चाक / मैत्रेयी पुष्पा / पृष्ठ 1

Gadya Kosh से
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एक

काश यह मौत होती !

मगर यह हत्या ! पतित स्त्री, गर्भिणी औरत की हत्या !!

सारंग की बहन रेशम मौत के घाट उतार दी गई—बुआ की बेटी रेशम, उम्र में उससे ठीक पाँच वर्ष छोटी। मजबूत कदकाठी के चलते कसी-ठुकी देह और गुलाबी दूध सा जगमगाता रंग...अब रेशम कहाँ ! रेशम एक लाश, फिर मुट्ठी-दो मुट्ठी खाक में बिखरती...अँधियारी ने ढक लिया उजियारा, सारंग को कुछ नहीं सूझता। आँख फाड़-फाड़कर देखती है—चारों दिशाओं में घिरी कालिमा...

गाँव की सहज सरल दिनचर्या में अचानक धमाका हुआ, धरती हिल उठी। रात-दिन काँप गए। हाय-हाय, त्राहि-त्राहि के भयानक दर्द-भरे कोलाहल में डूब गई गँवई धरती...लेकिन कुछ घड़ियों के उफान के बाद ठंडी शांति की फरेबी परतें....धीरे-धीरे उतरने लगीं ! सारंग का कलेजा फटकर चिथड़ों-चिथड़ों में बिखरने लगा। सहज सामान्य गति पकड़ता...जीवन उसे भयभीत कर रहा है। स्त्रियाँ जिंदगी के गीतों, संस्कारजनित उत्सवों और रोजमर्रा की जरूरतों के चलते अपने-आपको प्राकृतिक लीला में उतार रही हैं ! या कि भीतर से उमड़ते करुण खूँखार हाहाकार को पीकर महाविनाश को चुनौती देती हुई जीने की अदम्य चेष्टा कर रही हैं ! शायद पिए हुए समस्त विष को अपनी मुस्कानों में ढालकर अमृत कर देना चाहती हैं ! नहीं, शाश्वत सत्य की तरह उजागर होती हुई अनहोनी को पहचानते हुए भी अनजान बने रहने का ढोंग !

इस गाँव के इतिहास में दर्ज दास्तानें बोलती हैं—रस्सी के फंदे पर झूलती रुकमणी, कुएँ में कूदनेवाली रामदेई, करबन नदी में समाधिस्थ नारायणी—ये बेबस औरतें सीता मइया की तरह ‘भूमि प्रवेश’ कर अपने शील-सतीत्व की खातिर कुरबान हो गईं। ये ही नहीं, और न जाने कितनी...

बूढ़ी खेरापतिन, जिनका जीवन गाँव की पुरोहिताई करते बीता है, इसी तरह की करुण कथाएँ सुनाती हैं, भले वे आधी-अधूरी हों। ख्यालीराम, ढोलावाले ‘दादू’, तन्मय होकर ऐसी अनेक गीतकथाएँ सुनाते हैं सुनाते हैं गाँव-समाज को, जिनमें अकाल मौत को ‘विपता’ के सिर मढ़कर, कभी भाग्य के गले डालकर असल कातिल को बेदाग बचा लिया जाता है।...मगर दादू और खेरापतिन सजल नेत्र, रुँधे कंठ गाते जाते हैं निरंतर, धीरज क्षीण होता जाता है आहिस्ता-आहिस्ता...हिल्की भर आती है।

नई पीढ़ी विश्वास नहीं करती—कहानी-किस्सों की बात पर रोना-धोना ! सठिया गए हैं दोनों बूढ़े।....लेकिन कहाँ मानते हैं दोनों पुरख़ा, गीत की कड़ियों की धार से लहूलुहान हो जाती है धरती—लाल-लाल खून के दाग...

किस्से-कहानियाँ नहीं हैं गीतकथाएँ, जिंदगी और मौत के अनमिट दस्तावेज हैं। रेशम का वध न हुआ होता तो सारंग भी हँसकर टाल जाती, और यह बेरहम घटना धरती में दफन हो जाती धीरे-धीरे—सीता मइया की भूमिसमाधि—देवी-देवता नहीं बच सके करम गति से, रेशम तो साधारण प्राणी...

