में क्या हुआ है, क्या होने वाला है, क्या हो रहा है, सब काफ़ी हाउस का वातावरण सूँघ लेने से भाँप लिया जा सकता है।” भुवन अनुभव करता था कि दूसरे पत्रकार भी ऐसा मानते हैं, क्योंकि यहाँ प्रायः उनका जमाव रहता था और सब वहाँ ऐसे कर्म-रत भाव से निठल्ले बैठ कर, ऐसे अर्थ भरे भाव से व्यर्थ की बातें किया करते थे कि वह चकित हो जाता था। लेकिन पत्रकार साहित्यकार नहीं है, यह वह समझता था; साहित्यकार जो क्षणिक है उसमें से सनातन की छाप को, या जो सनातन है उसकी तात्क्षणिक प्रासंगिकता को खोज़ता और उससे उलझता है, पर पत्रकार के लिए क्षणिक की क्षणिक प्रासंगिकता ही सनातन है; और जहाँ वह उस प्रासंगिकता को तत्काल नहीं पहचानता वहाँ उसका आरोप करता चलता है...लेकिन बीच में एक दिन वह अकेला भी गया था। चन्द्र को किसी मन्त्री से आवश्यक भेंट के लिए काउन्सिल हाउस जाना था; दिन में अपने को सूना पाकर भुवन हज़रतगंज़ की ओर चल दिया था और एक पटरी पर चलते-चलते सहसा उसने देखा था, दूसरी पटरी पर दूसरी ओर से आती हुई रेखा सड़क पार करने के लिए ठिठक कर इधर-उधर देख रही है कि मोटरें न आ रही हों। वह रुक कर उसे देखने लगा था। रेखा ने बिना किनारे की सफ़ेद रेशमी साड़ी पहन रखी थी और वैसा ही ब्लाउज़, रेशम की सफ़ेदी में एक स्निग्धता होती है जैसे हाथी दाँत के रंग में, और उस पर रेखा का साँवला रंग बहुत भला लग रहा था। आभरण-अलंकार कोई नहीं था, केवल उसके एक ओर मुड़ने पर भुवन ने लक्ष्य किया था कि जुड़े में एक फूल है।
रेखा के इस पार पहुँचते ही भुवन ने बढ़कर नमस्कार करते हुए पूछा, “क्या काफ़ी हाउस चल कर बैठना अच्छा न रहेगा? आप मालूम होता है काफी देर से घूमती रही हैं-लाइए, एक-आध बण्डल मुझे दे दीजिए,” क्योंकि रेखा के हाथ में कई एक पुलिन्दे थे।
“धन्यवाद, मैं अपना बोझा ढोने की आदी हूँ।” कहते-कहते भी मुस्कराती रेखा ने दो-तीन पैकेट उसे दे दिये। “मैं उपहार देने के लिए कुछ चीज़ें खरीद रही थी; उपहार देना यों भी अच्छा लगता है और मैं तो इतना आतिथ्य पाती हूँ कि चाहिए भी। लेकिन आज काफ़ी हाउस का निमन्त्रण मेरा है-”
“निमन्त्रण तो-अगर आप न्याय करें तो-मेरा ही था।” भुवन ने हल्के प्रतिवाद के स्वर में कहा।
रेखा केवल हँस दी।
“काफ़ी हाउस का भी एक चस्का है,” रेखा ने कहा, “काफ़ी के चस्के से शायद ज्यादा गहरा वही है।”
“हाँ, चन्द्र को ही देखिए; अपने जीवन का छठा अंश वह यहाँ बिताता है या बिताना चाहता है-हालाँकि अच्छी और बुरी काफ़ी की पहचान भी शायद उसे नहीं है?”
“आपको कैसा लगता है?”
“भुवन ने सीधे उत्तर न देकर कहा, “चन्द्र का विचार है कि जीवन से तटस्थ होकर दो मिनट बैठने के लिए ऐसी अच्छी जगह दूसरी नहीं-तटस्थ भी हों और देखते भी चलें, यह यहाँ का लाभ है।”
“पर आप तो ऐसा न मानते होंगे-आप तो यों ही इतने तटस्थ जान पड़ते हैं-” रेखा थोड़ा हँस दी-”कि दो मिनट की तटस्थता का आपके लिए क्या आकर्षण होगा!”
भुवन उसकी तीखी दृष्टि पर कुछ चौंका, पर सहज भाव से ही बोला, “हाँ, मैं तो आता हूँ कि थोड़ी देर के लिए जीवन के भरपूर प्रवाह में अपने को डाल सकूँ-मुझे तो हमेशा यह डर रहता है कि कहीं तटस्थता के नाम पर मैं बिल्कुल दूर ही न जा पड़ूँ। यहाँ बैठ कर अपने को मानवता का अंग मान सकता हूँ-उसके समूचे जीवन का स्पन्दन अनुभव कर सकता हूँ-”
“लेकिन, डाक्टर भुवन, काफ़ी हाउस में मानवता का जो अंश आता है उसका जीवन मानवता का जीवन नहीं है। वह तो-वह तो-” रेखा के स्वर में थोड़ा-सा आवेश आ गया-”वह तो केवल एक भँवर है, वह भी बहुत छोटा-सा, और जीवन का प्रवाह-” वह सहसा चुप हो गयी; फिर बोली, “और मानवता क्या है? मुझे तो लगता है, जब आप मानव से हट कर मानवता की बात सोचने लगते हैं, तभी आप जीवन से दूर चले जाते हैं, क्योंकि जीवन मानव का है, मानव यथार्थ है, मानवता केवल एक उद्भावना-एक युक्ति-सत्य-”
भुवन ने कुछ संकुचित होकर कहा, “आप शायद ठीक कहती हैं। लेकिन मानवता न सही, जीवन की बात जब मैं कहता हूँ, तब अपने जीवन से बड़े एक संयुक्त, व्यापक, समष्टिगत जीवन की बात सोचता हूँ-उसी से एक होना चाहता हूँ-अगर वह बहुत बड़ा प्रवाह है, तो उसकी धारा को बाँहों से घेर लेना चाहता हूँ-या वह छोटे मुँह बड़ी बात लगे तो कहूँ कि उस पर एक पुल बाँधना चाहता हूँ चाहे क्षण-भर के लिए-” यहाँ वह रुक गया, क्योंकि उसे लगा कि वह बड़ी-बड़ी बातें कर रहा है, और रेखा के चेहरे पर भी उसने एक हल्की-सी आमोद की मुस्कराहट देखी। “आप हँसती हैं? बात भी शायद हँसी की है-काफ़ी हाउस में बैठ कर जीवन की नदी पर पुल बाँधने की बात तो अफ़ीमची की पिनक की बात है।”
“नहीं, डाक्टर भुवन, सच कहूँ तो मुझे आप से थोड़ी ईर्ष्या ही हो रही थी। काफ़ी हाउस की तो बात ख़ैर छोड़िए, वह तो एक प्रतीक बन गया जिसके सहारे हम जीवन ही के प्रति अपने दृष्टिकोण व्यक्त कर रहे हैं। इसलिए यह तो मुझे नहीं लगता कि हम यों ही बड़ी बातें कर रहे हैं। पर-पर जीवन की नदी पर सेतु बाँधने की कल्पना कर सकना ही इतनी बड़ी बात है कि मुझे ईर्ष्या होती है।”
भुवन ने कहा, “हाँ, यों सेतु बनना चाहना है बड़ी मूर्खता-क्योंकि सेतु दोनों और से केवल रौंदा ही जाता है।”
“हाँ, मगर सचमुच सेतु बन सकें तो दोनों और से रौंदे जाने में भी सुख है, और रौंदे जाकर टूटकर प्रवाह में गिर पड़ने में भी सिद्धि। पर मैं तो कह रही हूँ कि मैं तो उतनी कल्पना भी नहीं कर पाती-मैं तो समझती हूँ, हम अधिक-से-अधिक इस प्रवाह में छोटे-छोटे द्वीप हैं, उस प्रवाह से घिरे हुए भी, उससे कटे हुए भी; भूमि से बँधे और स्थिर भी, पर प्रवाह में सर्वदा असहाय भी-न जाने कब प्रवाह की एक स्वैरिणी लहर आकर मिटा दे बहा ले जाये, फिर चाहे द्वीप का फूल-पत्ते का आच्छादन कितना ही सुन्दर क्यों न रहा हो!”
