पाँचवाँ दृश्य / अंक-2 / संग्राम / प्रेमचंद
स्थान : सबलसिंह का दीवानखाना, खस की टक्रियां लगी हुई, पंखा चल रहा है। सबल शीतलपाटी पर लेटे हुए डेमोक्रेसी नामक ग्रंथ पढ़ रहे हैं, द्वार पर एक दरबान बैठा झपकियां ले रहा है।
समय : दोपहर, मध्यान्ह की प्रचंड धूप।
सबल : हम अभी जनसत्तात्मक राज्य के योग्य नहीं हैं, कदापि नहीं हैं। ऐसे राज्य के लिए सर्वसाधारण में शिक्षा की प्रचुर मात्रा होनी चाहिए । हम अभी उस आदर्श से कोसों दूर हैं। इसके लिए महान स्वार्थ-त्याग की आवश्यकता है। जब तक प्रजा-मात्र स्वार्थ को राष्ट' पर बलिदान करना नहीं सीखती, इसका स्वप्न देखना मन की मिठाई खाना है। अमरीका, प्रांस, दक्षिणी अमरीका आदि देशों ने बड़े समारोह से इसकी व्यवस्था की, पर उनमें से किसी को भी सफलता नहीं हुई वहां अब भी धन और सम्पत्ति वालों के ही हाथों में अधिकार है। प्रजा अपने प्रतिनिधि कितनी ही सावधानी से क्यों न चुने, पर अंत में सत्ता गिने-गिनाए आदमियों के ही हाथों में चली जाती है। सामाजिक और राजनैतिक व्यवस्था ही ऐसी दूषित है कि जनता का अधिकांश मुट्ठी भर आदमियों के वंशवर्ती हो गया है। जनता इतनी निर्बल, इतनी अशक्त है कि इन शक्तिशाली पुरूषों के सामने सिर नहीं उठा सकती। यह व्यवस्था अपवादमय, विनष्टकारी और अत्याचारपूर्ण है। आदर्श व्यवस्था यह है कि सबके अधिकार बराबर हों, कोई जमींदार बनकर, कोई महाजन बनकर जनता पर रोब न जमा सके यह ऊँच-नीच का घृणित भेद उठ जाए। इस सबल?निबल संग्राम में जनता की दशा बिगड़ती चली जाती है। इसका सबसे भयंकर परिणाम यह है कि जनता आत्मसम्मान-विहीन होती जाती है, उसमें प्रलोभनों का प्रतिकार करने, अन्याय का सिर कुचलने की सामर्थ्य नहीं रही। छोटे-छोटे स्वार्थ के लिए बहुधा भयवश कैसे-कैसे अनर्थ हो रहे हैं। (मन में) कितनी यथार्थ बात लिखी है। आज ऐसा कोई असामी नहीं है जिसके घर में मैं अपने दुष्टाचरण का तीर न चला सकूं। मैं कानून के बल से, भय के बल से, प्रलोभन के बल से अपना अभीष्ट पूरा कर सकता हूँ। अपनी शक्ति का ज्ञान हमारे दुस्साहस को, कुभावों को और भी उत्तेजित कर देता है। खैर ! हलधर को जेल गए हुए आज दसवां दिन है, मैं गांव की तरफ नहीं गया। न जाने राजेश्वरी पर क्या गुजर रही है। कौन मुंह लेकर जाऊँ ? अगर कहीं गांव वालों को यह चाल मालूम हो गई होगी तो मैं वहां मुंह भी न दिखा सयंगी। राजेश्वरी को अपनी दशा चाहे कितनी कष्टप्रद जान पड़ती हो, पर उसे हलधर से प्रेम है। हलधर का द्रोही बनकर मैं उसके प्रेम-रस को नहीं पा सकता। क्यों न कल चला जाऊँ, इस उधेड़-बुन में कब तक पड़ा रहूँगी। अगर गांव वालों पर यह रहस्य खुल गया होगा तो मैं विस्मय दिखाकर कह सकता हूँ कि मुझे खबर नहीं है, आज ही पता लगाता हूँ। सब तरह उनकी दिलजोई करनी होगी और हलधर को मुक्त कराना पड़ेगा। सारी बाजी इसी दांव पर निर्भर है। मेरी भी क्या हालत है, पढ़ता हूँ डेमोक्रेसी औरअपने को धोखा देना व्यर्थ है।
यह प्रेम नहीं है, केवल काम-लिप्सा है। प्रेम दुर्लभ वस्तु है, यह उस अधिकार का जो मुझे असामियों पर है, दुरूपयोग मात्र है।
दरबान आता है।
सबल : क्या है ? मैंने कह दिया है इस वक्त मुझे दिक मत किया करो। क्या मुखतार आए हैं ? उन्हें और कोई वक्त ही नहीं मिलता ?
