चरमरा उठा है विवाह संस्था का ढांचा / संतोष श्रीवास्तव
मनु के द्वारा स्थापित विवाह संस्था का ढांचा चरमरा उठा है। परिवार टूट रहे हैं और तलाक के मामले बढ़ रहे हैं। कुछ लोग इसे पश्चिम की बीमारी समझते हैं लेकिन यह कहकर अपना बचाव नहीं किया जा सकता। समाज पर मंडराते इस खतरे की आखिर वजह क्या है? आंकड़े बताते हैं कि पूरी दुनिया में तलाक के मामले कितनी तेजी से बढ़ रहे हैं। अमेरिका में तलाक की दर 50 प्रतिशत, जापान में 27 प्रतिशत, ब्रिटेन में 12.2 प्रतिशत तलाक की दर है। भारत में भी तलाक तेजी से बढ़ रहा है। दिल्ली तो देश की डाइवोर्स कैपिटल ही कहलाने लगी है। हर साल दिल्ली में करीब नौ हजार तलाक के केस दर्ज किए जाते हैं। इसके बाद नंबर मुंबई और बैंगलोर का है। मुंबई के तलाक के मामलों की संख्या सात हजार के आसपास है। बढ़ते तलाक की वजहों पर यदि नजर डाली जाए तो कुछ बातें स्पष्ट रूप से सामने आती हैं। बढ़ती सामाजिक स्वीकृति जिसमें लड़कियों की शिक्षा एवं नौकरी को मान्यता मिली है, को लोग दोषी मानते हैं। लड़कियों को शिक्षा के द्वारा अपने अधिकारों का ज्ञान होना, यह समझ में आना कि उनके ऊपर जो पारिवारिक हिंसा हो रही है उसके लिए वे कानून का सहारा ले सकती हैं, पति पत्नी दोनों गृहस्थी की गाड़ी के दो महत्त्वपूर्ण पहिये हैं जिनके बिना गृहस्थी चल पाना अशंभव है, वे केवल बच्चा पैदा करने की मशीन नहीं हैं बल्कि गरिमामय मातृत्व की हकदार हैं। वे सभी सामाजिक चुनौतियों का सामना अकेले भी कर सकती हैं। वे परिवार में सम्मान और प्रतिष्ठा कि हकदार हैं और ये बातें अशिक्षा के दायरे में सिमटी थीं। औरत को इसका ज्ञान नहीं था और वह सभी पुरुषदत्त अत्याचार, प्रताड़ना, अफमान सहते हुए मरती घुटती ज़िन्दगी गुजार देती थीं। अब जब वह इस घुटन, इस तिलमिलाहट से बाहर आई हैं समाज भी इसे बढ़ावा दे रहा है तो इसे तालाक का एक कारण मान लेना एकतरफा निर्णय ही कहलाएगा।
शिक्षा के बाद औरतें आर्थिक रूप से स्वावलंबी हो गई हैं अत: मनचाही शादी को ढोने की जगह उससे बाहर निकलना ज़्यादा पसंद करती हैं जबकि औरत की अशिक्षा के कारण आर्थिक परावलंबन ने उन्हें अनचाहे रिश्ते का गुलाम बना डाला था।
अब ऐसे दंपती भी होने लगे हैं जो शादी तो कर लेते हैं पर ज़िन्दगी को भरपूर जीने की चाह में बच्चे पैदा नहीं करते। डबल इनकम नो किड्स यानी डिंक कपल, तो जो बच्चे, पति-पत्नी के बीच पुल का काम करते हैं यानी उन्हें जोड़े रखते हैं, शादी के बंधनों में टूटन, बिखराव आने पर तुरंत ही अलगाव की स्थिति पैदा हो जाती है और उन्हें तलाक लेते देर नहीं लगती। अगर बच्चे हैं भी तो भी अब इस बात पर कम ही ध्यान दिया जाता है कि तलाक का बच्चों पर क्या असर पड़ेगा? ज़्यादा काम का दबाव वैवाहिक जीवन पर नकारात्मक असर डालने लगा है।
न्यूक्लियर फैमिली (एकल परिवार) के युग में परिवार को बाँधकर रखने वाले तत्व खत्म हो गए हैं। विवाह संस्था एक बड़े इम्तिहान से गुजर रही है। शादी को लेकर लोगों के व्यवहार और सोच में बदलाव आया है। एक दो साल नहीं बल्कि पैंतीस चालीस साल के वैवाहिक बंधनों को तोड़ने में संकोच नहीं किया जा रहा है। परिवर्तन की इस लहर ने युवा पीढ़ी से लेकर पुरानी पीढ़ी तक को जागरूक कर दिया है। मुद्दा चाहे आर्थिक हो, सेक्स की समस्या हो या परिवार की समस्या औरतें खुलकर सामने आ रही हैं। अब वे अपनी ज़िन्दगी को अफने तरीके से जीना चाहती हैं। समाज में अपनी पहचान बनाना चाहती हैं जबकि शादी के बाद उनकी अपनी पहचान, नाम सब कुछ खत्म हो जाता था। वे पति के नाम से पहचानी जाती थीं और परिवार के दायरे में सिमट जाती थीं। औरतें तो बदलाव ला रही हैं पर पुरुष खुद को बदलने को तैयार नहीं हैं। वे अभी भी पुरानी लीक पर ही चल रहे हैं। वे औरत के स्वतंत्र अस्तित्व को मानने को तैयार नहीं हैं। यही वजह है कि रिश्तों में दरार आ रही है और तलाक के मामले बढ़ रहे हैं। हालांकि