भुवन तनिक विस्मय से रेखा की ओर देखता रहा। उसके शब्दों में, उसकी वाणी में, चित्रों को उभार कर सामने रख देने की अद्भुत शक्ति थी। भुवन अपनी आँखों के सामने स्पष्ट देख सकता था-एक दिगन्तस्पर्शी प्रवाह, उसमें छोटे-छोटे द्वीप-मानो तैरते दीप-और एक बड़ी अँधेरी रवहीन तरंग-नहीं, नहीं! उसने अपने को सँभाल कर कहा, “रेखाजी, आप क्यों काफ़ी हाउस आती हैं?”
“मैं?” मैं!” एक ही शब्द की दो प्रकार के स्वरों में आवृत्ति-बिना कुछ कहे भी रेखा कितना कुछ कह सकती थी। थोड़ी देर बाद उसने कहा, “मैं तो-आप मानिए!-काफ़ी पीने ही आती हूँ। थक कर आती हूँ, पर विश्राम के लिए नहीं, काफ़ी पीकर फिर चल पड़ने के लिए। जैसे इंजन ईंधन झोंकने या पानी लेने रुकता है या फिर साथ के लिए आती हूँ-कुछ लोगों से मिलने, बात करने-और यहाँ इसलिए कि यहाँ वे सहज भाव से मिलते हैं। और मानव और मानव का सहज भाव से साक्षात्-वही हमारा मानव जीवन से और मानवता के जीवन से एक मात्र सम्पर्क हो सकता है। नहीं तो मानवता-यानी हमारी कल्पना-एक विशाल मरु-भूमि है!”
बात कुछ अतिरिक्त गम्भीर हो गयी थी। दोनों सहसा चुप होकर सोचते रहे। थोड़ी देर बाद भुवन ने कहा, “क्या हम लोग एक ही बात या दृष्टिकोण को समान्तर ढंग से नहीं कह रहे हैं? आप जिसे व्यक्तियों का सहज साक्षात् कहती हैं मैं उसे”
“नहीं, डाक्टर भुवन, आप एक और सम्पूर्ण की बात कहते हैं, मैं एक और दूसरे एक की। सम्पूर्ण मेरे लिए केवल युक्ति-सत्य है-अपने-आपमें कुछ नहीं, केवल एक और एक की अन्तहीन आवृत्ति से पाया हुआ एक काल्पनिक योग-फल। आपकी मानवता एक विशाल मरुभूमि है-और मेरे ये सहज साक्षात् छोटे-छोटे हरे ओएसिस। न एक हरियाली से सम्पूर्ण मरु की कल्पना हो सकती है, न असंख्य हरियालियों को जोड़ देने से एक मरुभूमि बनती है। ये चीज़ें ही अलग हैं-”
भुवन ने जैसे मौका पाकर कहा, “ठीक। असंख्य हरियालियों से एक मरु नहीं बनता। तो यह क्यों न मानिए कि यह मरु नहीं है, सम्पूर्ण जो है, वह जीवन का उद्यान है?”
रेखा थोड़ी देर स्थिर दृष्टि से उसे देखती रही। फिर सहसा खिल कर बोली, “इसीलिए तो मैं कहती हूँ, डाक्टर भुवन, मुझे आप से ईर्ष्या है। मैं एक-एक ओएसिस से ही इतनी अभिभूत हूँ कि दो जोड़ नहीं सकती, और जोड़ना चाहती भी नहीं। कहिए कि इतनी पंगु हूँ कि अगर ओएसिस है तो मरु है ही ऐसा मानना ज़रूरी समझती हूँ-जबकि आप बिना मरु के ही, ओएसिस का अस्तित्व मानते हैं। आप भाग्यवान् हैं-”
भुवन समझ रहा था कि रेखा यों बात टाल रही है-या कि उसे फिर गम्भीरता से उतार कर साधारण के तल पर ला रही है-काफ़ी हाउस के उपयुक्त तल पर। पर वह आग्रह करके बात आगे चलाना चाहता था, यद्यपि यह उसे लग रहा था कि अगर रेखा बात आगे चलाने को राजी न होगी तो उसके किये कुछ न होगा। मगर इतने में ही कुछ दूर से चन्द्र का स्वर आया, “भाग्यवान् मैं हूँ, रेखा देवी, कि आप दोनों को यहाँ पा लिया। लेकिन भुवन को किस बात पर आप बधाई दे रही हैं-क्यों भुवन, कुछ नोबेल पुरस्कार मिलने की बात है क्या?”
रेखा ने सहसा एक और ही स्तर पर आकर कहा, “हाँ, आप तो सबसे अधिक भाग्यवान् हैं-आप तो बिना ओएसिस के मरुभूमि में ही खुश हैं!”
“अगर उसमें आप लोगों का साथ हो, और अच्छी काफ़ी मिल जाये।” चन्द्र ने बैठते हुए कहा, और पुकारा, “बेयरा!”
भुवन को विस्मय हुआ। रेखा की बात बिल्कुल चिकनी और साफ थी, और हल्की हँसी उस वातावरण के बिल्कुल अनुकूल, पर क्या उसमें कहीं गहरे में एक विद्रूप का भाव नहीं था-विद्रूप और, हाँ, एक अस्वीकार का, तिरस्कार का? रेखा और चन्द्रमाधव मित्र हैं, इतना ही वह जानता था, लेकिन-लेकिन...
“रेखा देवी, आप तो और काफ़ी लेंगी न-और भुवन, तुम?”
भुवन ने सँभल कर कहा, “हूँ-हाँ। बेयरा, तीन काफ़ी और ले आओ, एक क्रीम।” बेयरा गया तो उसने पूछा, “चन्द्रा, तुम्हारा इण्टरव्यू कैसा रहा? भेंट हुई तो?”
“बताता हूँ, जरा काफ़ी आने दो-उनकी बातचीत का जायका धो लूँ-” उस विषय की ओर फिर लौटना नहीं हुआ।
× × ×
जिस दिन पहली बार स्टेशन जाने का निश्चय हुआ था, उस दिन भोजन के लिए बाहर जाने से पहले रेखा चन्द्रमाधव के यहाँ भी आयी थी, तय हुआ था कि वहीं से साथ बाहर चला जाएगा। घर पर अधिक बातचीत नहीं हुई, क्योंकि भुवन सामान ठीक-ठाक करने में कुछ व्यस्त था, और चन्द्र को डिनर के लिए तैयारी करनी थी। डिनर उसने कार्लटन में ठीक किया था, और वहाँ जाने के लिए उसका कहना था कि वेश की ओर विशेष ध्यान देना आवश्यक है। यों उसे कपड़े की कोई परवाह नहीं है, पर प्रमुख दैनिक के विशेष संवाददाता के नाते उसे सब करना ही पड़ता है-यों लोग पत्रकार को कुछ नहीें बताते पर उसके रंग-ढंग से यह लगे कि उसकी अच्छे समाज में पहुँच है, तो बहुत से लोग इसीलिए कुछ बताने को राजी बल्कि आतुर हो जाते हैं कि किसी दूसरे ने तो बताया ही होगा! और अच्छे जर्नलिस्ट का काम यही है कि सबको यह इम्प्रेशन दे कि आप जो बता रहे हैं, वह वास्तव में दूसरों से उसे पता लग चुका है, फिर भी आप का बताना और चीज़ है। क्यों और चीज़ है, उसके अलग कारण हो सकते हैं-एक तो यह पत्रकार पर आपके विश्वास का सूचक है-और वह कृतज्ञ है कि आपने उसे विश्वास दिया, या वह प्रसन्न है कि आपने उसकी पात्रता को पहचाना। दूसरे बात जानना एक चीज़ है और प्रामाणिक ढंग से जानना दूसरी चीज़-आप के बताने में वह प्रामाणिकता है। प्रश्न सारा यही है कि किस व्यक्ति को कितना 'फ्लैटर' करना उचित है-आज उसका जो पद है उसे ध्यान में रखते हुए, या कल उससे जो काम निकालना है उसे देखते हुए। पम्प करके बात निकालने के लिए उसी अनुपात में पम्प से फूँक भरना भी तो होगा-यह पंजाबी मुहावरा कितना मौजूँ है! और आपकी चाटुकारिता को कोई कितना सीरियसली ले, यह आपकी पोशाक पर निर्भर है-अगर आप अच्छे कपड़े पहने हैं तो आपकी की हुई प्रशंसा ठीक है और स्वीकार्य है, आप पारखी पत्र-प्रतिनिधि हैं; अगर रद्दी कपड़े पहने हैं तो वह काम निकालने के लिए की गयी झूठी खुशामद है, आप टुटपुँजिये रिपोर्टर हैं और तिरस्कार का पूरा नुस्खा सुन लिया था। बल्कि इसी पैंकिग में उसे देर हुई। फिर भी वह जैसे-तैसे आकर रेखा के पास बैठ गया था।
“आप मेरी चिन्ता न कीजिए; मैं प्रतीक्षा करने की आदी हूँ और यहाँ तो बहुत-सी दिलचस्प चीज़ें बिखरी हैं-” रेखा ने एक पुस्तक उठाते हुए कहा, “पीटर चेनी मैंने पढ़ा नहीं, सुना है बड़ी दिलचस्प कहानियाँ लिखता है।”
“जी हाँ। चन्द्र से सुना होगा आपने। या कि आप फौज़दारी अदालत की रिपोर्टरी की उम्मीदवार हैं?”
