चाल / रवीन्द्र कालिया / पृष्ठ 6

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

'ये लोग अचानक चले आए। शिवेन्द्र को धीरे से समझा दो कि हम नहीं जा पाएँगे।' प्रकाश ने कहा।

'तुमने और तुम्हारे दोस्तों ने मुझे नौकरानी समझ रखा है। सुबह सात से निकली अब लौटी हूँ, और तुमने मेरे लिए दूसरे काम निकाल रखे हैं कि मैं कहीं सुस्ता न लूँ। रात को भी ठीक से सोने नहीं देते। कह दो जाकर मैं पराठे नहीं सेंकूँगी। अब यहाँ मेरे सर पर क्यों खडे हो? जाकर दोस्तों के संग पियो और मौज उडाओ। तुमसे इतना भी नहीं हुआ कि कालिज चले आते। मेरी मौत भी हो जाए, तुम पर असर नहीं पडेगा। पुरुष हो न, किरण रोने लगी।

प्रकाश ने वहाँ खडा रहना उचित न समझा। वह खडा रहेगा किरण बोलती जाएगी। किरण की आवाज अवश्य बाहर जा रही होगी। उसने यह सब धीरे से नहीं कहा था, कि शिवेन्द्र या लडकियों ने न सुना हो। आखिर वह कलेजा मजबूत करके कमरे में आ गया। उसके मेहमान भी दीवारों वगैरह की तरफ ताक रहे थे।

शिवेन्द्र ने प्रकाश को देखते ही जल्दी से उसके लिए एक पेग बनाया और उसके हाथ में थमाता हुआ बोला, 'परेशान मत हो। अभी थोडी देर में उसका गुस्सा शांत हो जाएगा। उसका नाराज होना जायज है। लडकियाँ थकने पर अनाप-शनाप बका ही करती हैं।' 'सुनन्दा तुम जल्दी से आटा मल लो। और संजना तुम आलू उबाल लो। तब तक किरण भी स्वस्थ हो जाएगी।' प्रकाश ने कहा। इन्हें काम करते देख किरण ठीक हो जाएगी, वह जानता है।

'न बाबा, मुझसे यह सब नहीं होगा।' सुनन्दा ने तुरन्त सिगरेट सुलगा ली और बोली, 'मुझे खाना आता है, पकाना नहीं।'

'पकाने की जरूरत भी नहीं है। इतना खाना है, हमारे पास कि सुबह नाश्ते तक जरूरत नहीं पडेगी। यह तो शिवेन्द्र की जिद थी कि पराठे भी होने चाहिए। बीच-बीच में इसके मध्य वर्ग के संस्कार जोर मारने लगते हैं। वह आज भी परांठों को पिकनिक से एसोसिएट करता है।'

'जिद नहीं है, जरूरत भी नहीं। मैंने तो किरण को फ्लैटर करने के लिए यह सुझाव रखा था। ये लडकियाँ शायद जानती नहीं, मैं इन सबसे अच्छा खाना बना सकता हूँ! स्त्री तो अच्छी कुक हो ही नहीं सकती। आप बडे-से-बडे रेस्तरों में चले जाइए, मेल कुक ही मिलेगा।'

शिवेन्द्र अपनी बात जारी रखता कि सहसा किरण कमरे में आ गई। उसके हाथ में उबले हुए अंडों की तश्तरी थी। चाय पीकर और मुंह धोकर वह स्वस्थ हो गई थी। वह प्रकाश के पास ही खटिया पर बैठ गई और बोली; 'आई एम सॉरी, शिवेन्द्र। मेरा दिमाग खराब हो गया था।'

लडकियाँ अंडे देखकर मचल उठीं, 'यू आर स्वीट, किरण! हम तो तुम्हारा मूड देख कर डर गई थीं। ये लोग वर्किड वूमन की परेशानी कभी नहीं समझ सकते।'

कुकर की सीटी सुनाई दी, तो किरण उठ गई, 'आलू उबल गए हैं। मैं अभी तुम लोगों का टिफिन तैयार करती हूँ।'

'हमें किसी चीज की जरूरत नहीं है। हमारे पास ढेर-सा सामान है। तुम्हारा प्रिय रशियन सैलड भी। तुम जल्दी से तैयार हो जाओ।'

