भूमिका / नदी के द्वीप / अज्ञेय

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'नदी के द्वीप': क्यों और किस के लिए

अपनी किसी कृति के बारे में कुछ कहने का आकर्षण कितना ख़तरनाक है, इसको वे लोग पहचानते होंगे जिन्होंने कवि सम्मेलनों आदि में कवियों को अपनी कविता की व्याख्या करते सुना है। कृतिकार को जो कहना है, जब उस ने कृति में वह कहा ही है, और मानना चाहिए कि यथाशक्य सुन्दर रूप में ही कहा होगा, तब क्यों वह उसे कम सुन्दर ढंग से कहना चाहेगा? एक जवाब यह हो सकता है कि जो कृति में सुन्दर ढंग से कहा गया है, वह व्याख्या में सुबोध ढंग से कहा जायेगा। तो इस जवाब में सुन्दर और सुबोध का जो विरोध मान लिया जाता है, उसे कम से कम मैं तो स्वीकार नहीं करता। सुबोधता भी सौन्दर्य का ही एक अंग है या होना चाहिए। ऐसा जरूर हो सकता है कि वस्तु के अनुकूल रूप-विधान में-और इस अनुकूलता में ही सौन्दर्य है-सुबोधता इसलिए कम हो कि वह वस्तु भी वैसी हो। तब इस दशा में सुबोध बनाने में हम वस्तु से कुछ दूर ही चले जावेंगे। कोई भी वस्तु, कृति में अपने सुन्दरतम और इसलिए सुबोधतम होकर भी सहज सुबोध नहीं हुई है, तो यह तभी हो सकता है कि उस स्थिति में वह वस्तु अधिक सुबोध नहीं हो सकती, और अगर ऐसा है तो व्याख्या सुबोध तभी होगी जब वह कृति के सम्पूर्ण को खण्डित कर के उसके खण्ड को ही-या अलग-अलग खण्डों को ही देखे।

'नदी के द्वीप' में भूमिका नहीं है। इसलिए नहीं है कि मैंने सीख लिया, उपन्यास में उपन्यासकार को जो कहना है, वह उपन्यास से ही प्राप्य होना चाहिए; न सिर्फ़ होना चाहिए, उपन्यास से ही हो सकता है, नहीं तो फिर उपन्यासकार ने वह कहा ही नहीं है। मैं क्यों मान लूँ कि मेरा पाठक इतना बुद्धि-सम्पन्न नहीं होगा कि मेरी बात पहचान ले? बल्कि इतना ही नहीं, यह भी तो सम्भव है कि मैंने जो कहा है, उसे मैं स्वयं दूसरे रूप में उतना ठीक न पहचानूँ, न जानूँ? स्पष्ट है कि कहानीकार भी इस बात को मानता है कि 'कहानी पर विश्वास करो, कहानीकार पर मत करो'। नहीं तो कहानी क्यों लिखता, बिना कहानी के ही निरी व्याख्या क्यों न लिख डालता? ऐसे भी लेखक हैं जिन्होंने कृति से बड़ी भूमिकाएँ लिखी हैं-कभी-कभी भूमिकाएँ ही पहले और प्रधान मान कर लिखी हैं, और फिर कृति में केवल भूमिका में प्रतिपादित सिद्धान्तों को उदाहृत कर दिया है। लेकिन ऐसी दशा में भूमिका को ही कृति मानना चाहिए, और तथा-वर्णित कृति को उसकी एक अलंकृति, एक दृष्टान्त।