दरबान : जी नहीं, मुखतार नहीं आए हैं। एक औरत है।
सबल : औरत है ? कोई भिखारिन है क्या ? घर में से कुछ लाकर देदो। तुम्हें जरा भी तमीज नहीं है, जरा-सी बात के लिए मुझे दिक किया।
दरबान : हुजूर, भिखारिन नहीं है। अभी फाटक पर एक्के पर से उतरी है। खूब गहने पहने हुई है। कहती है, मुझे राजा साहब से कुछ कहना है।
सबल : (चौंककर) कोई देहातिन होगी। कहां है ?
दरबान : वहीं मौलसरी के नीचे बैठी है।
सबल : समझ गया, ब्राह्मणी है, अपने पति के लिए दवा मांगने आई है। (मन में) वही होगी। दिल कैसा धड़कने लगा। दोपहर का समय है। नौकर-चाकर सब सो रहे होंगे।दरबान को बरफ लाने के लिए बाजार भेज दूं। उसे बगीचे वाले बंगले में ठहराऊँ। (प्रकट) उसे भेज दो और तुम जाकर बाजार से बरफ लेते आओ।
दरबान चला जाता है। राजेश्वरी आती हैं। सबलसिंह तुरंत उठकर उसे बगीचे वाले बंगले में ले जाते हैं।
राजेश्वरी : आप तो टट्टी लगाए आराम कर रहे हैं और मैं जलती हुई धूप में मारी-मारी फिर रही हूँ। गांव की ओर जाना ही छोड़ दिया । सारा शहर भटक चुकी तो मकान का पता मिला।
सबल : क्या कहूँ, मेरी हिमाकत से तुम्हें इतनी तकलीफ हुई, बहुत लज्जित हूँ। कई दिन से आने का इरादा करता था। पर किसी-न-किसी कारण से रूक जाना पड़ता था। बरफ आती होगी, एक गिलास शर्बत पी लो तो यह गरमी दूर हो जाए।
राजेश्वरी : आपकी कृपा है, मैंने बरफ कभी नहीं पी है। आप जानते हैं, मैं यहां क्या करने आई हूँ ?
सबल : दर्शन देने के लिए।
राजेश्वरी : जी नहीं, मैं ऐसी नि: स्वार्थ नहीं हूँ। आई हूँ आपके घर में रहने¼ आपका प्रेम खींच लाया है। जिस रस्सी में बंधी हुई थी वह टूट गई। उनका आज दस-ग्यारह दिन से कुछ पता नहीं है। मालूम होता है कहीं देस-विदेस भाग गए। फिर मैं किसकी होकर रहती। सब छोड़-छाड़कर आपकी सरन आई हूँ, और सदा के लिए। उस ऊजड़ गांव से जी भर गया।
सबल : तुम्हारा घर है, आनंद से रहो, धन्य भाग कि मुझे आज यह अवसर मिला। मैं इतना भाग्यवान हूँ, मुझे इसका विश्वास ही न था।मेरी तो यह हालत हो रही है:
हमारे घर में वह आएं, खुदा की कुदरत है।
कभी हम उनको कभी अपने घर को देखते हैं।
ऐसा बौखला गया हूँ कि कुछ समझ में ही नहीं आता, तुम्हारी कैसे खिदमत करूं।
राजेश्वरी : मुझे इसी बंगले में रहना होगा?
सबल : ऐसा होता तो क्या पूछना था।, पर यहां बखेड़ा है, बदनामी होगी। मैं आज ही शहर में एक अच्छा मकान ठीक कर लूंगा। सब इंतजाम वहीं हो जाएगी।
राजेश्वरी : (प्रेम कटाक्ष से देखकर) प्रेम करते हो और बदनामी से डरते हो, यह कच्चा प्रेम है।
सबल : (झेंपकर) अभी नया रंगरूट हूँ न ?