'प्रकाश को ले जाओ, मैं बेहद थकी हूँ।' किरण ने कहा।


'प्रकाश को हम अकेले नहीं ले जाएँगे, तुम्हें चलना ही होगा।'

'आज मैं किसी भी सूरत में नहीं जा पाऊँगी। सब लोग मजे के मूड में हों और मैं थकान-थकान चिल्लाती रहूँ, यह मुझसे न होगा! पिकनिक का मजा तभी है जब सब लोग नाचने गाने के मूड में हों। दुसरे सुबह मुझे कालिज भी जाना है। काम-काज के रोज तुम्हें यह मिडनाइट पिकनिक की क्या सूझी। सैटरडे नाइट को पिकनिक रखते, ताकि सण्डे को सब लोग सो पाते। तुम लोग सुबह काम पर कैसे जाओगे?'

'हमारे धन्धे में इतवार का बन्धन नहीं। दफ्तर में तो लोग आज भी ओवरटाइम कर रहे होंगे। इधर ग्लायकोडीन की कम्पेन पर हम लोग दिन रात एक कर रहे हैं। यह फिल्म भी एनिमेटिड फिल्म होगी। शुरू और अन्त में केवल कुछ क्षणों के लिए मॉडल के शॉट होंगे।'

'पिछले वर्ष इन्हीं दिनों तुम 'वल्लभ ब्लेंकेट्स' पर काम कर रहे थे, उसका क्या हुआ?'

'होना क्या था, फिल्म बनी और रिलीज हो गई। अलग-अलग रंगों के पचीस-तीस ब्लेंकेट्स भी मिले शूटिंग के लिए जो मैंने मित्रों में बाँट दिए। तुम लोगों के लिए भी मैंने बढिया कम्बल रखा था, मगर तुम लोग बड़े आदमी हो, शिवेन्द्र के यहाँ क्यों आओगे?'

'ग्लायकोडीन की फिल्म अंग्रेजी में भी 'डब' होगी। अनुवाद तुम्हें करना होगा। पचास रुपए मिलेंगे। वे भी कांइड में यानी हिस्की की एक बोतल किंग्ज ब्लेन्ड।'

'अनुवाद पाल से करा लेना। वह पचीस में कर देगा।' किरण ने कहा।

'दस तो तुम दे ही चुके हो!' प्रकाश बोला।

किरण ने कुकर की एक और सीटी सुनी तो भाग कर रसोई में घुस गई। उसे याद आया, आलू का तो अब तक हलुवा बन गया होगा।

'तुम्हारी बीवी एक जिद्दी औरत है।' शिवेन्द्र ने लडकियों की तरफ देखते हुए कहा, 'जाडिया तो अब तक पहुँचा गया होगा और गाली बक रहा होगा। चिंता मुझे चन्नी की है। कहीं लौट गया तो मनाने में हफ्तों खर्च हो जाएँगे। हम लोगों को अब फौरन से पेशतर रवाना हो जाना चाहिए। तुम लोगों को मालूम होना चहिए कि पिकनिक भी हमारे धंधे में एक काम है। चन्नी और चन्नी की बीवी को पेम्पर करने के लिए ही मैंने मिडनाइट पिकनिक आयोजित की हैं पहली ही भेंट में मैंने चन्नी की बीवी को चाँद की ओर टकटकी लगाए देख लिया। और तुरन्त मिडनाइट पिकनिक का सुझाव रख दिया। चन्नी मूढ आदमी है। बीवी की खुशी के लिए चला आएगा। वैसे उसे न चाँद में दिलचस्पी है, और न बालू में। मगर उसके हाथ में तीन लाख का एकाउंट है।'

'चन्नी कौन है?'

'नया दोस्त। कैप्टन चन्नी। शिपिंग कम्पनी का अत्यधिक प्रभावशाली एग्जीक्यूटीव। किंग ऑफ किंग्ज लेकर आने वाला है।' शिवेन्द्र ने प्रकाश को प्रलोभन दिया, 'किरण न जाती हो, न सही। तुम तैयार हो जाओ।'

'मुझे-मुवाफ करोगे। जाना होता तो हम अब तक तैयार भी हो जाते। अगली बार चलेंगे।'

शिवेन्द्र प्लीज, मजबूर न करो।' किरण रसोई मेंसे बोली, 'आज मैं सिर्फ सोना चाहती हूँ।'

'रेत पर सो जाना।'

