चित्रलेखा / भगवतीचरण वर्मा / समीक्षा
साभार दैनिक 'संदेशवाहक'
'..और पाप'
महाप्रभु रत्नाम्बर मानो एक गहरी निद्रा से चौंक उठे। बड़ा कठिन प्रश्न है वत्स! पर बड़ा स्वभाविक। यदि तुम पाप को जानना ही चाहते हो, तो तुम्हें संसार में ढूढ़ना पड़ेगा। जीवन में अनुभव की उतनी ही आवश्यकता होती है, जितनी उपासना की। और इस तरह महाप्रभु रत्नाम्बर अपने दोंनो शिष्यों श्वेतांक और विशालदेव को संसार के लहरों की वास्तविक गति में भेजते हैं, जहाँ एक ओर है योगी कुमारगिरि जिसका दावा है कि उसने संसार की समस्त वासनाओं पर विजय पा ली है। और दूसरी तरफ़ है भोगी बीजगुप्त,जिसके चारो तरफ़ भोग-विलास और संसार का सारा वैभव उल्लास है। तो कहाँ होगा पाप का निवास?
विषय ही विष है परंतु विषधर सर्प के लिपटे रहने पर भी चंदन अप्रभावित है। भुजंग भूषण शिव के नीलकंठ हो जाने पर भी उनका अमृत तत्व कम नहीं होता। सर्प शैय्या पर विष्णु विश्राम करें या कान्हा बन नाग के फन पर नृत्य। मनुष्य का जीवन एक सुगंध की खोज है। कस्तूरी मृग की तरह इस सुगंध की खोज में भटकते रहना मनुष्य की नियति है।
श्वेतांक का उस संसार में प्रवेश जहाँ मादकता और उन्माद का उल्लास-विलास है एवं विशाल देव का उस संसार में प्रवेश जहाँ वासना का दमन, संयम और नियम है। श्वेतांक और विशाल देव नितांत भिन्न जीवन की अनुभूतियों से गुजरते हैं.... भिन्न परिस्थितियों में धारणाएं भिन्न होगी या एक। पाप की खोज में भटकते दो समानान्तर जीवन।
दिन के बाद रात,और रात के बाद दिन। सुख के बाद दुःख और दुःख के बाद सुख।संसार परिवर्तनशील है और मनुष्य उसी का एक भाग। तो आख़िर कहाँ मिलेगा पाप का निवास। इसी सवाल का जवाब ढूँढते हुए अद्भुत दर्शन से रूबरू करवाती तर्क और चिंतन पर आधारित विलक्षण उपन्यास है चित्रलेखा। चित्रलेखा समग्र रूप से सम्पूर्ण मानव समाज पर एक प्रहार है जिसके दो चेहरे हैं....
"ये पाप है क्या--ये पुण्य है क्या रीतों पर धर्म की मोहरें हैं हर युग में बदलते धर्मों को कैसे आदर्श बनाओगे"
चित्रलेखा एक ऐसी असाधारण सुंदर नर्तकी है, जिसके सौंदर्य और संयम की चर्चा पाटलिपुत्र के जन समुदाय में हर ओर व्याप्त है। इस असाधारण सुंदर नर्तकी का वैश्यावृत्ति स्वीकार न करना ही स्वयं में असाधारण बात थी। इसका कारण था। जिसका गहरा सम्बन्ध उसके विगत जीवन से था। चित्रलेखा अट्ठारह वर्ष की उम्र में विधवा हो चुकी थी जिसके कारण संयम उसके जीवन की नियति बन गई। परन्तु यह अधिक देर तक टिक न पायी। उसके जीवन में प्रेम का प्रवेश हुआ जिससे उसे पुत्र की प्राप्ति हुई। पर जल्द ही पिता और पुत्र काल के गाल में समा गए। फिर चित्रलेखा को एक नर्तकी के महल में आश्रय मिला। जहाँ नृत्य तथा संगीत-कला में पारंगत होकर भी चित्रलेखा ने संयम के तेज से जनित क्रांति को बनाए रखा। कहानी आगे बढ़ी तत्पश्चात सामन्त बीजगुप्त एवं योगी कुमारगिरि का जीवन में प्रवेश हुआ। प्रेम और वासना की अद्वितीय उपमा और सुंदर व्याख्या के साथ पूरा उपन्यास दर्शन का व्याख्यान प्रस्तुत करता है।