राजेश्वरी : (सजल नेत्रों से) मैंने अपना सर्वस आपको दे दिया । अब मेरी लाज आपके हाथ है।
सबल : (उसके दोनों हाथ पकड़कर तस्कीन देते हुए) राजेश्वरी, मैं तुम्हारी इस कृपा को कभी न भूलूंगा। मुझे भी आज से अपना सेवक, अपना चाकर, जो चाहे समझो।
राजेश्वरी : (मुस्कराकर) आदमी अपने सेवक की सरन नहीं जाता, अपने स्वामी की सरन आता है। मालूम नहीं आप मेरे मन के भावों को जानते हैं या नहीं, पर ईश्वर ने आपको इतनी विद्या और बुद्वि दी है, आपसे कैसे छिपा रह सकता है। मैं आपके प्रेम, केवल आपके प्रेम के वश होकर आई हूँ। पहली बार जब आपकी निगाह मुझ पर पड़ी तो उसने मुझ पर मंत्र-सा फूंक दिया । मुझे उसमें प्रेम की झलक दिखाई दीब तभी से मैं आपकी हो गई। मुझे भोगविलास की इच्छा नहीं, मैं केवल आपको चाहती हूँ। आप मुझे झोंपड़ी में रखिए, मुझे गजी-गाढ़ा पहनाइए, मुझे उनमें भी सरग का आनंद मिलेगी। बस आपकी प्रेम-दिरिष्ट मुझ पर बनी रहै।
सबल : (गर्व के साथ) मैं जिंदगी-भर तुम्हारा रहूँगा और केवल तुम्हारा। मैंने उच्च कुल में जन्म पाया। घर में किसी चीज की कमी नहीं थी। मेरा पालन-पोषण बड़े लाड़-प्यार से हुआ, जैसा रईसों के लड़कों का होता है। घर में बीसियों युवती महरियां, महराजिनें थीं।उधर नौकर-चाकर भी मेरी कुवृत्तियों को भड़काते रहते थे।मेरे चरित्र-पतन के सभी सामान जमा थे।रईसों के अधिकांश युवक इसी तरह भ्रष्ट हो जाते हैं। पर ईश्वर की मुझ पर कुछ ऐसी दया थी कि लकड़पन ही से मेरी प्रवृत्ति विद्याभ्यास की ओर थी और उसने युवावस्था में भी साथ न छोड़ाब मैं समझने लगा था।, प्रेम कोई वस्तु ही नहीं, केवल कवियों की कल्पना है। मैंने एक-से-एक यौवनवती सुंदरियां देखी हैं, पर कभी मेरा चित्त विचलित नहीं हुआ। तुम्हें देखकर पहली बार मेरी ह्रदयवीणा के तारों में चोट लगी। मैं इसे ईश्वर की इच्छा के सिवाय और क्या कहूँ। तुमने पहली ही निगाह में मुझे प्रेम का प्याला पिला दिया, तब से आज तक उसी नशे में मस्त था। बहुत उपाय किए, कितनी ही खटाइयां खाई पर यह नशा न उतरा। मैं अपने मन के इस रहस्य को अब तक नहीं समझ सका। राजेश्वरी, सच कहता हूँ, मैं तुम्हारी ओर से निराश था।समझता था, अब यह जिंदगी रोते ही कटेगी, पर भाग्य को धन्य है कि आज घर बैठे देवी के दर्शन हो गए और जिस वरदान की आशा थी, वह भी मिल गया।
राजेश्वरी : मैं एक बात कहना चाहती हूँ, पर संकोच के मारे नहीं कह सकती।
सबल : कहो-कहो मुझसे क्या संकोच ! मैं कोई दूसरा थोड़े ही हूँ।
राजेश्वरी : न कहूँगी, लाज आती है।
सबल : तुमने मुझे चिंता में डाल दिया, बिना सुने मुझे चैन न आएगी।
राजेश्वरी : कोई ऐसी बात नहीं है, सुनकर क्या कीजिएगा!
सबल : (राजेश्वरी के दोनों हाथ पकड़कर) बिना कहे न जाने दूंगा, कहना पड़ेगा।
राजेश्वरी : (असमंजस में पड़कर) मैं सोचती हूँ, कहीं आप यह समझें कि जब यह अपने पति की होकर न रही तो मेरी होकर क्या रहेगी। ऐसी चंचल औरत का क्या ठिकाना?
सबल : बस करो राजेश्वरी, अब और कुछ मत कहो, तुमने मुझे इतना नीच समझ लिया। अगर मैं तुम्हें अपना ह्रदय खोलकर दिखा सकता तो तुम्हें मालूम होता कि मैं तुम्हें क्या समझता हूँ। वह घर, उस घर के प्राणी, वह समाज, तुम्हारे योग्य न थे। गुलाब की शोभा बाग में है, घूरे पर नहीं। तुम्हारा वहां रहना उतना अस्वाभाविक था। जितना सुअर के माथे पर सेंदुर का टीका होता है या झोंपड़ी में झाड़। वह जलवायु तुम्हारे सर्वथा। प्रतिकूल थी। हंस मरूभूमि में नहीं रहता। इसी तरह अगर मैं सोचूं, कहीं तुम यह न समझो कि जब यह अपनी विवाहिता स्त्री का न हुआ तो मेरा क्या होगा, तो ?
राजेश्वरी : (गंभीरता से) मुझमें और आप में बड़ा अंतर है।
सबल : यह बातें फिर होंगी, इस वक्त आराम करो, थक गई होगी। पंखा खोले देता हूँ। सामने वाली कोठरी में पानी-वानी सब रखा हुआ है। मैं अभी आता हूँ।