चित्त कोबरा / मृदुला गर्ग / पृष्ठ 1

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मेरे हमसफर

किसी ने पूछा था—यह सड़क कहां जाती है ?

जवाब मिला था—कहीं नहीं जाती। यहीं पड़ी रहती है।

सचमुच सड़क कहीं नहीं जाती। भाग्यशाली है या उदासीन। पसरी रहती है एक जगह। निर्वाक। निःस्पन्द। बाहें फैलाए। चाहे जो भटक आये आगोश में। उसे परवाह नहीं।


यात्री भी तो कम उदासीन नहीं होते। सड़क की बाहों में पनाह लेंगे, उसी की छाती रौंदेंगे और उसकी तरफ नजर उठाक देखेंगे तक नहीं। अपने-अपने सफर में डूबे चलते चले जायेंगे। उन्हें क्या हमसफर कहना ठीक है ?

सड़क का क्या ? वह तो सफर पर निकलती नहीं। उसकी न कोई शुरूआत है, न अंत है। न वह कहीं से चली है, न उसे कहीं जाना है।

उसमें हमसफर की क्या जरूरत ?

मैं सड़क ही तो हूं। अंत से उदासीन।

पर शुरूआत ? मुझे हर शुरूआत याद है। मैं तुम्हें बतलाना चाहती हूं, मेरा सफर कब और कैसे शुरू हुआ।

मुझे हमसफर की जरूरत है। पर मेरा कोई मुकाम नहीं है। तुम मेरे साथ सफर के आखीर तक नहीं चल सकते।

बस, जब तक मेरी कहानी खत्म न हो जाये, मेरे साथ चलते रहना। सफर खत्म होने से पहले कहानी खत्म करने की कोशिश करूंगी। तुम्हारे सफर की बात कह रही हूं।

मेरा सफर तो कहानी के साथ है। जब कहानी खत्म होगी, सफर भी खत्म हो जायेगा। पर मैं कुछ वक्त बचा रखूंगी। कहानी खत्म करके तुमसे अलग हो सड़क के दूसरे छोर पर चली जाऊंगी। तुम्हारे सफर को नजर नहीं लगेगी। मैं कुछ दूर चलकर तुम्हारी आंखो से ओझल हो जाऊंगी। अपना सफर अकेले तय करूंगी। तुम्हें खबर न होगी। डरना मत, तुम मेरे सफर के साथी जरूर बनोगे, पर मंजिल के मुतंजिर नहीं।

एक बात है ! कहानी तुम्हें सुना जरूर रही हूं, पर मेरे दिमाग में सब-कुछ गड्डमड्ड हो चुका है। कब वह था, कब वह नहीं था; कब पहले-पहल मेरी जिंदगी में आया, मुझे ठीक से याद नहीं। मेरे लिए यह तसव्वुर करना नामुमकिन है कि ऐसा भी कोई वक्त था जब वह नहीं था। तब क्या मैं थी ?

इसलिए, बुरा न मानना, मेरी कहानी के हर पहलू में वह रहेगा।

‘‘देखो, चांद के चारों तरफ घेरा है। नीली रोशनी का...देखा ?’’

‘‘हां। गोल दायरे में एकदम नीला प्रकाश। क्यों ?’’

‘‘कभी-कभी होता है।’’

‘‘कब ?’’

‘‘जब कोई महान् आत्मा जन्म लेती है।’’

‘‘महान आत्मा ? यानी कि इस वक्त एक महान आत्मा जन्म ले रही है ? हम लोग साक्षी हैं। जब वह जन्म ले चुकेगी, घेरा मिट जायेगा ?’’

‘‘हां।’’

मैं हंस पड़ी।

‘‘अरे हंसती क्यों हो ? इसमें अचरज की क्या बात है ?’’

मैं हंसती रही।

‘‘महान् आत्मा चांद से उतरेगी ?’’


‘‘चांद से क्यों उतरेगी ?’’ उसने कहा, ‘‘कोख से जन्मेगी। अचरज क्या है ? जिस देश में एक सैकिंड में दस बच्चे जन्म लेते हों। एक भी महान् आत्मा नहीं होगी ?’’

‘‘तब तो रोज चांद के चारों तरफ घेरा होना चाहिए।’’

‘‘तुम रोज चांद देखती हो ?’’

‘‘नहीं।’’

‘‘फिर तुम क्या जानो ?’’

‘‘पर घेरा मैंने आज पहली बार देखा है।’’

‘‘तो यह कहो न। पहले क्यों नहीं कहा। इसका मतलब हुआ, तुम्हारे बच्चों में एक महान आत्मा जन्म लेगी।’’

‘‘मेरा बच्चा ?’’

‘‘हां, हमारा बच्चा। मेरा और तुम्हारा। देख लेना तुम।’’

‘‘कैसे जानते हो ?’’

‘‘जानता हूं, बस। देखो, जब दो व्यक्ति एक दूसरे से इस तरह प्यार करते हैं—दुनिया से हटकर—जैसे हम, तो वे एक महान् आत्मा को जन्म देते है।’’

‘‘अगर हो।’’

‘‘अगर हो।’’

‘‘और जो न हो ?’’

मैं भी पागल हूं। वहीं तो हैं वे। बच्चा भी। वह भी। चांद पर। नीली रोशनी के घेरे से झांककर उसने मुझे देखा है। जब भी चांद के चारों तरफ घेरा होता है—नीली रोशनी का—वह मुझे याद करता है। एक महान् आत्मा जन्म लेती है। आत्मा तो महान् होती ही है। एक आत्मा जन्म लेती है मेरे अंदर।

चांद के चारों तरफ घेरा नहीं होता।

मैं रोज चांद नहीं देखती। रोज मैं खुले में नहीं जाती। कमरों में बंद शामें चांद के बिना गुजर जाती हैं। वह मुझे रोज याद करता भी होगा तो रोज घेरा न बन पाता होगा। इतना आसान नहीं है न।

आठ साल बीत गये। हमारा बच्चा अब चौथी कक्षा में पढ़ता। अगर होता।

चांद के घेरे के नीचे उसने मेरी कोख में प्रवेश किया था। किया होता...अगर करता।

क्या सिर्फ आठ साल ही बीते हैं, या नौ या दस...या अनगिनत ?

जब चांद के चारों तरफ नीला घेरा होता है तो बस नीला घेरा होता है, और कुछ नहीं। मैं घेरे के अंदर होती हूं। मेरे अंदर एक आत्मा जन्म लेती है।