'नदी के द्वीप' व्यक्ति-चरित्र का उपन्यास है। इस से इतर कुछ वह क्यों नहीं है, इसका मैं क्या उत्तर दूँ? और दूँ ही, तो वह मान्य ही होगा ऐसा कोई आश्वासन तो नहीं है। व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए। फिर वह इस दाय पर अपनी छाप भी बैठाता है, क्योंकि जिन परिस्थितियों से वह बनता है उन्ही को बनाता और बदलता भी चलता है। वह निरा पुतला, निरा जीव नहीं है, वह व्यक्ति है, बुद्धि-विवेक-सम्पन्न व्यक्ति। तो अब हम चाहें तो व्यक्ति को जैसा वह है वहीं से ले सकते हैं, उस बिन्दु से आरम्भ करके उसकी गति-विधि को देख सकते हैं, या फिर मुख्यतया इसी पर विचार कर सकते हैं कि वह जैसा है वैसा हुआ क्यों; और वैसा होकर वह क्या कर रहा है, इसे गौण मान ले सकते हैं। पहले में सामाजिक शक्तियों को निहित मान कर चलते हैं और व्यक्ति-चरित्र ही सामने होता है, दूसरे में व्यक्ति गौण होता है और सामाजिक शक्तियाँ ही प्रधान पात्र हो जाती हैं। जहाँ तक शिल्प-विधान का प्रश्न है, दोनों प्रक्रियाएँ अपना स्थान रखती हैं, दोनों की विशेषताएँ और मर्यादाएँ हैं। और दोनों के अपने-अपने जोख़िम भी। सतर्क कलाकार जोख़िम से बच कर चल सकता है। शतरंज का खेल देखें, तो राजा-वज़ीर, हाथी-घोड़े आदि मोहरों को राजा-वज़ीर, हाथी-घोड़ा ही मान कर खेल का विकास देख सकते हैं, या फिर उन सबकी प्रवृत्तियों और मर्यादाओं और चालों को गौण या 'स्थिति-जन्य' कह कर इसी अनुसन्धान में लग सकते हैं कि क्यों राजा राजा है और प्यादा प्यादा, या घोड़ा क्यों ढाई घर की चाल चलता है और हाथी तिरछी; या क्यों प्यादा बढ़ कर वज़ीर तक बनता है, राजा नहीं, और क्यों राजा प्यादा नहीं बनता। या यह भी सोचा जा सकता है कि प्यादे को वज़ीर मान लें और घोड़े को प्यादा तो खेल कैसा चले? वह भी बड़ा रोचक अनुसन्धान हो सकता है, चाहे यह प्रश्न रह ही जाये कि क्या वह शतरंज फिर भी है?

तो मेरी रुचि व्यक्ति में रही है और है; 'नदी के द्वीप' व्यक्ति-चरित्र का ही उपन्यास है। घटना उसमें प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से काफ़ी है, पर घटना प्रधान उपन्यास वह नहीं है। 'शेखर' की तरह वह परिस्थितियों में विकसित होते हुए एक व्यक्ति का चित्र और एक चित्र के निमित्त से उन परिस्थितियों की आलोचना भी नहीं है। वह व्यक्ति-चरित्र का-चरित्र के उद्घाटन का उपन्यास है। उसमें पात्र थोड़े हैं; बल्कि कुल चार ही पात्र हैं। चारों में फिर दो, और दो में फिर एक और भी विशिष्ट प्राधान्य पाता है। 'शेखर' से अन्तर मुख्यतया इस बात में है कि 'शेखर' में व्यक्तित्व का क्रमशः विकास होता है; 'नदी के द्वीप' में व्यक्ति आरम्भ से ही सुगठित चरित्र लेकर आते हैं। हम जो देखते हैं वह अमुक स्थिति में उनका निर्माण या विकास नहीं, उनका उद्घाटन भर है। और चार पात्रों में जो दो प्रधान हैं उन पर यह बात और भी लागू होती है; बाक़ी दो पात्रों में तो कुछ क्रमिक विकास भी होता है। आप चाहें तो यह भी कह सकते हैं कि 'नदी के द्वीप' चार संवेदनाओं का अध्ययन है। उसमें जो विकास है, वह चरित्र का नहीं, संवेदना का ही है।

