चित्रकथी / मणिमाला / नैनसुख / सुशोभित

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चित्रकथी
सुशोभित


'चित्रकथी' यानी क्या?

महाराष्ट्र की दक्खिनी तटरेखा यानी कोंकण में मछुआरों का एक गाँव है- पिंगुली। उस गाँव में ठक्कर बंजारों के कोई पचासेक घर हैं। इनके य लोकनाट्य की तीन शैलियाँ प्रचलित हैं, जिनमें से दो कठपुतलियों के लोकप्रिय प्रकार हैं- 'मैरियोनेट' और 'लेदर-पपेट्स'। लेकिन तीसरा स्वरूप अभिनव है और वह इस गाँव के सिवा और कहीं नहीं पाया जाता। यही 'चित्रकथी ' है।

चित्रकथी यानी प्राकृतिक रंगों से काग़ज़ पर बनाए गए चित्रों की एक पोथी, जिनके माध्यम से सूत्रधार कथावाचन करता है। कथा सुनाते समय वह सूत्रधार अपने सामने रखे चित्रों को कथाक्रम के अनुसार बदलते रहता है। ये पोथियाँ बरसों पुरानी और जर्जर हैं, कोई-कोई तो दो-ढाई सौ साल तक पुरानी। साथ में एक छोटी-सी गाना-टोली होती है, जो ताल वग़ैरह देती है। चित्र मुख्यत: पौराणिक कथाओं पर आधारित होते हैं और इनकी उत्पत्ति भवभूति के 'उत्तररामचरितम्' से बताई जाती है। चित्रों में लोहित रंगों का प्राधान्य, 'रेड स्टोन' की सी ओवरटोन्स, जिन्हें कि मनजीत बावा ने 'सूटिंग रेड' कहा है। 'फ़िगर्स' शैलीकृत, जिनमें बहुधा क़लमकारी का बारीक़ काम। चित्रों के माध्यम से सुनाई जाने वाली यह कहानी कहलाई चित्रकथा और कथावाचक कहलाया चित्रकथी। अलबत्ता चित्रकथी परम्परा पिंगुली गाँव में ही चलन में है, लेकिन चित्रकथी शैली के चित्र इधर दक्खन यानी दक्षिणी महाराष्ट्र, आंध्रप्रदेश और कर्नाटक के कलाकारों द्वारा ख़ूब मनोयोग से बनाए जाने लगे हैं।

मिखाइल बाख़्तिन- जिनकी 'पोलिफ़ोनी' की स्थापना मणि कौल के कलाकर्म का आधार रही है- ने परम्परागत और आधुनिक कला में 'पपेटीयरिंग' के द्वैत पर एक रोचक बात कही थी। उन्होंने कहा था कि आधुनिक भावबोध में 'पपेट' एक अवमूल्यित टर्म है और यही कारण है कि आधुनिकता 'ट्रैजिक डॉल' जैसी विषण्ण इमेज रचती है, जबकि परम्परा में 'मैरियोनेट' और 'पपेट्स' के प्रति ऐसी कोई दुर्भावना दूर-दूर तक लक्ष्य नहीं की जा सकती। अलबत्ता, जब मणि कौल पिंगुली गाँव में जाकर यह फ़िल्म बनाते हैं, तो वह ग्रामीणों को किन्हीं अज्ञात नियतियों द्वारा संचालित कठपुतलियों की तरह ही प्रदर्शित करते मालूम होते हैं। फ़िल्म में आप इस परम्परागत कला पर समकाल के दबावों को देख सकते हैं, जिसमें यह नैरेटिव उभरकर सामने आता है कि अब ठक्कर बंजारों को 'चित्रकथी' में वक़्त बर्बाद करने की बजाय बम्बई जाकर कोई ठीक-ठिकाने का काम करना चाहिए। अलबत्ता बम्बई में गाँव-जवार से आए प्रवासी श्रमिकों की क्या गत होती है, इसे मणि कौल ने ही अपनी एक अन्य फ़िल्म ' अराइवल' में बहुत मुस्तैदी से दिखाया है- 'अराइवल' यानी बम्बई के मेट्रोपॉलिटन नर्क में आपकी आमद पर स्वागत है।

बहरहाल, 'चित्रकथी' को हम मणि की चार 'एथनोग्राफ़िकल' डॉक्यूमेंट्री फ़िल्मों की परियोजना की एक कड़ी के रूप में देख सकते हैं। ये फ़िल्में हैं- 'माटी मानस', 'फ़ॉर्म्स एंड डिज़ाइन्स', 'द नोमेड पपेटीयर्स ऑफ़ राजस्थान' और 'चित्रकथी'। इनमें भी 'पपेटीयर्स-चित्रकथी' और 'फ़ॉर्म्स एंड डिज़ाइन्स-माटी मानस' की युति अलग-अलग बनती हैं। 'माटी मानस' जहाँ मुख्यत: मिट्टी शिल्प पर केन्द्रित थी, वहीं ‘फ़ॉर्म्स एंड डिज़ाइन्स' मुख्यतः धातु शिल्प पर, जबकि शेष दोनों फ़िल्में चित्रों और कठपुतलियों के माध्यम से लोक-आख्यान की दो धाराओं का बखान करती हैं। यह दिलचस्प है कि ऐसे दो फ़िल्मों के युग्म हमें मणि के यहाँ बहुतेरे मिलते हैं, मसलन दोस्तोयेव्स्की की रचनाओं पर 'नजर' और 'अहमक़', मोहन राकेश की रचनाओं पर ‘आषाढ़ का एक दिन' और 'उसकी रोटी', हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत पर 'ध्रुपद' और 'सिद्धेश्वरी', लैंडस्केप्स पर 'बिफ़ोर माय आईज़' और 'अ डेज़र्ट ऑफ़ अ थाउजेंड्स लाइन्स' आदि-इत्यादि।

एक स्वतंत्र फ़िल्मकार का दायित्व अभिनव छवियों और कलारूपों का अनुसंधान करना होता है, जिसे कि वर्नर हरज़ोग ने 'एक्सटेटिक ट्रुथ' की संज्ञा दी है। लेकिन यह कलाकर्म एक सीमा के बाद सिनेमैटिक नैरेटिव की सीमा लाँघकर कब 'एथनोग्राफ़ी ' और ‘एंथ्रोपोलॉजी' (लोक-संस्कृति और नृतत्त्व-विज्ञान के अकादमिक अध्ययन की शाखाएँ) में तब्दील हो जाता है, कहना कठिन है! हरज़ोग ने तो अफ्रीका की 'वूडाबे ट्राइब्स' पर भी फ़िल्म बनाई है। मणि कौल बंजारे कथावाचकों की खोज में निकल पड़ते हैं। नतीजा है- अप्रचलित रंगों, ध्वनियों और रूपाकारों से सम्पन्न फ़िल्म आख्यान, जो हमारे कलात्मक दृष्टिकोण को पोसते हैं और हमारे अंदरूनी लैंडस्केप को स्वरबहुल बनाते हैं।