-खेरापतिन दादी, आज तुम्हारी गाई हुई गीतकड़ियों की स्वरतरंग भयानक बवंडर की तरह चपेट रही है मुझे...धरती आसमान हिल रहे हैं, रूखे पेड़ थर्रा रहे हैं। पंछी-परेबाओं ने चिचियाना आरंभ कर दिया....गली-गैलों को रौंदता हुआ खौफनाक जलजला चला आ रहा है, मैं सुन्न...

असाढ़ की उमसभरी काली रात ! निस्तब्धता तोड़ता हुआ मोर फड़फड़ाता है चौक में खड़े पीपल पर। मोरनी पंख फटफटाती हुई कोंकियाती है—करुण रोदन ! सारंग बुरी तरह चौंकी। सिकुड़कर आधी हो गई। यह मोर नहीं, रेशम की दर्दनाक पुकार—ओ बीबीऽऽऽ...बीबी ऽऽऽ ! सारंग विकल मन सोच की रस्सियों से बँधी हुई...

-मैं छटपटा-छटपटाकर खत्म हो जाऊँगी रेशम ! तू अपनी बहन की व्यथा इतनी न बढ़ा। सारे दुख-दर्द सोखकर जूझनेवाली तू...मुझे अपनी तरह मजबूत समझ रही है ! ना री, मैं निरी कमजोर औरत...जी पा रही, न मर ही सकी।

उठकर बैठ गई सारंग। बराबर में रंजीत सोए हुए हैं। अँधियारे में पति का सोया हुआ रूप साकार है उसकी आँखों में। इतना अँधेरा बर्दाश्त नहीं होता रंजीत ! दम घुटता है। वह पति की मजबूत साँसों को शिद्दत से महसूस करने के लिए उनके ऊपर झुक आई। अपने भीतर उजाले की महीन-सी रेखा पैदा करना चाहती है। ‘....मेरा दुख कम करने की ताकत तुममें है रंजीत !’ उनके चौड़े कंधों को टटोलने लगी। और मन को मजबूत करती हुई भीतर ही भीतर पुकार उठी—‘तुम जागो रंजीत ! उठो ! तुम्हारे सिवा मेरा कौन...’

हाथ कंधें से होता हुआ माथे पर आ गया—चौड़ा माथा, घनी भवें ! सारंग की नरम हथेली का स्पर्श पाते ही रंजीत की पलकें कुनमुनाईं, जीवन की सी लहर।

उसके मन से उठी पुकार ने धरती से आसमान तक एक गूँज कायम कर दी—देखो रंजीत, मैं क्या देख रही हूँ। सुनो, मैं क्या सुन रही हूँ। यदि महसूस कर सकते हो तो उसी तरह अनुभव करो, जैसे मैं कर रही हूँ।....इस मनहूस रात का सामना हमें....

रंजीत की आँखों में उठी हलचल बंद हो गई, सारंग की साँसें थमने लगीं। अपनी ही आवाज की उदास प्रतिध्वनि में घिरी हुई विकल।

‘अरे ! तुम रो रही हो !’ वे उठकर बैठ गए उनींदे से।

अलसाया हुआ हाथ उसकी पीठ पर फिराते हुए, ऊँघती आवाज में बोले, ‘‘सारंग, जो होना था हो गया। रोकर क्या होगा ? चुप हो जाओ..चुप, चुप !’ कहकर अपने होंठ उसके सिर पर रख दिए अँधेरे में.... ‘‘सच कहते हैं रंजीत। सब्र न आए तो भूख-नींद का सिलसिला खत्म हो जाएगा। पागल होती जा रही हूँ मैं। काम-धंधा सब ठप्प !’’

