चौथा दृश्य / अंक-3 / संग्राम / प्रेमचंद
स्थान : गंगा तट। बरगद के घने वृक्ष के नीचे तीन-चार आदमी लाठियां और तलवारें लिए बैठे हैं।
समय : दस बजे रात।
एक डाकू : दस बजे और अभी तक लौटी नहीं
दूसरा : तुम उतावले क्यों हो जाते हो, जितनी ही देर में लौटेगी उतना ही सन्नाटा होगा, अभी इक्के-दुक्के रास्ता चल रहा है।
तीसरा : इसके बदन पर कोई पांच हजार के गहने तो होंगे ?
चौथा : सबलसिंह कोई छोटा आदमी नहीं है। उसकी घरवाली बन-ठनकर निकलेगी तो दस हजार से कम का माल नहीं
पहला : यह शिकार आज हाथ आ जाए तो कुछ दिनों चैन से बैठना नसीब हो, रोज-रोज रात-रात भर घात में बैठे रहना अच्छा नहीं लगता। यह सब कुछ करके भी शरीर को आराम न मिला तो बात ही क्या रही।
दूसरा : भाग्य में आराम वदा होता तो यह कुकरम न करने पड़ते। कहीं सेठों की तरह गद्दी-मसनद लगाए बैठे होते । हमें चाहे कोई खजाना ही मिल जाए पर आराम नहीं मिल सकता।
तीसरा : कुकरम क्या हमीं करते हैं, यही कुकरम तो संसार कर रहा है। सेठजी रोजगार के नाम से डाका मारते हैं, अमले घूस के नाम से डाका मारते हैं, वकील मेहनताना के नाम से डाका मारता है। पर उन डकैतों के महल खड़े हैं, हवागाड़ियों पर सैर करते गिरते हैं, पेचवान लगाए मखमली गद्दियों पर पड़े रहते हैं। सब उनका आदर करते हैं, सरकार उन्हें बड़ी-बड़ी पदवियां देती है। हमीं लोगों पर विधाता की निगाह क्यों इतनी कड़ी रहती है?
चौथा डाकू : काम करने का ढ़ग है। वह लोग पढ़े-लिखे हैं इसलिए हमसे चतुर हैं। कुकरम भी करते हैं और मौज भी उड़ाते हैं। वही पत्थर मंदिर में पुजता है और वही नालियों में लगाया जाता है।
पहला : चुप, कोई आ रहा है।
हलधर का प्रवेश। (गाता है)
सात सखी पनघट पर आई कर सोलह सिंगार,
अपना दु: ख रोने लगीं, जो कुछ बदा लिलार।
पहली सखी बोली, सुनो चार बहनो मेरा पिया सराबी है,
कंगन की कौड़ी पास न रखता, दिल का बड़ा नवाबी है।
जो कुछ पाता सभी उड़ाता, घर की अजब खराबी है।
लोटा-थाली गिरवी रख दी, फिरता लिये रिकाबी है।
बात-बात पर आंख बदलता, इतना बड़ा मिजाजी है।
एक हाथ में दोना कुल्हड़, दूजे बोतल गुलाबी है।
पहला डाकू : कौन है ? खड़ा रह।
हलधर : तुम तो ऐसा डपट रहे हो जैसे मैं कोई चोर हूँ। कहो क्या कहते हो ?
दूसरा डाकू : (साथियों से) जवान तो बड़ा गठीला और जीवट का है। (हलधर से) किधर चले ? घर कहां है ?
हलधर : यह सब आल्हा पूछकर क्या करोगे ? अपना मतलब कहो।
तीसरा डाकू : हम पुलिस के आदमी हैं, बिना तलाशी लिए किसी को जाने नहीं देते।
हलधर : (चौकन्ना होकर) यहां क्या धरा है जो तलाशी को धमकाते हो, धन के नाते यही लाठी है और इसे मैं बिना दस-पांच सिर गोड़े दे नहीं सकता।
चौथा डाकू : तुम समझ गए हम लोग कौन हैं, या नहीं ?
