चाल / रवीन्द्र कालिया / पृष्ठ 1

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उस दिन शनिवार था और शनिवार को उस चाल के पिछवाडे मैदान में सूखी मछली का बाजार लगता था। इस मैदान की एक अपनी दुनिया थी। सोम से शुक्र तक इसका माहौल अत्यन्त डरावना रहता। रात को कहीं किसी पेड के नीचे मोमबत्ती या दिया टिमटिमाता और उस अंधेरी रोशनी में देर तक ताश और मटका चलता। भिखारियों, जुआरियों, लूलों-लंगडों का यह प्रिय विश्रामस्थल था। ड्रेंगो इस मैदान के 'दादा' का नाम था। वह गले में रूमाल बाँधे अक्सर इस मैदान के आस-पास नजर आता। बिना ड्रेगों को दक्षिणा दिए इस मैदान में प्रवेश पाना असम्भव था, मगर शुक्र की रात से ड्रेंगो की सल्तनत टूट जाती। ड्रेंगों की एक प्रेमिका थी-मारिया। वह पास के ही एक सिनेमाहाल में ब्लैक में टिकटें बेचने का धंधा करती थी। शुक्र की रात ड्रेंगो उसके यहाँ चला जाता और उसके काम मे हाथ बँटाता। मैदान में उसकी दिलचस्पी खत्म हो जाती। शाम को जब जमादार झाडू लगाता, तो बहुत विचित्र किस्म की चीजें कूडे में मिलतीं। नौटांक की खाली बोतलें। चिपचिपे निरोध। ताश के पत्ते। मटके की पत्रिकाएँ। सूखी हुई रोटियाँ। हडि्डयाँ। सिनेमा की टिकटें। और कभी-कभी कोई लाश। दिन भर कौवों की कांव-कांव सुनाई देती और रात देर तक कुत्तों के रोने की आवाज़। की रात यह मैदान रोशनी से जगमगाने लगता। उस बस्ती में टैक्सी मिलना दुश्वार हो जाता। मछुओ-मछुवारिनों का दल रात-भर में अपनी दुकानें बैठा लेता, सूखी हुई मछली के बडे-बडे अम्बार लग जाते और दूर-दूर तक बस्ती में मछली की गंध गमकने लगती। चाल के लोग बडी तत्परता से मैदान की और खुलने वाली खिडकियाँ बन्द करने लगते। सुबह होते-होते अहाते के बाहर मछली बाजार के समानांतर एक और बाजार लग जाता, जिसमें आलू प्याज से लेकर 'हरचीज दस नये की' जैसी चीजें बिकने लगतीं। गुब्बारे, चाट, सिंदूर, पुराने कपडे, धोतियाँ, साडियाँ, पतलूनें, कमीजें, पुराने जूते, लाटरी, वेणी, पाँच नये में भाग्य आजमाओं और दस नये में ताकत। शुद्ध शिलाजीत, भीमसेनी काजल। ताजा मुर्ग मुसल्लम। गर्म चाय। गर्ज यह कि धीरे-धीरे मछली बाजार मेले के रूप में बदलने लगता। सूखी मछली से लदे बीसियों ट्रक आते और मछली से लद कर बीसियों ट्रक लौट जाते। मछली बाजार से निकलते ही मछुवारिनें अपनी हफ्ते-भर की कमाई का कुछ हिस्सा वहाँ खर्च कर देतीं। शीघ्र ही यह दल वरसोवा की ओर लौटने लगता, पैदल, बसों में, टेक्सियों में और खाली ट्रकों में लद कर। बाजार के उठते ही धीरे-धीरे मैदान की ओर वाली चाल की खिडकियाँ खुलने लगतीं। प्रकाश के कमरे में एक ही खिडकी थी और वह इसी मछली बाजार की तरफ खुलती थी। शायद खिडकी के लिए कमरे में दूसरी जगह थी भी नहीं। बीच में दीवार खींचकर रसोई और पाखाने का इन्तजाम कर दिया गया था। यही कारण था कि चाल में कमरों का भाड़ा और पगडी अपेक्षाकृत कम थी। चाल के