चौथा दृश्य / एक साम्यहीन साम्यवादी / भुवनेश्वर

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(एक सप्ताह के बाद)

(मि. मिश्रा का वही कमरा, जो अज्ञात यौवना के समान स्वयं अपने परिवर्तन पर चकित है। कार्ल मार्क्स के चित्र की जगह कृष्ण के एक रसीले चित्र ने ले ली है। ड्राफ्टों, रिपोर्टों का स्थान अंग्रेजी के उपन्यासों ने। इस परिवर्तन में यदि तनिक भी अस्वाभाविकता की छाप हो, तो आप मि. मिश्रा को देख लें, जो एक रेशमी सूट को हिन्दुस्तानी ढंग से पहने, बालों में बीच में माँग काढ़े अभी-अभी आ कर बैठे हैं)

मि. मिश्रा: (अंदर की ओर झाँक कर) मि. कपूर! (उत्तर की अपेक्षा न करके) सौलमन कंपनी को लिख दीजिए कि जिस ब्रइक का उन्होंने कल टाइल दिया था, वह आज डिलेवर कर दे।

(इसके पश्चात् 5 मिनट। मि. मिश्रा बैठे-बैठे गुनगुना रहे हैं और उनके ठीक पीछे में मि. कपूर आते हैं)

मि. कपूर: कंपनी के एजेंट आए हैं, आप उन्हें रुपया दे कर कंट्राक्ट साइन करवा लीजिए। कार तो यहीं उनकी सिटी गैरेज में है।

मि. मिश्रा: अच्छा... उसे लिख कर टाइप कीजिए।

(मि. मिश्रा कुछ देर बाद अलस भाव से आ कर कोने की ओर जाते हैं। पर जैसे उन्होंने अपना ही प्रेत देख लिया हो, डर कर पीछे हटते हैं। दूसरे क्षण वह आगे से टूटे हुए सेफ को एक गूढ़ रहस्य के समान देखते हैं। सहसा वह उसमें से एक पुराना अ़खबार का कागज उठा लेते हैं, जिस पर सबल और विश्वासयुक्त टेढ़े-मेढ़े अक्षरों में लिखा है - 'सुंदर'। पीछे पार्वती जुंहाई के चाँद के समान बेल-बूटों की साड़ी पहने एक तश्तरी में कुछ फल लिये मुस्कराती खड़ी है! मिस्टर मिश्रा उसकी ओर मुड़ कर देखते हें। वह उनकी इस विचित्र मुद्रा को देख कर चकित होती है। मि. मिश्रा बाहर बरामदे में जा कर फोन को कान में लगा कर बिला घंटी बजाए कहते हैं)

'हेलो-हेलो! कोतवाली, पुलिस, मि. हिनट!'

(पार्वती उनकी ओर और संसार की ओर विस्मय से देख रही है। दबे पाँव चोर या चोर की छाया के समान मिस्टर मिश्रा के विश्वस्त नौकर का प्रवेश। वह पार्वती की ओर अर्थपूर्ण दृष्टि से देखता है)

नौकर: सुंदर को न जाने क्या हो गया, वह सबेरे तड़के ही चला गया। आपसे कही-सुनी माफ करा गया है।

समाप्त