चित्त कोबरा / मृदुला गर्ग / पृष्ठ 2

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मैंने अपने पर्स में से छोटा-सा आईना निकाला और चांद के अक्स को उसमें कैद कर लिया. अब नीला घेरा मेरे बहुत करीब था. इतने करीब कि हाथ बढ़ाकर मैं उसे छू सकती थी.

मैंने हाथ नहीं बढ़ाया. आजकल मैं काफी होशियार हो गई हूं. सच्चाई पर पड़ी ख्वाब की झीनी चादर खींचा नहीं करती. हाथ बढ़ाऊं और वह आईने से टकरा जाए...ख्वाब टूट न जाएगा?

छूने की ज़रूरत क्या है? छू सकने का अहसास क्या कम है?

शीशे में उतरा नीली रोशनी का घेरा. कितने करीब है मेरे! मैं मुग्ध हो उसे देख रही हूं.

‘‘...आओ, हम नाचें.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘क्यों क्या? तुम खुश हो न? ‘‘बहुत.’’

‘‘तो बस. खुश होकर नाचने को मन करता है न?’’

‘‘हां.’’

‘‘हम लोग नाचते क्यों नहीं?’’

‘‘पता नहीं.’’

‘‘नहीं-नहीं, पता नहीं कहने से काम नहीं चलेगा. पता करो. हम खुश हैं. हमारा बदन थिरक रहा है. रोएं गा रहे हैं. हाथ-पांव फड़क रहे हैं. फिर भी हम नाच क्यों नहीं रहे? हम नाचते क्यों नहीं’’

‘‘क्योंकि...कोई...नहीं...नाचता...’’ मैंने सोच-सोचकर कहा.

‘‘बिल्कुल सही. यही बात है. हम नहीं नाचते, क्योंकि कोई नहीं नाचता. हम डरते हैं...कोई नहीं नाच रहा तो हम कैसे नाचें? लोग क्या कहेंगे? लोग! अच्छा, सच-सच बताओ, लोगों का ख्याल आने पर तुम्हारे मन में पहली बार क्या बात आती है?’’

‘‘भाड़ में पड़ो.’’ मैंने कहा और हंस दी.

‘‘न-न, हंसो मत!’’ लोगों से कहो...कहो जो कहना हो – हम तो नाचेंगे. तुम्हें नहीं नाचना तो भाड़ में पड़ो...आओ हम नाचें.’’ और हम नाचने लगे. एक-दूसरे की बांहों में. झूम-झूमकर. चांद के नीले घेरे के नीचे. दूर बज रहे अमूर्त संगीत की ताल पर.

संगीत की ताल टूट गई. हम नाचते रहे.

संगीत थम गया. हम नाचते रहे. एक-दूसरे को बांहों में थामे बदहवास घास पर गिर न पड़े. चांद के घेरे के नीचे.

मैंने आईने को कसकर थामा. चांद का अक्स चाहे हिले-डुले, पर बना रहे.

और धीरे धीरे, दूर बज रहे संगीत की धुन पर मैं नाचने लगी.

‘‘अरे मिसेज गोयल, क्या हुआ?’’ एक आवाज़ आई.

‘‘काफी पी गई लगती है.’’ एक कहकहा उभरा.

‘‘अकेले नहीं, मिसेज गोयल, अंदर तशरीफ लाइए. सबको इंतज़ार है.’’

‘‘हम यहां पार्टनर ढूंढ़ रहे हैं. आप वहां अकेली...’’

‘‘अरे आप ही लोगों के लिए तो डांसिंग का इंतजाम किया है.’’

‘‘कमरे में आइए. मंद-मंद रोशनी. संगीत. साथी. सब हैं.’’ ‘‘और शराब. आज पी खूब है भाई लोगों ने.’’

‘‘और बहनों ने. आजकल बहनें भाइयों से भी ज़्यादा पीने लगी हैं.’’

‘‘खूब-खूब. आइए-आइए. अंदर आइए.’’

आवाज़ों पर आवाज़ें...तो यहां हूं मैं. पार्टी में...मिस्टर एंड मिसेज सक्सेना कॉर्डियली इन्वाइट यू टू कॉक्टेल्स एंड डिनर.

हां, कल ही तो स्वीकृति भेजी थी. महेश ने. अपनी और मेरी तरफ से...मिस्टर एंड मिसेज गोयल विल बी वैरी ग्लैड टू कम...ज़रूर आएंगे हम. खुशी से.

...पर जब आदमी खुश होता है तो नाचता है – चांद के घेरे के नीचे. खुले में. आत्मविभोर होकर. एक आत्मा जन्म लेती है उसके भीतर.

...आवाज़ों के घेरे में कैद मैं कमरे में चली आई हूं.

महेश झपटकर आगे आ गया है.

‘‘क्या हो गया था?’’ उसने पूछा है. प्यार से, आशंका से.

‘‘तबीयत तो ठीक है न? बाहर क्यों चली गई थीं?’’

‘‘चांद के चारों तरफ नीली रोशनी का घेरा है.’’ मैंने कहा है.

‘‘तो?’’ मेरा हाथ अपने हाथ में लेकर उसने पूछा है, ‘‘तो क्या, हुआ?’’

पास खड़े दो-चार लोग ठठाकर हंस पड़े हैं. महेश का हाथ आईने से छू गया है.

तड़पकर मैंने हाथ खींचा और आईना वापस पर्स में डाल दिया.

...अब मैं एक सार्वजनिक प्राणी हूं.

अब सब ठीक है...या सब गलत.

“तबीयत तो ठीक है न?’’ महेश ने फिर पूछा.

‘‘हां.’’ मैंने कहा.

‘‘तब आओ, हम नाचें.’’

‘‘नहीं!’’

चीख-सा एक ‘नहीं’. कमरे में बिल्कुल बेमौजूं.

ये इतने सारे लोग नाच रहे हैं यहां. कमरे में. पीली रोशनी के नीचे. संगीत की धुन से बिंधे. ये नाच रहे हैं क्योंकि सब नाच रहे हैं. ये कॉक्टेल पार्टी की सफलता के प्रतीक हैं. मिस्टर-मिसेज सक्सेना के सौजन्य से नाच रहे हैं ये. नाच रहे हैं इसलिए जाहिर है, खुश भी होंगे. होना चाहिए. यह एक सार्वजनिक खुशी है.

ये पार्टनर बदल-बदलकर नाच रहे हैं. यही कायदा है इनके समाज का. ये लोग सामाजिक गलतियां नहीं करते. अगर ये नाचना बंद कर दें – ये...ये...और ये...तो कोई नहीं नाचेगा. अकेला कोई नहीं नाचेगा.

यह रचना गद्यकोश मे अभी अधूरी है।
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