'नहीं, आज मन नहीं।' किरण अल्युमिनियम के रंगीन डिब्बे में कुछ परांठे भर लाई। घर में एकमात्र डिब्बा था। अब यह सुबह अपना खाना किस चीज में ले जाएगी।, प्रकाश सोचने लगा। किरण ने खडे-खडे ही डिब्बे के ऊपर कागज चढा दिया और रिबन से बाँध कर सुनन्दा के हाथ में थमा दिया, 'लेकिन प्रकाश जा सकता है। निस्संकोच। मिडनाइट पिकनिक है, सुबह तक तो लौट आएगा।'

प्रकाश ने लडकियों को उबाइयाँ लेते देखा तो बोला, 'अब इन लोगों को देर न करो। शिवेन्द्र से मुलाकत हो गई, यही बहुत है।' शिवेन्द्र ने सिगरेट फेंक दी और सिगार सुलगा लिया। किरण तुरंत नमस्कार की मुद्रा में खडी हो गई। जैसे उन लोगों की विदाई का इन्तजार ही कर रही थी।

लडकियाँ कमरे से इस तरह निकलीं, जैसे जेल से रिहा हुई हों। दोनों ने जीन्स पहन रखे थे, और सिगरेट फूँक रही थीं, चाल के बच्चों और महिलाओं में हलचल मच गई।

तुम लोग नहीं आओगे, मैं जानता हूँ।' शिवेन्द्र जाते-जाते बोला, 'मगर मैं आप लोगों का इन्तजार करूँगा। आधी रात को बालू का एक घरौंदा बनाऊँगा और खुद ही फोड दूँगा। फिर उस वीराने में रात भर पडा रहूँगा।'

'तुम सिर्फ भावुक हो रहे हो, शिवेन्द्र।' किरण ने कहा, 'ए टोस्ट ऑव हैपी विशेज़, फार दे बेस्ट ऑव एवरीथिंग एट मड आइलैंड।'

लडकियाँ कार में धँस गई थीं। चाल के बच्चे 'जोर लगा के हैया' कहते हुए कार धकेलने की कोशिश कर रहे थे। गोद में बच्चे उठाए महिलाएँ चाल की बाल्कनी पर जमा हो गई थीं।

शिवेन्द्र की कार स्टार्ट हो, इससे पूर्व ही चाल में एक और घटना हो गई। सब बच्चा लोग पाल के कमरे की ओर भागे प्रकाश और किरण ने भी शिवेन्द्र को हाथ हिलाकर, विदा किया। और वे भी दूसरे लोगों की तरह तुरंत पाल के कमरे की तरफ देखने लगे। अचानक पाल की बीवी लौट आई थीं, और अब पाल अकड रहा था।

प्रकाश ने लक्षित किया, कुछ देर पहले पाल की आवाज में जो संजीदगी और उदासी थी, उसकी जगह अब आत्मविश्वास ने ले ली थी। वह फिल्मी नायक के अन्दाज में कह रहा था, 'अब यहाँ क्या करने आई हो, फौरन निकल जाओ। इस घर में अब तुम्हारे लिए जगह नहीं है। मैं तुम्हारी सूरत भी नहीं देख सकता। मुझे मुआफ करो और चली जाओ। तुम यहाँ रहना चाहती हो, तो मैं बच्चों को लेकर कही और चला जाता हूँ। सरदार जी, आप कल्पना नहीं कर सकते, इस औरत ने मुझे कितनी परेशानी दी है। मेरे बच्चों का सत्यानास कर डाला है। मेरी जिन्दगी तबाह कर दी है। बच्चों का मोह न होता, मैं दूसरी शादी करके अबतक सुखी हो चुका होता। आप बराय मेहरबानी इसे मेरे सामने से हटा लीजिए।'