मालिकान लोग अक्सर सरकारी कार्यालयों से आसपास मंडराते रहते थे। मछली बाजार इस मैदान से उठाने के लिए वे कोई भी रकम खर्च करने को तैयार थे। उन्हें मालूम था कि मछली बाजार के उठते ही उनकी आमदनी में आशातीत वृद्धि होगी। पुराने किरायेदार अधिक पगडी के लालच में कमरे छोडने लगेंगे और नए किरायेदारों से मनमाना किराया ऐंठा जा सकेगा। नगर निगम ने चाल के आसपास कच्ची सडकें बनावा दी थीं। थोडी ही दूर पर स्टेशन जाने के लिए बस मिलती थी। डाकखाना खुल गया था, बच्चों के लिए एक छोटा-सा उद्यान बन चुका था। मकान मालिकान ने किसी तरह से बिजली का कनेक्शन ले लिया था अब अगर मछली बाजार भी उठ जाए। यह चाल किरण के कालिज से बहुत दूर पडती थी, मगर किराये को देखते हुए इससे उपयुक्त स्थान उन्हें नहीं मिल सकता था। पाँच सौ रुपए पगडी और पचास रुपए किराया। लैट्रिन बाथरूम अटैच्ड। शहर में रहते हुए गाँव का मजा। किरण सुबह जल्दी में रही होगी, वह खिडकी बन्द करना भूल गई थी, और प्रकाश के लिए अब सूखी हुई मछली की गंध के बीच और अधिक लेटे रहना नामुमकिन हो गया था। वह हडबडा कर उठा और उसने खिडकी बन्द कर दी, मगर मछली की गंध तब तक सारे कमरे में रच-बस चुकी थी। आखिर उसने खिडकी खोल दी और दरवाजा भी और अपने को उस गंध के सुपुर्द कर दिया। प्रकाश ने देखा, किरण जाने से पूर्व उसके लिए नाश्ता और दोपहर का भोजन बनाकर जाली में रख गई थी। अक्सर वह किरण के साथ ही नाश्ता किया करता था। मगर उस रोज वह देर तक सोता रहा था। सोता क्या रहा, लेटा रहा था। बिना हिले-डुले। किरण की ओर पीठ किए। वह नहीं चाहता था, किरण से उसकी आँखें मिलें। उसे लग रहा था, कल शाम उसकी मौत हो गई थी और अब किरण के जाने के बाद ही उसका पुर्नजन्म होगा। वास्तव में वह रात-भर सोया नहीं था। रात-भर ठंडा खून खौलता रहा, जैसे खटिया के नीचे धू-धू आग जल रही हो। पड़े-पड़े ही वह कई बार गुणवंतराय की हत्या कर चुका था, मगर दूसरे ही क्षण वह गुणवन्त राय को ठहाके लगाते हुए और स्वयं को अशक्त पाता। जैसे उसके शरीर का सारा रक्त निचुड गया है, और वह किरण के साथ अपने ही खून के तालाब में गोते खा रहा है। प्रकाश ने बर्तनों की खनक से पडे-पड़े ही जान लिया था कि किरण जग गई है। प्रकाश का खयाल था कि किरण आज कालिज नहीं जाएगी, कभी कालिज नहीं जाएगी और वह टैक्सी चालाना सीख लेगा। बंतासिंह दयालू आदमी है। उसे टैक्सी चालाना भी सिखा देगा और भाडे की टैक्सी भी दिलवा देगा। टैक्सी में ही वे अपने दोस्तों से मिलने जा सकते हैं। टैक्सी वह सबर्ब में ही चलाएगा। अंधेरी कुर्ला रोड पर टैक्सी मिलना कितना मुश्किल है। बंतसिंह से उसकी दोस्ती हो जाएगी। वह चाल में सबसे पहले उठता है। और देर तक टैक्सी पोंछते हुए 'धन्न बाबा नानक जेन्हें जग तारिया' गुनगुनाता रहता है। टैक्सी का लाइसेंस मिलने में दिक्कत हुई, तो वह अपने दोस्त की तरह 'टाइम लाइफ' की एजेंसी ले लेगा और दिन भर