चौथा अध्याय / बयान 11 / चंद्रकांता

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विजयगढ़ के पास भयानक जंगल में नाले के किनारे एक पत्थर की चट्टान पर दो आदमी आपस में धीरे - धीरे बातचीत कर रहे हैं। चांदनी खूब छिटकी हुई है जिसमें इन लोगों की सूरत और पोशाक साफ दिखाई पड़ती है। दोनों आदमियों में से जो दूसरे पत्थर पर बैठे हुए हैं एक की उम्र लगभग चालीस वर्ष की होगी। काला रंग, लंबा कद, काली दाढ़ी, सिर्फ जांघिया और चुस्त कुरता पहने हुए, तीर - कमान और ढाल - तलवार आगे रखे एक घुटना जमीन के साथ लगाए बैठा है। बड़ी - बड़ी काली और कड़ी मोछें ऊपर को चढ़ी हुई हैं, भूरी और खूंखार आंखें चमक रही हैं, चेहरे से बदमाशी और लुटेरापन झलक रहा है। इसका नाम जालिमखां है।

दूसरा शख्स जो उसी के सामने वीरासन में बैठा है उसका नाम आफतखां है। दरम्याना कद, लंबी दाढ़ी, चुस्त पायजामा और कुरता पहने, गंडासा सामने और एक छोटी - सी गठरी बाईं तरफ रखे जालिमखां की बात खूब गौर से सुनता और जवाब देताहै।

जालिमखां - तुम्हारे मिल जाने से बड़ा सहारा हो गया।

आफतखां - इसी तरह मुझको तुम्हारे मिलने से! देखो यह गंडासा, (हाथ में लेकर) इसी से हजारों आदमियों की जानें जाएंगी। मैं सिवाय इसके कोई दूसरा हरबा नहीं रखता। यह जहर से बुझाया हुआ है, जिसे जरा भी इसका जख्म लग जाय फिर उसके बचने की कोई उम्मीद नहीं।

जालिम - बहुत हैरान होने पर तुमसे मुलाकात हुई!

आफत - मुझे तुमसे जरूर मिलना था, इसलिए इश्तिहार चिपका दिए क्योंकि तुम लोगों का कोई ठिकाना तो था नहीं जहां खोजता, लेकिन मुझे यकीन था कि तुम ऐयारी जरूर जानते होगे, इसीलिए ऐयारी बोली में अपना ठिकाना लिख दिया जिससे किसी दूसरे की समझ में न आवे कि कहां बुलाया है!

जालिम - ऐसी ही कुछ थोड़ी - सी ऐयारी सीखी थी, मगर तुम इस फन में ओस्ताद मालूम होते हो, तभी तो बद्रीनाथ को झट गिरफ्तार कर लिया!

आफत - ओस्ताद तो मैं कुछ नहीं, मगर हां बद्रीनाथ जैसे छोकड़े के लिए बहुत हूं।

जालिम - जो चाहो कहो मगर मैंने तुमको अपना ओस्ताद मान लिया, जरा बद्रीनाथ की सूरत तो दिखा दो।

आफत - हां - हां देखो, धाड़ तो उसका गाड़ दिया मगर सिर गठरी में बंधा है, लेकिन हाथ मत लगाना क्योंकि इसको मसाले से तर किया है जिससे कल तक सड़ न जाय।

इतना कह आफतखां ने अपनी बगल वाली गठरी खोली जिसमें बद्रीनाथ का सिर बंधा हुआ था। कपड़ा खून से तर हो रहा था। जितने आदमी उसके साथियों में से उस जगह थे बद्रीनाथ की खोपड़ी देख खुशी के मारे उछलने लगे।

जालिम - यह शख्स बड़ा शैतान था।

आफत - लेकिन मुझसे बच के कहां जाता!

जालिम - मगर ओस्ताद, तुम एक बात बड़ी बेढब कहते हो कि कल बारह बजे रात को महल में चलना होगा।

आफत - बेढब क्या है देखो कैसा तमाशा होता है!

जालिम - मगर ओस्ताद, तुम्हारे इश्तिहार दे देने से उस वक्त वहां बहुत से आदमी इकट्ठे होंगे, कहीं ऐसा न हो कि हम लोग गिरफ्तार हो जाएं?

आफत - ऐसा कौन है जो हम लोगों को गिरफ्तार करे?

जालिम - तो इसमें क्या फायदा है कि अपनी जान जोखिम में डाली जाय, वक्त टाल के क्यों नहीं चलते?