उपन्यास क्या है या क्या नहीं है, इसको लेकर बहुत बहस हो सकती है, लेकिन उसमें लेखक का कोई सम्पूर्ण जीवन-दर्शन नहीं तो जीवन के सम्बन्ध में विचार तो प्रकट होते ही हैं। 'नदी के द्वीप' के लेखक के वे विचार क्या है? यहाँ कहना होगा कि वे स्पष्ट कम ही कहे गये हैं, लेखक की ओर से तो बिलकुल नहीं, पात्रों की उक्तियों या कर्मों में सीधे या प्रतीपभाव से ही वे प्रकट होते हैं, और वह भी सम्पूर्ण जीवन के सम्बन्ध में नहीं, उसके पहलुओं के। 'नदी के द्वीप' एक दर्द-भरी प्रेम-कहानी है। दर्द उनका भी जो उपन्यास के पात्र हैं, कुछ उनका भी जो पात्र नहीं हैं। किसी हद तक वह कहानी असाधारण भी है-जैसे कि किसी हद तक पात्र भी असाधारण हैं-सब नहीं तो चार में से तीन के अनुपात से। लेकिन इस हद तक असाधारणता दोष ही होती है, ऐसा मैं नहीं मान लूँगा। 'नदी के द्वीप' समाज के जीवन का चित्र नहीं है, एक अंग के जीवन का है; पात्र साधारण जन नहीं हैं, एक वर्ग के व्यक्ति हैं और वह वर्ग भी संख्या की दृष्टि से अप्रधान ही है; लेकिन कसौटी मेरी समझ में यह होनी चाहिए कि क्या वह जिस भी वर्ग का चित्रण है, उसका सच्चा चित्र है? क्या उस वर्ग में ऐसे लोग होते हैं, उनका जीवन ऐसा जीवन होता है, संवेदनाएँ ऐसी संवेदनाएँ होती हैं? अगर हाँ, तो उपन्यास सच्चा और प्रामाणिक है, और उसके चरित्र भी वास्तविक और सच्चे हैं; न साधारण टाइप हैं, न असाधारण प्रतीक हैं। और मेरा विश्वास है कि 'नदी के द्वीप' उस समाज का, उसके व्यक्तियों के जीवन का जिस का वह चित्र है, सच्चा चित्र है। निःसन्देह उपन्यास के मूल्यांकन में इससे आगे भी जाना होता है, इस प्रश्न का उत्तर खोजना होता है कि लेखक में तटस्थता कितनी है, अमुक वर्ग के संस्कारों से वह कहाँ तक असम्पृक्त रह सका या हो सका है। पर वह बात पात्रों की या वस्तु की असाधारणता से अलग है।

वास्तविकता के इस निर्वाह के साथ 'नदी के द्वीप' में एक आदर्शपरकता भी है। वास्तव और आदर्श में कोई मौलिक विरोध नहीं होता, यह कहना शायद आवश्यक नहीं है। इतना ही है कि जो आदर्श वास्तव की भूमि से नहीं उठता,वह निराधार ही रहता है, उसे पाया नहीं जा सकता, उसकी ओर बढ़ा नहीं जा सकता, वह जीवन नहीं देता। तो 'नदी के द्वीप' में क्या आदर्श है? कदाचित् यह मुझे कहने की कोशिश भी नहीं करनी चाहिए, क्योंकि जैसा मैंने आरम्भ में कहा, यही वह क्षेत्र है जहाँ कथाकार की ओर नहीं, कथा की ओर देखना चाहिए। कथा से अलग आदर्श को निकाल कर मैं कहना चाहता या कह सकता तो कथा क्यों लिखता? यों उपन्यास के आरम्भ में सूत्र-रूप से जो उद्धरण दिये गये हैं-एक शेली का, एक स्वयं लेखक की कविता से, वे अर्थ रखते हैं : दर्द से भी जीवन में आस्था, जीवन का आश्वासन-जो शेली में सन्दर्भ से ध्वनित होता है; और दर्द में मँज कर व्यक्तित्व का स्वतन्त्र विकास, ऐसा स्वतन्त्र कि दूसरों को भी स्वतन्त्र करे-जो 'अज्ञेय' के सन्दर्भ से ध्वनित होता है। आदर्श के ये दो सूत्र कथा में हैं, चरितनायक भुवन एक को ध्वनित करता है तो मुख्य स्त्री-पात्र रेखा दूसरे को। चन्द्रमाधव और गौरा स्वतन्त्र व्यक्ति भी हैं, और भुवन तथा रेखा के प्रतिचित्र भी। चारों एक ही समाज या वर्ग के प्राणी हैं। पर चन्द्रमाधव का चरित्र-विकास विकृति की ऐसी ग्रन्थियों से गुथीला हो गया है कि उसका विवेक भी उसे कुपथ पर ले जाये, और उस की सदोन्मुखता आत्म-प्रवंचना के कारण है। इसी में वह भुवन का प्रति-भू है। दूसरी ओर गौरा तथा रेखा भी प्रत्यवस्थित किये गये हैं। त्याग की स्वस्थ भावना एक को दृष्टि देती है तो दूसरी में एक प्रकार के आत्म-हनन का ही कारण बनती है-यद्यपि उस की भावना इतनी उदात्त है कि हम उसे अपनी सहानुभूति दे सकें। यानी आप दे सकें-क्योंकि मैंने तो सभी पात्रों को अपनी सहानुभूति दी है। भले ही साधारण सामाजिक जीवन में कुछ से मिलना-जुलना चाहूँ, कुछ से बचना चाहूँ, पर अपनी कृति के क्षेत्र में तो सभी मेरी समवेदना के पात्र हैं।