वार्षिक ग्राहक बनाएगा। जब बहुत से ग्राहकों का पैसा इकट्ठा हो जाएगा, तो वह चुपके से शहर छोड देगा। नहीं, वह ऐसा नहीं करेगा। सबका चंदा-ठीक-ठीक जमा कर देगा और तरक्की करता-करता एक दिन फोर्ट एरिया में अपना दफ्तर खोल लेगा-किरण एजेंसीज। फिलहाल वह टयूशनें भी कर सकता है। वह और किरण मिलकर किंडर गार्डन' खोल सकते हैं। इधर तो चाल के लोगों में भी अंग्रेजी स्कूलों का आकर्षण बढ रहा है। कुछ भी सम्भव न हुआ, तो वह दादर स्टेशन पर पेन बेचेगा। पढे लिखे बेकार लोगों की संख्या बढाएगा। किरण ने यह सब सोचा था। वह रोज की तरह उठी और सुबह का काम निपटा कर एक सौ तेरह नम्बर की कतार में जुड गई। प्रकाश आँखें बंद किए भी जान रहा था, कि किरण अब नाश्ता बना रही है। अब भोजन। अब नहा रही है, अब ब्लाउज और अपना एकमात्र पेटीकोट पहने दीवार पर टँगे आइने में देखते हुए बाल कर रही है। अब वह अपना पर्स ढूँढ रही है। पर्स कल उसने कुछ इस अन्दाज से किताबों के ऊपर फेंक दिया था, जैसे अब वह कभी उस पर्स को नहीं उठाएगी। अब वह भूल चूकी है। प्रकाश कहते-कहते रुक गया कि पर्स रैक के नीचे गिरा पडा है। मगर आवाज उसके हलक में ही चिपक कर रह गई। पर्स धूल में लथपथ हो चुका होगा, किरण देखेगी तो भन्ना जाएगी। इससे अच्छा है, वह चुप रहे और उसके लौटने से पूर्व रैक के नीचे सफाई कर दे और झाड-पोंछकर पर्स ठिकाने पर रख दे। प्रकाश का खयाल था, कि आज कालिज जाने से पहले किरण उससे परामर्श कर लेगी, मगर उसे यह सब गवारा न हुआ। अगर उसके लिए इतनी ही साधारण घटना थी, तो कल इतने रोने-धोने की क्या जरूरत थी? प्रकाश को देखते ही क्यों फूट पडी थी। क्या वह उसके पुरुषत्व को चुनौती दे रही थी? अब वह गुणवन्तराय के सामने कैसे जाएगी? 'साला गुणवन्तराय!' प्रकाश बुदबुदाया, 'हरामजादा।' किरण ने कल जब कालिज से लौट कर सारा किस्सा बताया था, तो प्रकाश को कुछ भी अप्रत्याशित नहीं लगा था। वह भीतर-ही-भीतर इस परिणति की प्रतीक्षा ही कर रहा था। कोई भी पुरुष इतना मूर्ख नहीं होगा कि अकारण ही इतनी सुविधाएँ देता रहे। उसकी गिद्ध दृष्टि निहित स्थानों में लगी रहती है। स्टाफ-सेक्रेटरी वह गुणवंत राय की कृपा से ही हुई थी। स्नातकोत्तर कक्षाएँ भी उसी के प्रयत्न से मिली थीं। सीनियर ग्रेड के लिए उसी ने किरण का नाम आगे किया था, जबकि किरण से भी अधिक अनुभवी दूसरी प्राध्यापिकाएँ अब भी छोटी कक्षाओं को व्याकरण पढाती थीं। साला कितने योजनबद्ध ढंग से काम करता है। क्रिमिनल! 'तुमने एक थप्पड क्यों नही धर दिया?' प्रकाश ने किरण से कहा था। 'मैं बेहद घबरा गई थी। वह बहुत बेशर्मी से मुझे ताक रहा था। बोला, बेबी मुझे लगता है, तुम किसी साइको-सेक्सुअल उलझन में हो। तुम्हें मैन्सेस तो समय पर होते हैं? 'हरामजादा!' प्रकाश ने कहा, 'तुम्हें चप्पल से उसकी पिटाई करनी चाहिए थी।' 'मैंने उसकी तरफ देखा भी नहीं और दरवाजा खोलकर बाहर आ गई।' 