छठा दृश्य / अंक-4 / संग्राम / प्रेमचंद

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स्थान: सबलसिंह का कमरा।

समय: एक बजे रात।

सबल : (ज्ञानी से) अब जाकर सो रहो, रात कम है।

ज्ञानी : आप लेटें, मैं चली जाऊँगी। अभी नींद नहीं आती।

सबल : तुम अपने दिल में मुझे बहुत नीच समझ रही होगी ?

ज्ञानी : मैं आपको अपना इष्टदेव समझती हूँ।

सबल : क्या इतना पतित हो जाने पर भी ?

ज्ञानी : मैली वस्तुओं के मिलने से गंगा का माहात्म्य कम नहीं

होता।

सबल : मैं इस योग्य भी नहीं हूँ कि तुम्हें स्पर्श कर सकूं। पर मेरे ह्रदय में इस समय तुमसे गले मिलने की प्रबल उत्कंठा है। याद ही नहीं आता कि कभी मेरा मन इतना अधीर हुआ हो, जी चाहता है तुम्हें प्रिये कहूँ, आलिंगन करूं पर हिम्मत नहीं पड़ती। अपनी ही आंखों में इतना गिर गया हूँ। (ज्ञानी रोती हुई जाने लगती है, सबल रास्ते में खड़ा हो जाता है।) प्रिये, इतनी निर्दयता न करो। मेरा ह्रदय टुकड़े-टुकड़े हुआ जाता है। (रास्ते से हटकर) जाओ ! मुझे तुम्हें रोकने का कोई अधिकार नहीं है। मैं पतित हूँ, पापी हूँ, दुष्टाचारी हूँ। न जाने क्यों पिछले दिनों की याद आ गई, जब मेरे और तुम्हारे बीच में यह विच्छेद न था।, जब हम-तुम प्रेम-सरोवर के तट पर विहार करते थे, उसकी तरंगों के साथ झूमते थे।वह कैसे आनंद के दिन थे ? अब वह दिन फिर न आएंगी। जाओ, न रोयंगा, पर मुझे बिल्कुल नजरों से न गिरा दिया हो तो प्रेम की चितवन से मेरी तरफ देख लो।मेरा संतप्त ह्रदय उस प्रेम की फुहार से तृप्त हो जाएगी। इतना भी नहीं कर सकतीं ? न सही। मैं तो तुमसे कुछ कहने के योग्य ही नहीं हूँ। तुम्हारे सम्मुख खड़े होते, तुम्हें यह काला मुंह दिखाते, मुझे लज्जा आनी चाहिए थी। पर मेरी आत्मा का पतन हो गया है। हां, तुम्हें मेरी एक बात अवश्य माननी पड़ेगी, उसे मैं जबरदस्ती मनवाऊँगा, जब तक न मानोगी जाने न दूंगा। मुझे एक बार अपने चरणों पर सिर झुकाने दो।

ज्ञानी रोती हुई अंदर के द्वार की तरफ बढ़ती है।

सबल : क्या मैं अब इस योग्य भी नहीं रहा ? हां, मैं अब घृणित प्राणी हूँ, जिसकी आत्मा का अपहरण हो चुका है। पूजी जाने वाली प्रतिमा टूटकर पत्थर का टुकड़ा हो जाती है, उसे किसी खंडहर में फेंक दिया जाता है। मैं वही टूटी हुई प्रतिमा हूँ और इसी योग्य हूँ कि ठुकरा दिया जाऊँ। तुमसे कुछ कहने का, तुम्हारी दया-याचना करने के योग्य मेरा मुंह ही नहीं रहा। जाओ। हम तुम बहुत दिनों तक साथ रहे। अगर मेरे किसी व्यवहार से, किसी शब्द से, किसी आक्षेप से तुम्हें दु: ख हुआ हो तो क्षमा करना। मुझ-सा अभागा संसार में न होगा जो तुम जैसी देवी पाकर उसकी कद्र न कर सका।

ज्ञानी हाथ जोड़कर सजल नेत्रों से ताकती है, कंठ से शब्द नहीं निकलता। सबल तुरंत मेज पर से पिस्तौल उठाकर बाहर निकल जाता है।

ज्ञानी : (मन में) हताश होकर चले गए। मैं तस्कीन दे सकती, उन्हें प्रेम के बंधन से रोक सकती तो शायद न जाते। मैं किस मुंह से कहूँ कि यह अभागिनी पतिता तुम्हारे चरणों का स्पर्श करने योग्य नहीं है। वह समझते हैं, मैं उनका तिरस्कार कर रही हूँ, उनसे घृणा कर रही हूँ। उनके इरादे में अगर कुछ कमजोरी थी तो वह मैंने पूरी कर दी। इस यज्ञ की पूर्णाहुति मुझे करनी पड़ी। हा विधाता, तेरी लीला अपरम्पार है। जिस पुरूष पर इस समय मुझे अपना प्राण अर्पण करना चाहिए था। आज मैं उसकी घातिका हो रही हूँ। हा अर्थलोलुपता ! तूने मेरा सर्वनाश कर दिया । मैंने संतान-लालसा के पीछे कुल को कलंक लगा दिया, कुल को धूल में मिला दिया । पूर्वजन्म में न जाने मैंने कौन-सा पाप किया था। चेतनदास, तुमने मेरी सोने की लंका दहन कर दी। मैंने तुम्हें देवता समझकर तुम्हारी आराधना की थी। तुम राक्षस निकले। जिस रूखार को मैंने बाग समझा था। वह बीहड़ निकला। मैंने कमल का फूलतोड़ने के लिए पैर बढ़ाए थे, दलदल में फंस गई, जहां से अब निकलना दुस्तर है। पतिदेव ने चलते समय मेज पर से कुछ उठाया था।न जाने कौन-सी चीज थी। काली घटा छाई हुई है। हाथ को हाथ नहीं सूझता। वहां कहां गए ? भगवन्, कहां जाऊँ ? किससे पूछूं, क्या करूं ? कैसे उनकी प्राण-रक्षा करूं ? हो न हो राजेश्वरी के पास गए हों ! वहीं इस लीला का अंत होगी। उसके प्रेम में विह्वल हो रहे हैं। अभी उनकी आशा वह लगी हुई है। मृग-तृष्णा है। वह नीच जाति की स्त्री है, पर सती है। अकेली इस अंधेरी रात में वहां कैसे पहुंचूंगी। कुछ भी हो, यहां नहीं रहा जाता। बग्घी पर गई थी। रास्ता कुछ-कुछ याद है। ईश्वर के भरोसे पर चलती हूँ। या तो वहां पहुंच ही जाऊँगी या इसी टोह में प्राण दे दूंगी। एक बार मुझे उनके दर्शन हो जाते तो जीवन सफल हो जाता। मैं उनके चरणों पर प्राण त्याग देती। यही अंतिम लालसा है। दयानिधि, मेरी अभिलाषा पूरी करो। हा, जननी धरती, तुम क्यों मुझे अपनी गोद में नहीं ले लेतीं ! दीपक का ज्वाला-शिखर क्यों मेरे शरीर को भस्म नहीं कर डालता ! यह भयंकर अंधकार क्यों किसी जल-जंतु की भांति मुझे अपने उदर में शरण नहीं देता!

प्रस्थान।