रेखा ने हँस कर किताब रख दी। भीतर से चन्द्रमाधव ने पुकारा, “मेरी साहित्यिक रुचि की बुराई कर रहे हो भुवन? लेकिन पीटर चेनी क्यों बुरा है? पीटर चेनी पढ़ने वाले कम-से-कम दूसरों की नुक्ताचीनी तो नहीं करते, अपने में खुश रहते हैं। और तुम्हारे साहित्य पढ़नेवाले सुपीरियर लोग-सब को हिकारत की नजर से देखते हैं। दोनों में कौन अच्छा है, रेखा देवी? कौन-सा दृष्टिकोण स्वस्थ है?”
“ठीक है, मिस्टर चन्द्र, आपका दृष्टिकोण कलाकार का दृष्टिकोण है-सर्व-स्वीकारी। आपके मित्र आलोचक हैं-आलोचना तो रचनाशक्ति की मृत्यु का दूसरा नाम है।”
भुवन ने फिर चौंक कर रेखा की ओर देखा। क्या वह चन्द्रमाधव पर हँस रही है? क्यों? या कि दोनों पर ही हँस रही है? रेखा ने उसकी भौंचक मुद्रा को लक्ष्य किया और सहसा हँस दी। “आप ठीक सोच रहे है डाक्टर भुवन; मैं सिर्फ हँसी कर रही थी।”
भुवन ने पूछना चाहा, लेकिन किस की? या किस-किस की? पर कुछ बोला नहीं।
चन्द्रमाधव ने बाहर आकर टाई सीधी करते हुए कहा, “अब मैं सब तरह तैयार हूँ-रेडी फॉर एनीथिंग।”
रेखा ने फिर चमकती आँखों से कहा, “हाँ, पीटर चेनी के एक दृश्य के लिए भी।”
चन्द्रमाधव ने बिना झेंपते हुए कहा, “हाँ।”
“सेटिंग कार्लटन होटल का डाइनिंग रूम। भोजन करते-करते रेखा देवी औंधे-मुँह सूप प्लेट पर गिर गयी-हत्या के कारण का कोई अनुमान नहीं हो सका। लखनऊ के स्टार पत्रकार चन्द्रमाधव पड़ताल कर रहे हैं! प्रोफ़ेसर भुवन भी घटना-स्थल पर मौजूद थे'-लेकिन क्या सचमुच? या कि तटस्थता से-”
“क्या कह रही हैं आप, रेखा देवी? ऐसी मनहूस कल्पना मत कीजिए।”
“मैं कहाँ? यह तो पीटर चेनी-”
“पीटर चेनी के लायक पात्र कार्लटन में ढेरों और हैं, आपको वह कष्ट नहीं देगा।”
रेखा ने कृत्रिम निराशा का भाव दर्शाते कहा, “तो मैं पीटर चेनी के लायक भी नहीं-”
भुवन अतिरिक्त सजगता से रेखा को देखने लगा था। मन-ही-मन उसने सहमत होते हुए कहा, “पीटर चेनी के लायक तो कदापि नहीं।” पर फिर किस के? हार्डी के? हाँ, ऐसी कठपुतली पाकर भाग्य भी अपना भाग्य सराहेगा। पर रेखा उतनी भोली नहीं है; उसमें एक बुनियादी दृढ़ता है जो...दोस्तोयेव्सकी? लेकिन क्या उसकी चेतना वैसी विभाजित है-क्या उसमें वह अतिमानवी तर्क-संगति है जो वास्तव में पागलपन का ही एक रूप है?...प्राचीन ग्रीक ट्रेजेडीकार-एक बनाम समूचा देव-वर्ग...लेकिन रेखा में उतना अहं क्या है कि देवता उसे चुनें-कि वह चुनी जाकर कष्ट पावे?...तब सार्त्र-क्षण की असीमता, यातना के क्षण की असीमता...निस्सन्देह असीम सहिष्णुता उसमें है-व्यथा पाने का असीम अन्तःसामर्थ्य, लेकिन वह इसीलिए कि आनन्द की असीम क्षमता उसमें है...आनन्द की परा सीमा, यातना की परा सीमा-चुन सकते हैं उसे देवता, क्योंकि परा सीमाएँ उसमें सोती हैं; नभः कांक्षी मानव, मृत्कामी देवता-ट्रेजेडी के सहज यान-इकारस के पंख, प्रमथ्यु की आग...ग्रीक ट्रेजेडी केवल अहं की ट्रेजेडी तो नहीं है, वह मानव की सम्भावनाओं की ट्रेजेडी है...
कुछ-कुछ यह अनुभव करते हुए कि बात बहुत देर से कही जा रही है और कदाचित् नहीं कहनी चाहिए, उसने कहा ही : “रेखा जी, चेनी के या किसी भी लेखक के पात्र होना क्यों चाहा जाये? हर किसी का अपना जीवन अद्वितीय होता है-”
“सो तो है। हम कदम-कदम पर अपनी अनुभूतियों की तुलना साहित्य के पात्रों से करते चलते हैं, पर हैं वे अद्वितीय और अद्वितीयता में ही वे हमारे निकट मूल्यवान हैं। उन्हीं की अनुभूतियाँ भोगे-ऐसे छायाजीवी भी होते हैं।”
न जाने क्यों, भुवन ने एक बार फिर चन्द्र की ओर देखा; उसने सहसा जाना कि वह चन्द्र के चेहरे को ध्यान से देख रहा है मानो उसकी रेखाओं से पूछ रहा है, “जिस अनुभूति की तुम रेखाएँ हो, वह क्या सच है, मौलिक है, या कि छाया?” कोई शीशा आस-पास नहीं था, नहीं तो कदाचित् वह अपना चेहरा भी देखने लगता।
रेखा ने पूछा, “कार्लटन में आर्केस्ट्रा भी होगा?” भुवन ने लक्ष्य किया कि विषय बदल दिया गया है।
× × ×
उस रात स्टेशन से गाड़ी जान-बूझ कर छोड़ आने के बाद, भुवन को अपने पर हल्की-सी खीझ आयी थी। क्यों वह गाड़ी छोड़ कर लौट आया? कुछ काम की क्षति नहीं हुई, ठीक है, पर एक निश्चय होता है, अकारण बदलने से इच्छा-शक्ति क्षीण होती है। यों क्षण की प्रेरणाओं पर अपने को छोड़ देने से आदमी शीघ्र ही आँधी पर उड़ता तिनका बन जाता है-क्योंकि प्रत्येक बार संकल्प-शक्ति कुछ क्षीणतर हो जाती है और सहज प्रेरणा की मन्द हवा कुछ तेज होकर आँधी-सी...क्यों नहीं चला गया? रेखा न जाती तो न जाती-रेखा से उसे क्या?