हलधर : ऐसा क्या निरा बुद्वू ही समझ लिया है ?
चौथा डाकू : तो गांठ में जो कुछ हो दे दो, नाहक रार क्यों मचाते हो ?
हलधर : तुम भी निरे गंवार हो, चील के घोंसले में मांस ढूंढ़ते हो,
पहला डाकू : यारो, संभलकर, पालकी आ रही है।
चौथा डाकू : बस टूट पड़ो जिसमें कहार भाग खड़े हों।
ज्ञानी की पालकी आती है। चारों डाकू तलवारें लिए कहारों पर जा पड़ते हैं। कहार पालकी पटककर भाग खड़े होते हैं। गुलाबी बरगद की आड़ों में छिप जाती है।
एक डाकू : ठकुराइन, जान की खैर चाहती हो तो सब गहने चुपके से उतार के रख दो। अगर गुल मचाया या चिल्लाई तो हमें जबरदस्ती तुम्हारा मुंह बंद करना पड़ेगा और हम तुम्हारे उसपर हाथ नहीं उठाना चाहते।
दूसरा डाकू : सोचती क्या हो, यहां ठाकुर सबलसिंह नहीं बैठे हैं जो बंदूक लिए आते हों। चटपट उतारो।
तीसरा : (पालकी का परदा उठाकर) यह यों न मानेगी, ठकुराइन है न, हाथ पकड़कर बांध दो, उतार लो सब गहने।
हलधर लपककर उस डाकू पर लाठी चलाता है और वह हाय मारकर बेहोश हो जाता है। तीनों बाकी डाकू उस पर टूट पड़ते हैं। लाठियां चलने लगती हैं।
हलधर : वह मारा, एक और गिरा।
पहला डाकू : भाई, तुम जीते हम हारे, शिकार क्यों भगाए देते हो ? माल में आधा तुम्हारा ।
हलधर : तुम हत्यारे हो, अबला स्त्रियों पर हाथ उठाते हो, मैं अब तुम्हें जीता न छोडूंगा।
डाकू : यार, दस हजार से कम का माल नहीं है। ऐसा अवसर फिर न मिलेगा। थानेदार को सौ-दो सौ रूपये देकर टरका देंगे।बाकी सारा अपना है।
हलधर : (लाठी तानकर) जाते हो या हड्डी तोड़ के रख दूं ?
दोनों डाकू भाग जाते हैं। हलधर कहारों को बुलाता है जो एक मंदिर में छिपे बैठे हैं। पालकी उठती है।
ज्ञानी : भैया, आज तुमने मेरे साथ जो उपकार किया है इसका फल तुम्हें ईश्वर देंगे, लेकिन मेरी इतनी विनती है कि मेरे घर तक चलो।तुम देवता हो, तुम्हारी पूजा करूंगी।
हलधर : रानी जी, यह तुम्हारी भूल है। मैं न देवता हूँ न दैत्य। मैं भी घातक हूँ। पर मैं अबला औरतों का घातक नहीं, हत्यारों ही का घातक हूँ। जो धन के बल से गरीबों को लूटते हैं, उनकी इज्जत बिगाड़ते हैं, उनके घर को भूतों का डेरा बना देते हैं। जाओ, अब से गरीबों पर दया रखना। नालिस, कुड़की, जेहल, यह सब मत होने देना।
नदी की ओर चला जाता है। गाता है।
दूजी सखी बोली सुनो सखियो, मेरा पिया जुआरी है।
रात-रात भर गड़ पर रहता, बिगड़ी दसा हमारी है।
घर और बार दांव पर हारा, अब चोरी की बारी है।
गहने-कपड़े को क्या रोऊँ, पेट की रोटी भारी है।
कौड़ी ओढ़ना कौड़ी बिछौना, कौड़ी सौत हमारी है।
ज्ञानी : (गुलाबी से) आज भगवान ने बचा लिया नहीं तो गहने भी जाते और जान की भी कुशल न थी।
गुलाबी : यह जरूर कोई देवता है, नहीं तो दूसरों के पीछे कौन अपनी जान जोखिम में डालता ?