शिल्प के बारे में मेरा कुछ न कहना ठीक है, पर नाम के बारे में एक बात कह दूँ। इस नाम की मेरी एक कविता भी है। पर दोनों में विशेष सम्बन्ध नहीं है। उपन्यास लिखना आरम्भ करने से पहले, जब मैं उसे लिख डालने के लिए कहीं जा छिपने की बात सोच रहा था तब दो-एक मित्रों ने पूछा था कि नाम क्या होगा। मैंने तब तक निश्चय नहीं किया था। उन्हीं से पूछा-आप ही सुझाइए। कविता के कारण ही एक मित्र ने यह सुझाया; मैंने कहा, अच्छा, यही सही। फिर मेरे लिखना आरम्भ करने से पहले ही नाम का विज्ञापन भी हो गया। यों नाम का निर्वाह उपन्यास में हो गया है, ऐसा मेरा विश्वास है।

'नदी के द्वीप' मैंने किस के लिए लिखा है? अगर कहूँ कि सबसे पहले अपने लिए, तो यह न समझा जाये कि यह पाठक की अवज्ञा करना है। कदापि नहीं। बल्कि मैं मानता हूँ कि जो अपने लिए नहीं लिखा गया, वह दूसरे के सामने उपस्थित करने लायक ही नहीं है। यहाँ 'अपने लिए' की शायद कुछ व्याख्या अपेक्षित है। 'अपने लिए', अर्थात् अपने को यह बात सप्रमाण दिखाने के लिए कि मेरी आस्था, मेरी निष्ठा, मेरे संवेदनाजाल की सम्पूर्णता और सच्चाई, मेरी इंटिग्रिटी उसमें अभिव्यक्त हुई है। जब तक अपने सामने इसका जवाब स्पष्ट न हो तब तक दूसरे के सामने किसी लेखक को जाना नहीं चाहिए; उससे भूल हो यह दूसरी बात है।

फिर, अपने बाद, संवेदनशील, विचारवान्, प्रौढ़ अनुभूति के पाठक के लिए। स्पष्ट है कि ऐसा कहना, यह कहना नहीं कि जन-जनार्दन के लिए। साहित्य पाठक में कुछ तैयारी, अनुकूलता और परिपक्वता माँगता ही है। पुराने आचार्य तो इसे मानते ही आये, आज-कल भी यह मत नितान्त अमान्य तो नहीं है। जन की दुहाई देने वाले भी प्रत्यक्ष नहीं तो परोक्ष रूप से मानते हैं कि पाठक की संवेदनाओं की व्यापकता और परिपक्वता का कुछ महत्त्व होता है। तो-क्या 'नदी के द्वीप' मैंने आपके लिए लिखी है? यदि आप यहाँ तक मेरी बात ध्यान देकर पढ़ते रहे हैं तो कहूँगा कि हाँ, आपके लिए भी, फिर आप चाहे जो हों। और यदि इससे पहले ही आप ऊब चुके हैं, या दूसरा कोई मत बना चुके हैं, तो फिर मेरी हाँ भी आप तक कैसे पहुँचेगी?