और अपने कमरे में टहलते-टहलते वह सहसा निकल कर चन्द्रमाधव के कमरे में चला गया था। चन्द्र लेट गया था और सोने की तैयारी कर रहा था, पर भुवन ने बिना भूमिका के पूछा था, “चन्द्र, यह रेखा देवी कौन हैं, क्या हैं,-मुझे उसकी बात और बताओ, जो तुम्हें मालूम हो।”
चन्द्र ने एक लम्बे क्षण तक उसकी ओर देखा। फिर कुछ मुस्करा कर कहा था, “क्यों, ठेस खा गये दोस्त? रेखा तुम्हारी केमिस्ट्री की इक्वेशन नहीं जो झट हल कर लोगे-बड़ा पेचीदा मामला है।”
“बकवास मत करो। मुझे उससे कोई मतलब नहीं है। सिर्फ़ एक दिलचस्प चरित्र है-मुझे बौद्धिक कौतूहल है, बस। बौद्धिकता से तुम्हारा छत्तीस का नाता है, यह जानता हूँ, पर तुम जैसा दिलफेंक स्वभाव मुझे नहीं मिला तो नहीं मिला, मैं क्या करूँ?”
“तैश में मत आओ, दोस्त,” चन्द्र ने उठकर बैठते हुए कहा था, “वह कुरसी खींच लो और बैठ जाओ।” भुवन के बैठ जाने पर, “हाँ, अब पूछो, क्या जानना चाहते हो?”
“जो बता दो : वह कौन है, क्या है, कहाँ की है, क्या करती रही है, क्या करती है, अकेली क्यों घूमती है-”
“रुको इतना पहले बता लूँ तो और पूछना; नहीं तो मेरा सिर चकरा जाएगा।”
लेकिन बता कर क्या बताया जा सकता है? स्वयं वही जब कहता है कि तथ्य और सत्य में अन्तर है, तब निरे तथ्य जान कर सत्य तक पहुँचने की व्यर्थ कोशिश वह क्यों कर रहा है? “सत्य अपने अन्तर की पीड़ा से जाना जाता है।” वही मानते हो, तो ठीक है; वही क्यों न परीक्षा करके देखो?
तथ्य कुछ अधिक थे भी नहीं।
रेखा की आयु यही सत्ताईस के लगभग होगी; वह विवाहिता है, विवाह आठ वर्ष पहले हुआ था, पर विवाह के दो-एक वर्ष बाद ही पति-पत्नी अलग हो गये थे। कारण कोई ठीक नहीं जानता, और रेखा से पूछने का साहस किसे है? कोई
कहते हैं, विवाह से पहले रेखा का किसी से प्रेम था पर उससे विवाह हो नहीं सकता था; उसने बाद में दूसरा विवाह कर लिया तो मर्माहत रेखा ने उसके माता-पिता ने जो वर ठीक किया उसे चुपचाप स्वीकार कर लिया पर उसे वह दे न सकी जो पति को देना चाहिए; कोई यह कहते हैं कि पति की ही आदतें शुरू से खराब थीं वह पत्नी के प्रति अत्यन्त उदासीन था, मित्रों को लाकर घर छोड़ जाया करता था और स्वयं न जाने कहाँ-कहाँ जा रहता था-सच क्या है भगवान जाने, पर छः वर्ष से दोनों अलग हैं, और तीन-चार वर्ष हुए पति एक विदेशी रबर कम्पनी में अच्छी नौकरी स्वीकार कर के मलय चला गया है; वहाँ उसके साथ मलय या एंग्लो-मलय या यूरोपियन-मलय मिश्र रक्त की कोई स्त्री भी रहती है। रेखा नौकरी करती है; पढ़ती रहती है, फिर किसी रियासत में राजकुमारियों की गवर्नेस थी, वहाँ से हाल में इस्तीफा देकर आयी है। अभी कुछ नहीं कर रही है लेकिन नौकरी की तलाश में है।
“और घर कहाँ है? माता-पिता हैं?”
“नहीं। पिता बड़े नामी डाक्टर थे; माँ भक्त बंगालिन थी और मरी तो बहुत-सी सम्पत्ति रामकृष्ण मिशन को छोड़ गयी। वैसे शायद कश्मीरी है, पर दादा कलकत्ते में आ बसे थे और तब से तीसरी पीढ़ी बंगाली ही अधिक है-रेखा हिन्दी और बांग्ला दोनों बोलती है और बांग्ला संगीत में उसकी अच्छी पहुँच है।”
“अच्छा? और?”
चन्द्रमाधव ने कहा, “और क्या? जो तुम पूछो सो बताऊँ?”
“तुम से परिचय कब से, और कैसे हुआ?”
“मुझ से!” चन्द्र ने तकिये के पास से टटोल कर सिगरेट का पैकेट निकाला, सिगरेट सुलगा कर, उठते हुए बोला, “मुझ से? तुम तो जानते हो, पत्रकार का परिचय हर किसी से होता है। समझ लो वैसे ही।”
“बनो मत! और ये सब बातें तुम्हें कैसे मालूम हुईं?”
“मैं पहले से जानता था। बल्कि सुन रक्खी थीं, इसीलिए कौतूहल अधिक था, जब भेंट हुई तो सोचा, इस अद्भुत स्त्री से अवश्य परिचय करना चाहिए।”
“क्यों? और वह अद्भुत क्यों है?”
“यह मुझ से पूछते हो? देखकर ही नहीं छाप पड़ती कि यह स्त्री कुछ भिन्न है-असाधारण है? और क्यों की भली पूछी। जिस स्त्री का इतिहास होता है, उसमें किसे नहीं दिलचस्पी होती?”
“भुवन ने तनिक रुखाई से कहा, “हाँ जर्नलिस्ट को तो ज़रूर होनी चाहिए”
“जर्नलिस्ट ही क्यों, हर किसी को होती है। तुम्हीं क्यों इतना जानने को उत्सुक हो?”
“मैं तो जानने से पहले ही उत्सुक था, इतिहास जान कर तो नहीं हुआ-”
“मानते हो न? तभी तो कहता हूँ वह असाधारण स्त्री है। तुम भी मानते हो, नहीं तो पूछते क्यों? तुम्हें किसी स्त्री में दिलचस्पी हो, यह तो कभी देखा-सुना नहीं, कालेज में भी तुम गब्बू प्रसिद्ध थे।” चन्द्र जोर से हँस दिया।
भुवन ने अन्तिम बात को अनसुनी करते हुए कहा, “और क्यों दिलचस्पी है? और यह तो इतिहास वाली बात है, उसका आकर्षण क्या निरी लोलुपता नहीं होती कि अगर पहले से इतिहास है तो एक अध्याय शायद हम भी जोड़ लें, ऐसा कुछ लोभ?”
“हो सकता है। आधुनिक समाज में कोई समझदार विवाहित से नहीं उलझता, यह तो तुम जानते हो-उसमें खतरा बहुत होता है। हाँ, विवाहित मगर वियुक्ता की बात और है-उसमें दोनों ओर के लोभ हैं। और यह जो लाभ की बात-”
“छिः, चन्द्र, क्या बात तुम करते हो! यह आधुनिक समाज की नहीं, अठारहवीं सदी के यूरोप के समाज की मनोवृत्ति है-बल्कि उस समय के भी दरबारी समाज की।”
“अच्छा, अच्छा, गरम मत होओ मेरे दोस्त। और मुझे छिः-छिः कहने से क्या लाभ है-मैं तो हर किसी की बात कह रहा था, अपनी थोड़े ही?”
