सातवाँ दृश्य / अंक-4 / संग्राम / प्रेमचंद
स्थान: सबलसिंह का मकान।
समय: ढाई बजे रात। सबलसिंह अपने बाग में हौज के किनारे बैठे हुए हैं।
सबल : (मन में) इस जिंदगी पर धिक्कार है। चारों तरफ अंधेरा है, कहीं प्रकाश की झलक तक नहीं सारे मनसूबे, सारे इरादे खाक में मिल गए। अपने जीवन को आदर्श बनाना चाहता था।, अपने कुल को मर्यादा के शिखर पर पहुंचाना चाहता था।, देश और राष्ट' की सेवा करना चाहता था।, समग्र देश में अपनी कीर्ति फैलाना चाहता था।देश को उन्नति के परम स्थान पर देखना चाहता था।उन बड़े-बड़े इरादों का कैसा करूणाजनक अंत हो रहा है। फले-फूले वृक्ष की जड़ में कितनी बेदर्दी से आरा चलाया जा रहा है। कामलोलुप होकर मैंने अपनी जिदंगी तबाह कर दीब मेरी दशा उस मांझी की-सी है जो नाव को बोझने के बाद शराब पी ले और नशे में नाव को भंवर में डाल दे। भाई की हत्या करके भी अभीष्ट न पूरा हुआ। जिसके लिए इस पापकुंड में कूदा, वह भी अब मुझसे घृणा करती है। कितनी घोर निर्दयता है। हाय ! मैं क्या जानता था। कि राजेश्वरी मन में मेरे अनिष्ट का दृढ़ संकल्प करके यहां आई है। मैं क्या जानता था। कि वह मेरे साथ त्रियाचरित्र खेल रही है। एक अमूल्य अनुभव प्राप्त हुआ। स्त्री अपने सतीत्व की रक्षा करने के लिए, अपने अपमान का बदला लेने के लिए, कितना भयंकर रूप धारण कर सकती है। गऊ कितनी सीधी होती है, पर किसी को अपने बछड़े के पास आते देखकर कितनी सतर्क हो जाती है। सती स्त्रियां भी अपने व्रत पर आघात होते देखकर जान पर खेल जाती हैं। कैसी प्रेम में सनी हुई बातें करती थी। जान पड़ता था।, प्रेम के हाथों बिक गई हो, ऐसी सुंदरी, ऐसी सरला, मृदुप्रकृति, ऐसी विनयशीला, ऐसी कोमलह्रदया रमणियां भी छलकौशल में इतनी निपुण हो सकती हैं ! उसकी निठुरता मैं सह सकता था।किंतु ज्ञानी की घृणा नहीं सही जाती, उसकी उपेक्षासूचक दृष्टि के सम्मुख खड़ा नहीं हो सकता। जिस स्त्री का अब तक आराध्य देव था।, जिसकी मुझ पर अखंड भक्ति थी, जिसका सर्वस्व मुझ पर अर्पण था।, वही स्त्री अब मुझे इतना नीच और पतित समझ रही है। ऐसे जीने पर धिक्कार है ! एक बार प्यारे अचल को भी देख लूं। बेटा, तुम्हारे प्रति मेरे दिल में बड़े-बड़े अरमान थे।मैं तुम्हारा चरित्र आर्दश बनाना चाहता था।, पर कोई अरमान न निकला। अब न जाने तुम्हारे उसपर क्या पड़ेगी। ईश्वर तुम्हारी रक्षा करें ! लोग कहते हैं प्राण बड़ी प्रिय वस्तु है। उसे देते
हुए बड़ा कष्ट होता है। मुझे तो जरा भी शंका, जरा भी भय नहीं है। मुझे तो प्राण देना खेल-सा मालूम हो रहा है। वास्तव में जीवन ही खेल है, विधाता का क्रीड़ा-क्षेत्र ! (पिस्तौल निकालकर) हां, दोनों गोलियां हैं, काम हो जाएगी। मेरे मरने की सूचना जब राजेश्वरी को मिलेगी तो एक क्षण के लिए उसे शोक तो होगा ही, चाहे फिर हर्ष हो, आंखों में आंसू भर आएंगी। अभी मुझे पापी, अत्याचारी, विषयी समझ रही है, सब ऐब-ही-ऐब दिखाई दे रहे हैं। मरने पर कुछ तो गुणों की याद आएगी। मेरी कोई बात तो उसके कलेजे में चुटकियां लेगी। इतना तो जरूर ही कहेगी कि उसे मुझसे सच्चा प्रेम था।