चौथा खंड (उपसंहार) / धर्मवीर भारती
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चौथा खंड (उपसंहार)
ज़िन्दगी का यन्त्रणा-चक्र एक वृत्त पूरा कर चुका था। सितारे एक क्षितिज से उठकर, आसमान पार कर दूसरे क्षितिज तक पहुँच चुके थे। साल-डेढ़ साल पहले सहसा जिंन्दगी की लहरों में उथल पुथल मच गयी थी और विक्षुब्ध महासागर की तरह भूखी लहरों की बाँहें पसारकर वह किसी को दबोच लेने के लिए हुंकार उठी थी। अपनी भयानक लहरों के शिकंजे में सभी को झकझोरकर, सभी के विश्वासों और भावनाओं की चकनाचूर कर अन्त में सबसे प्यारे, सबसे मासूम और सबसे सुकुमार व्यक्तित्व को निगलकर अब धरातल शान्त हो गया- तूफान थम गया था, बादल खुल गये थे और सितारे फिर आसमान के घोंसलों से भयभीत विहंग-शावकों की तरह झाँक रहे थे। डॉक्टर शुक्ला छुट्टी लेकर प्रयाग चले आये थे। उन्होंने पूजा-पाठ छोड़ दिया था। उन्हें कभी किसी ने गाते हुये नहीं सुना था।अब वह सुबह उठकर लान पर टहलते और एक भजन गाते- ‘‘जागहु री वृषभानु दुलारी....’’ एक पंक्ति के अलावा वह दूसरी पंक्ति नहीं गाते थे। बिनती जो सुन्दर थी, अब केवल खामोश पीड़ा और अवशेष स्मृति की छाया मात्र थी। चन्दर शान्त था, पत्थर हो गया था, लेकिन उसके माथे का तेज बुझ गया था और वह बूढ़ा सो लगने लगा था। और यह सब केवल पन्द्रह दिनों मे। जेठ दशहरे के दिन डॉक्टर साहब बोले - ‘‘चन्दर, आज जाओ , उसके फूल छोड़ आओ, लेकिन देखो , शाम को जाना जब वहाँ भीड़ -भाड़ न हो , अच्छा!’’ और चुपचाप टहलकर गुनगुनाने लगे। शाम को चन्दर चला तो बिनती भी चुपचाप साथ हो ली, न बिनती ने आग्रह किया - न चन्दर ने स्वीकृति दी। दोनों खामोश चल दिये । कार पर चन्दर ने बिनती की गोद में गठरी रख दी। त्रिवेणी पर कार रूक गयी। हलकी चाँदनी मैले कफन की तरह लहरों की लाश पर पड़ी हुयी थी। दिन भर कमाकर मल्लाह थककर सो रहे थे। एक बूढ़ा बैठा चिलम पी रहा था। चुपचाप उसकी नाव पर चन्दर बैठ गया। विनती उसकी बगल में बैठ गयी । दोनो खामोश थे, सिर्फ पतवारों की छप-छप सुन पड़ती थी। मल्लाह ने तख्त के पास नाव बाँध दी और बोला- ‘‘नहा लें बाबू!’’ वह समझता था बाबू सिर्फ घूमने आये हैं। ‘‘जाओ!’’ वह दूर तख्तों की कतार के उस छोर पर जाकर खो गया। फिर दूर -दूर तक फैला संगम.... और सन्नाटा.... चन्दर सिर झुकाये बैठा रहा.....बिनती सिर झुकाये बैठी रही। थोडी देर बाद बिनती सिसक पड़ी। चन्दर ने सिर उठाया और फौलादी हाथों से बिनती का कन्धा झकझोरकर बोला- ‘‘बिनती,यदि रोयी तो यहीं फेंक देंगे उठाकर कम्बख्त, अभागी!’’ बिनती चुप हो गयी। चन्दर चुपचाप बैठा तख्त के नीचे से गुजरती हुई लहरों केा देखता रहा। थोड़ी देर बाद उसने गठरी खोली... फिर रूक गया , शायद फेंकने का साहस नहीं हो रहा था..... बिनती ने पीछे से आकर एक मट्ठी राख उठा ली और अपने आँचल में बाँधने लगी। चन्दर ने चुपचाप राख छीन ली और गुर्राता हुआ बोला- ‘‘बदतमीज कहीं की! ...राख ले जायेगी- अभागी!’’ और झट से कपड़े सहित राख फेंक दी और आग्नेय द्वष्टि से विनती की ओर देखकर फिर सिर झुका लिया। लहरों में राख एक जहरीले पनियाले साँप की तरह लहराती हुई चली जा रही थी।
बिनती चुपचाप सिसक रही थी।
‘‘नहीं चुप होगी!’’ चन्दर ने पागलों की तरह बिनती को ढकेल दिया- बिनती ने बाँस पकड़ लिया और चीख पड़ी। चीख से चन्दर जैसे होश में आ गया। थोड़ी देर चुपचाप रहा फिर झुककर अंजलि में पानी लेकर मुँह धोया और बिनती के आँचल से पोंछकर बहुत मधुर स्वर में बोला-‘‘बिनती, राओ मत! मेरी समझ में नहीं आता कुछ भी! रोओ मत!’’ चन्दर का गला भर आया और आँख में आँसू छलक आये-‘‘चुप हो जाओ, रानी मैं अब इस तरह कभी नहीं करूँगा- उठो! अब हम दोनो केा निभाना है, बिनती!’’ चन्दर ने तख्त पर छीना झपटी में बिखरी हुई राख चुटकी में उठायी और बिनती की माँग में भरकर माँग चूम ली। उसके होठ राख में सन गये। सितारे टूट चुके थे। तूफान खत्म हो चुका था। नाव किनारे पर आकर लग गयी थी - मल्लाह को चुपचाप रूपये देकर बिनती का हाथ थामकर चन्दर ठोस धरती पर उतर पड़ा... मुरदा चाँदनी में दोनो छायाएँ मिलती -जुलती हुई चल दीं। गंगा की लहरों में बहता हुआ राख का साँप टूट-फूटकर बिखर चुका था और नदी फिर उसी तरह बहने लगी थी जैसे कभी कुछ हुआ ही न हो।𧆡