और अगर आज आप में वह परिपक्वता नहीं है तो? तो आप के शुभेच्छु के नाते मैं मनाता हूँ कि कल वह हो!

रेखा की भूमिका*

'नदी के द्वीप' में श्लील और अश्लील के सम्बन्ध में जो प्रश्नोत्तर छपे थे, उसकी बातों को नहीं दोहराऊँगा। मुझे स्मरण है कि मैंने बातचीत के सिलसिले में (पटना में) कहा था कि 'अश्लीलता की परिभाषा युग के साथ बदलती रहती है।' आप ने इसका स्पष्टीकरण चाहा है। जो जुगुप्सा उत्पन्न कर दे वह अश्लीलता है, यह अश्लील की एक परिभाषा है। जुगुप्सा का अर्थ है गोपन करने की इच्छा। और यह स्पष्ट होना चाहिए कि छिपने-छिपाने की इच्छा जिन परिस्थितियों में होती है वे निरन्तर बदलती रहती हैं। इसलिए इस अधूरी परिभाषा की दृष्टि से भी अश्लीलता का अर्थ बदलता रहता है। इसके अलावा मनोविज्ञान ने मूल प्रवृत्तियों के बारे में जो नयी दृष्टि दी है उससे जो परिपक्वता पाठक को मिली है (या मिलनी चाहिए) उसने भी अश्लीलता के क्षेत्र को संकुचित कर दिया है। जैसे बच्चे की नग्नता बड़ों में जुगुप्सा नहीं उत्पन्न करती, बल्कि बड़े बच्चों को क्रमशः यह सिखाते हैं कि अपने समाज के पहरावे के नियमों के अनुरूप संकोच का भाव उन में जागना चाहिए; उसी प्रकार साहित्यिक क्षेत्र में भी जब अपरिपक्व को परिपक्व के सम्मुख लाया जाता है तब जुगुप्सा नहीं होनी चाहिए-और ऐसे साक्षात् में अश्लीलता नहीं माननी चाहिए। अगर मेरी यह स्थापना उचित है कि मनोविश्लेषण की नयी खोजों ने हमें परिपक्वता दी है तो स्पष्ट है कि उससे अश्लीलता की परिधि भी बदली है। यह ठीक है कि बहुत से पाठकों में वह परिपक्वता नहीं होती जिस की आज हम अपेक्षा कर सकते हैं, लेकिन इस परिस्थिति में जो करना चाहिए उसका संकेत मैंने 'प्रश्नोत्तर' में दे दिया है। जो नियमन समाज को करना चाहिए, उसे लेखक अपने ऊपर ओढ़ ले या ओढ़ना चाहे तो वह निरा दम्भ ही होगा-वैसे ही जैसे जो काम राजशक्ति के क्षेत्र के होते हैं उन्हें व्यक्ति का अपने ऊपर ओढ़ना चाहना दम्भ होगा-या मूर्खता।

  • यह एक पत्र के कुछ अंश हैं जो एक अध्येता द्वारा पूछे गये कुछ प्रश्नों के उत्तर में लिखा गया था। पत्र में रेखा के चरित्र के अतिरिक्त भी कुछ बातों का उल्लेख है, किन्तु सभी 'नदी के द्वीप'से प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से सम्बद्ध हैं, अतः शीर्षक में अव्याप्ति दोष होने पर भी आशा है कि वह भ्रामक न होगा।

रेखा 'नदी के द्वीप' का सबसे अधिक परिपक्व पात्र है। यह मैं पहले लिख चुका हूँ कि मेरी दृष्टि में वही उपन्यास का प्रधान पात्र भी है। वही अपनी भावनाओं के प्रति सबसे अधिक ईमानदार है और अपने प्रति सबसे अधिक निर्मम। एक दूसरी तरह की ईमानदारी चन्द्रमाधव में भी है लेकिन वह दस्यु की ईमानदारी है-जो नोच-खसोट कर पा लेना चाहता है किन्तु मूल्य चुकाने को तैयार नहीं है।