'उसने दरवाजा बंद कर रखा था?' 'नहीं। वह दरवाजा खुलने पर अपने-आप बंद हो जाता है। कालिज में सभी दरवाजे ऐसे हैं।' 'तुमने हल्ला नहीं किया?' 'नहीं! मैं तुरन्त निर्णय नहीं कर पाई। मुझे अभी तक कंपकंपी आ रही है।' 'तुम्हें बाहर आते देख वह घबरा गया था खलनायक की तरह हँसने लगा?' 'मैं ने उसकी तरफ देखा भी नहीं। मुझे बुढऊ किस्म के आशिकों से वैसे ही नफरत है।' 'तुम मुझसे कुछ छिपा तो नहीं रही?' 'नहीं!'-किरण ने घूर कर प्रकाश की तरफ देखा। 'ऐसी जगह नौकरी करने से कहीं अच्छा है, मेरी तरह घर पर ही सड़ती रहो।' प्रकाश अपने को बेहद निस्सहाय, कमजोर और असंतुलित पा रहा था। किरण नल पर जाकर मुँह पर छींटे देने लगी। 'उस हरामखोर ने जरूर चुम्बन वगैरह ले लिया होगा, जो अब यह इतना परेशान हो रही है और बार-बार मुँह पर साबुन पोत रही है।' प्रकाश अनाप-शनाप बकता रहा-'मैं आज ही किरण के प्रिंसपल से मिलूंगा। प्रिंसिपल से क्या, सारी मैनेजिंग कमेटी से मिलूँगा। उल्लू के पट्ठे को इतना परेशान कर दूंगा कि आत्म-हत्या कर लेगा। मैं शिक्षामंत्री को पत्र दूँगा और उसकी प्रति लिपियाँ इन्दिरा गांधी, वी वी गिरि और विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के पास भिजवा दूँगा। मैं उसको चौराहे पर अपमानित कर दूँगा। मुझे और काम ही क्या है? दिन-भर इसी में लगा रहूँगा और जब वह मेरे पाँव पर लोटेगा, तो अपना पाँव पटक दूँगा सारी आशिकी घरी रह जाएगी। उसकी पत्नी को बताऊँगा कि यह शख्स जिंदगी भर तुम्हें मूर्ख बनाता आया है, तुम इसके लिए करवा चौथ-जैसे ब्रत रखती हो और यह जानवरों से भी गया-बीता है। बीवी भडक गई तो ठीक नहीं तो साले कि बिटिया का अपहरण करा दूँगा। ड्रेंगो दो सौ रुपए में यह काम करा देगा। वैसे यह नौबत नहीं आएगी, साले की बिटिया जवान होने से पहले ही पीटर के साथ भाग जाएगी। मैं इंजीनियर नहीं बन पाया, मगर सफल खलनायक जरूर बन सकता हूँ। 'ब्लिट्ज' में एक टिप्पणी छप गई, तो टापता रह जाएगा । सारे देश में आग की तरह यह खबर फैल जाएगी। कोई भी निर्माता इस 'थीम' पर फिल्म बना कर लाखों कमा लेगा। लाखों कमा लेगा, मगर 'थीम' का सत्यानाश कर देगा। हीरो को तुरत मुक्केबाजी के लिए पहुँच जाना चाहिए था, मगर वहाँ हीरो निहायत चूतिया है। फिल्म में तो हीरो अब तक वहाँ पहुँच चुका होता, जहाँ पन्ना का मुजरा देखते हुए गुणवंतराय नशे में धुत्त पडा होता। मेरे पास तो कार भी नहीं है कि मैं टेढी-मेढी सडकों पर तीन मिनट तक, उसका पीछा करता। फिल्म कैसी भी बने, सारा समाज गुणवंतराय पर थू-थू करेगा। मगर किरण का प्रिंसिपल निहायत चुगद किस्म का आदमी है। उसे तो इस बात को लेकर अब तक इस्तीफा दे देना चाहिए था। मगर किरण का प्रिंसिपल इस्तीफा नहीं देगा। उसे किसी पागल कुत्ते ने काटा है कि वह इस्तीफा दे। वह जानता है कि उसने इस्तीफा दे दिया, तो गुणवंतराय तुरत प्रिसिंपल हो जाएगा। प्रिंसिपल टापता रह जाएगा और मैं भी।