सतह से उठता आदमी / मणिमाला / नैनसुख / सुशोभित
सुशोभित
मणि कौल ने सिद्धेश्वरी देवी के उपशास्त्रीय गायन और उनके जीवन-प्रसंगों को एक फ़िल्म-रूपक में गूँथा, मिट्टी से निर्मित वस्तुओं और शिल्पकृतियों पर एक वृत्तचित्र बनाया, मोहन राकेश, विजयदान देथा और विनोदकुमार शुक्ल की कृतियों पर कथाफ़िल्में बनाईं और ध्रुपद के संगीत-रूप को सिनेमैटिक-नैरेटिव की तरह बरतकर एक डॉक्यूमेंट्री रची, यहाँ तक तो ग़नीमत थी। फ़ज़ीहत तब हुई, जब उन्होंने हिन्दी के मूर्धन्य कवि गजानन माधव मुक्तिबोध पर उसी रूपकात्मक अंदाज़ में फ़िल्म बनाने की 'गुस्ताख़ी' की और उसके बाद वही हुआ, जिसका अनुमान लगाया जा सकता है।
'सतह से उठता आदमी' इन्हीं कारणों से मणि कौल की सबसे चर्चित फ़िल्म बन गई है। एक अर्थ में- संगीत, शिल्प, लैंडस्केप इत्यादि के साथ 'मेटाफ़र ' की तरह सुलूक करना फिर भी बर्दाश्त किया जा सकता है। लेकिन एक कवि, जोकि भाषा के दायरों में गतिमान होता है और इसी कारण ऐतिहासिक मंतव्यों से कीलित है- पर वैसी फ़िल्म बनाना दूसरी बात है। तिस पर भी, हिन्दी का कवि, जोकि मार्क्सवादी दृष्टि से 'प्रतिबद्ध' माना जाता हो। वास्तव में एक 'माक्सर्वादी', 'जनोन्मुख' (ग़नीमत है मुक्तिबोध को 'लोकप्रिय' नहीं कहा गया, अलबत्ता 'चाँद का मुँह टेढ़ा है' के कोई पचासेक संस्करण निकले हैं) कवि पर नए सिनेमा की दृष्टि से फ़िल्म बनाने को ही अस्सी के उस साल में एक ऐसा अपराध समझ लिया गया था, जिसकी कोई माफ़ी नहीं हो सकती थी। विशेष रूप से, विष्णु खरे द्वारा मणि कौल पर किए गए प्रहार निर्मम थे। उन्होंने उनकी इस फ़िल्म को हास्यास्पद, डरावनी, बेतुकी, ‘कलात्मक-कलाबाज़ी', 'विलायत-पलट लच्छेदार ड्राइंग रूमी वाग्विलास', 'चींटी द्वारा शिलालेख पढ़ने की कोशिश' आदि-इत्यादि क़रार दिया था। खरे फ्रांस के कान सहित दुनियाभर के फ़िल्म समारोहों में शरीक़ हो चुके थे और सिनेमा के हर रूप से भलीभाँति परिचित थे। किन्तु मुक्तिबोध पर मणि कौल द्वारा रूपकात्मक-फ़िल्म बनाने के प्रयास के प्रति उन्होंने अधिक सदाशयता नहीं दिखाई थी।
और इसके बावजूद, मुक्तिबोध के 'जीवन-रूपक' पर मणि कौल की यह फ़िल्म एक महत्त्वपूर्ण दस्तावेज़ है और वह मुक्तिबोध के 'फ़ेनोमिना' को कई अमूर्तनों, कथा-प्रसंगों और चाक्षुष-बिम्बों के माध्यम से पकड़ने की कोशिश करती है। यह एक विराट कलात्मक चुनौती थी, मुक्तिबोध पर एक निबंध लिखकर फ़ारिग हो जाने की तुलना में कहीं दुष्कर, कहीं कठिन। और मणि कौल ने उसे भरसक साधने का प्रयास किया है। अलबत्ता मैं सुनिश्चित नहीं हूँ कि स्वयं मुक्तिबोध इस फ़िल्म को किस तरह से लेते। क्या वह इसे उन्हीं 'क्लोज्ड सिस्टम्स' और 'जड़ीभूत सौंदर्याभिरुचि' के उदाहरण की तरह नहीं देखते, जिनकी कि निन्दा वह स्वयं जीवनभर करते रहे थे? हालाँकि मेरा मानना है कि मणि की यह फ़िल्म भारतीय सिने-परम्परा में न्यस्त 'जड़ीभूत-सौंदर्याभिरुचि' का ही सर्वाधिक प्रतिकार करती है।
मणि की फ़िल्म में कोई एक मुक्तिबोध नहीं है, किन्तु मलयाली फ़िल्मों के अभिनेता गोपी द्वारा निभाई गई रमेश की भूमिका को मुक्तिबोध के निकटस्थ माना जा सकता है। मुक्तिबोध के अनेक ऑटोबायोग्राफ़िकल डिटेल्स का निर्वाह उन्होंने निष्णात तरीक़े से किया है। रमेश के अभिन्न मित्र केशव की भूमिका एम. के. रैना ने निभाई है। मुक्तिबोध की पुस्तक 'एक साहित्यिक की डायरी' का पहला प्रसंग 'तीसरा क्षण ' जिस केशव नामक मित्र को सम्बोधित है, यह वही केशव हैं, और फ़िल्म में मणि उस अनूठे गद्य-प्रसंग को यथारूप फ़िल्माने का प्रयास करते हैं। एक साहित्यिक निबंध के फ़िल्मांकन का यह प्रयास ही सिनेमा में अभूतपूर्व है। माधव, रामनारायण इत्यादि कुछ और मित्र भी हैं। एक 'सेमी-अर्बन प्रोविंशियल लैंडस्केप' में धँसे ये तमाम चरित्र उन मनोगत रूढ़ियों का प्रतिनिधित्व करते हैं, जोकि मुक्तिबोध के जीवन, चिंतन और काव्य का अभिन्न अंग रही हैं। मुक्तिबोध कभी भी सरलीकृत अर्थों में 'प्रतिबद्ध' कवि नहीं रहे थे और भय, अंदेशे, व्यामोह, विभ्रम, कुंठा आदि ने मिलकर उनके जटिल, ग्रंथिपूर्ण और विखण्डित व्यक्तित्व का निर्माण किया था।
अपनी महत्वाकांक्षा में अनूठी, अपने प्रसार में व्यापक, अपने व्यवहार में दुर्दम्य कलात्मक और अपने मंतव्यों में सटीक मुक्तिबोध पर मणि की यह फ़िल्म है। जैसे मुक्तिबोध के काव्य में सम्मोहक दृश्यबंध एक के बाद एक सामने आते जाते हैं, वैसे ही सम्मोहक दृश्यबंधों और फ्रेम्स और कम्पोज़िशनों से भरी यह फ़िल्म है, जो साहित्य और सिनेमा के अन्तरसंबंध की भी नए सिरे से पड़ताल करती है, इन अर्थों में कि यह किसी उपन्यास पर आधारिक यथारूप फ़िल्म-आख्यान नहीं बल्कि मुक्तिबोध के समूचे जीवन और चिंतन से चुने गए 'विवेक-रत्नों' और 'विक्षोभ-मणियों' का संकलन है। यह हिन्दी कविता के अदम्य 'ब्रह्मराक्षस' का आह्वान भी है। साहित्य, विशेषकर मुक्तिबोध के अध्येताओं को इसे अवश्य देखना चाहिए।