महानगरों में युवा जोड़े बदल रहे हैं। वे मिल-जुल कर काम करने में यकीन करते हैं और शादी की पारंपरिक सोच से बाहर निकल रहे हैं लेकिन छोटे शहरों, गांवों में अभी भी शादी के बारे में वही रुढ़िवादी सोच बरकरार है। वहाँ औरतों की जागरूकता का प्रतिशत भी काफी कम बल्कि नहीं के बराबर है। तलाक को कानूनी मान्यता मिलने और उसमें निहित औरत की सुरक्षा के आदेशों पर कोई अमल नहीं करता। लिहाजा तलाक के बाद औरतें दर-दर की होकर रह जाती हैं। मुस्लिम महिलाओं की तलाक के बाद की दुर्दशा इस पर अध्याय इस्लामी औरत कठमुल्लाओं के लिए चुनौती में विस्तार से लिखा गया है। आर्थिक रूप से कमजोर, तिहरा तलाक, बहुविवाह और गुजारा भत्ता का अदा नहीं किया जाना जैसी समस्याओं से मुस्लिम औरत जूझ रही है। यह चौंकाने वाली बात है कि अन्य मुस्लिम देशों में तिहरे तलाक जैसी कोई प्रथा नहीं है। यदि कोई पुरुष दूसरा विवाह करना चाहता है तो उसे अपनी पहली पत्नी की लिखित इजाजत लेनी होगी।
हमारा समाज हमेशा से ही पुरुष प्रधान रहा है। उसकी हर व्यवस्था पुरुष का ही समर्थन करती रही है। आज स्त्री उस पर कसे बंधनों को खोलकर नई व्यवस्था का दामन थाम रही है। लड़कियाँ विवाह संस्था से बाहर निकलना चाहती हैं। स्त्रियाँ जैसे-जैसे शिक्षित होंगी विवाह संस्था के ग़लत नियमों का परित्याग करेंगी। दरअसल स्त्री की देह पर अधिकार के लिए विवाह संस्था का गठन हुआ। सर्वोच्च न्यायालय ने एक निर्णय में कहा कि हर बच्चा अपने पिता कि जाति से जाना जाएगा और वहीं दूसरे निर्णय में कहा गया कि जात-पात को खत्म कर दिया जाए। न्यायपालिका में एक ही बात को लेकर विभिन्न मत हैं। दरअसल, कानून की जटिल प्रक्रिया स्त्रियों के लिए नई-नई समस्याएँ खड़ी कर रही हैं। स्त्री पर वैसे भी लगातार अत्याचार होते रहे हैं। विवाह संस्था के टूटने का एक कारण यह भी है कि इसके तहत महिलाओं के खिलाफ हिंसा करने में पुरुषों को आसानी रहती है क्योंकि घर की सारी जिम्मेदारियाँ औरतों के ही जिम्मे रहती हैं। लेकिन अब समीकरण बदल रहे हैं। अब लिव इन रिलेशनशिप की जड़ें छितराती जा रही हैं। लिव इन रिलेशनशिप के रूप में आजकल युवा पीढ़ी ने ज़िन्दगी जीने का एक नया तरीका खोज निकाला है। शादी की तरफ एक कदम या फिर शादी का विकल्प। कई देशों में इसे मान्यता भी मिल गई है। इस रिश्ते में दो लोग वैवाहिक बंधन की तरह साथ रहते हैं। उनकी निगाह में यह कानूनी शादी से सिर्फ़ एक बात में अलग है कि इसमें कानूनी दस्तावेज नहीं होते। लेकिन इसके बावजूद इस तरह की रिलेशनशिप शादी की तुलना में अधिक फायदेमंद है। आर्थिक दृष्टि से घर के सभी खर्चे दोनों साथियों के बीच बंटे होते हैं। वे आर्थिक मामलों में पूर्णतया स्वतंत्र है। चाहे जिस भी मद में कितना भी खर्च करें कोई टोकने वाला नहीं है। आपसी असहमति होने पर यह रिश्ता आसान से तोड़ा जा सकता है। बिना किसी कानूनी, भावनात्मक या घरेलू रुकावट के। पति या पत्नी जिन उम्मीदों, वादों और जिम्मेदारियों को न निभा पाने के कारण तलाक के कगार पर पहुँच जाते थे ऐसे रिलेशनश्पि में उशसे छुटकारा मिलता है।
लिव इन रिलेशनशिप की बढ़ती तादाद ने भारतीय समाज को बदलाव के लिए मजबूर कर दिया है। इन रिश्तों में स्त्री को नुकसान न हो इसलिए सुप्रीम कोर्ट और राष्ट्रीय महिला आयोग ने इस बात पर जोर दिया है कि ऐसी महिला को गुजारे भत्ते का पूरा हक है और साथ ही ऐसे रिश्ते से पैदा हुए बच्चे पूरी तरह कानूनी हैं और उनका पिता कि संपत्ति पर पूरा अधिकार बनता है।
अब धीरे-धीरे पूरी दुनिया में विवाह संस्था पर से विश्वास उठता जा रहा है। बुकर पुरस्कार से सम्मानित भारतीय मूल के लेखक सलमान रश्दी का कहना है कि वे शादी नाम की संस्था पर यकीन नहीं करते। बिना रिश्ते के हमसफर बनना एक स्वस्थ शुरुआत है जिसमें स्त्री पुरुष दोनों खुलकर जी पाएंगे। ऐसी रिलेशनशिप से औरतों के उत्पीड़न में भी निश्चय ही कमी आएगी।