“क्यों, तुमने अपनी दिलचस्पी की बात नहीं कही थी अभी?”
“कही थी। पर वह बात और है। मैं तो रेखा देवी का बहुत सम्मान करता हूँ। बल्कि वैसी स्त्री-” सहसा चन्द्र बात अधूरी छोड़ कर चुप हो गया।
“कहो, कहो-वैसी स्त्री क्या?”
“कुछ नहीं!” कह कर चन्द्र ने चुप लगा ली, और फिर भुवन के बहुत पूछने पर भी कुछ नहीं बोला।
× × ×
अन्तिम दिन वे तीनों सिनेमा गये थे। यों शाम के शो में भी जाया जा सकता था, पर एक बजे काफ़ी हाउस में मिलने की ठहरी थी और भुवन का प्रस्ताव था कि वहीं से तीन बजे के शो में चला जाये-ताकि शाम को थोड़ा घूमने का समय मिल सके।
अंग्रेजी चित्र था, जिसमें एक दुर्घटना में नायक का स्मृतिलोप हो जाता है, और वह अपनी गृहस्थी की बात भूल कर पुनः प्रेम करने लगता है; और फिर एक वैसी ही दुर्घटना देखकर उसकी पहली स्मृति लौट आती है और नया स्मृति-संचय मिट जाता है। कहानी भी मार्मिक थी और अभिनय भी भावोद्वेलक; पर उसे ध्यान से देखते हुए भी भुवन मन-ही-मन सोचता जाता था कि इसकी रेखा पर क्या प्रतिक्रिया हो रही होगी। क्योंकि सम्पूर्ण तटस्थ भाव से तो कुछ देखा नहीं जाता; हम अनजाने कथावस्तु पर अपना आरोप करते चलते हैं; या फिर अपने पर ही कथा की घटनाएँ घटित करते चलते हैं-और मन की यह भी एक शक्ति है कि जरा-से भी साम्य के सहारे वह सहज ही सम्पूर्ण लयकारी सम्बन्ध जोड़ लेता है। क्या रेखा अपने को अमुक स्थिति मे देख रही है? क्या...बीच-बीच में वह खीझ कर अपने को झकझोर लेता कि नहीं, रेखा की बात वह नहीं सोचेगा, पर फिर थोड़ी देर में वैसा ही प्रश्न उसके मन में उठ आता-अगर रेखा का पति...
बाहर आकर तीनों टहलते हुए गोमती की ओर निकल गये थे। पुल के पास घाट की सीढ़ियों पर तीनों बैठ गये थे। चलते-चलते चित्र के विषय में कुछ बात हुई थी, पर “अच्छा है” से अधिक रेखा ने कोई मत व्यक्त नहीं किया था; वह स्पष्ट ही कुछ अनमनी थी।
सहसा भुवन ने पूछा, “रेखा जी, आप गाती नहीं?”
“गाती नहीं, यह तो नहीं कह सकती, पर गाना जानती नहीं हूँ।”
चन्द्र ने साभिप्राय भुवन की ओर देखा।
“आप की मातृभाषा तो बांग्ला है न?”
रेखा ने एक बार दृष्टि उठा कर भुवन से मिलायी। उसमें बड़ा हल्का-सा अचम्भा था, और कुछ यह भाव कि आपने पूछा है तो उत्तर देती हूँ, पर अपने बारे में प्रश्नों का उत्तर देने का मुझे अभ्यास नहीं। फिर उसने कहा, “उँ-हाँ, वही मेरी भाषा है।”
“तो बांग्ला में ही गाना गा दीजिए न-मेरा यह आग्रह गुस्ताखी तो न होगा?”
रेखा थोड़ी देर चुप रही। फिर धीरे-धीरे बोली, “नदी का किनारा है, गान यहाँ होना ही चाहिए-आप की मान्यताएँ भी इतनी रोमांटिक होंगी ऐसा नहीं समझती थी।”
भुवन ने आहत भाव से प्रतिवाद करना चाहा, पर बोला नहीं। चन्द्र मानो आँखों से कह रहा था, “तुम हो दुस्साहसी, पर देखें तुम्हारी बात सुनती है कि नहीं-मेरी तो कभी नहीं सुनी।”
सहसा दोनों निश्चल हो गये, क्योंकि रेखा कुछ गुनगुना रही थी। फिर उसने धीमे किन्तु स्पष्ट स्वर में गाना शुरू किया :
आमार रात पोहालो शारद प्राते -
आमार रात पोहालो।
बांशी तोमाय दिये जाबो काहार हाते -
आमार रात पोहालो।
तोमार बूके बाजलो धुनि , विदाय गाँथा आगमनि
कत ये फाल्गुणे श्रावणे कत प्रभाते राते -
आमार रात पोहालो।
ये कथा रय प्राणेर भीतर अगोचरे
गाने -गाने निये छिले चूरि करे
समय ये तार हल गत , निशि शेषे तारांर मत,
तारे शेष करे दाओ शिउलि फूलेर मरण साथे -
आमार रात पोहालो !
(मेरी रात चुक गयी शायद प्रातः में ; बंशी, तुम्हें, किसके हाथ सौंप जाऊँ? कितने फागुन-सावन में, कितने प्रभात-रात में तुम्हारे हृदय में विदा से गुँथी हुई आगमनी की धुन बजी है। प्राणों के भीतर जो कथा अगोचर थी, तुमने गान में चुरा ली थी। उसका समय बीत गया निशा-दोष के तारों-सा, उसे अब शेफाली के फूल के मरण के साथ समाप्त कर दो। -रवीन्द्रनाथ ठाकुर)
अन्तिम पंक्ति गाते-गाते ही वह उठी और धीरे-धीरे, सीढ़ियाँ उतरने लगी, अन्तिम स्वर उस बढ़ती हुई दूरी में ही खो गये और ठीक पता न लगा कि गाना पहले बन्द हुआ कि सुनना। नीचे पहुँच कर रेखा पानी के निकट खड़ी हो गयी, एक बार मानो हाथ से पानी हिलाने के लिए झुकी, पर फिर इरादा बदल कर सीधी हो गयी। भुवन और चन्द्र दोनों ऊपर बैठे रहे। पुल के ऊपर दो-तीन बन्दर आकर बैठ गये और कौतूहल से दोनों की ओर देखने लगे। घिरती साँझ के आकाश के पट पर बन्दरों के आकार अजब लग रहे थे।
चन्द्र ने पुकारा, “रेखा जी, अब चला जाये?”
रेखा ने घूमते हुए आवाज़ दी, “आयी।” और धीरे-धीरे सीढ़ियाँ चढ़ने लगी।
भुवन ने कहा, “रेखा जी, आपने हमें यह कहने का मौका ही नहीं दिया कि आप बहुत अच्छा गाती हैं-”
“तो आप को आभार मानना चाहिए कि अनावश्यक शिष्टाचार से मैंने आपको बचा लिया! जैसा गाती हूँ, वह मैं जानती हूँ, सीखना ज़रूर चाहती थी, पर-” हाथों की एक अस्पष्ट मुद्रा ने बाकी वाक्य का स्थान ले लिया।
उसके बाद स्टेशन पहुँचने तक एक अजब-सा दुराव सबके बीच में आ गया था। सभी चुप रहे थे; चलने से कुछ पहले भुवन सामान देखने का बहाना करके अलग हट गया था कि उसकी वजह से वह खिंचाव हो तो दूर हो जाये; पर जब वह बाहर घूम-घाम कर सीढ़ी पर पैर पटकता हुआ लौटा, तब भी दोनों चुपचाप ही बैठे थे, बल्कि तनाव कुछ अधिक ही जान पड़ रहा था-चन्द्र के चेहरे पर कुंठित-सा भाव था, और रेखा के चेहरे पर एक अनमनापन, आँखों में एक असीम दूरी, मानो वह बहुत, बहुत दूर कहीं पर हो...