रेखा का जीवन-ध्येय और जीवन-दर्शन? इस प्रश्न का उत्तर मेरे लिए कठिन है। और शायद यह लेखक के क्षेत्र से बाहर की भी बात है। क्योंकि इस विषय पर कहानी में जो नहीं मिलता है वह प्रस्तुत किया जा कर अविश्वास्य रहेगा। इतना शायद कहानी में से निकाला जा सकता है कि रेखा अपनी भावनाओं के प्रति सच्ची रहना चाहती है, भीतर के प्रति अपने उत्तरदायित्व को उसने समर्पण की सीमा तक पहुँचा दिया है। जहाँ यह व्यक्ति की बहुत बड़ी शक्ति है, व्यक्तित्व के विकास का एक उत्कर्ष है, वहाँ यह उसकी एक पराजय भी है। क्योंकि केवल 'अपने में जो है उसके प्रति समर्पण' काफ़ी नहीं है। अपने से बाहर और बड़ा भी कुछ है जिस के प्रति भी उतना ही निःसंग समर्पण वास्तव में चरित्र की पूर्ण विकसित और परिपक्व अवस्था है। रेखा की ट्रैजेडी उसके इसी समर्पण के अधूरेपन की ट्रैजेडी है-जितना ही वह पूरा है उतना ही वह अधूरा है क्योंकि वह अधूरे के प्रति है। ट्रैजेडी तब होती है जब जो 'दण्ड' मिलता है वह भोक्ता के 'दोषों' के कारण नहीं, उसके गुणों की त्रुटियों के कारण मिलता है-फ़ार द फ़ॉल्ट्स ऑफ़ देयर वर्चूज़। टेकनीक की दृष्टि से दोनों स्त्री-पात्र-रेखा और गौरा, तथा दोनों पुरुष-पात्र-भुवन और चन्द्रमाधव, प्रत्यवस्थित (काउंटरपोज़) हो गये हैं। किन्तु वास्तव में स्थिति यह नहीं है कि दोनों स्त्री-पात्र एक-दूसरे के चरित्र को उभारते हैं, या दोनों पुरुष-पात्र एक-दूसरे को। वास्तव में उपन्यास के प्रति-चरित्र रेखा और चन्द्रमाधव हैं। रेखा भावना की सच्चाई के प्रति समर्पित है या होना चाहती है, चन्द्रमाधव सहज प्रवृत्ति की तृप्ति को ही अपना लक्ष्य बनाता है। रेखा का आदर्श है दान, चन्द्रमाधव का लब्धि। इसीलिए रेखा में ईर्ष्या नहीं है और चन्द्रमाधव में प्रेम उसके बिना मानो अभिव्यक्ति ही नहीं पा सकता।

रेखा और गौरा में ईर्ष्या न होने की आलोचना हुई है। ऐसे भी हैं जो मानते हैं कि ईर्ष्या के बिना प्रेम नहीं है, या ईर्ष्या के बिना नारी नहीं है। ईर्ष्या-भरा प्रेम या ईर्ष्या-भरी नारियाँ मैंने न देखी हों, ऐसा नहीं है। निःसन्देह अधिकतर ऐसा ही होता है। लेकिन जीवन का अनुभव अधिसंख्य या अधिमात्र का ही अनुभव नहीं है-जो परिपक्वता की ओर ले जाये वही अनुभव है। मैं मानता हूँ कि ईर्ष्या प्रेम का सबसे बड़ा शत्रु है और प्रेम की स्वस्थ वयस्कता के मार्ग में सबसे बड़ा रोड़ा। मैं नहीं मानता कि ईर्ष्यामुक्त प्रेम असम्भव है। या अस्वस्थ है या अस्वाभाविक है। बल्कि यह मानता हूँ कि प्रेम में जिन को भी जितना अधिक ईर्ष्या से मुक्त मैंने पाया है उनका उतना ही अधिक सम्मान कर सका हूँ-चाहे इस देश-काल में, चाहे दूसरे देश-कालों में।

