चाक / मैत्रेयी पुष्पा / पृष्ठ 2
समतल जमीन पर धर दी देह। चादर डाल दी। सास ने पछाड़ खाई तो चचिया सास ने रो-रोकर बैन किए। थानसिंह की घरवाली छाती कूटने लगी।...ये मौत पर किए गए जरूरी विधान....मैं सूखी आँखों देखती रही। आँसुओं के वे ही कतरे तापभरी प्रचंडिनी घटा बनकर घुमड़ रहे हैं। गड़गड़ाकर उस हत्यारे को दबोच लेना चाहते हैं, जिसने... मैंने बहन के अंतिम दर्शन किए, उसके अजन्मे बालक को छाती से लगाया कि खुद ही भस्म होने लगी उसके संग-संग...। इनका खून किन हथेलियों में लगा है ? कौन था इतना कायर ? मेरे वे ही आँसू किस कदर बिफरते हैं रंजीत ! खयालों की फौजें छाती को रौंदती हैं—तुम उठो !
‘तू बड़ी नादान है सारंग !’
बूढ़ी खेरापतिन दादी स्त्री की अंतहीन व्यथा की साक्षी बनकर बहलाती हैं उसको। अपनी अनेक लोककथाओं, गीतकथाओं की मार्फत उसी करुणा को खेलती हैं, बार-बार—
‘चंदना की कथा और क्या है बेटी ?’ वृद्धा का सलवटें पड़ा गोरा चेहरा कँपकँपा उठता है। ढीले होंठ थरथराते हैं।
‘दादी, मुझे चंदना से रेशम तक की कहानी मालूम है, पर अब आगे मत जाना दादी...आगे जाओगी तो प्रलय...आगे जाओगी तो संसार खत्म......आगे जाओगी तो रसातल....बस करो दादी, बस !’’ सारंग हाथ जोड़कर गिड़गिड़ाती है।
पर दादी क्या करें ? उनका मानना है कि जो माता बेटी जनती है, उसकी साँसे मरते दम तक काँटों में उलझी रहती हैं। आत्मा शूलों से बिंधी घिसटती रहती है। जिंदगी सूली पर टँगी रहती है। लोकाचार और जगत-व्यवहार में आनेवाली परम्पराएँ सारे अपयश की गठरी बेटी के सिर धरकर न जाने उसे कब संगीन से संगीन सजा देने की हिमायती हो उठें ? दादी के आखरों का सार यही है—बेटी की मइया सुख की नींद सोई है कभी ? बूढ़ी खेरापतिन इस व्यथा को गीत की लय में ढालने से पहले काँपती आवाज में यह सवाल जरूर पूछती हैं—घर की आबरू धिय-बेटी की देह में धजा की तरह नहीं गड़ी रहती भला ?
फिर कोई मंगलाचरण न देवी-वंदना। सूरज-चन्द्रमा की स्तुति न धरती मइया को प्रणाम। केवल कुछ बूँदें आँसू मटमैली पुतलियों पर छा जाते हैं, और मुरझाए हुए गालों पर ढुलक पड़ते हैं। जमाने की मार खाई हुई झुर्रीदार चमड़ी की आड़ी-तिरछी रेखाएँ भीग उठती हैं।
झुंड के रूप में पास बैठी स्त्रियाँ समझ लेती हैं—खेरापतिन ने भैमाता (सृष्टि की देवी) के चरणों में जल ढार दिया। अनकहे ही कह दिया—मइया, तेरी सिरजना में ऐसी दुभाँति ! कोख देकर कोख का महापातक दिया बेटियों को..... बूढ़ी गा उठती है....
तीजन चरचा चंदना की चल रही जी,
ए जी कोई मच्यौ है सहर में सोर—
सिर बदनामी चंदना बेटी लै रहीं जी ऽ ऽ ऽ...
अगली कड़ी गाने से पहले दादी का कंठ विश्राम लेना चाहता है। फूली हुई साँस थमती है कि लय न टूटे कहीं, कड़ी न बिखरे।
बोल रे बोलो जा गाम के पंडितै जी
ए जी कोई चंदना की गौनों सुधवाउ
सिर बदनामी चंदना बेटी लै रहीं जी ऽ ऽ ऽ...
दादी खँखारकर गले को साफ करती हैं। कंठ में पानी का गोला अटका है। नाक से ‘सुन्न सुन्न’ की ध्वनि निकल रही है।
वह गीतकथा निर्जीव होती है, जो पूरे भाव के साथ न सुनाई जाय। दादी हाथ और उँगलियों के संकेतों से समझाती हैं—महतारी अभागिन, बाप बेबस ! चंदना के गौने की चिट्ठी सावन के महीने में लिखवानी पड़ी, जब गाँव की बेटियाँ पीहर लौट रही थीं...
सेत पै स्याही पंडित के ने करदई जी,
ए जी कोई दैदई नाऊ के के हाथ—
चिठिया तौ पहुँची सजन जी के थान पै जी ऽ ऽ ऽ..