भुवन ने कुछ ऊँचे स्वर से कहा, “और आज भी भीड़ हुई तो? मैं तो जैसे-तैसे जाऊँगा ही-चाहे फुटबोर्ड पर लटकते हुए ही-”
रेखा ने कहा, “नहीं, आज मैं आपको रोकने का आग्रह नहीं करूँगी-कल भी आप रुक गये इसके लिए बहुत कृतज्ञ हूँ।”
भुवन ने मन-ही-मन सोचा, 'कल भी आपने कौन-सा आग्रह किया था-' पर प्रत्यक्ष उसने नहीं कहा। बोला, “कृतज्ञ मुझे-हम दोनों को होना चाहिए कि आप रुक गयीं-”
चन्द्र ने प्रकृतस्थ होकर कहा, “हाँ, और नहीं तो क्या। बल्कि मुझे आप दोनों का-”
“चलिए, हम सब-के-सब कृतज्ञ हैं।” रेखा मुस्करा दी। “अब चलें-राह में मेरा सामान लेते चलेंगे-”
भुवन अपने कमरे की ओर सामान उठाने चला। पीछे उसने सुना, रेखा पूछ रही है, “आपके मित्र को इलाहाबाद में बहुत ज़रूरी काम है? या घर पहुँचने की जल्दी है-बीवी-”
वह सहसा ठिठक गया। चन्द्र ठठा कर हँसा। “अरे, भुवन तो निघरा है, उसे कहीं पहुँचने की जल्दी नहीं है।” भुवन आगे बढ़ गया। रेखा ने फिर कहा, “अकेले हैं, तभी लीक पकड़ कर चलते हैं।”
इस वाक्य का कुछ भी अभिप्राय भुवन नहीं समझ सका-कोई भी अर्थ न उस पर लागू होता था, न रेखा या चन्द्र पर ही किसी तरह लगाया जा सकता था। चन्द्र ने फिर क्या कहा, यह उसने नहीं सुना।
दस बजे रात को गाड़ी लखनऊ से छूटी थी। रेखा के डिब्बे के सामने ही उसने चन्द्रमाधव से विदा ली थी, और उसे वहीं छोड़कर अपने डिब्बे की ओर चला गया था। रेखा का डिब्बा आगे की ओर था; गाड़ी जब चली तब प्लेटफार्म पर खड़ा चन्द्र फिर उसके सामने आ गया और उसने हाथ हिलाकर फिर विदा माँग ली।
उसके बाद अगर वह ऊँघता रहता, और प्रतापगढ़ तक फिर रेखा को देखने न जाता, तो कोई असाधारण बात न होती-वैसा कुछ उससे अपेक्षित नहीं हो सकता था। बल्कि प्रतापगढ़ में भी अगर न उतरता, तो बहुत अधिक चूक न होती; चाहे रेखा ही उसे वहाँ देखकर नमस्कार करती हुई चली जाती। रेखा की यात्रा का या उस यात्रा में उसकी सुरक्षा या सुविधा का कोई दायित्व भुवन पर कैसे था?
पर गाड़ी पैसेंजर थी, हर स्टेशन पर रुकती थी। ऊँघने की चेष्टा बेकार थी-यों भुवन ने उधर ध्यान नहीं दिया। पहले ही स्टेशन पर गाड़ी रुकी तो वह रेखा के डिब्बे पर पहुँच गया; दरवाज़े के पास ही रेखा बैठी थी और उसकी आँखें बिल्कुल सजग थी और शायद बाहर अन्धकार की ओर देखती रही थी!
भुवन ने कहा, “आप काफी सफ़र करती हैं?”
“हाँ, अधिक सफ़र ही करती हूँ। इधर के बहुत कम वेटिंगरूम हैं जो मेरे अपरिचित होंगे। जब मुसाफ़िर नहीं होती तब मेहमान होती हूँ-और दोनों में कौन अधिक उखड़ा है यह कभी तय नहीं कर पायी।”
“लेकिन उखड़ापन तो भावना की बात है, रेखा जी! मानने से होता है। व्यक्ति की जड़ें घरों में नहीं होती-समाज-जीवन में होती हैं-नहीं? और यायावरों का भी अपना समाज होता है-”
“तो समझ लीजिए कि मैं ज्ञान के तरु की तरह हूँ-ऊर्ध्व-मूल-मेरी जड़ें आकाश में खोयी फिरती हैं! लेकिन यह न समझिए कि मैं शिकायत कर रही हूँ”
गाड़ी चल दी थी। अगले स्टेशन पर भुवन ने फिर कहा था, “आप जैसा व्यक्ति भटकता है तो यही मानना चाहिए कि स्वेच्छा से, पसन्द से भटकता है-लाचारी तो समझ में नहीं आती। और स्वेच्छा से भटकना तो भीतरी शक्ति का द्योतक है।”
रेखा हँस पड़ी। “भटकने से ही शक्ति आती है, डाक्टर भुवन! क्योंकि जब मिट्टी से बाँधनेवाली जड़ें नहीं रहतीं, तब हवा पर उड़ते हुए जीने के लिए कहीं-न-कहीं से और साधन जुटाने पड़ते हैं। स्वेच्छा से भटकना? हाँ, इस अर्थ में ज़रूर स्वेच्छा है कि पड़ा-पड़ा पिस क्यों नहीं जाता, अँधेरे गर्त में धँस क्यों नहीं जाता, हाथ-पैर क्यों पटकता है?”
“मैं आपको क्लेश पहुँचाना नहीं चाहता था, रेखा जी-मेरा मतलब था-व्यक्तित्व जड़ें तो फेंकने लगता है बिल्कुल बचपन से और-और-” वह कुछ झिझका, “आप का भटकना-”
“कह डालिए न, आप का भटकना पाँच-छः वर्ष का ही है; आप जानते तो होंगे कि मेरा विवाह हुए आठ वर्ष हो गये और विवाह के दो वर्ष बाद से-”
भुवन चुप रह गया।
“आपकी बात ठीक है। कुछ सम्बन्ध बने भी रह सकते थे, और उन्हें काट कर बह निकलना स्वेच्छा से ही हुआ। पर-जड़ों का ही रूपक लिए चलें तो-यह आप नहीं मानते कि कुछ जड़ें वास्तव में जीवन का आधार होती हैं, और सतही जड़ों का बहुत बड़ा जाल भी एक गहरी जड़ की बराबरी नहीं करता?”
“हाँ-”
“तब एक जड़ के कट जाने से भी पेड़ मर सकता है-और मरे नहीं तो भी निराधार तो हो ही सकता है। मैं मरी नहीं-”
गाड़ी फिर चल दी। इस समय शायद भुवन को गाड़ी के चल देने से तसल्ली ही हुई, क्योंकि ऐसे में क्या कहे वह सोच नहीं सकता था।
बात ज्यों-ज्यों आगे चलती थी, अगले स्टेशन पर फिर न जा पहुँचना उतना ही अनुचित जान पड़ता था; अनुचित ही नहीं, भुवन स्वयं भी बात आगे सुनने को उत्सुक था।
अगले स्टेशन पर रेखा ने कहा, “डाक्टर भुवन, मैं अपनी बात के लिए क्षमा चाहती हूँ। इस तरह की बात करने की मैं बिल्कुल आदी नहीं हूँ, आप मानें। पर रेल का सफ़र शायद इस तरह के आत्म-प्रकाशन को सहज बनाता है-चलती गाड़ी में हम अजनबी को भी बहुत-सी ऐसी निजी बातें कह देते हैं जो अपने ठिकाने पर घनिष्ट मित्रों से भी न कहें।” वह कुछ रुकी। फिर बोली, “यह शायद जड़ों वाली बात का एक पहलू है; चलती गाड़ी में मुझ-जैसे व्यक्ति को एक स्वच्छन्दता का बोध होता है जबकि स्थिरता की सूचक किसी जगह में मुझे अपना बेमेलपन ही अखरता रहता और मैं गूँगी हो जाती। इसलिए मेरी बात पर ध्यान न दें-यह चलती बात है।” अपने श्लेष पर वह स्वयं हँस दी। भुवन ही नहीं हँस सका।
रेखा ने फिर कहा, “यों भी शायद में एग्जैजरेट कर रही हूँ-उतना गहरा आघात शायद वह नहीं था। वैसा कहना दोतरफा अन्याय है। असल में जहाँ मैं आ पहुँची हूँ, उसका कोई एक कारण नहीं है-मेरा सारा जीवन ही कारण है। और यह कहने से कुछ बात नहीं बनती-क्योंकि 'जीवन का सारा जीवन ही कारण है' यह कहने के क्या मानी हैं?”
