अहमक़ / मणिमाला / नैनसुख / सुशोभित

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अहमक़
सुशोभित


मणि कौल ने फ़्योदोर दोस्तोयेव्स्की की कहानी 'द जेंटल क्रीचर' पर वर्ष 1990 में 'नज़र' बनाई थी, जो कि उनका अंसदिग्ध मास्टरपीस है। यहीं से उन्हें विचार आया कि दोस्तोयेव्स्की पर और काम किया जाना चाहिए। नतीजतन, उन्होंने दोस्तोयेव्स्की के वृहद उपन्यास 'द इडियट' (जिसे हिन्दी में 'बौड़म' शीर्षक से अनूदित किया गया है) पर 'अहमक़' शीर्षक से फ़िल्म बनाई। मणि कौल की सबसे लम्बी फ़िल्म, जिसे वर्ष 1991 में चार भागों में दूरदर्शन पर प्रसारित किया गया था और फिर 1992 में न्यू यॉर्क में दिखाया गया, लेकिन भारत में वह कभी रिलीज़ नहीं हो पाई।

'अहमक़' का मूल विचार 'पोलिफ़ोनी' के प्रति मणि कौल के लगाव से प्रेरित था। मिखाइल बाख़्तिन ने दोस्तोयेव्स्की के कथाकर्म में जिस बहुध्वन्यात्मकता या 'पोलिफ़ोनी' को लक्ष्य किया है, वह मणि को आकृष्ट करती थी और चूँकि मणि ने इससे पहले हमेशा 'मिनिमल' लागत वाली फ़िल्में ही बनाई थीं, जिनमें 'उसकी रोटी', 'दुविधा', 'आषाढ़ का एक दिन' और 'नज़र' जैसे 'चेम्बर ड्रामा' भी शामिल हैं, जो दो या तीन किरदारों तक ही सीमित थे, इसलिए भी एक 'एनसेम्बल' कास्ट को लेकर काम करने के प्रति उनके मन में रुझान जगा। 'अहमक़' मणि कौल की सबसे बड़ी 'एनसेम्बल' कास्ट वाली फ़िल्म है, जिसमें बीसियों किरदार परदे पर नज़र आते हैं। मणि के समूचे सिनेमाई व्याकरण को विचलित कर देने वाला यह पूर्वग्रह था, जिसे आगे चलकर 'नौकर की कमीज़' में उन्होंने अधिक निष्णात तरीक़े से साधा।

'अहमक़' के बारे में बात करते हुए मणि ने एक बार कहा था कि दुनिया अनेक 'स्पेस' में बँट गई है और अनेक 'वर्गों' का निर्माण हो गया है, जिसमें एक वर्ग के लोग अकसर दूसरे वर्ग में पाए नहीं जाते हैं। संगीत-सभाओं में एक विशेष वर्ग के लोग जाते हैं, मेले-ठेलों में एक दूसरे वर्ग के लोग और चकाचौंध भरी पार्टियों में एक तीसरे वर्ग के लोग। दोस्तोयेव्स्की के संबंध में जो बात मणि को सबसे अच्छी लगी थी, वह यही थी कि उनके यहाँ एक 'स्पेस' में अनेक 'स्पेस' उपस्थित हो जाते थे। जैसे 'द इडियट' में ही बहुत ही अराजक तरीक़े से आप सर्वथा भिन्न व्यक्तियों को एक 'हॉरिजॉन्टल स्पेस' में पाते हैं। ये वही चीज़ है, जिसे 'योगवासिष्ठ' में 'सृष्टियाँ' कहकर पुकारा गया है।

'सिद्धेश्वरी' देखने के बाद किसी ने मणि से कहा था कि इस फ़िल्म में 'दुःख के अनेक प्रकार' हैं। यह बात उन्हें बहुत रुची थी। फ़ेलीनी ने अपने सिनेमा में 'अनेकता' के आयामों को जिस निष्णात तरीक़े से साध लिया था, उसे मणि हमेशा ऐषणा की दृष्टि से देखते थे। 'अहमक़' में वह स्वयं उसे साधने का प्रयास करते हैं।

'अहमक़' में शाहरुख़ ख़ान थे, जो उस समय सिनेमा में अपनी जगह बनाने के लिए संघर्ष कर रहे थे और टीवी पर विभिन्न छोटी-मोटी भूमिकाओं में नज़र आते थे। आज यह कल्पना करना भी कठिन लगता है कि मणि कौल और शाहरुख़ ख़ान कभी एक ही 'प्रोजेक्ट' का हिस्सा रहे होंगे। शाहरुख़ के व्यक्तित्व में जो 'विलेनियस स्ट्रीक' है, उसे मणि ने ही सबसे पहले पहचाना था और इस फ़िल्म में उन्हें रोगोजिन की स्याह रंगत वाली भूमिका दी थी। आगे चलकर शाहरुख़ ख़ान ने नायकत्व में 'प्रतिनायकत्व' का समावेश करके हिन्दी सिनेमा की प्रचलित नायक-छवि को हमेशा के लिए बदल देना था। दोस्तोयेव्स्की का रोगोजिन 'अहमक़' में 'रघुजन' बन जाता है। नस्तास्या फ़िलिप्पोव्ना यहाँ 'नस्तास्या मुखोपाध्याय' बन जाती है (यह भूमिका मीता वशिष्ठ ने निभाई थी)। 'प्रिंस मिश्कीन' यहाँ पर 'मिस्क़ीन' बन जाते हैं। और सेंट पीटर्सबर्ग का लैंडस्केप बम्बई के लैंडस्केप में तब्दील हो जाता है। यह एक महत्त्वाकांक्षी परियोजना थी। दोस्तोयेव्स्की का नॉवल बेहद जटिल और बहुस्तरीय है और उसे चार घंटे के किसी फ़िल्म नैरेटिव में बाँधना तक़रीबन नामुमकिन है। अलबत्ता, मणि कौल दोस्तोयेव्स्की के 'पोलिफ़ोनिक' स्पेस को ज़रूर सफलता के साथ पुनसृजित करने में क़ामयाब रहे हैं।