पाल की बीवी के साथ शायद उसका बाप आया था। वह चुपचाप इस नाटक को देख रहा था। चाल के लोग जानते हैं, पाल की बीवी बोलने लगे, तो पाल तुरंत शांत हो जाएगा। मगर वह चुप थी। उसका बाप भी चुप था। आखिर उसने अपनी पगडी उतारी और पाल के पाँव पर रख दी, 'मैं कुछ नहीं बोलूँगा, बेटा तुम कुछ भी कहते रहो। मेरी पगडी की लाज रख लो। मेरी लडकी सती-सावित्री है, मगर नादान है। आज वह जो कुछ भी है, तुम्हारी बनाई हुई है। मैंने तो तुम्हें एक भोली-भाली बिटिया दी थी, तुम खुद सोच लो।' सरदार दीवार पर टँगी अपनी बिटिया की शादी की तस्वीर देखने लगा। वह शादी के तुरन्त बाद का चित्र था। पाल कोट-पेंट-टाई पहने अकडकर खडा था, और उसकी बगल में छुई-मुई-सी एक लडकी थी। आँखे झुकी हुई, गर्दन भी झुकी हुई। पाल ने तस्वीर की तरफ देखा तो उसका क्रोध और बढ गया। मेज पर एक चम्मच पडा था, पाल ने चम्मच उठाया और पत्थर की तरह तस्वीर पर दे मारा। गुस्से में पाल का निशाना चूक गया। चम्मच दीवार से टकरा कर नीचे गिर पडा। पास के हाथ मेज पर दूसरी चीज तलाश करने लगे। मेज पर लाल स्याही की दावाज पडी थी, पाल ने दावात उठा कर तस्वीर पर पटक दी। तस्वीर चकनाचूर हो गई, दावात भी और कमरे में लाल स्याही के नन्हें-नन्हें तालाब बन गए।

पाल के बच्चे कमरे के बाहर से इस दृश्य को देख रहे थे। फोन की घण्टी बजी, तो रेणू भाग कर कमरे में गई और रिसीवर उठाकर अलग रख आई। फिर वह सहेलियों के साथ रस्सी टापने लगी। तोड-फोड से कमरे का तनाव कम हो गया था। पाल भी अब शांत नजर आ रहा था। उसने अपने पैरों से उठाकर पगडी सरदार जी के सर पर रख दी। पाल के दूसरे बच्चों ने भी काण्ड में दिलचस्पी खो दी और कट कर आती हुई एक पतंग के पीछे भागे।

किरण और प्रकाश बिना एक दूसरे से बात किए कमरे में लौट आए। प्रकाश पलंग पर लेट गया और लेटते ही उसने दीवार की ओर करवट ले ली। किरण भी प्रकाश के निकट हो पलंग पर बैठ गई और प्रकाश का हाथ सहलाने लगी। प्रकाश इतना थक गया था, और शिवेन्द्र लोगों में प्रति किरण के व्यवहार से इतना निराश हो चुका था कि उसकी इच्छा न हुई कि किरण से पूछ ले, गुणवन्तराय का क्या हुआ। वैसे उसे थकान गुणवन्तराय को लेकर ही आ गई थी।

'तुम नाराज हो, प्रकाश?' किरण ने प्रकाश को सहलाते हुए पूछा। किरण की आवाज मधुर एवं शांत थी।

प्रकाश ने उत्तर नहीं दिया। वह उसी प्रकार दीवार की ओर देखता रहा। किरण ने उठ कर, किवाड बन्द कर दिए। कमरे में अंधेरा हो गया, मगर उसने बत्ती नहीं जलाई।

'मैंने सोचा था, तुम सुबह मेरे साथ चलोगे। तुम बाद में भी नहीं आए।'

'मैं आना चाहता था, मुझे टिकट के लिए कहीं पैसे नहीं मिले।' प्रकाश ने बिना करवट लिए कहा। अचानक उसे अच्छा बहाना मिल गया था।

'मेरी साडियों के नीचे अब भी तीस रुपए पडे होंगे। तुम देख लो।'

'तुमने साडियाँ कहा रखी हैं, मुझे मालूम नहीं।'

'इस समय तुम जान-बूझ कर सता रहे हो।'

'सॉरी।' प्रकाश में रुखाई से कहा।

किरण प्रकाश को हिलाने-डुलाने की कोशिश करने लगी। वह सी-सा की तरह हिलने लगा।

'प्रकाश।' किरण ने कहा ओर उसे यहाँ-वहाँ से चूमने लगी, 'मैंने अभी देखा, तुमने खाना भी नहीं खाया, सुबह से भूखे पडे हो।'

'मेरा मन ठीक नहीं है। मुझे सोने दो।' प्रकाश ने कहा।

'नहीं, तुम सो नहीं सकते।' सहसा किरण के स्वर की कोमलता जाती रही और उसमें एक पेशेवर कठोरता आ गई, जो अध्यापकों के स्वर में अनायास कक्षा के बाहर भी आ जाती है, 'जब मेरा मन ठीक नहीं होता, तुम उस समय कुछ सोचते हो? मुझ में बात करने की शक्ति भी नहीं होती, मैं तुम्हारे साथ कहीं भी चल देती हूँ।'