शहर में मेरी सार्वजनिक सेवाओं की प्रशंसा होगी। लेकिन कहीं यह रहस्य खुल गया तो मेरी सारी कीर्ति पर पानी फिर जाएगी। यह ऐब सारे गुणों को छिपा लेगा, जैसे सफेद चादर पर काला धब्बा, या स्वर्ग सुंदर चित्र पर एक छींटा। बेचारी ज्ञानी तो यह समाचार पाते ही मूच्र्छित होकर फिर पड़ेगी, फिर शायद कभी न सचेत हो, यह उसके लिए वज्राघात होगी। चाहे वह मुझसे कितनी ही घृणा करे, मुझे कितना ही दुरात्मा समझे, पर उसे मुझसे प्रेम है, अटल प्रेम है, वह मेरा अकल्याण नहीं देख सकती। जब से मैंने उसे अपना वृत्तांत सुनाया है, वह कितनी चिंतित, कितनी सशंक हो गई है। प्रेम के सिवा और कोई शक्ति न थी जो उसे राजेश्वरी के घर खींच ले जाती।
हलधर चारदीवारी कूदकर बाग में आता है और धीरे-धीरे इधर-उधर ताकता हुआ सबल के कमरे की तरफ जाता है।
हलधर : (मन में) यहां किसी की आवाज आ रही है। (भाला संभालकर) यहां कौन बैठा हुआ है। अरे ! यह तो सबलसिंह ही है। साफ उसी की आवाज है। इस वक्त यहां बैठा क्या कर रहा है ? अच्छा है यहीं काम तमाम कर दूंगा। कमरे में न जाना पड़ेगा। इसी हौज में फेंक दूंगा। सुनूं क्या कह रहा है।
सबल : बस अब बहुत सोच चुका। मन इस तरह बहाना ढूंढ रहा है। ईश्वर, तुम दया के साफर हो, क्षमा की मूर्ति हो, मुझे क्षमा करना। अपनी दीनवत्सलता से मुझे वंचित न करना। कहां निशाना लगाऊँ ? सिर में लगाने से तुरत अचेत हो जाऊँगी। कुछ न मालूम होगा, प्राण कैसे निकलते हैं। सुनता हूँ प्राण निकलने में कष्ट नहीं होता। बस छाती पर निशाना मारूं।
पिस्तौल का मुंह छाती की तरफ फेरता है। सहसा हलधर भाला फेंककर झपटता है और सबलसिंह के हाथ से पिस्तौल छीन लेता है।
सबल : (अचंभे में) कौन ?
हलधर : मैं हूं हलधर।
सबल : तुम्हारा काम तो मैं ही किए देता था।तुम हत्या से बच जाते। उठा लो पिस्तौल।
हलधर : आपके उसपर मुझे दया आती है।
सबल : मैं पापी हूँ, कपटी हूँ। मेरे ही हाथों तुम्हारा घर सत्यानाश हुआ। मैंने तुम्हारा अपमान किया, तुम्हारी इज्जत लूटी, अपने सगे भाई का वध कराया। मैं दया के योग्य नहीं हूँ।
हलधर : कंचनसिंह को मैंने नहीं मारा।
सबल : (उछलकर) सच कहते हो ?
हलधर : वह आप ही गंगा में कूदने जा रहे थे।मुझे उन पर भी दया आ गई। मैंने समझा था।, आप मेरा सर्वनाश करके भोग-विलास में मस्त हैं। तब मैं आपके खून का प्यासा हो गया था।पर अब देखता हूँ तो आप अपने किए पर लज्जित हैं, पछता रहे हैं, इतने दु: खी हैं कि प्राण तक देने को तैयार हैं। ऐसा आदमी दया के योग्य है। उस पर क्या हाथ उठाऊँ !
सबल : (हलधर के पैरों पर गिरकर) तुमने कंचन की जान बचा ली, इसके लिए मैं मरते दम तक तुम्हारा यश मानूंगा। मैं न जानता था। कि तुम्हारा ह्रदय इतना कोमल और उदार है। तुम पुण्यात्मा हो, देवता हो, मुझे ले चलो।कंचन को देख लूं। हलधर, मेरे पास अगर कुबेर का धन होता तो तुम्हारी भेंट कर देता। तुमने मेरे कुल को सर्वनाश से बचा लिया।
हलधर : मैं सबेरे उन्हें साथ लाऊँगा।
सबल : नहीं, मैं इसी वक्त तुम्हारे साथ चलूंगा। अब सब्र नहीं है।
हलधर : चलिए।
दोनों फाटक खोलकर चले जाते हैं।