“मानी हैं,” भुवन इतना ही कह पाया; गाड़ी फिर चल दी। और अगले स्टेशन पर उसने देखा कि रेखा का चेहरा इतना बदला हुआ है कि बात का सूत्र फिर उठाने का साहस ही उसे नहीं हुआ।
रेखा ने कहा, “एक बात पूछूँ, डाक्टर भुवन? बुरा तो न मानेंगे? आपने शादी क्यों नहीं की?”
भुवन अचकचा गया। पैंतरा काटता हुआ बोला, “पहले तो डाक्टर कहना आवश्यक नहीं है रेखा जी; नहीं तो मुझे लगेगा कि श्रीमती रेखा देवी न कहने में मुझसे चूक होती रही है। दूसरे-कोई काम न करने के लिए क्यों कारण ढूँढा जाये? कारण तो कुछ करने के लिए होना चाहिए, न करना तो स्वयंसिद्ध है।”
“हाँ, यों तो ठीक है, पर शादी के बारे में नहीं। वह तो धर्म है न-शास्त्रोक्त भी, स्वाभाविक भी-”
“रात के दो बजे शास्त्रार्थ करने लायक ज्ञान तो मुझ में है नहीं। और कहीं अस्वाभाविकता अपने जीवन से अखरी हो, ऐसा भी नहीं है-”
“अरे हाँ, मैं भी कैसा अत्याचार कर रही हूँ यह-बस अब अगले स्टेशन पर आप नहीं आवेंगे। मैं प्रतापगढ़ स्वयं उतर जाऊँगी। आप जाकर आराम कीजिए, डाक्टर भुवन जी!”
भुवन ने कहा, “रेखा जी, आपने जिसे अनावश्यक शिष्टाचार कहा था, यह बात भी क्या उसी के अन्तर्गत नहीं आती?”
अगला स्टेशन प्रतापगढ़ था। यहाँ तो दस-बारह मिनट गाड़ी ठहरेगी। भुवन लपक कर पहुँचा कि सामान उतरवा दे; पर यहाँ तक आते डिब्बे की सब सवारियों पर ऐसी शिथिलता छा गयी थी कि सब अपने-अपने स्थान पर पोटलियों-सी पड़ी थीं, और ऊपर की बर्थ से सामान उतार लेने में कोई अड़चन या झिझक नहीं हो सकती थी। भुवन के पहुँचने तक रेखा ने सामान उतार लिया था, एक कुली भी आ गया था।
रेखा ने कहा, “इस स्टेशन पर तो आपके न आने की बात थी?”
“न आता तो आप 'मिस' न करतीं, यह जानता हूँ; समझ लीजिए कि यह भी फालतू शिष्टाचार है-”
“जो आप अपने सौजन्य के साथ रंगे दे रहे हैं।” रेखा हँसी।
कुली ने सामान उठा लिया था। रेखा ने कहा, “वेटिंग-रूम में ले चलो, हम आते हैं।” कुली चला गया।
भुवन ने कहा, “रेखा जी, आप से भेंट करके मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई। मेरा लखनऊ का प्रवास बड़ा सुखद रहा। इस बात को आप शिष्टाचार ही न मानें-” फिर तनिक-सा रुक कर, “सुखद शायद ठीक शब्द नहीं है-किन्तु ठीक शब्द तत्काल मिल नहीं रहा है, सोच कर शायद ढूँढ निकालूँ।”
रेखा ने गम्भीर होकर कहा, “भुवनजी, मैं भी आप की कृतज्ञ हूँ। आपने इस वापसी की यात्रा को भी प्रीतिकर बना दिया। बल्कि मैं सोचती हूँ, यह यात्रा कुछ और लम्बी हो सकती थी।” फिर कुछ मुस्करा कर, “बात-चीत का यह इंटरमिटेंट तरीका कुछ बुरा नहीं है-ये बीच-बीच के ब्रेक अपने-आपमें एक तटस्थता दे देने वाले हैं, फिर चाहे बात-चीत कोई कैसी ही करे। मैं सोचती हूँ मुझे कभी ईसाइयों की तरह कनफ़ेशन करना हो तो गिरजा में जाकर नहीं, रेलगाड़ी में ही करूँ।”
भुवन ने भी हँस कर कहा, “और कनफ़ेशर मैं होऊँ-मुझे विश्वास है कि मेरा काम बहुत हल्का रहे। आपने ऐसे बहुत कर्म किये होंगे जिनका आत्मा पर बोझ हो, ऐसा नहीं लगता।”
रेखा जोर से हँस दी। अंग्रेजी में उसने एक पँक्ति कही, जिसका अर्थ था “कितना छल-रूपी होता है पापी!” फिर सहसा स्वर बदल कर गम्भीर होकर उसने पूछा, “अच्छा सच बताइए, मैंने आपके इलाहाबाद जाने में जो एक दिन देर कर दी, उसके लिए आप नाराज तो नहीं हैं न?”
अब भुवन हँसा। “वह बात अभी तक आपको याद ही है। मुझे कहीं पहुँचना नहीं था, और एक दिन जो अधिक रह गया वह और भी अच्छा बीता-नाराजी का प्रश्न ही कैसे उठता है? कृतज्ञ-”
“नहीं, मुझे बहुत डर लगा रहता है। जो रास्तेवाले हैं उन्हें रास्ते में एक इंच भी इधर-उधर नहीं ले जाना चाहिए-मेरी बात तो दूसरी है, मेरे आगे रास्ता ही नहीं है।”
भुवन ने कहा, “स्पष्ट क्यों नहीं कहतीं? आप समर्थ हैं, रास्ता बनाती चलती हैं हम दूसरों की बनायी हुई लीकें पीटते हैं-”
रेखा ने जोर देकर कहा, “नहीं, यह मेरा आशय बिल्कुल नहीं था।”
भुवन को रेखा की शाम को कही हुई बात याद आ गयी-”अकेले हैं, तभी लीक पकड़ कर चलते हैं।” उसने चाहा, अभी पूछ ले कि रेखा का क्या अभिप्राय था। पर वह बात उसे नहीं, चन्द्रमाधव को कही गयी थी, उसे सुननी भी नहीं चाहिए थी। उसने पूछा, “तब कुछ स्पष्ट करके कहिए न?”
