छठा दृश्य / अंक-2 / संग्राम / प्रेमचंद

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सबलसिंह का भवन। गुलाबी और ज्ञानी फर्श पर बैठी हुई हैं। बाबा चेतनदास गालीचे पर मसनद लगाए लेटे हुए हैं। रात के आठ बजे हैं।

गुलाबी : आज महात्माजी ने बहुत दिनों के बाद दर्शन दिए ।

ज्ञानी : मैंने समझा था। कहीं तीर्थ करने चले गए होंगी।

चेतनदास : माताजी मेरे को अब तीर्थयात्रा से क्या प्रयोजन ? ईश्वर तो मन में है, उसे पर्वतों के शिखर और नदियों के तट पर क्यों खोजूं ? वह घट-घटव्यापी है, वही तुममें है, वही मुझमें है, उसी की अखिल ज्योति है। यह विभिन्नता केवल बहिर्जगत में है, अंतर्जगत में कोई भेद नहीं है। मैं अपनी कुटी में बैठा हुआ ध्यानावस्था में अपने भक्तों से साक्षात् करता रहा हूँ। यह मेरा नित्य का नियम है।

गुलाबी : (ज्ञानी से) महात्माजी अंतरजामी हैं। महाराज, मेरा लड़का मेरे कहने में नहीं है। बहू ने उस पर न जाने कौन-सा मंत्र डाल दिया है कि मेरी बात ही नहीं पूछता। जो कुछ कमाता है वह लाकर बहू के हाथ में देता है, वह चाहे कान पकड़कर उठाए या बैठाए, बोलता ही नहीं। कुछ ऐसा उतजोग कीजिए कि वह मेरे कहने में हो जाए, बहू की ओर से उसका चित्त फिर जाए। बस यही मेरी लालसा है।

चेतनदास : (मुस्कराकर) बेटे को बहू के लिए ही तो पाला पोसा था।अब वह बहू का हो रहा तो तेरे को क्यों ईर्ष्या होती है ?

ज्ञानी : महाराज, वह स्त्री के पीछे इस बेचारी से लड़ने पर तैयार हो जाता है।

चेतनदास : वह कोई बात नहीं है। मैं उसे मोम की भांति जिधर चाहूँ फेर सकता हूँ, केवल इसको मुझ पर श्रद्वा रखनी चाहिए । श्रद्वा, श्रद्वा, श्रद्वा¼ यही अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष की प्राप्ति का मूलमंत्र है। श्रद्वा से ब्रã मिल जाता है। पर श्रद्वा उत्पन्न कैसे हो ? केवल बातों ही से श्रद्वा उत्पन्न नहीं हो सकती। वह कुछ देखना चाहती है। बोलो, क्या दिखाऊँ ? तुम दोनों मन में कोई बात ले लो।मैं अपने योगबल से अभी बतला दूंगा। ज्ञानी देवी, पहले तुम मन में कोई बात लो।

ज्ञानी : ले लिया, महाराज!

चेतनदास : (ध्यान करके) बड़ी दूर चली गई। मोतियों का हार है न ?

ज्ञानी : हां महाराज, यही बात थी।

चेतनदास : गुलाबी, अब तुम कोई बात लो।

गुलाबी : ले ली, महाराज!

चेतनदास : (ध्यान करके, मुस्कराकर) बहू से इतना द्वेष? वह मर

जाए?

गुलाबी : हां, महाराज, यही बात थी। आप सचमुच अंतरजामी हैं।

चेतनदास : कुछ और देखना चाहती हो ? बोलो, क्या वस्तु यहां मंगवाऊँ ? मेवा, मिठाई, हीरे, मोती इन सब वस्तुओं के ढेर लगा सकता हूँ। अमरूद के दिन नहीं हैं, जितना अमरूद चाहो मंगवा दूं। भेजो प्रभूजी, भेजो, तुरत भेजो:

मोतियों का ढेर लगता है।

गुलाबी : आप सिद्व हैं।

ज्ञानी : आपकी चमत्कार-शक्ति को धन्य है!

