पाँचवाँ दृश्य / अंक-3 / संग्राम / प्रेमचंद

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स्थान : मधुबन।

समय : नौ बजे रात, बादल घिरा हुआ है, एक वृक्ष के नीचे बाबा चेतनदास मृगछाले पर बैठे हुए हैं। फत्तू, मंगई, हरदास आदि धूनी से जरा हट कर बैठे हैं।

चेतनदास : संसार कपटमय है। किसी प्राणी का विश्वास नहीं जो बड़े ज्ञानी, बड़े त्यागी, धर्मात्मा प्राणी हैं: उनकी चित्तवृत्ति को ध्यान से देखो तो स्वार्थ से भरा पाओगी। तुम्हारा जमींदार धर्मात्मा समझा जाता है, सभी उसके यश कीर्ति की प्रशंसा करते हैं। पर मैं कहता हूँ कि ऐसा अत्याचारी, कपटी, धूर्त, भ्रष्टाचरण मनुष्य संसार में न होगी।

मंगई : बाबा, आप महात्मा हैं, आपकी जबान कौन पकड़े, पर हमारे ठाकुर सचमुच देवता हैं। उनके राज में हमको जितना सुख है उतना कभी नहीं था।

हरदास : जेठी की लगान माफकर दी थी। अब असामियों को भूसे-चारे के लिए बिना ब्याज के रूपये दे रहे हैं।

फत्तू : उनमें और चाहे कोई बुराई हो पर असामियों पर हमेशा परवरस की निगाह रखते हैं।

चेतनदास : यही तो उसकी चतुराई है कि अपना स्वार्थ भी सिद्व कर लेता है और अपकीर्ति भी नहीं होने देता। रूपये से, मीठे वचन से, नम्रता से लोगों को वशीभूत कर लेता है।

मंगई : महाराज, आप उनका स्वभाव नहीं जानते जभी ऐसा कहते हैं। हम तो उन्हें सदा से देखते आते हैं। कभी ऐसी नीयत नहीं देखी कि किसी से एक पैसा बेसी ले लें। कभी किसी तरह की बेगार नहीं ली, और निगाह का तो ऐसा साफ आदमी कहीं देखा ही नहीं

हरदास : कभी किसी पर निगाह नहीं डाली।

चेतनदास : भली प्रकार सोचो, अभी हाल ही में कोई स्त्री यहां से निकल गई है ?

फत्तू : (उत्सुक होकर) हां महाराज, अभी थोड़े ही दिन हुए।

चेतनदास : उसके पति का भी पता नहीं है?

फत्तू : हां महाराज, वह भी गायब है।

चेतनदास : स्त्री परम सुंदरी है ?

फत्तू : हां महाराज, रानी मालूम होती है।

चेतनदास : उसे सबलसिंह ने घर डाल लिया है।

फत्तू : घर डाल लिया है ?

मंगई : झूठ है।

हरदास : विश्वास नहीं आता।

फत्तू : और हलधर कहां है ?

चेतनदास : इधर-उधर मारा-मारा फिरता है। डकैती करने लगा है। मैंने उसे बहुत खोजा पर भेंट नहीं हुई

सलोनी गाती हुई आती है।

मुझे जोगिनी बना के कहां गए रे जोगिया।

फत्तू : सलोनी काकी, इधर आओ ! राजेश्वरी तो सबलसिंह के घर बैठ गई।

सलोनी : चल झूठे, बेचारी को बदनाम करता है।

मंगई : ठाकुर साहब में यह लत है ही नहीं ।

सलोनी : मर्दों की मैं नहीं चलाती, न इनके सुभाव का कुछ पता मिलता है, पर कोई भरी गंगा में राजेश्वरी को कलंक लगाए तो भी मुझे विश्वास न आएगी। वह ऐसी औरत नहीं ।

फत्तू : विश्वास तो मुझे भी नहीं आता, पर यह बाबा जी कह रहे हैं।

सलोनी : आपने आंखों देखा है ?

