छठा दृश्य / अंक-5 / संग्राम / प्रेमचंद

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

स्थान : मधुबन।

समय : सावन का महीना, पूजा-उत्सव, ब्रह्मभोज, राजेश्वरी और सलोनी गांव की अन्य स्त्रियों के साथ गहने-कपड़े पहने पूजा करने जा रही हैं

गीत

जय जगदीश्वरी मात सरस्वती, सरनागत प्रतिपालनहारी।

चंद्रजोत-सा बदन बिराजे, सीस मुकुट माला फलधारी।जय..

बीना बाम अंग में सोहे, सामगीत धुन मधुर पियारी।जय..

श्वेत बसन कमलासन सुन्दर, संग सखी अरू हंस सवारी।जय..

सलोनी : (देवी की पूजा करके राजेश्वरी से) आ, तेरे गले में माला डाल दूं, तेरे माथे पर भी टीका लगा दूं। तू भी हमारी देवी है। मैं जीती रही तो इस गांव में तेरा मन्दिर बनवाकर छोडूंगी।

एक वृद्वा : साक्षात् देवी है। इसके कारन हमारे भाग जाग गए, नहीं तो बेगार भरने और रो-रोकर दिन काटने के सिवा और क्या था।!

सलोनी : (राजेश्वरी से) क्यों बेटी, तूने वह विद्या कहां पढ़ी थी। धन्न है तेरे माई-बाप को, जिनकेके कोख से तूने जन्म लिया। मैं तुझे नित्य कोसती थी, कुल-कलंकिनी कहती थी। क्या जानती थी कि तू वहां सबके भाग संवार रही है।

राजेश्वरी : काकी, मैंने तो कुछ नहीं किया। जो कुछ हुआ ईश्वर की दया से हुआ। ठाकुर सबलसिंह देवता हैं। मैं तो उनसे अपने अपमान का बदला लेने गई थी। मन में ठान लिया था। कि उनके कुल का सर्वनाश करके छोड़ूगी। अगर तुम्हारे भतीजे ने उनकी जान न बचा ली होती तो आज कोई कुल में पानी देने वाला भी न रहता।

सलोनी : ईश्वर की लीला अपार है।

राजेश्वरी : ज्ञानीदेवी ने अपने प्राण देकर हम सभी को उबार लिया। इस शोक ने ठाकुर साहब को विरक्त कर दिया । कोई दूसरा समझता, बला से मर गई, दूसरा ब्याह कर लेंगे, संसार में कौन लड़कियों की कमी है। लेकिन उनके मन में दया और धर्म की जोत चमक रही थी। ग्लानि उत्पन्न हुई कि मैंने इस कुमार्ग पर पैर न रखा होता तो यह देवी क्यों लज्जा और शोक से आत्महत्या करती। उनके मन ने कहा - तुम्हीं हत्यारे हो, तुम्हीं ने इसकी गरदन पर छुरी चलाई है। इसी ग्लानि की दशा में उनको विदित हुआ कि इन सारी विपत्तियों का मूल कारन मेरी सम्पत्ति है। यह न होती तो मेरा मन इतना चंचल न होता। ऐसी सम्पत्ति ही क्यों न त्याग दूं जिससे ऐसे-ऐसे अनर्थ होते हैं। मैं तो बखानूंगी उस दुधमुंहे अचलसिंह को जो ठाकुर साहब के मुंह से बात निकलते ही सब कोठी, महल, बाग-बगीचा त्यागने पर तैयार हो गया। उनके छोटे भाई कंचनसिंह पहले ही से भगवद्-भजन में मग्न रहते थे।उनकी अभिलाषा एक ठाकुरद्वारा और एक धर्मशाला बनवाने की थी। राजभवन खाली हो गया। उसी को धर्मशाला बनायेंगी। घर में सब मिलाकर कोई पचास-साठ हजार नकद रूपये थे।हवागाड़ी, गिटन, घोड़े, लकड़ी के सामान, झाड़-फानूस, पलंग, मसहरी, कालीन, दरी, इन सब चीजों के बेचने से पच्चीस हजार मिल गए, दस हजार के ज्ञानदेवी के गहने थे।वह भी बेच दिए गए। इस तरह सब जोड़कर एक लाख रूपये ठाकुरद्वारा के लिए जमा हो गए। ठाकुरद्वारे के पास ही ज्ञानीदेवी के नाम का एक पक्का तालाब बनेगा। जब कोई लोभ ही न रह गया तो जमींदारी रखकर क्या करते। सब जमीन असामियों के नाम दर्ज कराके तीरथयात्रा करने चले गए।