“कुछ नहीं। दूसरों की बनायी हुई लीकों की बात मैं नहीं सोच रही थी। व्यक्तित्व की अपनी लीकें होती हैं-एक रुझान होता है। और उसके आगे, व्यक्ति अपने वर्तमान और भविष्य के बारे में जो समझता है, जो कल्पना करता है, मनसूबे बाँधता है, उनसे भी तो एक लीक बनती है-लीक कहिए, चौखटा कहिए, ढाँचा कहिए। या कह लीजिए दुनिया में अपना एक स्थान। मेरा यही मतलब था। आपके सामने-ऐसा मेरा अनुमान है-भविष्य का एक चित्र है, कहीं मंजिल है, ठिकाना है। इसलिए रास्ता भी है-”
“रास्ते तो कई हो सकते हैं, और शार्ट-कट होते नहीं-”
“शार्ट-कट नहीं होते, पर कई रास्तों वाला तर्क बड़ा खतरनाक होता है, भुवन जी; आपके सामने एक रास्ता है, वह जिस पर आप हैं। दूसरे रास्ते हो सकते हैं पर चलता रास्ता एक ही है-जिस पर आप हैं। चलना तभी सम्भव है।”
गार्ड ने सीटी दे दी थी। गाड़ी भी सीटी दे चुकी थी। भुवन ने कहा, “रेखा जी, आपके व्यक्तित्व को देखकर कोई यह नहीं कह सकता कि आपके सामने रास्ता नहीं है-आप का ऐसा स्पष्ट, सुनिश्चित, रूपाकार-युक्त व्यक्तित्व है कि-” वह शब्दों के लिए कुछ अटका, तो रेखा ने कहा, “आप चलकर गाड़ी पर सवार हो जाइए, फिर आगे बात होगी।”
भुवन ने कहा, “अभी चलने में बहुत देर है।” फिर कुछ शरारत से एलियट की पंक्तियाँ दुहरा दीं;
“बिट्वीन द आइडिया
एण्ड द रिएलिटी
बिट्वीन द मोशन
एण्ड द एक्ट
फाल्स द शैडो
फार दाइन इज़ द किंग्डम् -”
(कल्पना और यथार्थ के बीच, गति और कर्म के बीच आ जाती है (तेरी) छाया, क्योंकि तू ही शास्ता है-)
रेखा हँसी, कुछ बोली नहीं। भुवन ने कहा, “लेकिन मेरा सवाल बीच ही में रह जाता है-आपके पास ऐसी स्पष्ट प्रखर दृष्टि है-”
“कि मुझे सब रास्ते एक साथ दीखते हैं।” रेखा बात काटकर हँस पड़ी। “और हर रास्ते के आगे एक मंजिल भी दीखती है, जिसे मरीचिका मानना कठिन है।” वह तनिक रुकी, फिर गम्भीर होकर उसने कहा, “और इसीलिए सब मंजिलें झूठ हो जाती हैं, और कोई रास्ता नहीं रहता। मैं सचमुच कहीं भी पहुँचना नहीं चाहती-चाहना भी नहीं चाहती। मेरे लिए काल का प्रवाह भी प्रवाह नहीं, केवल क्षण और क्षण और क्षण का योग-फल है-मानवता की तरह ही काल-प्रवाह भी मेरे निकट युक्ति-सत्य है, वास्तविकता क्षण ही की है। क्षण सनातन है।”
भुवन चुपचाप रेखा का मुँह ताकता रहा। रेखा जैसे दूर कहीं से कुछ गुनगुना उठी; भुवन ने कान देकर सुना, वह लारेंस की कुछ पंक्तियाँ दुहरा रही थी।
”डार्क ग्रासेज़ अंडर माई फ़ीट
सीम टु डैब्ल् इन मी
लाइक ग्रासेज इन ए ब्रुक।
ओः, एंड इट इज स्वीट टु बी
आल दीज थिंग्स, नाट टु बी
एनीमोर माइसेल्फ़,
फार लुक -
आई एम वेयरी आफ़ माइसेल्फ़ !”
(मेरे पैरों तले की घास मानो मुझ में ऊब-डूब कर रही है जैसे झरने में किनारे की घास। कितना मधुर है ये सब वस्तुएँ हो जाना और अपना-आप न रहना , क्योंकि मैं अपने-आप से ऊब गया हूँ।)
रेखा का स्वर भुवन स्पष्ट नहीं सुन सकता था और शब्द छूट जाते थे, पर कविता उसकी पढ़ी हुई थी और वह बिना पूरा सुने भी साथ गुनगुना सका; लेकिन रेखा के पढ़ने में कितनी एकात्मता थी उन पंक्तियों के आशय के साथ-मानो सचमुच ही भुवन देख सकता, वहाँ रेखा नहीं, घास की झूमती हुई पत्तियाँ हैं-पत्तियाँ भी नहीं, पानी में पड़ी हुई पत्तियों की परछाइयाँ...उसे और किसी कवि की कविता याद आयी जिसने कहा है, “सरोवर के पानी में झाँक कर जो घास और शैवाल देखता है वह भगवान का मुँह देखता है और जो अपनी परछाईं देखता है वह एक मूर्ख का मुँह देखता है-” और उसने सोचा, इस समय निस्सन्देह रेखा मूर्ख का मुँह नहीं देख रही है, यद्यपि भगवान का साक्षात् वह कर रही है या नहीं, यह...
ठीक इसी समय रेखा ने उसकी कुहनी पकड़ कर उसे ठेलते हुए कहा था, “अरे, आप की गाड़ी तो जा रही है”-और उसने मुड़कर देखा था कि सचमुच पर उसका डिब्बा, जो पीछे था, अभी जहाँ वे खड़े थे वहाँ से गुज़रा नहीं था। उसने कहा था, “आप चिन्ता न करें-” और सवार हो गया था; कब रेखा ने उसकी कुहनी छोड़ी थी इसका उसे ठीक पता नहीं था-तत्काल ही, या जब उसने डिब्बे का हैंडल पकड़ कर तख्ते पर पैर रखा था और गाड़ी की गति ने उसे खींच लिया था तब; उसने यही देखा था कि रेखा का हाथ अभी वैसा ही ऊपर उठा हुआ है, उँगलियों की स्थिति वैसी ही अनिश्चित है जैसे किसी एक क्रिया के पूरी होने के बाद दूसरी क्रिया के आरम्भ होने से पहले होती है-संकल्प-शक्ति की उस जड़ अन्तरावस्था में।
और ठीक उसके बाद उसने सहसा जाना था कि वह भीतर कहीं विचलित है, और उसकी कुहनी चुनचुना रही है, और उसका हाथ उसका अपना अवयव नहीं है, और सब पर्याय विपर्यय हैं और आस-पास सब कुछ एक गोरखधन्धा है जिस का हल, कम-से-कम उस समय, उसे भूल गया है-और गोरखधन्धे का हल न जानने में उतनी छटपटाहट नहीं होती जितनी जानते हुए भी उस क्षण न पा सकने में...
पटरी के मोड़ पर रेखा गाड़ी की ओट हो गयी थी; भुवन अपना हाथ देखता रह गया था। तभी एक चिड़चिड़े स्वर ने उसे वापस, ठोस धरती पर ला गिराया था।
क्षितिज में फीका-सा रंग भरने लगा था; सप्ताह-भर की घटनाओं का-यदि घटना उन्हें कहा जा सकता है-पर्यवलोकन करके भुवन फिर वहीं-का-वहीं आ गया था। तथ्य और सत्य-सत्य वह तथ्य है जिससे रागात्मक लगाव-उँह, सब बातें हैं, तथ्य कि सत्य यह कि फाफामऊ स्टेशन आ रहा है, आगे गंगा है जिसका पाट इस धुँधली रोशनी में मुकुर-सा चमकता होगा-गंगा, प्रयाग की गंगा...
भुवन ने एक लम्बी साँस ली, फिर अपनी चढ़ी हुई आस्तीनें नीचे उतार ली-चाहे हल्की-सी ठंड से बचने के लिए, चाहे कुहनी पर की छाप को छिपा या मिटा देने के लिए। खड़े होकर उसने एक अंगड़ाई ली। इलाहाबाद वह नहीं ठहरेगा; वापस चला जाएगा; छुट्टी के दो-चार दिन बाकी हैं तो क्या हुआ।
या कि और कहीं हो आए-बनारस, सारनाथ-मथुरा-आगरा-दिल्ली; दिल्ली में कई मित्र हैं, गौरा के माता-पिता हैं, उसके प्रोफ़ेसर भी आज-कल हैं-
नहीं, क्या होगा कहीं जाकर, इलाहाबाद से सीधे वापस, अपनी छोटी-सी जगह अच्छी है, कुछ पढ़ना-लिखना होगा-
'अकेले हैं न, तभी लीक पकड़ कर चलते हैं।”
गड़गड़ाहट-यह गंगा का पुल आ गया। दूर कहीं पर अभी दीखते होंगे धुँधले-से भोर के दीप?
एक दिगन्तस्पर्शी प्रवाह, उसमें छोटे-छोटे द्वीप-मानो तैरते द्वीप-और एक बड़ी, अँधेरी, रवहीन तरंग-नहीं, नहीं, नहीं!