-दीवानखाने में कँवरजी की मजलिस लगी है। जन-परजा बैठी है। सावन मास में ससुराल का नाई ! कुँवरजी चकित हैं। किस कारण आया ? चंदना तो माई-बाप के यहाँ है। चिट्ठी पढ़ते समय की आँखों की रंगत बदली। पुतलियों पर खून उतर आया, दसों दिशाएँ जलने लगीं। सन्नाकर उठे कुँवरजी। घुड़सार में गए, नीलबरन घुड़िला के ऊपर जीन कसी। लगाम पकड़कर माता के चरन छूने आए, और हो गए असवार घोड़ा की पीठ पर। चंदना का पीहर—पेसवाजी—खातिरदारी की क्या बात कि चत्तुरसारी में पचरंग पालिका, मखमली विछौना, रेसमी गेंदुआ। छप्पन भोग, छत्तीसो व्यंजन।
-पर जिसकी छाती में अपनी स्त्री ने ही बान मारा हो, उसको भूख कहाँ, नींद कहाँ ? औरत जात....यह हिम्मत ! जिसके जीवन की डोर कुँवरजी के हाथों में थमी है, वह पराये खेत में मुँह मारने की जुर्रत करे ! खिंचवा लेंगे नाका डालकर। पौहे-पसु और तिरिया को बस में रखने के लिए हर समय नाका रखना पड़ता है। उसकी भूल मालिक की इज्जत पर भारी पड़ती है।....कोड़ा ! कोड़ा !
-पर चंदना ! जिसने मन-प्रान से सकल जैसे सखा को चाहा हो, अपने बस में रहे तो कैसे रहे ? ब्याह हो गया, पर मन नहीं बंध पाया। पिता ने कन्यादान कर दिया पर चंदना मन का दान कर बैठी सकल के हाथ। नादान छोरी मछली सी छटपटाने लगी। कल जाना होगा ! सकल को छोड़कर चले जाना है ! अब के बिछुड़े कब मिलें....? सकल से भेंट करने की मनोकामना में तड़पती हुई चंदना एक-एक घड़ी रात काटने लगी।
-आधी रात बीत गई। तारों से आसमान भर गया। अँधिरिया धरती पर पसरी है...चंदना तारों की छाँव चल दी। ऊपर को देखा—पेड़ों पर पंछी-परेबा सोए हैं। नीचे को देखा—गली में कुत्ते बिल्ली औंघ रहे हैं। पर सावन का महीना...घनघोर घटा घिरी थी। बादल गड़गड़ाया और एक मोर नीम के पेड़ पर अचानक फड़फड़ा उठा। चंदना काँप गई। नन्हीं बच्ची सी सिकुड़-सहमकर दीवार से चिपक गई।
‘सकल !’
‘हाँ !’
‘यहाँ !’
‘तुम्हारी राह में खड़ा था। मैं जानता था कि तुम...’
चंदना की राहें उजियारे से भर गईं। सकल चंदना को छाती से लगाकर तड़पने लगा..बूढ़ी खेरापतिन का हिया गाते समय कलप-कलप उठता है—
अब के तो बिछुड़े पाँखी पंछी कब मिलें जी,
ए जी कोई हुए री करेजा के टूँक,
जतन बता जा चंदना अपने मिलन कौ जी ऽ ऽ ऽ..
चंदना रोती रही ज़ार-ज़ार...सकल ठहरा सुनार का बेटा, मुँदरी लाया था—चंदना की उँगली में पहनाते समय बोला— इससे ज्यादा क्या है मेरे पास ?
सबेरा हुआ। बिदा हो गई।
चंदना रोती-कलपती, पीछे को मुड़-मुड़कर देखती हुई माता-पिता और सकल को गाँव के सिवाने पर छोड़कर चल दी। नाइन ने लोटे में से पानी पिलाया था—चंदना ने चाँदी के सिक्के के संग अपनी कंगनियाँ लोटे में डाल दी—सकल को दे देना। मेरे माँ-बाप की देहरी हरी रहे, मेरा गाँव फले-फूले—नाइन ने चंदना से ये दो बोल कहलाए।
‘नीलबरन घोड़ा की चाल जैसे गरुन महाराज की असवारी !’ दादी उँगली उठाकर ऐसा संकेत देती है, जैसे चंदना चलते-चलते थक गई हो। एक वन लाँघा, दूजे वन आए और तीजे वन में आकर कुँवरजी बिसराम को रुके। दोनों पिरानी तोसक बिछाकर बैठ गए। चंदना की झीनी-गुलाबी चुनरी और लंबा घूँघट—नाक की नथुलिया बिजुरी सी चमकी। उठती-गिरती पलकें। मालिक देख रहे हैं....कुँवरजी ने सवाल किया फिर—
कहा गढ़ायौ चंदना माई बाप ने जी,
ए जी कोई कहा तौ रे दियौ भइया बीर
कहा गढ़ायो सकल सुनार ने जी ऽ ऽ ऽ