चेतनदास : नित्य ही देखता हूँ। हां, कोई दूसरा देखना चाहे तो कठिनाई होगी। उसके लिए किराए पर एक मकान लिया गया है, तीन लौंडिया सेवा टहल के लिए हैं, ठाकुर प्रात: काल जाता है और घड़ीभर में वहां से लौट आता है। संध्या समय फिर जाता है और नौ-दस बजे तक रहता है। मैं इसका प्रमाण देता हूँ। मैंने सबलसिंह को समझाया, पर वह इस समय किसी की नहीं सुनता। मैं अपनी आंखों यह अत्याचार नहीं देख सकता। मैं संन्यासी हूँ। मेरा धर्म है कि ऐसे अत्याचारियों का, ऐसे पाखंडियों का संहार करूं। मैं पृथ्वी को ऐसे रंगे हुए सियारों से मुक्त कर देना चाहता हूँ। उसके पास धन का बल है तो हुआ करे। मेरे पास न्याय और धर्म का बल है। इसी बल से मैं उसको परास्त करूंगा। मुझे आशा थी कि तुम लोगों से इस पापी को दंड देने में मुझे यथेष्ट सहायता मिलेगी। मैं समझता था। कि देहातों में आत्माभिमान का अभी अंत नहीं हुआ है, वहां के प्राणी इतने पतित नहीं हुए हैं कि अपने उसपर इतना घोर, पैशाचिक अनर्थ देखकर भी उन्हें उत्तेजना न हो, उनका रक्त न खौलने लगे। पर अब ज्ञात हो रहा है कि सबल ने तुम लोगों को मंत्रमुग्ध कर दिया है। उसके दयाभाव ने तुम्हारे आत्मसम्मान को कुचल डाला है। दया का आघात अत्याचार के आघात से कम प्राणघातक नहीं होता। अत्याचार के आघात से क्रोध उत्पन्न होता है, जी चाहता है मर जायें या मार डालें। पर दया की चोट सिर को नीचा कर देती है, इससे मनुष्य की आत्मा और भी निर्बल हो जाती है, उसके अभिमान का अंत हो जाता है। वह नीच, कुटिल, खुशामदी हो जाता है। मैं तुमसे फिर पूछता हूँ, तुममें कुछ लज्जा का भाव है या नहीं?

एक किसान : महाराज, अगर आपका ही कहना ठीक हो तो हम क्या कर सकते हैं ? ऐसे दयावान पुरूष की बुराई हमसे न होगी। औरत आप ही खराब हो तो कोई क्या करे ?

मंगई : बस, तुमने मेरे मन की बात कही।

हरदास : वह सदा से हमारी परवरिस करते आए हैं। हम आज उनसे बागी कैसे हो जाएं ?

दूसरा किसान : बागी हो भी जाएं तो रहें कहां ? हम तो उनकी मुट्ठी में हैं। जब चाहें हमें पीस डालें। पुस्तैनी अदावत हो जाएगी।

मंगई : अपनी लाज तो ढांकते नहीं बनती, दूसरों की लाज कोई क्या ढांकेगा ?

हरदास : स्वामीजी, आप सन्नासी हैं, आप सब कुछ कर सकते हैं। हम गृहस्थ लोग जमींदारों से बिगाड़ करने लगें तो कहीं ठिकाना न लगे।

मंगई : हां और क्या, आप तो अपने तपोबल से ही जो चाहें कर सकते हैं। अगर आप सराप भी दे दें तो कुकर्मी खड़े-खड़े भस्म हो जाएं ब

सलोनी : जा, चुल्लू-भर पानी में डूब मर कायर कहीं का। हलधर तेरे सगे चाचा का बेटा है। जब तू उसका नहीं तो और किसका होगा? मुंह में कालिख नहीं लगा लेता, उसपर से बातें बनाता है। तुझे तो चूड़ियां पहनकर घर में बैठना चाहिए था।मर्द वह होते हैं जो अपनी आन पर जान दे देते हैं। तू हिजड़ा है। अब जो मुंह खोला तो लूका लगा दूंगी।