‘सारंग, संसार में जो आया है, जाएगा। रेशम के जाने का बहाना यही था। संसार की लीला यही है। तुम गीता पढ़ा करो।’ रंजीत ने पत्नी को बाँहों में भर लिया और छाती से लगाकर सुला लिया।

सारंग के सीने में फिर तूफान घिरा। फिर बवंडर उठे। ज्वार ठाठें मारने लगा—मैं दहशत से काँप उठती हूँ। चारों ओर पिशाच ही पिशाच...घिर गई हूँ। उस हादसे को तुम भूल गए रंजीत ? सच कहना तो ! या कि मैं ही बाबरी हो चली ?

...मैं नहीं भूलती, लेकिन...

तमाशगीर आ गए। भीड़ जुट गई। चार-पाँच लोग फावड़े ले-लेकर आ रहे हैं। खोदने का सिलसिला चालू हुआ। बिटौरा (कंडा और गोबर से बना घरौंदा) की सूखी जर्जर लैमन का मलवा हटाया जाने लगा। मेरी आँखों के आँसू धुएँ की तरह फैलने लगे—मेरी बहन की कटी-फटी दूधिया देह चिथड़ों-चिथड़ों में निकलेगी—सँभालकर फावड़े चलाओ रे लोगों, उसके और न चोट लगे...पेट के भीतर का जीव....बचा लो रे कोई...

रेशम का छोटा जेठ डोरिया—छत्तीस-सैंतीस वर्ष का गबरू जवान...नरपिशाच ! मोटी गर्दन के समतल घुटी खोपड़ी पर पसीने की बदबूदार धारें...मैं इस समय भी साफ-साफ देख रही हूँ रंजीत, वह बड़ी मुस्तैदी से मलवा हटा रहा है। गजब की फुर्ती है उसके पहलवानी हाथों में। बनैले जानवर की तरह शिकार को फाड़कर खा जाने की फुर्ती !

रेशम का बड़ा जेठ—थानसिंह मास्टर ! शराफत में डूबा चेहरा...शोक में सने खड़े हैं। ‘जल्दी करो, जल्दी करो’ का गहरा और भारी स्वर...पर उस धर्मपुत्र की आवाज मेरे कानों के पर्दों को फाड़े डाल रही है।

मेरी नजर रेशम के ससुर ‘साध जी’ से जा टकराई। बूढ़े रथ की तरह, लंबे-चौड़े शरीर पर झुके हुए, लठिया के सहारे खड़े रुआँसे—सोगवार हैं। उनकी बड़ी-बड़ी सफेद मैली मूँछें और उसी रंग की घोंसले सी दाढ़ी बड़ी दयनीय लग रही है। मेरे घूँघट ने केवल इन तीनों को ही देखा, या और कुछ भी ? नहीं मालूम।

हाहाकार बराबर मच रहा था—चलियो रे ! बचइयो रे ! जुलम हो गया !

शोर ने मौत को चादर की तरह ढक लिया। दिन डूबने को था, गाँव के घर खाली होते जा रहे थे। सारी जनता बिटौरा और घूरे के आसपास अँट गई।

स्त्री-पुरुष, बच्चे-बूढ़े....जितने मुँह उतनी बातें—

‘अरे भाई, जैसी भी थी, गाँव की बहू थी।’

‘भाग की पोच (कमजोर) निकली।’

‘मौत का हाथ बड़ा लंबा होता है, कहाँ से खेंच लाया करम की मारी को !’

‘अरे, जितनी उमर लिखाकर लाई थी, उतनी ही तो भोगेगी।’

‘सती थी भाई। करमवीर (पति) को मरे छः महीने भी पूरे नहीं हुए, लो खुद भी चोला छोड़ दिया।’

‘अरी ऐसा भाग कितनियों का कि मालिक के पीछे ही पीछे चल दे।’

‘सारंग नहीं रोई।’

‘मइया, बड़ी कठकरेज लुगाई है। बहन मरी और यह देखो बर्द की सी निर्जल आँखें...’

मुझे किसी ने हौल से देखा, किसी ने घृणा से। किसी ने धिक्कार से, तो किसी ने तरस खाकर।