यों, यदि यह सूचना आप के किसी काम की है तो-यह भी कहूँ कि बीसियों वर्ष से ईर्ष्या की समस्या में सैद्धान्तिक दिलचस्पी रही है। एच.जी. वेल्स के दो उपन्यास इसी प्रश्न को लेकर हैं जिन में से एक मुझे विशेष प्रिय है; ये दोनों ही कॉलेज के ज़माने में पढ़े थे, जब समाज को बदलने का मेरा आग्रह तत्कालीन वेल्स के आग्रह से कुछ कम नहीं था! वेल्स के दिए हुए तर्क आज कुछ अतिसरलीकरण जान पड़ते हों वह दूसरी बात है, लेकिन मानवीय व्यक्ति के चरित्र-विकास के लिए ईर्ष्या-मुक्ति का जो सैद्धान्तिक प्रश्न उन्होंने उठाया था वह मुझे आज भी एक जीवित प्रश्न जान पड़ता है।

'नदी के द्वीप' का समाज*

'नदी के द्वीप' के पात्रों के विषय में आप के प्रश्न का क्या उत्तर हो सकता है? जो उपन्यास मूलतः चार-पाँच वैयक्तिक संवेदनाओं का अध्ययन है उसके पात्र 'समाज से कटे हुए' हैं या नहीं, यह प्रश्न मेरे लिए तो प्रासंगिक ही नहीं हुआ। एक पेड़ की शाखा-प्रशाखा की रचना देखने के लिए क्या यह पहले निश्चय कर लेना अनिवार्य (या आवश्यक भी) है कि वह पेड़ जंगल से कटा हुआ है या कि जंगल का अंग है? उपन्यास अनिवार्यतया पूरे समाज का चित्र हो, यह माँग बिलकुल ग़लत है। उपन्यास की परिभाषा के बारे में यह भ्रान्ति (जो देश में या कम से कम हिन्दी में काफ़ी फैली हुई मालूम होती है) साहित्य के सामाजिक तत्त्व को ग़लत समझने का परिणाम है। कह लीजिए कि छिछली या विकृत प्रगतिवादिता का परिणाम है।

'नदी के द्वीप' के पात्र किसी हद तक अवश्य असाधारण हैं। वैसे ही जैसे भारत में पढ़ा-लिखा व्यक्ति किसी हद तक असाधारण अवश्य है, जहाँ साक्षरता का स्तर अट्ठारह प्रतिशत है, शिक्षितता का आधा प्रतिशत और सुशिक्षितता का कितना? 0.2 प्रतिशत? समाज के जिस अंग में से 'नदी के द्वीप' के पात्र आये हैं उस का वे ग़लत प्रतिनिधित्व नहीं करते। मेरे लिए उनकी इतनी सामाजिकता पर्याप्त है। इसके आगे उनमें से प्रत्येक चरित्र एक सही सुनिर्मित विश्वसनीय व्यक्ति-चरित्र हो और जीवन्त होकर सामने आ सके, यही मेरा उद्देश्य रहा और इतना मात्र मैं कलात्मक उद्देश्य मानता हूँ। यों दूसरे भी उद्देश्य हो सकते हैं, यह अलग बात है।

  • काशी के एक विद्यार्थी के प्रश्न के उत्तर में लिखे गये पत्र का अंश।

'शेखर' से 'नदी के द्वीप' का अधिक सम्बन्ध मुझे तो नहीं दीखता। पर लेखक की बात पाठक क्यों मानने लगा, खास कर जब वह ऐसा समझता हो कि वह कुछ देख सकता है जो भले ही स्वयं लेखक को भी न दीखा हो।

इतना अवश्य है कि 'शेखर' का तीसरा भाग मेरे सामने है और केवल मेरे सामने है, पाठक के सामने नहीं है। इसलिए यह असम्भव तो न होना चाहिए कि 'शेखर' के पहले दो भागों का तीसरे भाग के साथ सम्बन्ध, और 'नदी के द्वीप' से उन सब का अलगाव मैं पाठक की अपेक्षा अधिक अच्छी तरह देख सकूँ-अपने सभी पूर्वग्रहों के बावज़ूद!

-अज्ञेय

('नदी के द्वीप', प्रथम संस्करण से)