चाक / मैत्रेयी पुष्पा / समीक्षा

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पिछड़े गांव की स्त्री और व्यक्तिगत संघर्ष
समीक्षा:दयानंद पांडेय

मैत्रेयी पुष्पा के उपन्यास ‘चाक’ में एक स्त्री, एक पुरुष के भीतर पुंसत्व जगाने के लिए देह समर्पण करती है और दूसरे संदर्भ में एक स्त्री अपने संघर्ष के सहचर मित्र के घायल होने पर अचानक इस हद तक आसक्ति अनुभव करती है कि उस के प्रति समर्पित हो जाती है। यानी दोनों प्रसंग यौन शुचिता की बनी बनाई धारणा को तोड़ते हैं। यह दोनों स्त्रियां क्रमश: ‘चाक’ की कलावती चाची और सारंग हैं। ‘चाक’ में एक संवाद है कि

‘हम जाट स्त्री बिछुआ अपने जेब में रखती हैं। जब चाहती हैं पहन लेती हैं जब चाहती हैं उतार देती हैं।’

इस संवाद के बहाने मैत्रेयी स्त्री में बगावत के बीज बोना चाहती हैं। बीते कुछेक वर्षों में ही मैत्रेयी पुष्पा ने हिंदी कथा साहित्य में महत्वपूर्ण हस्तक्षेप किया है।

कलावती चाची और सारंग जैसे महिला चरित्रों ने मैत्रेयी पुष्पा को एक समय चर्चा के शिखर पर बिठा दिया था। आज भी उस की गूंज गई नहीं है।

‘चाक’ में एक बहुत पिछड़े गांव की स्त्री सारंग व्यक्तिगत संघर्ष को पूरी दृष्टि के साथ सामाजिक संघर्ष में बदलती है और स्त्री की मुक्ति का एक अनोखा दर्शन प्रस्तुत करती है। पुरुष प्रधान सामंती समाज के विरुद्ध खड़े होने पर जो साहस वह दिखाती है वह स्त्री मुक्ति पर नए सामाजिक रक्षण के रूप में देखने लायक है। वास्तव में मैत्रेयी पुष्पा आंचलिकता की उसी ज़मीन पर खड़ी हैं जिस पर रेणु खड़े मिलते हैं, लेकिन मैत्रेयी पुष्पा रेणु से भी आगे हैं तो इस लिए कि उन के यहां उन की अंतर्वस्तु बहुत अग्रगामी और क्रांतिकारी नज़र आती है। अब तो अल्मा कबूतरी, इसुरी फाग जैसे उपन्यास और उन की आत्मकथा कस्तूरी कुंडल बसे भी आ कर चर्चा में आ चुकी हैं। राजेंद्र यादव से उन का जुडाव भी खूब चर्चा में आया। तब और जब उन्हों ने मैत्रेयी को एक बार मरी हुई गाय कह दिया। अभी बीते दिनों नया ज्ञानोदय को दिए गए एक इंटरव्यू में जब विभूति नारायन राय ने लेखिकाओं को छिनाल शब्द से नवाज़ा, तो मैत्रेयी ने विभूति नारायन राय समेत नया ज्ञानोदय के संपादक रवींद्र कालिया और उन की मंडली को जिस तरह अकेलेदम दौड़ा लिया, और बहुत दूर तक। वह भी हैरतंगेज़ था। मंज़र यह हो गया कि जैसे शिकारी ही शिकार से भागने लगा। और भागते-भागते हांफने लगा हो। अंतत: विभूति नारायन राय और रवींद्र कालिया को आफ़िशियली, सार्वजनिक रुप से इस के लिए माफ़ी मांगनी पड़ी। मैत्रेयी जैसे विजयी नायिका बन कर उभरीं।


उपन्यास उद्धरण

लेखिका मैत्रेयी पुष्पा के उपन्यास चाक की नायिका सारंग किशोरी बालिका के रूप में ‘सत्यार्थप्रकाश के बीच रखी ऋतुसंहार की पतली सी किताब पढ़ती है’ और बताती है ‘40 वर्ष की अवस्था के, गोरे रंग और लंबे कद के मुलायम मुख वाले शास्त्री जी की छवि बुरी तरह तंग किए थी. खादी के वस्त्र पहने हुए – काश महीन वस्त्र पहने होते. मैं भोग की इच्छा रखती हुई भी शास्त्री जी की बांहों में फिसल रही थी.’ ( चाक, पृ. 89-90).

अधेड़ उम्र की भाभी रिश्ते के ननदोई की मालिश करती है, ‘ज्यादा ही सरमदार का घुसला बन रहा था, तैमद ऊपर को सरकावै ही न. लत्ता जितना ही ऊपर उठाऊं , उतना ही भींचता जाय तैमद को. मैंने कही, लुगाई है रे तू? जबरदस्ती तैमद खोल कर फेंक दिया बंजमारे का… मैंने ऐसी मालिश करी जैसे छः महीने का बालक हो और फिर खाट पर लोट गई उसके बरब्बर में. बोल दिया कि लल्लू कैलासी, भूल जाओ रिश्ते नाते… और फिर ये तो देह रहते के खेला हैं रे. पाप पुन्न मत सोचना’ ( चाक, पृ.104).

रंजीत की पत्नी सांरग श्रीधर के साथ आनंद में मग्न है, ‘श्रीधर, अगर तुम्हारी आंखें इस देह को देख कर आनंद पाती हैं तो जी भर कर देखो मुझे. मेरी सुंदरता सार्थक हुई. भोग करने से तुम्हारे प्राण तृप्त हों तो आओ रात बाकी है अभी’ (पृ. 329 चाक)?

जून, 2008 के संपादकीय में राजेंद्र यादव कहते हैं, ‘औरतों के पास उनकी देह है वरना योग्यता के नाम पर उनके पास रखा ही क्या है.’ मैत्रेयी पुष्पा की नायिका कहती है, ‘मेरे पास था ही क्या – हरी भरी देह.’ ( चाक, पृ. 329 )

ग्रामीण जीवन की चर्चित चितेरी मैत्रेयी पुष्पा की ग्रामीण स्त्री कहती है, ‘चल लुच्ची, हम जाटिनी तो जेब में बिछिया धरे फिरती हैं. मन आया ताके पहर लिए.’ ( चाक, पृ.104). लेखकीय वक्तव्य पढें >>