पाँचवाँ दृश्य / अंक-5 / संग्राम / प्रेमचंद
स्थान : स्वामी चेतनदास की कुटी
समय : रात, चेतनदास गंगा तट पर बैठे हैं।
चेतनदास : (आप-ही-आप) मैं हत्यारा हूँ, पापी हूँ, धूर्त हूँ। मैंने सरल प्राणियों को ठगने के लिए यह भेष बनाया है। मैंने इसीलिए योग की क्रियाएं सीखीं, इसीलिए हिप्नाटिज्म सीखी, मेरा लोग कितना सम्मान, कितनी प्रतिष्ठा करते हैं। पुरूष मुझसे धन मांगते हैं, स्त्रियां मुझसे सन्तान मांगती हैं। मैं ईश्वर नहीं कि सबकी मुरादें पूरी कर सकूं तिस पर भी लोग मेरा पिंड नहीं छोड़ते। मैंने कितने घर तबाह किए, कितनी सती स्त्रियों को जाल में फंसाया, कितने निश्छल पुरूषों को चकमा दिया । यह सब स्वांग केवल सुखभोग के लिए, मुझ पर धिक्कार है ! पहले मेरा जीवन कितना पवित्र था।मेरे आदर्श कितने ऊँचे थे।मैं संसार से विरक्त हो गया। पर स्वार्थी संसार ने मुझे खींच लिया। मेरी इतनी मान-प्रतिष्ठा थी, मैं पाखंडी हो गया, नर से पिशाच हो गया। हां, मैं पिशाच हो गया। हां ! मेरे कुकर्म मुझे चारों ओर से घेरे हुए हैं। उनके स्वरूप कितने भयंकर हैं। वह मुझे निगल जाएंगी। भगवन्, मुझे बचाओ ! वह सब अपने मुंह खोले मेरी ओर लपके चले आते हैं। (आंखें बन्द कर लेते हैं) ज्ञानी ! ईश्वर के लिए मुझे छोड़ दो। कितना विकराल स्वरूप है। तेरे मुख से ज्वाला निकल रही है। तेरी आंखों से आग की लपटें आ रही हैं। मैं जल जाऊँगा। भस्म हो जाऊँगा। तू कैसी सुन्दर थी। कैसी कोमलांगी थी ! तेरा यह रौद्र रूप नहीं, तू वह सती नहीं, वह कमल की-सी आंखें, वह पुष्प के-से कपोल कहां हैं। नहीं, यह मेरे अधर्मो का, मेरे दुष्कर्मो का मूर्तिमान स्वरूप है, मेरे दुष्कर्मो ने यह पैशाचिक रूप धारण किया है। यह मेरे ही पापों की ज्वाला है। क्या मैं अपने ही पापों की आग में जलूंगा? अपने ही बनाए हुए नरक में पडूंगा? (आंखें बंद करके हाथों से हटाने की चेष्टा करके) नहीं, मैं ईश्वर की शपथ खाता हूँ, अब कभी ऐसे कर्म न करूंगा। मुझे प्राणदान दे। आह, कोई विनय नहीं सुनता। ईश्वर, मेरी क्या गति होगी ! मैं इस पिशाचिनी के मुख का ग्रास बना जा रहा हूँ। यह दया-शून्य, ह्दय-शून्य राक्षसी मुझे निगल जाएगी भगवन् ! कहां जाऊँ, कहां भागूं? अरे रे जला.....
दौड़कर नदी में कूद पड़ता है, और एक बार फिर ऊपर आकर नीचे डूब जाता है।