नौकर की कमीज़ / मणिमाला / नैनसुख / सुशोभित

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नौकर की कमीज़
सुशोभित


जबसे मैंने सुना कि मणि कौल 'नौकर की कमीज़' बना रहे हैं तब से मैं डरा हुआ हूँ।

- विष्णु खरे, 'नौकर की कमीज़' देखने से पहले

'नौकर की कमीज़' मणि कौल का असंदिग्ध शाहकार है। मणि का माद्दा चौंकाने वाला है।

- विष्णु खरे, 'नौकर की कमीज़' देखने के बाद

हिन्दी के एक लोकप्रिय उपन्यास पर आधारित मणि कौल की यह फ़िल्म है। एक अर्थ में उनकी सबसे सरल, एकरैखिक, लोकरंजक और जनप्रिय सिद्ध हो सकने वाली फ़िल्म। ‘नज़र', 'सिद्धेश्वरी', 'उसकी रोटी' की अतिशय धीमी गति से ख़ौफ़ खाने वाले दर्शकों के लिए राहत का सामान। जब यह फ़िल्म आई तो कइयों ने आश्चर्य जताया था कि अरे, मणि यह भी कर सकते हैं। इन कइयों में विष्णु खरे भी थे, जो इससे पहले 'सतह से उठता आदमी' की 'भूरि-भूरि भर्त्सना' कर चुके थे। लेकिन 'मान गए उस्ताद' वाले भाव के साथ कालान्तर में उन्होंने 'नौकर की कमीज़' का रिव्यू लिखा। वह दिल खोलकर फ़िल्म की प्रशंसा करते हैं और उसे बीसवीं सदी के आख़िरी दौर की सर्वश्रेष्ठ भारतीय फ़िल्म क़रार देते हैं। यह आश्चर्य भी जताते हैं कि अगर मणि यह कर सकते थे, तो अब तक उन्होंने वैसा किया क्यों नहीं। निश्चित ही इन बातों से मणि का बहुत मनोरंजन हुआ होगा।

बहरहाल, मणि की बुनियादी फ़िल्म-धारणाओं का एक विपर्यस्त पाठ रचने वाली यह फ़िल्म है और अति तो यह है कि इसमें ना केवल एक 'कहानी' है, बल्कि बहुत ही तन्मय भाव के साथ वह कहानी सुनाने में मणि की दिलचस्पी भी जाहिर है। यहाँ पर एक ‘कथावाचक ' मणि हैं, और फ़िल्म-लय, फ़िल्म-रूप और उसके आस्वाद के स्तर पर कितनी खरी, कितनी संतोषप्रद फ़िल्म उन्होंने बनाई है, मजाल है इस किताब पर कोई और वैसी फ़िल्म बना पाता। तब एक समीक्षक ने लिखा था कि 'उसकी रोटी' के बाद पहली बार मणि फिर से अपनी उसी लय में नज़र आए हैं और सिनेमा के माध्यम पर उन्होंने अपनी वैसी ही निष्णात पकड़ फिर से दिखाई है। दुर्भाग्य कि यह मणि की आख़िरी हिन्दी फ़िल्म साबित हुई।

मुझे 1970 का साल याद आता है, जब कलकत्ते में मृणाल सेन के नेतृत्व में बहुत हंगामा बरपा था कि सत्यजित राय कहाँ हैं! बंगाल जल रहा है और सत्यजित 'गोपी गायन बाघा बायन' बना रहे हैं! तब मानो चिढ़कर सत्यजित ने गोदारवादी ग़ैर-बूर्ज्वा शैली में 'प्रतिद्वंद्वी' बनाई थी, मानो कहना चाह रहे हों कि अगर समकालीन सिनेमा के लटकों-झटकों की ही बात हो तो मैं वह भी कर सकता हूँ और तुमसे बेहतर कर सकता हूँ। सत्यजित की 'कलकत्ता-त्रयी' ने तब बंगाल में बहुतों के संशयों का समाधान कर दिया था। मणि कौल की 'नौकर की कमीज़' भी कइयों के संशय-निवारण का उपाय सिद्ध हुई थी। मानो मणि कह रहे हों अगर सामाजिक यथार्थवाद ही बनाना है तो मैं वह भी कर सकता हूँ और तुमसे बेहतर कर सकता हूँ! ] 'नौकर की कमीज़' हिन्दी के लोकप्रिय कवि-कथाकार विनोदकुमार शुक्ल के इसी शीर्षक के उपन्यास पर आधारित है। यह उपन्यास सामाजिक संरचनाओं में चाहे अनचाहे निर्मित हो गए व्यतिक्रमों (हायआर्किज़) पर आधारित है, जिसमें वेतनयाफ़्ता मुलाज़िम को साहबों और बड़े बाबुओं द्वारा नौकर के रूप में देखने के दृष्टिदोष की पड़ताल है। मातहत कर्मचारी किसी दफ़्तर में अपने द्वारा दिए गए श्रम, कौशल और समय के एवज़ में नियोक्ताओं से तनख़्वाह हासिल करता है, लेकिन व्यतिक्रम का पूर्वग्रह उस कर्मचारी को चाकर समझ बैठने की भूल कर बैठता है। इससे अपमानित उस कर्मचारी के भीतर प्रतिकार की अनेक वृत्तियाँ अनेक रूपों में उभरकर सामने आती हैं।

भारतीय निम्न-मध्यवर्गीय जीवन के सहज हास्य और अनंत अभाव, उत्फुल्लताओं और दुश्चिंताओं और मंद्र-आतंक से भरी यह अत्यंत सुंदर फ़िल्म है। हवा में तैरते पत्ते की तरह सहज और निरायास। मणि कौल के व्यापक और विशिष्ट सिनेकर्म का अन्तिम पड़ाव, उसकी पूर्णता का एक प्रसंग। बाद इसके मणि कौल ने और ग्यारह वर्षों तक जीवित रहना था, लेकिन ध्रुपद-संगीत के एक शिक्षक की तरह, फ़िल्मकार की तरह नहीं। वे भारत के श्रेष्ठ फ़िल्मकार के कृतित्व की हानि से भरे पूरे ग्यारह साल थे!