प्रकाश ने किरण के हाथ झटक दिए। किरण और भी निकट आ गई, 'तुम भी दूसरे गुणवन्तराय हो। तुममें और पाल में भी कोई विशेष अन्तर नहीं है। हमेश स्त्री पर हावी रहना चाहते हो। तुम चाहते हो, वह तुम्हारे सामने रोती रहे और तुम आँसू पोंछ कर बडप्पन दिखाते रहो। तुम अपने को मन में कितना भी उदार समझो, स्त्री के बारे में तुम्हारे विचार सदियों पुराने हैं। तुम चाहते हो, वह बिना किसी प्रतिरोध के तुम्हारे इस्तेमाल में आती रहे। यही समझते हो न? यही नहीं, घर में मेरी औकात नौकरानी, महराजिन और महरी से ज्यादा नहीं। झुठला सकते हो मेरी बात को?

किरण अपना हाथ प्रकाश की बनियान के नीचे ले गई और जोर-जोर से चिकौटियाँ काटने लगी। किरण के हाथ ठण्डे थे, प्रकाश की रीढ के पास फुर-फुरी-सी होने लगी। इसकी इच्छा हुई वह किरण को ऐसा झटका दे कि वह खाट से नीचे गिर पडे। इसे जरूर किसी पागल कुत्ते ने काट लिया है, प्रकाश ने सोचा और खाट पर आराम से पसर गया। प्रकाश को इस तरह जड और निरपेक्ष पाकर किरण उसे दाँतों से काटने लगी। इसी संघर्ष में किरण ने कब अपने कपडे फाड दिए या फेंक दिए, प्रकाश को इसका एहसास तब हुआ जब रह-रह कर किरण का पुष्ट और निम्न-वक्ष उसके सीने से टकराने लगा। वह अपना शरीर प्रकाश पर इस तरह पटक रही थी, जैसे प्रकाश पत्थर की सिल हो और वह उससे टकरा-टकरा कर चकनाचूर हो जाएगी। किरण की सांस इतनी तेज चल रही थी कि उसके लिए मुंह से बोल पाना असम्भव था, मगर वह फिर भी बोल रही थी, 'तुम्हें यही घमण्ड है न कि तुम पुरुष हो। मुझसे ताकतवर हो, मुझसे श्रेष्ठ हो। यही समझते हो न? हर पुरुष यही समझता है। मगर मैं आज तुम्हारे दिमाग से सदियों से बैठी यह गलतफहमी निकाल दूँगी।' उत्तेजना के अन्तिम बिन्दु पर पहुँच किरण सहसा निढाल हो गई और प्रकाश के ऊपर ही गिर पडी। उसका शरीर पसीने से तर था। ठंडा।

प्रकाश ने आँखें खोलीं, तो देखा अंधेरा घिर आया था। बालकनी में मेढेकर ने दो-तीन बल्ब लगा दिए थे। उसके यहा आज रतजगा था। बाहर बाल्कनी में बच्चा लोग मिलकर शायद तख्त घसीट रहे थे। कमरे के रोशनदान खुले थे। बालकनी से जलने वाले बल्बों से कमरे में जगह-जगह रोशनी के चकत्ते बन गए थे। प्रकाश ने देखा, मेज पर ह्विस्की की बोतल और सिगरेट का पैकेट पडा था। शिवेन्द्र जान-बूझ कर उसके लिए छोड गया होगा। बंतासिंह की टैक्सी रुकी, दरवाजे बन्द हुए और वह 'जपुजी' का पाठ करता हुआ सीढियाँ चढ गया।

रतजगे की तैयारी में बच्चा लोग दरियाँ झाड रहे थे। मगर चाल पे उस ओर गहरा सन्नाटा था। फैक्ट्रयों की बिजलियाँ दूर-दूर तक टिमटिमा रही थीं, जैसे देश के उद्योगीकरण का काम पूरा हो चुका हो। मछली बाजार का मैदान सो चुका था। बीच-बीच में कुत्तो और सियारों के रोने की आवाज आती और शांत हो जाती।

वे बिलकुल आदमियों की तरह रो रहे थे।

(समाप्त)