चेतनदास : और क्या देखना चाहती हो ? कहो, यहां से बैठे-बैठे अंतरध्यान हो जाऊँ और फिर यहीं बैठा हुआ मिलूं। कहो, वहां उस वृक्ष के नीचे तुम्हें नेपथ्य में गाना सुनाऊँ। हां, यही अच्छा है। देवगण तुम्हें गाना सुनाएंगे, पर तुम्हें उनके दर्शन न होंगे।उस वृक्ष के नीचे चली जाओ।

दोनों जाकर पेड़ के नीचे खड़ी हो जाती हैं। गाने की ध्वनि आने लगती है।

बाहिर ढूंढ़न जा मत सजनी,

पिया घर बीच बिराज रहे री।-

गगन महल में सेज बिछी है

अनहद बाजे बाज रहे री।-

अमृत बरसे, बिजली चमके

घुमर-घुमर घन गाज रहे री।-

ज्ञानी : ऐसे महात्माओं के दर्शन दुर्लभ होते हैं।

गुलाबी : पूर्वजन्म में बहुत अच्छे कर्म किए थे।यह उसी का फल है।

ज्ञानी : देवताओं को भी बस में कर लिया है।

गुलाबी : जोगबल की बड़ी महिमा है। मगर देवता बहुत अच्छा नहीं गाते। गला दबाकर गाते हैं क्या ?

ज्ञानी : पगला गई है क्या ! महात्माजी अपनी सिद्वि दिखा रहे हैं कि तुम्हारे लिए देवताओं की संगीत-मंडली खड़ी की है।

गुलाबी : ऐसे महात्मा को राजा साहब धूर्त कहते हैं।

ज्ञानी : बहुत विद्या पढ़ने से आदमी नास्तिक हो जाता है। मेरे मन में तो इनके प्रति भक्ति और श्रद्वा की एक तरंग-सी उठ रही है। कितना देवतुल्य स्वरूप है।

गुलाबी : कुछ भेंट-भांट तो लेंगे नहीं ?

ज्ञानी : अरे राम-राम ! महात्माओं को रूपये-पैसे का क्या मोह?

देखती तो हो कि मोतियों के ढेर सामने लगे हुए हैं, किस चीज की कमी है ?

दोनों कमरे में आती हैं। गाना बंद होता है।

ज्ञानी : अरे ! महात्माजी कहां चले गए?यहां से उठते तो नहीं देखा ।

गुलाबी : उनकी माया कौन जाने ! अंतरध्यान हो गए होंगी।

ज्ञानी : कितनी अलौकिक लीला है!

गुलाबी : अब मरते दम तक इनका दामन न छोडूंगी। इन्हीं के साथ रहूँगी और सेवा-टहल करती रहूँगी।

ज्ञानी : मुझे तो पूरा विश्वास है कि मेरा मनोरथ इन्हीं से पूरा होगी।

सहसा चेतनदास मसनद लगाए बैठे दिखाई देते हैं।

गुलाबी : (चरणों पर गिरकर) धन्य हो महाराज, आपकी लीला अपरम्पार है।

ज्ञानी : (चरणों पर गिरकर) भगवान्, मेरा उद्वार करो।

चेतनदास : कुछ और देखना चाहती है ?

ज्ञानी : महाराज, बहुत देख चुकी। मुझे विश्वास हो गया कि आप मेरा मनोरथ पूरा कर देंगी।

चेतनदास : जो कुछ मैं कहूँ वह करना होगी।

ज्ञानी : सिर के बल करूंगी।

चेतनदास : कोई शंका की तो परिणाम बुरा होगी।

ज्ञानी : (कांपती हुई) अब मुझे कोई शंका नहीं हो सकती। जब आपकी शरण आ गई तो कैसी शंका ?

चेतनदास : (मुस्कराकर) अगर आज्ञा दूं, कुएं में कूद पड़!

ज्ञानी : तुरंत कूद पडूंगी। मुझे विश्वास है कि उससे भी मेरा कल्याण होगी।

चेतनदास : अगर कहूँ, अपने सब आभूषण उतारकर मुझे दे दे तो मन में यह तो न कहेगी, इसीलिए यह जाल फैलाया था।, धूर्त है।

ज्ञानी : (चरणों में गिरकर) महाराज, आप प्राण भी मांगें तो आपकी भेंट करूंगी।

चेतनदास : अच्छा अब जाता हूँ। परीक्षा के लिए तैयार रहना।