सलोनी : और अचलसिंह कहां गया? मैं तो उसे देख लेती तो छाती से लगा लेती। लड़का नहीं है, भगवान् का अवतार है।

एक स्त्री : उसके चरन धोकर पीना चाहिए ।

राजेश्वरी : गुरूकुल में पढ़ने चला गया। कोई नौकर भी साथ नहीं लिया। अब अकेले कंचनसिंह रह गए हैं। वह ठाकुरद्वारा बनवा रहे हैं।

सलोनी : अच्छा अब चलो, अभी दस मन की पूरियां बेलनी हैं।

सब स्त्रियां गाती हुई लौटती हैं, लक्ष्मी की स्तुति करती हुई जाती हैं।

फत्तू : चलो, चलो, कड़ाह की तैयारी करो। रात हुई जाती है। हलधर देखो, देर न हो, मैं जाता हूँ मौलूद सरीफ का इंतजाम करने। फरस और सामियाना आ गया।

हलधर : तुम उधर थे, इधर थानेदार आए थे ठाकुर सबलसिंह की खोज में। कहते थे उनके नाम वारंट है। मैंने कह दिया उन्हें जाकर अब स्वर्गधाम में तलाश करो। मगर यह तो आने का बहाना था।असल में आए थे नजर लेने। मैंने कहा , नजर तो देते नहीं, हां हजारों रूपये खैरात हो रहे हैं, तुम्हारा जी चाहे तुम भी ले लो।मैंने तो समझा था। कि यह सुनकर अपना-सा मुंह लेके चला जाएगा लेकिन इस महकमे वालों को हया नहीं होती, तुरन्त हाथ फैला दिए । आखिर मैंने पच्चीस रूपये हाथ पर रख दिए ।

फत्तू : कुछ बोला तो नहीं?

हलधर : बोलता क्या, चुपके से चला गया।

फत्तू : गाने वाले आ गए?

हलधर : हां, चौपाल में बैठे हैं, बुलाता हूँ।

मंगई : (गांव की ओर से आकर) हलधर भैया, सबकी सलाह है कि तुम्हारा विमान सजाकर निकाला जाए, वहां से लौटने पर गाना-बजाना हो,

हरदास : तुम्हारी बदौलत सब कुछ हुआ है, तुम्हारा कुछ तो महातम होना चाहिए ।

हलधर : मैंने कुछ नहीं किया। सब भगवान् की इच्छा है। जरा गाने वालों को बुला लो!

हरदास जाता है।

मंगई : भैया, अब तो जमींदार को मालगुजारी न देनी पड़ेगी?

हलधर : अब तो हम आप ही जमींदार हैं, मालगुजारी सरकार को देंगी।

मंगई : तुमने कागद-पत्तर देख लिये हैं? रजिस्टरी हो गई है?

हलधर : मेरे सामने ही हो गई थी।

हलधर किसी काम से चला जाता है, हरदास गाने वालों को बुला लाता है, वह सब साज मिलाने लगते हैं।

मंगई : (हरदास से) इसमें हलधर का कौन एहसान है? इनका बस होता तो सब अपने ही नाम चढ़वा लेते।

हरदास : एहसान किसी का नहीं है। ईश्वर की जो इच्छा होती है वही होता है। लेकिन यह तो समझ रहे हैं कि मैं ही सबका ठाकुर हूँ। जमीन पर पांव ही नहीं रखते। चंदे के रूपये ले लिये, लेकिन हमसे कोई सलाह तक नहीं लेते। फत्तू और यह दोनों जो जी चाहता है, करते हैं।

मंगई : दोनों खासी रकम बना हुई। दो हजार चंदा उतरा है। खरचा वाजिबी-ही-वाजिबी हो रहा है।

गाना होता है।

जगदीश सकल जगत का तू ही अधार है

भूमि, नीर, अगिन, पवन, सूरज, चंद, शैल, गगन

तेरा किया चौदह भुवन का पसार है।जगदीश...

सुर, नर, पशु, जीव?जंतु, जल, थल, चर है अनंत,

तेरी रचना का नहीं अंत पार है।जगदीश...

करूनानिधि, विश्वभरण, शरणागत, तापहरण,

सत चित सुखरूप सदा निरविकार है।जगदीश...

निरगुन सब गुन-निधान निगमागम करत गान,

सेवक नमन करत बार-बार है। जगदीश

समाप्त।