मंगई : सुनते हो फत्तू काका, इनकी बातें, जमींदार से बैर बढ़ाना इनकी समझ में दिल्लगी है। हम पुलिस वालों से चाहे न डरें, अमलों से चाहे न डरें, महाजन से चाहे बिगाड़ कर लें, पटवारी से चाहे कहा -सुनी हो जाए, पर जमींदार से मुंह लगना अपने लिए गढ़ा खोदना है। महाजन एक नहीं हजारों हैं, अमले आते-जाते रहते हैं, बहुत करेंगे सता लेंगे, लेकिन जमींदार से तो हमारा जनम-मरन का व्योहार है। उसके हाथ में तो हमारी रोटियां हैं। उससे ऐंठकर कहां जाएंगे ? न काकी, तुम चाहे गालियां दो, चाहे ताने मारो, पर सबलसिंह से हम लड़ाई नहीं ठान सकते।

चेतनदास : (मन में) मनोनीत आशा न पूरी हुई हलधर के कुटुम्बियों में ऐसा कोई न निकला जो आवेग में आकर अपमान का बदला लेने को तैयार हो जाता। सब-के-सब कायर निकले। कोई वीर आत्मा निकल आती जो मेरे रास्ते से इस बाधा को हटा देती, फिर ज्ञानी अपनी हो जाती। यह दोनों उस काम के तो नहीं हैं, पर हिम्मती मालूम होते हैं। बुढ़िया दीन बनी हुई है, पर है पोढ़ी, नहीं तो इतने घमंड से बातें न करती। मियां गांठ का पूरा तो नहीं, पर दिल का दिलेर जान पड़ता है। उत्तेजना में पड़कर अपना सर्वस्व खो सकता है। अगर दोनों से कुछ धन मिल जाए तो सबइंस्पेक्टर को मिलाकर, कुछ मायाजाल से, कुछ लोभ से काबू में कर लूं। कोई मुकदमा खड़ा हो जायेब कुछ न होगा भांडा तो फूलट जाएगी। ज्ञानी उन्हें अबकी भांति देवता तो न समझती रहेगी। (प्रकट) इस पापी को दंड देने का मैंने प्रण कर लिया है। ऐसे कायर व्यक्ति भी होते हैं, यह मुझे ज्ञात न था। हरीच्छा ! अब कोई दूसरी ही युक्ति काम में लानी चाहिए ।

सलोनी : महाराज, मैं दीन-दुखिया हूँ, कुछ कहना छोटा मुंह बड़ी बात है, पर मैं आपकी मदद के लिए हर तरह हाजिर हूँ। मेरी जान भी काम आए तो दे सकती हूँ।

फत्तू : स्वामीजी, मुझसे भी जो हो सकेगा करने को तैयार हूँ। हाथों में तो अब मकदूर नहीं रहा, पर और सब तरह हाजिर हूँ।

चेतनदास : मुझे इस पापी का संहार करने के लिए किसी की मदद की आवश्यकता न होती। मैं अपने योग और तप के बल से एक क्षण में उसे रसातल को भेज सकता हूँ, पर शास्त्रों में ऐसे कामों के लिए योगबल का व्यवहार करना वर्जित है। इसी से विवश हूँ। तुम धन से मेरी कुछ सहायता कर सकते हो ?

सलोनी : (फत्तू की ओर सशंक दृष्टि से ताकते हुए) महाराज, थोड़े-से रूपये धाम करने को रख छोड़े थे।वह आपके भेंट कर दूंगी। यह भी तो पुण्य ही का काम है।

फत्तू : काकी, तेरे पास कुछ रूपये उसपर हों तो मुझे उधर दे दे।

सलोनी : चल, बातें बनाता है। मेरे पास रूपये कहां से आएंगे ? कौन घर के आदमी कमाई कर रहे हैं। चालीस साल बीत गए बाहर से एक पैसा भी घर में नहीं आया।

फत्तू : अच्छा, नहीं देती है मत दे। अपने तीनों सीसम के पेड़ बेच दूंगा।

चेतनदास : अच्छा, तो मैं जाता हूँ विश्राम करने। कल दिन-भर में तुम लोग प्रबंध करके जो कुछ हो सके इस कार्य के निमित्त दे देना। कल संध्या को मैं अपने आश्रम पर चला जाऊँगा।