प्रकृति अपूर्ण है। प्रकृति के अपूर्ण होने के कारण ही मनुष्य ने कृत्रिमता की शरण ली...फिर इस अतार्किक संसार में मनुष्य कहाँ पूर्ण हुआ? अपूर्णता को भरने का भटकाव ही जीवन है और इसिलए मन चंचल। मनोकामना की न पूर्णता होती है और न रिक्तता। हमारे संबंध की भी वैसे ही न कोई संज्ञा है और न कोई अंतिम परिणति। श्वेतांक और विशालदेव इन दो शिष्यों के माध्यम से प्रभु रत्नाम्बर का पाप और पुण्य की खोज करना बड़ा ही रोचक है। एक ही गुरू के दो शिष्य होकर भी वह अपने जीवन के अनुभवों के आधार पर पाप और पुण्य की परिभाषा अलग-अलग देते हैं। जिसके उत्तर में रत्नाम्बर उन्हें कहते हैं कि पाप और पुण्य कुछ नहीं। व्यक्ति के जीवन में जिस प्रकार के अनुभव आते हैं, उसको जिस तरह जीवन जीना पडता है उसी के आधार पर वह पाप और पुण्य की परिभाषाएँ करता है। इसीलिए श्वेतांक जीवन के अनुभवों में उतरकर वासना और मदिरा में तृप्त रहने वाले बीजगुप्त को देवता मानता है और संसार की मोहमाया का त्याग करने वाले कुमारगिरी को पापी कहता है। और इधर विशालदेव संसार की धारा में बहते हुए बीजगुप्त को पापी और कुमारगिरी को देवता मानता है। अर्थात संसार की पाठशाला में अनुभव की शिक्षा-प्रणाली के अन्तर्गत परिस्थितियों द्वारा पढ़ाया गया पाठ।
जिस प्रकार से कोई भी निर्णय सौ प्रतिशत सही या सौ प्रतिशत गलत नहीं होता, उसी प्रकार मनुष्य का व्यक्तित्व भी है। किसी भी व्यक्ति में सौ प्रतिशत सारे गुण और किसी व्यक्ति में सौ प्रतिशत सारे अवगुण विद्यमान हों, ऐसा असम्भव है। गुण और अवगुण को दो ध्रुवों पर रखना कोरी मूर्खता है। और यही कारण है कि पाप और पुण्य को एक परिभाषा में बांध पाना किसी भी युग में असम्भव रहा। मनुष्य का व्यक्तित्व परिस्थितियों पर निर्भर करता है। कुछ अंश आनुवंशिकी के जरूर माने जा सकते हैं पर परिस्थितियों का प्रभाव ही व्यक्तित्व निर्माण की मुख्य उपादेयता है। इसी कारण एक ही तथ्य को देखने का हर एक का दृष्टिकोण अलग-अलग होता है। और जब दृष्टिकोण अलग हो तो पाप-पुण्य की दृष्टि भी अलग-अलग ही होगी।
भगवतीचरण वर्मा हिन्दी साहित्यकारों में अग्रणी माने जाते हैं। जिनकी रचनाएं हिन्दी साहित्य की अमूल्य धरोहर है। यह उपन्यास जितना कल प्रासंगिक था, उतना ही आज है और उतना ही आने वाले समय में होगा। 1934 में राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित 200 पन्नों से आच्छादित यह कालजयी उपन्यास मानव हृदय को टटोलता सा दिखाई पड़ता है। मौर्य काल की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को आधार बनाकर कल्पना के आधार पर महत्वपूर्ण रोचक कृति को प्रभावी ढंग से रचा गया है। चरित्र स्वभाविक, कथानक में कसाव, संवाद तीखे, बहस रोचक तथा विषय व्यापक है। कई विचार खंडित होते हैं और कई जन्म लेते हैं। योगी और भोगी की जीवन यात्रा या यूँ कह लें यथार्थ और कल्पना का विहंगम दृश्य। अलग-अलग विचारधाराओं की धुरी पर घूमता हुआ निष्कर्ष तक पहुँचता अद्भुत दर्शन है जो न केवल समूचे साहित्यिक वांग्मय से परिचित कराता है,अपितु भाषा के प्रति सजग लेखक के सहज वाक्य-विन्यास से निर्मित शैली ने गम्भीर विषय को सहज बनाते हुए इस उपन्यास को साहित्य की दुनिया में मील का पत्थर बना दिया है। उन्नाव के सफीपुर में 30 अगस्त 1903 को जन्मे भगवती बाबू कई दशक तक साहित्य जगत में छाए रहे। इस उपन्यास से गुजरना जीवन दर्शन को समझना है...
- इस पुस्तक के लिखने के छः वर्ष बाद 1940 में इस पर आधारित इसी नाम से पहली फिल्म "चित्रलेखा" बनाई गयी जो बहुत सफल रही । दूसरी बाद इस उपन्यास पर आधारित फिल्म 1964 में पुनः बनी और बहुत सफल नहीं रह सकी .