आफत - तुम तो गदहे हो, कुछ खबर भी है कि हमने ऐसा क्यों किया?

जालिम - अब यह तो तुम जानो!

आफत - सुनो मैं बताता हूं। मेरी नीयत यह है कि जहां तक हो सके जल्दी से उन लोगों को मार - पीट सब मामला खतम कर दूं। उस वक्त वहां जितने आदमी मौजूद होंगे सबों को बस तुम मुर्दा ही समझ लो, बिना हाथ - पैर हिलाए सबों का काम तमाम करूं तो सही।

जालिम - भला ओस्ताद, यह कैसे हो सकता है!

आफत - (बटुए में से एक गोला निकालकर और दिखाकर) देखो, इस किस्म के बहुत से गोले मैंने बना रखे हैं जो एक - एक तुम लोगों के हाथ में दे दूंगा। बस वहां पहुंचते ही तुम लोग इन गोलों को उन लोगों के हजूम (भीड़) में फेंक देना जो हम लोगों को गिरफ्तार करने के लिए मौजूद होंगे। गिरते ही ये गोले भारी आवाज देकर फूट जायेंगे और इनमें से बहुत - सा धुआं निकलेगा जिसमें वे लोग छिप जायेंगे, आंखो में धुआ लगते ही अंधो हो जायेंगे और नाक के अंदर जहां गया कि उन लोगों की जान गई, ऐसा जहरीला यह धुआ होगा।

आफतखां की बात सुनकर सब - के - सब मारे खुशी के उछल पड़े। जालिमखां ने कहा, “भला ओस्ताद, एक गोला यहां पटक के दिखाओ, हम लोग भी देख लें तो दिल मजबूत हो जायगा।”

“हां देखो।” यह कह के आफतखां ने वह गोला जमीन पर पटक दिया, साथ ही एक आवाज देकर गोला फट गया और बहुत - सा जहरीला धुआं फैला जिसको देखते ही आफतखां, जालिमखां और उनके साथी लोग जल्दी से हट गए तिस पर भी उन लोगों की आंखें सूज गईं और सिर घूमने लगा। यह देखकर आफतखां ने अपने बटुए में से मरहम की एक डिबिया निकाली और सबों की आंखों में वह मरहम लगाया तथा हाथ में मलकर सुंघाया जिससे उन लोगों की तबीयत कुछ ठिकाने हुई और वे आफतखां की तारीफ करने लगे।

जालिम - वाह ओस्ताद, यह तो तुमने बहुत ही बढ़िया चीज बनाई है!

आफत - क्यों अब तो महल में चलने का हौसला हुआ?

जालिम - शुक्र है उस पाक परवरदिगार का जिसने तुम्हें मिला दिया! जो काम हम साल भर में करते सो तुम एक रोज में कर सकते हो। वाह ओस्ताद वाह, अब तो हम लोग उछलते - कूदते महल में चलेंगे और सबों को दोजख में पहुंचाएंगे। लाओ एक - एक गोला सबों को दे दो।

आफत - अभी क्यों, जब चलने लगेंगे दे देंगे, कल का दिन जो काटना है।

जालिम - अच्छा, लेकिन ओस्ताद, तुमने इतने दिन पीछे का इश्तिहार क्यों दिया? आज का ही दिन अगर मुकर्रर किया होता तो मजा हो जाता।

आफत - हमने समझा कि बद्रीनाथ जरा चालाक है, शायद जल्दी हाथ न लगे इसलिए ऐसा किया मगर यह तो निरा बोदा निकला!

जालिम - अब क्या करना चाहिए?

आफत - इस वक्त तो कुछ नहीं, मगर कल बारह बजे रात को महल में चलने के लिए तैयार रहना चाहिए।

जालिम - इसके कहने की कोई जरूरत नहीं, अब तो हम और तुम साथ ही हैं। जब जो कहोगे करेंगे।

आफत - अच्छा तो आज यहां से टलकर किसी दूसरी जगह आराम करना मुनासिब है। कल देखो खुदा क्या करता है। मैं तो कसम खा चुका हूं कि महल में जाकर बिना सबों का काम तमाम किए एक दाना मुंह में नहीं डालूंगा।

जालिम - ओस्ताद, ऐसा नहीं करना चाहिए, तुम कमजोर हो जाओगे।

आफत - बस चुप रहो, बिना खाये हमारा कुछ नहीं बिगड़ सकता।

इसके बाद वे सब वहां से उठकर एक तरफ को रवाना हो गये।